शनिवार, 30 नवंबर 2024

अहिंसा / बलराम अग्रवाल

पुरानी फाइलों में आज बहुत-सा स्वर्ण मिला। उसे किस्त-दर-किस्त यहाँ सुरक्षित रखने को प्रयत्नशील रहूँगा।

जेवर (तब यह जिला बुलंदशहर की तहसील खुर्जा के अन्तर्गत आता था।) से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका 'अरहंत' के जुलाई 1969 अंक में प्रकाशित हुआ यह लेख  ही मेरा प्रथम प्रकाशित लेख है जिसे मई अथवा जून 1969 में लिखा गया होगा। 'अरहंत' के सम्पादक श्रीयुत् श्याम बिहारी कौशिक 'निर्मम' थे जो बाद में हिन्दी के प्रख्यात गीतकार श्याम 'निर्मम' के रूप में स्थापित हुए।

'अरहंत' जुलाई 1969

'हिंसा परमो धर्म:' ऐसा सभी मानते हैं। यही भारतीय संस्कृति का मूल तत्व भी है। वैदिक काल से आज तक यदि भारतीय संस्कृति में कोई स्वर्ण सूत्र रहा है तो वह है--अहिंसा ।

'अहिंसा' शब्द का अर्थ कितना व्यापक है। शब्दों के द्वारा भी किसी को कष्ट पहुंचाना आज हम हिंसा मानते हैं। जबकि आचार-विचार के द्वारा किसी के भी अकल्याण की कल्पना न करना ही अहिंसा है। इसके भी आगे समाज के कष्टों को दूर करते हुए, निर्भयता-पूर्वक अन्याय का विरोध करते हुए सत्य के मार्ग में आगे बढ़ना 'अहिंसा' है ।

किसी व्यक्ति के दिये कष्टों को सहना और उसे दन्ड न देना कि कहीं उसे कष्ट न हों, 'अहिंसा' नहीं कायरता है। हमारी इसी प्रकार की अहिंसा ने तो हमें हजारों वर्षों के लिए दासता के पञ्जे में जकड़कर रखा, जिसकी छाप हम स्वतंन्त्र होने के पश्वात् अभी तक नहीं मिटा सके । अब उसको ही हमें मिटाना है। किसी की रक्षा करने के लिए किसी दुष्ट व्यक्ति का वध तक भी कर देना हिंसा नहीं अहिंस है। जबकि स्वेच्छा-पूर्ति की भावना से किसी को कष्ट देने का विचार भी हिंसा है। किसी पीड़ित व्यक्ति की पीड़ा का हनन तथा दुष्ट विचारों को नष्ट करने से बड़ा उपकार भला क्या होगा । 

तो फिर हिंसा क्या है ? स्वार्थपूर्ति के लिए किसी को कष्ट पहुंचाना हिंसा है। कष्ट पहुंचाना ही नहीं, ऐसी हीन भावना को तो हृदय में भी लाना हिंसा है। प्राचीन काल से मुख्यतः दो बातों के लिए ही हिंसा होती है--भक्षण के लिए और रक्षण के लिए। कुछ भी हो हम तो केवल यही कहेंगे कि हिंसा का एक मात्र कारण स्वार्थपरता है, वे कामनायें हैं जो हमें दूसरे से ईर्ष्या करने के लिए बाधित कर देती हैं और जिन्हें भारतीय दार्शनिक भाषा में परिग्रह कहते हैं। किसी जूं को मारना हिंसा नहीं है और ना ही हमारे सामने भारत के टुकड़े करने वालों को दंडित न करना अहिंसा है। •••

एक पहलू : आत्मशक्ति / बलराम अग्रवाल

यह लेख महात्मा गांधी के जन्म शताब्दि वर्ष 1969 के उपलक्ष्य में विशेष रूप से लिखा गया था जोकि मेरे द्वारा लिखा गया पहला या दूसरा लेख है। डी. ए. वी. इंटर कालेज, बुलंदशहर की योजना अक्टूबर 1969 में गांधी जी पर विशेष पुस्तिका प्रकाशित करने की थी; अतः निश्चित रूप से इसे जुलाई या अगस्त 1969 में लिखा गया होगा। बाद में, या तो फंड्स की कमी के कारण या समुचित सामग्री न मिलने के कारण विद्यालय प्रबंधन द्वारा पुस्तिका प्रकाशित न करके वार्षिक पत्रिका के 1970 अंक में ही समस्त सामग्री को स्थान दिया गया था।  


मैं अनुभव करता हूँ कि किसी अत्याचार अथवा अत्याचारी भावना को समाज से निकालने के लिए शारीरिक शक्ति के अतिरिक्त दृढ़-प्रतिज्ञ तथा आत्म शक्ति का विकास होना भी अत्यन्त आवश्यक है और अपने उस अत्याचार-विरोधी आन्दोलन में शारीरिक शक्ति का उतना महत्व नहीं जितना आत्म-शक्ति का । किसी कार्य को पूर्ण रूप से सफल होने का सर्वाधिक श्रेयः आत्म-विश्वास, अपनी उस आत्म-शक्ति को है, जिसने हमें उस कार्य के प्रति जागरूक रखा ।

"अरे, यह कार्य कैसे प्रारम्भ हो ? साधन ही कोई नहीं है और यदि साधन हो भी जाय तो क्या आवश्यक है कि इस कार्य में हमें सफलता ही मिलेगी ?" आदि कितने मूर्खतापूर्ण विचारों का समन्वय हमारे अन्दर हो जाता है। गीतानाथ प्रश्न करते हैं--"क्या हमें कर्म ही नहीं करना चाहिए?" केवल फल (परिणाम) की इच्छा को ही हमें अग्रसर रखना है? इनके उत्तर में मैं तो कहता हूँ कि फलेच्छा से कर्म करने वाले को कभी सफलता नहीं मिलती। अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किये गये कर्म के प्रति आत्म-शक्ति के द्वारा जाग रूक रहने से और उसमें आत्म-विश्वास उत्पन्न करने से सफलता मिलती है, कर्मशील व्यक्ति के लिए समस्त साधन उपलब्ध हैं, ध्येयरत मनुष्य के सफलता पैर चूमती है।" इसमें लेशमात्र भी असत्य नहीं। कोई कार्य यदि करना ही है तो लीन होकर क्यों न किया जाय, परिणाम की आसक्ति फिर क्यों ? ध्येय तक जाने के लिए कुछ लुटाना नहीं पड़ता बल्कि, स्वयं लुटना पड़ता है। उद्देश्य और परिणाम दोनों किसी भी दशा में एक नहीं हैं, विचार करने पर ये परस्पर विरोधी भावनायें हैं।

कर्म करने के लिए आत्मनिर्भर होना अति आवश्यक है। जो व्यक्ति आत्म-निर्भर नहीं हैं, वे भला कर्म क्या करेंगे? आत्मशक्ति जिनकी विकसित है, वे न तो किसी व्यक्ति विशेष पर निर्भर होते हैं और न किसी को कोई कष्ट पहुँचाने का प्रयत्न-मात्र ही करते हैं। अहिंसक भी केवल वे ही व्यक्ति हैं जो बुद्धि विवेक के बल पर प्रत्येक समस्या का उचित समाधान करने की क्षमता रखते हैं। कर्मण्यता, आत्म-शक्ति, आत्म- निर्भरता एवं विवेक शक्ति आदि सम्पूर्ण गुण जिस व्यक्ति में विद्यमान हों उसे हम क्या कहेंगे? उसे केवल अनुभव ही किया जा सकता है।

ऐसी ही एक शक्ति पुनः पुन्य-भूमि भारत पर प्रकट हुई और उस दानवीय शक्ति से मुक्ति दिलाई जो अपनी नीति-विद्या में पारंगत थी। जिसने दो भाइयों के बीच झगड़ा कराकर दोनों के अधिकार हड़प लेना अपना व्यवसाय बना लिया था। दीन-हीन, अभागे किसान मजदूरों की दशा को न निहार, अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए, आँगन में किलकते बच्चों सहित उनकी कुटिया को भस्म कर दिया उनके दिलों को तोड़ दिया, उनके अविकसित अरमानों की चिता पर जिसने अपना खाना पकाया। ऐसी वह कौनसी शक्ति थी जिसने भारत की क्रान्तिकारी भावना को बढ़ा दिया, सम्पूर्ण विश्व में जिसने नया प्रकाश फैला दिया ? कोई न जान सका, न जाने वह कौन सी शक्ति थी जो सदैव के लिए प्राणीमाल के लिए एक प्रेरणा बन कर रह गयी। आज तक जो भी उसे जानने के लिए तत्पर हुआ वह उसी का होकर उसी में लीन हो गया। शक्ति तो जो कुछ भी थी, वह थी ही, परन्तु उसे प्रकट करने का माध्यम एक ऐसा प्राणी था जो स्वभाव से डरपोक परन्तु आत्माभिमानी था। शारीरिक शक्ति न होते हुए भी जिसने आत्म- शक्ति के बल पर, हिंसा, बुद्धि और विवेकशक्ति के आधार पर एक ऐसे समाज की स्थापना की जिसने सदैव के लिए भारत की दासता पर पानी फेर दिया। कुचल दिया उस घमन्डी का सिर जो प्रह्लाद का पिता बन बैठा था। उस विभूति को प्राणी समाज ने युग पुरुष, बापू, राष्ट्रपिता आदि विशिष्ट नामों से स्वीकार किया ।

दुबले-पतले साधारण शरीर पर वस्त्र केवल नाम मात्र को था । लाठी के सहारे चलने वाला वह शरीर स्वयं औरों का सहारा था। फिर भी वह किसलिए प्रत्येक मनुष्य के आकर्षण का विषय बन गया ? यह उसकी अपनी विशेषताएँ थीं। जिनके द्वारा संपूर्ण भारत ने विदेशी राज्य को हिलाकर रख दिया गया यह उसकी प्रबल आत्म-शक्ति का परिचायक एवं अपूर्व प्रमाण था। सत्य की प्रतिष्ठा के लिए उसने नये-नये अनौखे उदाहरणों को संसार में सदैव के लिए छोड़ दिया। उसने सभी प्राणियों को एकत्रित कर, अपने सुगठित, सुविचारों से परिपक्व कर अपने विश्व-व्यापी आन्दोलन का श्री-गणेश किया । समस्त प्राणियों में समन्वय की भावना का संचार कर दिया। परिणाम की ओर ध्यान न देकर सबके साथ अनेकानेक रुकावटों का निर्भयता-पूर्वक सामना करते हुए अपने लक्ष्य की ओर चला गया। न जाने कितने दीन-हीन और समाज द्वारा निष्कासित लोग उसकी शरण आये और उसने धैर्यपूर्वक उनको गले से लगाकर नवीन मार्ग में बढ़ने की प्रेरणा दी। तो क्या ऐसा करने पर समाज ने उसकी भर्त्सना की? नहीं, यह उनके बस की बात नहीं थी, फिर तो समाज के लोगों में एक नवीनता चमकी और ऊँच-नीच का भेद जानने वाले स्वयं उसकी छत्रछाया में नीच जाति को गले लगाने के लिए दौड़ पड़े और जिन लोगों ने उसकी भत्सना की, उनकी चिन्ता न कर वह ध्येय की ओर बढ़ता चला गया ।

समाज ने उसमें किसी नई शक्ति का अनुभव किया, प्रातःकालीन सूर्य की भांति, समस्त चराचर जातियाँ उसको नमस्कार कर स्वयं को धन्य अनुभव करती हैं। जैसे अब उसके प्रकाश में ही जगत् के सारे कार्य पूर्ण हो रहे हों। उसके प्रकाश में सज्जनों का मार्ग आलोकित हुआ और दुर्व्यसनों में फंसे अज्ञानियों को भय लगा। उन्होंने छुटकारा पाना चाहा, परन्तु हाय ! सूर्य केवल प्रकाश ही दे सकता है। उसके आगमन की सूचक प्रातः कालीन लालिमा ही होती है, संध्या का अन्धकार नहीं। प्रत्येक भारतीय में देशत्व का प्रकाश प्रज्ज्वलित हो गया। कोटि-कोटि मस्तक उसके आदर हेतु झुक गये, परन्तु वह तो जैसे सागर था, जिसका अथाह जल कभी छलकता नहीं, उसे अभिमान की बू नहीं थी। अपने शरीर, अपने मन और मस्तिष्क पर उसका पूर्णतः नियंलण था। उसका प्रत्येक कार्य समस्त समाज के लिए था, परन्तु फिर भी वह न जाने कितने लोगों की आँखों का काँटा बनकर खटकने लगा, न जाने क्या-क्या भावनाएँ उत्पन्न हुईं उस आत्मसम्मान की मूर्ति के अपमान के लिए। अन्धकार में कार्य करने वाले सदैव प्रकाश से डरते रहे हैं, प्रकाश उनकी मृत्यु का संदेश होता है। परन्तु क्या कितने भी प्रयत्न करने से प्रकाश समाप्त हो जायगा ? प्रकाश कभी समाप्त नहीं होता । एक दीपक, अनेकानेक दीपकों को प्रज्ज्वलित कर अपना प्रकाश संसार में छोड़ ही जाता है। महापुरुषों के कार्य में सदैव ही अन्धकार-प्रिय लोगों ने बाधाएँ उत्पन्न की हैं परन्तु वे उनको ध्येय तक पहुँचने से न रोक सके। अनेकों बार उनका असम्मान करने का प्रयत्न किया गया किन्तु ज्ञानकोष में सम्मान अथवा असम्मान नाम का कोई शब्द ही नहीं था। अपने विचार में तो वह "समाज से प्रकट हुआ और समाज में लीन होऊँ" के भाव सँजोए था। शायद यही होना था और यही हुआ, परन्तु 'उसके दीप अभी तक जल रहे हैं औरों के दिलों में।' उसका कहना था--

ध्येय की ओर चलो, ध्येय की ओर बढ़ो। 

ध्येय को लेकर चलो, ध्येय को लेकर बढ़ो।। •••

मंगलवार, 11 जून 2024

हिन्दी लघुकथा : वर्तमान स्वरूप और सम्भावनाएँ, भाग-2 / बलराम अग्रवाल

 गतांक से आगे…

ग़ौर से देखें तो हिंदी लघुकथा का वर्तमान उत्तरोत्तर शानदार और समृद्ध होता रहा है। आठवें दशक के उत्तरार्द्ध की लघुकथा आठवें दशक के पूर्वार्द्ध की लघुकथा तुलना में समृद्ध थी, नौवें दशक की उससे अधिक और अन्तिम दशक के अन्तिम वर्ष में चैतन्य त्रिवेदी सामने आते हैं जिनके पास एकदम नयी कथा-भाषा थी। लघुकथा सृजन के आकलन और मूल्यांकन के लिए यदि बीस वर्षों का एक दौर मान लिया जाए यानी 1971 से 1990, 1991 से 2010 और 2011 से अब तक;  तो यह तीसरा दौर चल रहा है। यह मैं काल विभाजन नहीं कर रहा हूँ बल्कि आकलन और मूल्यांकन का सही परिणाम पाने हेतु समय को बाँट भर रहा हूँ।  प्रत्येक नये दौर में पिछली पीढ़ी सक्रिय रहती है और एक नयी पीढ़ी जुड़ती है। इस दृष्टि से दूसरे दौर में दो और तीसरे यानी वर्तमान दौर में लघुकथा की तीन पीढ़ियाँ एक साथ सक्रिय हैं। इनमें से कुछ सृजन की प्रौढ़ता और निरंतरता के चलते स्थापित हो चुके हैं; कुछ युवा हैं और कुछ युवतर। नवोदितों के लिए मैंयुवतरशब्द का प्रयोग कर रहा हूँ। युवतर वे हैं जो अपनी पहचान अभी बना ही रहे हैं। लेखकीय सक्रियता और रचनात्मक नवीनता की बदौलत ये युवतर ही वर्तमान दौर की सही पहचान बनते हैं।

हिन्दी लघुकथा को प्रारम्भ में आठवें दशक के कथाकारों ने कथा-संक्षेप, कथा-सार, चलते-चलते, आसपास बिखरी कहानियाँ, चुटकुलों और पौराणिक पैरोडियों से उसी तरह बाहर निकाला जिस तरह प्रेमचंद ने कहानी को चन्द्रकान्ता और उसकी सन्तति के तिलिस्म से बाहर निकालकर सामान्य जन से जोड़ा था। तत्पश्चात् नौवें-दसवें दशक के कथाकारों ने उसको वास्तविक जीवंतता प्रदान की और अब के यानी इस सदी  में उभरे युवतर कथाकार कथ्यों में नवीनता भर रहे हैं। एक अद्भुत सत्य यह है कि वर्तमान में लघुकथा का समय स्त्री रचनाशीलता का समय है। संध्या तिवारी, सीमा व्यास, चेतना भाटी, अंतरा करवड़े, सविता इन्द्र गुप्ता, अनिता रश्मि, ॠचा शर्मा, कांता राय, उपमा शर्मा, कनक हरलालका, कमल कपूर, मधु जैन, प्रेरणा गुप्ता, मिन्नी मिश्रा, वन्दना गुप्ता, शील कौशिक, आशा शर्मा, आशा खत्रीलता’, सुधा भार्गव, पवित्रा अग्रवाल, अनिता सैनी, अनघा जोगलेकर, नीरज सुधांशु, उषा लाल, नीना छिब्बर, दिव्या शर्मा, अंजु खरबंदा, यशोधरा भटनागर, वसुधा गाडगिल आदि कितने ही नाम हैं जो नयी सदी के मुख्यत: दूसरे दशक में उभरे हैं और लघुकथा की अनेक कथ्यगत वर्जनाओं को और भाषागत सीमाओं को तोड़ रहे हैं। यह वर्तमानता लघुकथा की दमदार सम्भावना है।

सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक बदहालियों और जीवन-यथार्थ को ये युवतर नई मजबूती और भाषा-शैली में प्रस्तुत कर रहे हैं। नि:सन्देह कह सकते हैं कि वर्तमान दौर की धड़कन आज की लघुकथाओं में है। जो तेवर कमलेश भारतीय की ‘सात ताले और चाबी’, चित्रा मुद्गल की ‘दूध’, अशोक भाटिया की ‘कपों की कहानी’ और महेन्द्र ठाकुर की ‘अफसर’, में हैं वैसे ही तेवर रानू मुखर्जी की ‘अस्मिता’,  रश्मि बजाज की ‘गुड़िया की शादी’, उमेश महादोषी की ‘वो दहलीज’, कान्ता राय की ‘सावन की झड़ी’, ॠचा शर्मा की ‘उजली किरण’ में भी हैं। वर्तमान में उपजे कुछ सवालों से मुठभेड़ में ये लघुकथाएँ खरी उतरती हैं। अनघा जोगलेकर की ‘अलमारी’ और सत्या शर्मा ‘कीर्ति’ की ‘यात्रा’ स्त्री के जीवन में नयी खिड़कियाँ खोलने की पैरवी करती हैं। ऐसे साहसिक प्रयासों की हिन्दी लघुकथा को अतीव आवश्यकता है। सुरेश सौरभ की लघुकथा है—‘हिजाब’ जो बताती है कि शोहदे सिर्फ तभी तक लड़कियों को छेड़ते-तंग करते हैं जब तक वे हिजाब की कैद में रहती हैं। उससे मुक्त होकर जैसे ही वे आक्रामक होती हैं, शोहदे फुर्र हो जाते हैं। तात्पर्य यह कि आज का लघुकथाकार औरत की देह और आत्मा से हर उस आवरण को उतार फेंकने की पैरवी करता है जो उसे दब्बू और पंगु बनाता है। लड़कियों को शारीरिक और मानसिक रूप से सक्षम बनाने की दिशा में जो रास्ता मधुदीप अपनी लघुकथा ‘नमिता सिंह’ में दिखाते हैं, वही रास्ता शोभना श्याम की लघुकथा ‘ताजीब’ और लता अग्रवाल की ‘मैं ही कृष्ण हूँ’ भी दिखाती हैं। वर्तमान हिन्दी लघुकथा के विशाल सागर से उदाहरण स्वरूप ये मात्र कुछ बूँदें हैं। इनमें अपने समय का खारापन है, तिक्तता है क्योंकि इनका जन्म तिक्त और खारे समाज से ही हुआ है। यही खारापन और तिक्तता मजदूर के पसीने में होती है, यही छले-ठगे व दबाये गये दुखियारों के आँसू में भी होती है। इस तीखेपन, इस खारेपन, इस दमन को आने वाली सन्तति के लिए आज का लघुकथाकार मीठे झरने में, जूझने की ताकत में तब्दील करने की ओर प्रयत्नशील है।

मित्रो, सफलता परिणाम में नहीं, समूची सामर्थ्य और शक्ति के साथ उद्देश्य की ओर बढ़ते रहने में निहित होती है। गंगा को पृथ्वी पर लाने का अभियान राजा सगर के पौत्र अंशुमान ने शुरू किया था। अंशुमान के बाद उनका पुत्र दिलीप उक्त अभियान से जुड़ा; लेकिन गंगा को पृथ्वी पर लाने का श्रेय दिलीप के पुत्र भगीरथ को मिला। सवाल यह नहीं है कि शुरुआत किसने की और कार्य समाप्ति का श्रेय किसे मिला। सवाल यह है कि चार पीढ़ियों तक कार्य की निरन्तरता को बनाए रखने का विश्व में ऐसा क्या कोई दूसरा उदाहरण है। निरन्तरता न रही होती तो गंगा को धरती पर लाना सम्भव नहीं था। हम सब, जितने भी लघुकथा लेखक, विचारक और शोधार्थी यहाँ उपस्थित हैं, जान लें कि लघुकथा लेखन, आलोचन, सम्पादन, अनुवाद और शोध…यानी विधा से जुड़ी हर सम्भावना पर निरन्तर कार्यरत रहना है। सम्भावना का सीधा सम्बन्ध चौकसपने से है। अगर हम आज चौकस नहीं हैं तो याद रखिए कि सम्भावनावान भी नहीं होंगे। लघुकथा का वर्तमान निश्चित रूप से सुदृढ़ है और इसीलिए इसकी असीम सम्भावनाओं के प्रति हम सन्तुष्ट हैं।

सम्पर्क : 8826499115