बुधवार, 8 अक्तूबर 2014

लघुकथा के ठहरे जल में हलचल पैदा करती सदी की पहली किताब/बलराम अग्रवाल­­­­­­­­­­­­­­­­­

                                                                      लघुकथा के ठहरे जल में हलचल पैदा करती  सदी की पहली 
                                                                      किताब

शोक भाटिया हिन्दी लघुकथा के वरिष्ठ हस्ताक्षरों में गिने जाते हैं। ‘जंगल में आदमी’ और ‘अंधेरे में आँख’ उनकी लघुकथाओं के संग्रह हैं। ‘पंजाबी की श्रेष्ठ लघुकथाएं’, ‘पेंसठ हिन्दी लघुकथाएं’, ‘निर्वाचित लघुकथाएं’, ‘नींव के नायक’ जैसे बहुचर्चित लघुकथा संकलनों का संपादन उन्होंने किया है। उनके द्वारा लिखित ‘समकालीन हिन्दी लघुकथा’ पुस्तक आठ अध्यायों में विभक्त है औरलघु अनन्त लघुकथा अनन्ताइसका पहला अध्याय है। इस अध्याय में लघुकथा का हिन्दी और हिन्दीतर भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त विश्व पटल पर भी अस्तित्व रेखांकित किया गया है। यह भी बताया गया है कि समकालीन हिन्दी के लगभग हर प्रतिष्ठित कथाकार ने लघुकथा लिखी है। स्तरहीन लघुकथा के बारे में कहा गया है किकई बार अनुभव की अनुपस्थिति में कई अनावश्यक चीजें रचना में आ जाती हैं। जहाँ अनुभव की समृद्धि या परिपक्वता न हो, वहाँ रचना में कई प्रकार के अतिरिक्त प्रयास स्थान बना लेते हैं। कहीं भाषा का ग्लैमर, कहीं आंचलिकता का अनावश्यक सहारा तो कहीं काव्यात्मक उपादानों या सांस्कृतिक प्रतीकों से लघुकथा का पेट भरने का प्रयास रहता है। अत: अनुभव की समृद्धि लघुकथा के लिए भी उतनी ही अनिवार्य है, जितनी किसी भी अन्य विधा के लिए।
      हिन्दी लघुकथा का विकासशीर्षक दूसरे अध्याय में अशोक भाटिया ने लघुकथा को मुख्यत: तीन कालखण्डों में विभक्त किया है। इनमें पहले काल यानी सन् 1900 तक के समय को उन्होंनेआधार-भूमिके अन्तर्गत रखा है और मुख्यत: वेद, पुराण, उपनिषद्, जातक, पंचतंत्र, हितोपदेश आदि प्राचीन ग्रंथों में वर्णित कथाओं, दृष्टांतों आदि की चर्चा की है, लेकिन अति संक्षेप में। सन् 1900 तक के काल की लघुकथा को विवेचना की दृष्टि से उन्होंने महत्वपूर्ण नहीं माना है और दो पृष्ठों में इसे समेट दिया है। समकालीन हिन्दी लघुकथा पर विचार करने के क्रम में उस पर अधिक विचार करने का शायद औचित्य भी नहीं था। 1901 से 2013 यानी पुस्तक लिखे जाने तक के काल को उन्होंने दो भागों में बाँटा है। इनमें पहला कालखण्ड 1901 से 1970 तक तथा दूसरा 1971 से 2013 तक निश्चित किया है। यद्यपि आवश्यकता नहीं थी, फिर भी, प्रथम कालखण्ड की शुरुआत वे भारतेंदु हरिश्चन्द्र और उनके युग की रचनाशीलता के वर्णन से करते हैं। इस कालखण्ड की रचनाओं का विवेचन पुन: दो भागों में बाँटकर किया गया है। इनमें से पहले भाग में 1901 से 1946 तक तथा दूसरे भाग में 1947 से 1970 तक प्रकाशित लघुकथाओं की जानकारी दी गई है। 1971 से 2013 तक के कालखण्ड को पूर्ववर्ती कालखण्डों की तुलना में कुछ अधिक श्रम से लिखा गया है। इस कालखण्ड को उन्होंने लघुकथा कापुनर्स्थापना कालकहना अधिक उपयुक्त माना है।लघुकथाके उन्नयन के बारे में उनका मानना है किसन् 1971-72 के आसपास हिन्दी कहानी साहित्य में एक वैक्यूम बन गया था। अकहानी और उधर अकविता जैसे आंदोलन उतार पर आ चुके थे। इस कालखण्ड के परिवेश ने जनमानस में परिवर्तन की इच्छा को हवा देना शुरू कर दिया था।पुन: 1973-74 को उन्होंनेलघुकथा-विस्फोट के वर्षकहा है। इन वर्षों में कैथल (हरियाणा) से प्रकाशितदीपशिखा’, कहानी लेखन महाविद्यालय (अंबाला छावनी) की पत्रिकातारिका’, ‘साहित्य निर्झर’ (चंडीगढ़) तथामिनीयुग’ (गाजियाबाद) के लघुकथा विशेषांक आए तोसारिका’ (जुलाई व अक्तूबर 1973), ‘स्वदेश दैनिक’ (इंदौर, दीपावली 1973), ‘बम्बार्ड’ (बाँदा, जनवरी 1974), ‘डिक्टेटर’ (ब्यावर, राजस्थान) के लघुकथा बहुल अंक प्रकाशित हुए। 1974 में ही बन्धु कुशावर्ती के प्रयत्न से लघुकथा की सम्पूर्ण पत्रिकालघुकथा चौमासिक’ (सं॰ अश्विनी कुमार द्विवेदी, लखनऊ, उ॰प्र॰) का तथा भगीरथ व रमेश जैन के संपादन में हिन्दी लघुकथा के पहले संकलनगुफाओं से मैदान की ओरका प्रकाशन हुआ। इस दृष्टि से अशोक भाटिया ने 1973 1974 कोहिन्दी लघुकथा के फैलाव की दृष्टि से महत्वपूर्ण वर्षमाना है। तत्पश्चात् 1975 से 1980 तक के वर्षों में देश अनेक तरह की राजनीतिक उथल-पुथल से गुजरा। इस सबका असर लघुकथा-लेखन पर भी पड़ा। इन वर्षों मेंसमग्र’ (1978), ‘कैथल दर्पण’ (1978), ‘युगदाह’ (1978), ‘नवभारत’ (1979), ‘प्रतिबिंब’ (1979), ‘लहर’ (1980) के लघुकथा विशेषांक तथाप्रतिनिधि लघुकथाएँ’ (1976, सं॰ सतीश दुबे-सूर्यकांत नागर),  श्रेष्ठ लघुकथाएँ’ (1977, संपादक शंकर पुणतांबेकर), ‘समांतर लघुकथाएँ’ (1977, सं॰ नरेंद्र मौर्य-नर्मदा प्रसाद उपाध्याय), ‘छोटी बड़ी बातें’ (1978, सं॰ महावीर प्रसाद जैन-जगदीश कश्यप) तथाआठवें दशक की लघुकथाएँ’ (1979, सं॰ सतीश दुबे) सरीखे लघुकथा संकलन प्रकाश में आये। इसी प्रकार 1981 से 2013 तक प्रकाशित लघुकथा-संग्रहों, संकलनों, विशेषांकों का संक्षिप्त परिचय भी इन पृष्ठों में दिया गया है। इस अध्याय में डॉ॰ भाटिया ने दूरदर्शन पर लघुकथा के पहले कार्यक्रम, लघुकथा की वेबसाइट, हिन्दीतर भाषाओं की लघुकथाओं के हिन्दी अनुवाद का पत्रिकाओं में व पुस्तकरूप में प्रकाशन तथा लघुकथाओं के फिल्मांकन विषय पर भी विवेचना प्रस्तुत की है।
      हिन्दी लघुकथा : यथार्थ के आयामशीर्षक को पुस्तक में दो अध्याय दिये गये हैंतीसरा व चौथा। तीसरे अध्याय में समकालीन लघुकथाओं का विवेचन मुख्यत: चार विषयों में बाँटकर किया गया है जिनमें पहला है, शासन और प्रशासन; दूसरा, पारिवारिक दायरे; तीसरा, दलित चेतना का संदर्भ तथा चौथा, सांप्रदायिकता : संकीर्णता और सदाशयता के बिंदु। चौथे अध्याय में समकालीन हिन्दी लघुकथा की विवेचना हेतु यथार्थ के आयाम कोसमाज की परिक्रमानाम दिया है। ड़ॉ॰ भाटिया के अनुसार, इस अध्याय में विवेचन के लिए चुनी गयी सभी लघुकथाएँ समाज के विभिन्न आयामों का चित्रण करती हैं।
पुस्तक काहिन्दी लघुकथा : प्रमुख रचनाकारशीर्षक पाँचवाँ अध्याय लघुकथा-सरोवर के ठहरे जल में कंकड़ फेंकने का काम कर सकता है। इससे लघुकथा बिरादरी की पूरी सतह पर विचलन नजर आ सकता है। पुस्तक के अन्तिम पाँच पृष्ठों पर अशोक भाटिया ने सौ से ऊपर कथाकारों तथा उनकी चार सौ से ऊपर उन लघुकथाओं की सूची दी है जिनका विवेचन उन्होंने इस पुस्तक में जगह-जगह पर किया है; लेकिन आशंका है कि किंचित आत्मकेंन्द्रितता, धैर्यहीन अध्ययनशीलता, इतिहास के पन्नों तक पहुँचने की अधीरता और इस एक आकलन को अन्तिम मान लेने की अबोधता की बदौलत वह सूची भी उक्त पाँचवें खण्ड में उनकी धृष्टता की भेंट चढ़ जायगी; यहाँ तक कि उसके अन्य अध्याय भी। लगता यह भी है कि समकालीन लघुकथा लेखन से जुड़े ज्यादातर कथाकार पुस्तक के इसी अध्याय को खोलकर देखेंगे और पूरी पुस्तक का आकलन कर बैठेंगे। वे लोग जिन्हें उसमें अपना जिक्र ठीक-ठाक नजर आया, संतोष की साँस लेकर बैठ जायेंगे; लेकिन वे, जिन्हें अपना जिक्र उसमें नजर नहीं आयेगा या यथोचित न लगकर आधा-अधूरा लगेगा, बिफरेंगे। समकालीन कथाकारों पर टिप्पणी न करना और करना, दोनों ही काम ठण्डी दिखाई देती राख में हाथ डालकर झुलस जाने का खतरा मोल लेने के समान हैं। कथाकार सुरेश शर्मा ने स्वयं द्वारा संपादित लघुकथा संग्रहकाली माटीके संपादकीय में लिखा था—‘जब भी कोई लघुकथा संकलन मेरे हाथ में आया, उसमें इस क्षेत्र के चार-पाँच लघुकथाकारों की लघुकथाएँ देखकर प्रसन्नता हुई।अपने क्षेत्र के कथाकारों के प्रति ऐसी सदाशयता प्रसंशनीय भी है और अनुकरणीय भी। लेकिन एक अलग किस्म की सदाशयता भी लघुकथा के लेखकों-आलोचकों-हितैषियों में नजर आ रही है। आलोचनापरक आलेख को पूरा पढ़ने की बजाय उसमें वे अपना नाम ढूँढा करते हैं और उसे चस्पाँ न पाकर वे दूसरे, तीसरे, चौथे कथाकार का नाम लेकर आलोचक को गरियाते हैं कि उसने फलाँ-फलाँ को छोड़ने, उचित गरिमा न देने की हिमाकत क्यों और कैसे कर डाली? वस्तुत: गलत प्रयासों का जितना सार्थक जवाब रचनाशीलता से दिया जा सकता है, किसी अन्य तरीके से नही; और गरियाने मात्र से तो कतई नहीं। अशोक भाटिया से इस अध्याय में कुछ चूकें तो हुई हैं और नि:संदेह वे चूकें उनके प्राध्यापकीय अभ्यास की हैं, आलोचकीय दृष्टि की शायद नहीं। इन चूकों के सुधार के बारे में उनके आलोचक को विचार करना चाहिए।
 छठा अध्यायसमकालीन लघुकथा : शिल्प और भाषाहै। इसके अन्तर्गत उन्होंने मुख्यत: लघुकथा-लेखन में निरन्तर बने रहने वाले कुछ कथाकारों की चुनिंदा लघुकथाओं को उनके शीर्षक, कथा-प्रस्तुति के प्रयोग और भाषा के मद्देनजर विवेचित किया है।हिन्दी लघुकथा : कलात्मक उत्कर्ष के आयामशीर्षक सातवें अध्याय में उन्होंने अपनी पसन्द के नौ कथाकारों की एक-एक लघुकथा पर आलोचकीय टिप्पणी दी है। इनमें कुछ अन्य लघुकथाकारों की संख्या बढ़ाई जा सकती थी; क्योंकि उत्कृष्ट लघुकथाएँ अब यथेष्ट संख्या में उपलब्ध हैं। और कुछ नहीं तो उनके नाम ही अन्त में गिना देते।
समकालीन हिन्दी लघुकथा : उपलब्धियाँ और सीमाएँशीर्षक आठवें अध्याय की शुरुआत में वे लिखते हैं—“सन् 1901 से प्रारंभ हुई लघुकथा 1950 ई॰ के आसपास एक करवट लेती हुई दिखाई देती है और 1973 के आसपास आकर एक नया स्वरूप ग्रहण करने की प्रक्रिया में आ जाती है।आधुनिक लघुकथा लेखन का यह एक उल्लेखनीय अध्ययन है। पुस्तक का यह सबसे छोटा अध्याय है, मात्र पाँच पृष्ठीय। इसमें एक स्थान पर वे कहते हैं—“इस बीच लघुकथा को अपना-अपना उपनिवेश बनाने पर भी काफी शक्ति लगाई गई। ऐसे में अगंभीर लेखकों की एक बड़ी जमात उभर आई। उनके लघुकथा-लेखन के पीछे सत्ता और सुविधा के पक्ष प्रमुख थे, पाठक और समाज का स्थान पीछे था।आगे, उन्होंने समकालीन हिन्दी लघुकथा की कुछ सीमाओं को सात बिंदुओं में गिनाया है। इन्हें लघुकथा की नहीं, लघुकथा-लेखकों की सीमाएँ माना जा सकता है। इस अध्याय की सभी नहीं तो बहुत-सी बातों पर लघुकथा-लेखन को उत्कृष्ट बनाने के इच्छुक लेखकों-आलोचकों को विचार अवश्य करना चाहिए।
कुल मिलाकरसमकालीन हिन्दी लघुकथाअपनी सम्पूर्णता में समकालीन लघुकथा की आलोचना और विवेचना की महत्वपूर्ण पुस्तक है। विश्वास है कि यह लघुकथा परिसर में लम्बे समय से पसरे सन्नाटे को तोड़ने में कामयाब होगी और इसकी ज़मीन से कुछ स्वस्थ लघुकथा-विमर्श अवश्य जन्म लेंगे।                                                      1550
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पुस्तकसमकालीन हिन्दी लघुकथा; लेखकडॉ॰ अशोक भाटिया; प्रकाशकहरियाणा ग्रंथ अकादमी, पंचकूला (हरियाणा); प्रथम प्रकाशन2014; मूल्य220/- रुपए; कुल पृष्ठ242
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 -मेल : 2611ableram@gmail.com

शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

क्या लघुकथा अपना सर्वोत्तम समय देख चुकी--उमेश महादोषी



 'अविराम साहित्यिकी' के संपादक डॉ॰ उमेश महादोषी और बलराम अग्रवाल के बीच हुई इस लम्बी बातचीत की पहली किस्त 'लघुकथा-वार्ता' के 21 जून 2014 अंक में तथा दूसरी किस्त 21 अगस्त 2014 अंक में पोस्ट की गई थी। आज प्रस्तुत है उक्त बातचीत की तीसरी किस्त…
चित्र:बलराम अग्रवाल
उमेश महादोषी: नयी पीढ़ी के लघुकथाकार अलग-अलग कुछ अच्छी लघुकथाएं
देते रहे हैं। परन्तु अपने समग्र लघुकथा लेखन से उस तरह प्रभावित कर पाने
में सफल नहीं दिखते, जैसा उन्हें होना चाहिए या फिर जैसा आठवें दशक में
उभरे लघुकथाकार सफल हुए। प्रमुख कारण आप क्या मानते हैं?
बलराम अग्रवाल : यह कमी पुरानी पीढ़ी के भी एक-दो लघुकथाकारों में दिखाई देती है। उनके समग्र लघुकथा लेखन में विषय वैविध्य नदारद है। कोई साम्प्रदायिक दंगो के, कोई राजनेताओं की कथनी-करनी के तो कोई घर-परिवार के दुखांत कथानकों में ही उलझकर रह गया है। इस सब का प्रमुख कारण तो मात्र एक ही है—जीवनानुभवों की सीमा।

उमेश महादोषी: नयी पीढ़ी के अधिकांश लघुकथाकार लघुकथा-लेखन से तो
जुड़े हैं, किन्तु विमर्श और अच्छी लघुकथाओं को रेखांकित करने के अन्य
प्रयासों में कोई सार्थक भूमिका निभाते दिखाई नहीं देते। आप क्या कहेंगे?
बलराम अग्रवाल : लेखन अलग कर्म है और समीक्षण अलग। विमर्श में उतरने के लिए प्रत्येक कथाकार को जिस अध्ययन, गाम्भीर्य और शब्द-कौशल की आवश्यकता होती है, वह धीरे-धीरे ही आता है; एकदम से नहीं।

उमेश महादोषी: क्या आपको नहीं लगता कि आज भी लघुकथा प्रमुखतः
आठवें-नौवें दशक के स्थापित लघुकथाकारों के इर्द-गिर्द ही घूम रही है?
यदि ऐसा है तो इस स्थिति से लघुकथा को निकालने के लिए किस तरह के प्रयास
होने चाहिए? पुरानी और नयी पीढ़ी के लघुकथाकारों की अपनी-अपनी भूमिकाएं
क्या हो सकती हैं?
बलराम अग्रवाल : आठवें-नौंवें दशक के लघुकथाकार उस काल में स्थापित कथाकार नहीं थे; नवोदित थे सब के सब। उन्हें अगर आज स्थापित माना जा रहा है तो उनका लेखकीय श्रम और मेधा ही उसके पीछे हैं। लघुकथा लघुकथाकारों के इर्द-गिर्द घूम रही है, यह कथन ऐसा ही है जैसे कोई यह कहे कि लेखन की बागडोर लेखक के हाथ से खिसककर रचना के हाथ में चली गई है। और अगर आपका तात्पर्य यह है कि स्थापित लघुकथाकार नये कथाकारों को आगे नहीं आने दे रहे तो यह भी सच नहीं है। चैतन्य त्रिवेदी, शोभा रस्तोगी, दीपक मशाल आदि अनेक लोग लघुकथा को नई सदी के पहले दशक की देन माने जा सकते हैं। भूमिका इसमें रचनाशीलता ही निभाती है, गोड-फादरशिप नहीं।
उमेश महादोषी: आपकी बात नि:सन्देह ठीक है। पर मैं किसी अवरोध या गॉड फादरशिप की बात नहीं कर रहा हूँ। मुझे लगता है कि लघुकथा में आप लोगों के बाद की पीढ़ी को जिस तरह और जिस स्तर पर लघुकथा को आगे ले जाने के लिए, विशेषतः समीक्षा-समालोचना की प्रक्रिया में, आगे आना चाहिए था, वह अपेक्षा से बहुत कम है। इस प्रश्न को मैं उठा रहा हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि आज हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनीतिक स्थितियाँ और हालात जैसे हैं, उन्हें कथा क्षेत्र में लघुकथा (और काव्य क्षेत्र में क्षणिका) जैसी विधाओं में नई पीढ़ी के कथाकार कहीं अधिक प्रभावपूर्ण और सार्थक ढंग से अभिव्यक्ति दे सकते हैं, नया चिन्तन और विचार ला सकते हैं। दूसरे कई अन्य विधाओं में देखें तो वहाँ बाद की पीढ़ियों के रचनाकार भी समस्तर पर सक्रिय रहे हैं। क्या कहेंगे?
            बलराम अग्रवाल : लघुकथा लेखकों में सामयिक चिंतन से जुड़ी अभिव्यक्ति देने का संकट तो अक्सर नजर आता है, नि:संदेह; लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है। मुझे लगता है कि …लगता ही नहीं है बल्कि कभी-कभी उसका सामना भी करना पड़ जाता है;  वो यह कि हम आज भी लघुकथा के पारम्परिक रूप-आकार पर ही रूढ़ रवैया अपनाए हुए हैं। इस ‘हम’ में लेखक, पाठक, संपादक, आलोचक सब शामिल हैं। रचना ने ‘हमारे’ पैमाने वाले आकार का अतिक्रमण किया नहीं कि उसे लघुकथा कहने में हमें संकोच होने लगता है। उसने बिम्ब का, प्रतीक का सहारा लिया नहीं कि हम उसे आम पाठक की समझ से बाहर की रचना मानने लगते हैं। ‘आम आदमी के लिए साहित्य’ के नाम पर बड़े से बड़ा आलोचक ऐसा साहित्यिक भोजन चाहने लगा है जो उसके मुँह में जाते ही घुल जाये, जिसे चबाने को लेशमात्र मशक्कत उसे न करनी पड़े। शब्द से जो अर्थ स्वत: फूटता है, उसे रिसीव करने वाले इनके ट्रांसमीटर्स आउट-डेटेड हो चुके हैं। इन्हें अब बस शब्द ही दीखता है, उसका नेपथ्य नहीं। मैं सब की नहीं, अधिकतर की बात कह रहा हूँ। इन अधिकतर के कारण नये कलेवर और सोच की रचनाएँ चर्चा पाने से वंचित रह जाती हैं।

उमेश महादोषी: क्या लघुकथा अपना सर्वोत्तम समय देख चुकी? यदि नहीं,
तो उसके लक्षित समयकी कल्पना आप किस तरह करते हैं? क्या उस समयके
आने की आशा है आपको? वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए क्या आपको लगता है कि
अगले पचास वर्ष के बाद लघुकथा साहित्य में अपनी सार्थक भूमिका के साथ
खड़ी होगी?
बलराम अग्रवाल : उमेश जी, कला व साहित्य के रचनात्मक क्षेत्रों में ‘सर्वोत्तम समय’ वह नहीं होता जिसे सामान्य लोग सर्वोत्तम समय कहते या मानते हैं। इनमें सर्वोत्तम समय वह होता है जब उससे जुड़े लोग पूरी निष्ठा के साथ निष्पक्ष रूप से सृजनात्मक व परिवीक्ष्णात्मक दायित्वों को निभाते हैं। मैं समझता हूँ कि कुछेक अपवादों को छोड़कर अधिकतर समकालीन लघुकथाकारों ने अपने इस दायित्व का निर्वाह किया है और उनमें से कुछ अभी तक भी कर रहे हैं। दूसरी बात यह है कि पूर्व प्रचलित विधाओं के चलते नवीन विधाओं का अपनी जगह बना लेना बहुत आसान कभी भी नहीं रहा। समय लगता है; लेकिन इसके लिए आप कोई निश्चित समय-रेखा नहीं खींच सकते। कारण यह है कि यह मात्र आपकी यानी लेखक और आलोचक की इच्छा पर निर्भर नहीं है। इस बारे में, जिसके बीच जगह बनानी है, उस ‘जन’ को आप दोयम पायदान पर नहीं रख सकते। तीसरी बात यह है कि लघुकथा यदि आज साहित्य में अपनी सार्थक भूमिका के साथ नहीं खड़ी है तो यह निश्चित मानिए कि पचास क्या दस साल बाद भी वह अपनी सार्थक भूमिका में खड़ी दिखाई नहीं देगी। हमें सबसे पहले अपने ‘आज’ को देखना है, भावी समय को नहीं। अगर हम आज समय के साथ नहीं खड़े हैं तो आने वाला समय हमारे साथ क्यों खड़ा होगा?
उमेश महादोषी: आपकी बात बिल्कुल ठीक है। लेकिन यहाँ मेरी जिज्ञासासमयके यथार्थ को दिशा देने में साहित्य (लघुकथा) की भूमिका के सन्दर्भ में है। आपका भी मानना रहा है कि समय कभी अचानक नहीं बदलता, धीरे-धीरे बदलता है। इस बदलाव को पहचानकर भविष्य के लिए साहित्य से मार्गदर्शन की अपेक्षा गलत तो नहीं होगी? यदि आज के कुछ हालात बिना किसी अवरोध के (नकारात्मक बदलावों की प्रकृति की पहचान और अभिव्यक्ति के माध्यम से साहित्य ऐसा अवरोध बन सकता है) चलते हुए पचास वर्ष बाद किसी विस्फोटक स्थिति में बदल जाते हैं, तो क्या हमारा दायित्व यह नहीं होना चाहिए कि हम उसकी कल्पना करें और उसे रोकने के लिए अपनी भूमिका निभायें या निभाने के लिए तैयार रहें? चूंकि अब लघुकथा अपने रूप-स्वरूप और दिशा आदि की स्थापना के प्रयासों से आगे आ रही है, अतः उसकी पिछली सामाजिक भूमिका से अलग एक अनुकूल विधा के रूप में भावी भूमिका को लेकर अधिक अपेक्षा करना क्या उचित नहीं होगा? पिछली पीढ़ी ने हमें जो प्रभावशाली अस्त्र तैयार करके दिया है, अगली पीढ़ी अपने और भावी पीढ़ियों के हित में उसका प्रभावी उपयोग करे, उसकी धार को और तेज करे, क्या ऐसी अपेक्षा नहीं होनी चाहिए?

            बलराम अग्रवाल : उमेशजी, मैं पुन: दोहराऊँगा कि यदि हम ‘आज’ को साध लेते हैं, ‘आज’ के साथ ईमानदार बर्ताव करते हैं तो ‘भावी’ को साधने की चिंता में हमें अधिक घुलना नहीं पड़ेगा। हमें पचास साल बाद वाली विस्फोटक स्थिति की कल्पना में जाने की जरूरत नहीं है; क्योंकि पचास साल बाद वाली समूची स्थिति का पूर्वाभास आज की स्थिति दे रही होती है। उस पूर्वाभास को भी कथाकार लघुकथा की ‘वस्तु’ बना सकता है, बनाना चाहिए; क्योंकि उस रचना में भी कहीं न कहीं ‘आज’ ही अभिव्यक्त हो रहा होगा। हाँ, वर्तमान पीढ़ी के लघुकथाकारों से अपने ‘आज’ को अपनी रचना का सच बनाने की आपकी अपेक्षा का मैं सम्मान करता हूँ क्योंकि इस अपेक्षा के दायरे में कहीं न कहीं स्वयं मैं भी अपने आप को खड़ा देखता हूँ।   
('अविराम साहित्यिकी' अप्रैल-जून 2014 से साभार)

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

कई वरिष्ठ कथाकार लघुकथा लेखन के प्रति अनासक्त क्यों हो गए : उमेश महादोषी



उमेश महादोषी की बलराम अग्रवाल से बातचीत की दूसरी कड़ी 
…गतांक से जार
                                                                    चित्र:बलराम अग्रवाल
उमेश महदोषी: समूचे विमर्श को दलित विमर्शऔर स्त्री विमर्शके इर्द-गिर्द संकुचित कर देने की बात महत्वपूर्ण है, बावजूद कि ये दोनों बड़े मुद्दे हैं। और नि:संदेह इसके पीछे पूँजी और सत्ता की चालाकी खड़ी है। लेकिन इतना मान लेना क्या पर्याप्त होगा? क्या इसमें कहीं साहित्य और साहित्य से जुड़े, लोगों बल्कि तमाम बुद्धिजीवी वर्ग की असफलता समाहित नहीं है? यह वर्ग सत्ता और पूंजी को प्रभावित करने की बजाय उससे क्यों प्रभावित हो जाता है? क्या आप इसे सामयिक चिन्तन के सन्दर्भ में मौलिकता के पथ, जो नई विधाओं की प्रासंगिकता की ओर इंगित करता है, से विचलन नहीं मानेंगे?
बलराम अग्रवाल : पूँजी, सत्ता और अभिजात्य—ये तीनों ही उस शतरंज के माहिर खिलाड़ी हैं जिसमें पैदल, हाथी, घोड़ा, वज़ीर, रानी और राजा नामक मोहरों की जगह आम आदमी को इस्तेमाल किया जाता है। ये कुछ ऐसे तर्क और योजनाएँ लेकर उपस्थित होते हैं कि पूँजीहीन, सत्ताहीन और शक्तिहीन सामाजिक कभी आसानी से तो कभी कुछेक समझौतों के साथ इनके चंगुल में फँस ही जाते हैं। इस कार्य में धनाकांक्षी, पदाकांक्षी और महत्वाकांक्षी लोग इनके सहायक बनते हैं। पूँजी और सत्ता ऐसे लोलुपों को मुख्यत: धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक गलियारों में तलाशती और नियुक्त करती हैं। ये चालाक लोग आम आदमी को चारों ओर से घेरकर ऐसा बिगुल फूँकना शुरू करते हैं कि वह उसी की धुन को समय की धुन मानकर उसकी लय पर झूमने लगता है। जो आदमी इनके बिगुल की लय पर नहीं झूमता उसे ये दकियानूस, प्रतिक्रियावादी, पुनरुत्थानवादी या जो इनके मन में आये वह सिद्ध करके किनारे सरका देते हैं। वक्त का पहिया तो कभी रुकता नहीं है, चलता रहता है। अवसरवादी लोग उसकी अरनियों को पकड़कर लटक जाते हैं। पहिए की गति के साथ अरनि ऊपर आई तो वे ऊपर आ जाते हैं और नीचे गई तो नीचे पहुँच जाते हैं। अवसरवादी आदमी मान-अपमान और मानवीयता-अमानवीयता जैसी भावुकताओं से परे रहता है तथा सब काल में समान बना रहता है।
उमेश महदोषी: आठवें दशक के लघुकथा के कई प्रमुख नायक नवें दशक के बाद  निष्क्रिय होते गये। इसके पीछे आपको कौन-कौन से कारण जिम्मेदार लगते हैं? इन कारणों को आप साहित्य या लघुकथा लेखन से जनित निराशा से सम्बद्ध मानते हैं या फिर इसमें सामाजिक एवं लेखन से इतर अन्य कारकों की कोई भूमिका है?
बलराम अग्रवाल : देखिए, समान ‘वस्तु’ को कुछेक अवान्तर प्रसंगों के सहारे विस्तार देकर कुछ कथाकार कहानी बनाकर प्रस्तुत करने के अभ्यस्त हैं तो कुछ अवांतर प्रसंगों की घुसपैठ को अनावश्यक मानते हैं। सामान्यत: पाठक को भी अवान्तर प्रसंगों में घुसना रोचक नहीं लगता है; लेकिन उसके मनोमस्तिष्क पर कहानी का पारम्परिक प्रारूप इतना हावी है कि अवान्तर प्रसंगों से हटना उसे भयभीत करता है। यह स्थिति किसी समय अंग्रेजी कहानीकारी की रह चुकी है जिनकी रचना (कहानी यानी शॉर्ट स्टोरी) को उपन्यास के पाठकों और समालोचकों द्वारा वर्षों यह कहकर नकारा जाता रहा कि इतने कम शब्दों में जीवन की घटनाओं को व्यक्त नहीं किया जा सकता; और यह कि कहानी लेखन में केवल वे ही महत्वाकांक्षी उतर रहे हैं जो उपन्यास लिखने में अक्षम हैं। ये दोनों ही नकार आखिरकार निराधार भय ही साबित हुए और ‘शॉर्ट स्टोरी’ ने अपनी जगह आम पाठकों के बीच बना ही ली। कथा-लेखन में अक्षम होने संबंधी आरोपों का जो दंश पूर्ववर्ती अंग्रेजी कहानीकारों ने झेला था, वही दंश हिन्दी लघुकथाकार भी झेल रहे हैं। मुझे विश्वास है कि जो सूरज उन्होंने देखा था, वही लघुकथाकार भी अवश्य देखेंगे।
उमेश महादोषी: एक तरफ नवें दशक के बाद कई वरिष्ठ कथाकार लघुकथा लेखन के प्रति अनासक्त हो गए, वहीं अनेक नए लेखक लघुकथा लेखन के प्रति आकर्षित हुए। रचनात्मकता के कारणों और परिस्थितियों के सन्दर्भ में इस परिदृश्य को आप किस तरह देखते हैं?
बलराम अग्रवाल : जब आप ‘सकाम’ लेखन करते हैं तो निश्चय ही आपकी नजर लेखन की बजाय कहीं और टिकी होती है। उस उद्देश्य की प्राप्ति में देरी आप में लेखन के प्रति उकताहट पैदा करती है और आपको वहाँ से हट जाने को विवश कर देती है। लघुकथा के जिन वरिष्ठों की ओर आप लघुकथा-लेखन से अनासक्त या विरक्त होने का संकेत कर रहे हैं उनमें से कुछ ने केवल लघुकथा-लेखन ही छोड़ा है, लेखन नहीं; यानी कि आकांक्षाओं की पूर्ति के उन्होंने अन्यान्य क्षितिज तलाश लिए हैं जहाँ परिणाम तत्काल नहीं तो बहुत जल्द मिलने की उम्मीद हो।
उमेश महादोषी: नयी पीढ़ी के रचनाकारों में लघुकथा लेखन के प्रति आकर्षण को आप कितना वास्तविक और सार्थक मानते हैं? क्या ये रचनाकार लघुकथा में लेखन का कोई विजनदेते दिखाई देते हैं?
बलराम अग्रवाल : नयी पीढ़ी के रचनाकारों में लघुकथा लेखन के प्रति आकर्षण पर शक करने का कोई कारण मुझे नजर नहीं आता है। अगर कोई कथाकार सार्थक लघुकथाएँ दे पाने में सफल रहता तो उसके आगमन को वास्तविक ही माना जायेगा। सभी में न सही, नये आने वाले कथाकारों में से कुछ में ‘विज़न’ है।
उमेश महादोषी: लघुकथा में कथ्य और शिल्प की नकारात्मकता से जुड़ी चीजें, लेखकों की भीड़ के साथ आई। एक समय इन चीजों से पीछा छुड़ाने की कोशिशें भी दिखने लगी थीं। परन्तु आज के समूचे लघुकथा-परिदृश्य पर दृष्टि डालने पर वे सब चीजें फिर से दिखाई देती हैं। ऐसा क्यों? कहीं न कहीं इसमें नयी पीढ़ी के लघुकथाकारों की लापरवाह छवि ध्वनित नहीं होती है? इसमें पुरानी पीढ़ी की भूमिका पर आप क्या कहेंगे?
बलराम अग्रवाल : नया लेखक पूर्ववर्ती लेखन का अनुगमन करता है। इस अनुगमन से कोई जल्दी पीछा छुड़ाकर अपना रास्ता बना लेता है, कोई देर से छुड़ा पाता है; और कोई ऐसा भी होता है जो ताउम्र अनुगामी ही बना रहता है, अपनी कोई धारा स्वतंत्रत: नहीं बना पाता। जहाँ तक लघुकथा की बात है, सभी जानते हैं कि यह लघुकाय कथा-विधा है। सब बस इतना ही जानते हैं, यह नहीं जानते कि ‘लघुकाय’ में छिपा क्या-क्या है, उसमें साहित्यिक गुणों का समावेश कथाकार ने किस खूबी के साथ कर दिया है और यह भी कि प्रचलित कथा-रचनाओं की प्रभावान्विति से अलग और विलक्षण उसने कुछ ऐसा पाठक को दे दिया है कि वह अचम्भित है। अचम्भित चौंकाने वाले अर्थ में नहीं; बल्कि इस अर्थ में कि जो बात इस लघुकथाकार ने कह दी है, वह साधारण होते हुए भी स्वयं उसके जेहन से दूर क्यों थी?
('अविराम साहित्यिकी' अप्रैल-जून 2014 से साभार)