शनिवार, 20 अप्रैल 2024

लघुकथा : बाहरी-भीतरी दबावों में सामंजस्य / बलराम अग्रवाल

 

कथा साहित्य में रूपहीनता या कहें कि एबस्ट्रैशन बहुत आवश्यक है। लेखन में यह कब आता है? तब, जब नामों और शब्दों के पीछे से उनको व्यंजित करने वाली वास्तविकताएँ हट जाती हैं। इस तथ्य को समझना जरा मुश्किल अवश्य है, असम्भव नहीं है। इस बात को हम यों भी समझ सकते हैं कि किसी शब्द के जो अर्थ कल थे, वे आज नहीं रहते। बदल जाते हैं, आधे-अधूरे भी, पूरी तरह भी। भाषा की समृद्धता बिम्बों और प्रतीकों से होती है। वे ही हमारी सांस्कृतिक धरोहर बनते हैं। कथाकार के लिए सबसे अधिक सार्थक और सहायक संकेत किस्म के शब्द, प्रतीक या सांस्कृतिक बिम्ब होते हैं। सांस्कृतिक बिम्ब से आशय है कि उसे यदि व्यक्तिगत प्रतीक चित्रों का अथवा व्यक्तिगत बिम्बों का स्वयं आविष्कार करना पड़े तो वे शायद उतने प्रभावशाली सिद्ध न हों। यह भी सम्भव है कि जो बात वह कहना चाहता है, वह पीछे छूट जाए और वह व्यक्तिगत प्रतीकों और बिम्बों में ही उलझकर रह जाए। शब्दों को संस्कार या पुराने अर्थों के नये संदर्भ और प्रतीक देने का काम रचना-प्रक्रिया के दौरान बड़े ही स्वाभाविक ढंग से स्वमेव ही होता रहता है। रूपकों आदि में यह आसानी से सम्पन्न होता है। लघुकथाएँ रूपक, प्रतीक, फैंटेसी जिस भी रूप में लिखी जाएँ, आवश्यक है कि उनमें आज की सच्चाई दिखाई दे। मैं यह भी कहना चाहूँगा कि आज की सच्चाई कविता के बाद जितने प्रभावी ढंग से लघुकथा में सम्भव है, उतने प्रभावी ढंग से कथा की किसी अन्य विधा में सम्भव नहीं है। राजा, रानी, राजकुमार, राजमहल  और जमींदार अब बीते जमाने के पात्र हो गये हैं। बावजूद इसके, भूले-बिसरे ही सही, आठवें-नौवें दशक तक तो ये लघुकथाओं में नजर आते ही रहे हैं। कथाकार ने इन्हें यदि स्थूल रूप में प्रयुक्त किया है तो नि:सन्देह यह उसकी कमी कहलायेगी; लेकिन यदि पाठक ने उस रूपक को नहीं समझा और नहीं ग्रहण किया है तो वह कथ्य की तह तक पहुँचने में असमर्थ ही रहेगा। नहीं भूलना चाहिए कि पात्रों के कुछ व्यंजनार्थ भी हो सकते हैं, होते हैं। वर्तमान युग ने एक असाधारण कुंजी कथाकार को सौंपी है। वह कुंजी है कथ्य-प्रस्तुति के लिए कथा में साधारण पात्रों का चुनाव करना। यदि बारीकी से देखें तो आज की लघुकथाओं में बहुत-सी बोधकथा, नीतिकथा, दृष्टांतकथा, उपदेशकथा के निकट जा ठहरती हैं। अनेक लघुकथाएँ कविता के, अनेक व्यंग्य के तो अनेक कहानी के निकट जा ठहरती हैं; और तो और, नये शिल्प में अनेक लघुकथाएँ ललित निबन्ध के भी निकट जा ठहरती हैं। कारण कुछ और नहीं, मात्र यह है कि आज सभी विधाएँ बहुत नजदीक आ गयी हैं। यों भी कह सकते हैं कि विधाएँ परस्पर घुलमिल गयी हैं, गड्डम-गड्ड हो गयी हैं। यही कारण है कि अनेक लघुकथाएँ आकार का तो अनेक लघुकथाएँ कथा-प्रकृति का अतिक्रमण कर जाती हैं।

क्या यह कमी लघुकथाकार की है? नहीं। रचना यदि अतिक्रमण कर भी रही है तो यह कथाकार की सामर्थ्य पर प्रश्न-चिह्न नहीं है। कथाकार को रचना की प्रेषणीयता, प्रभावशीलता, पूर्णता-सम्पूर्णता की ओर ही बढ़ रहा होता है। ऐसे में रचना कब कविता की गली से गुजर जाएगी, कब व्यंग्य की, कब निबन्ध या किसी अन्य विधा की गली से गुजरने लगेगी, वह गहरी मानसिक ऊहापोह में स्वयं को फँसा पाता है। फँसा क्या, असहाय ही पाता है। उसके सामने स्वयं की छवि का नहीं, रचना की पूर्णता का प्रश्न खड़ा होता है और उस मानसिक संघर्ष में रचनाकार की सचेतता नहीं, रचना की पूर्णता ही जीतती है। इस संक्रमण से गत लगभग एक दशक से लघुकथाएँ लगातार गुजर रही हैं। लघुकथा की निम्नतम सीमा कोई नहीं है; लेकिन अधिकतम सीमा है, इस बात को सभी मानते हैं। सभी मानते हैं, बावजूद इसके वह अधिकतम सीमा क्या है, इस बारे में मतभेद है। कोई अधिकतम सीमा 300 शब्द बताते हैं, कोई 500 शब्द, कोई 750 शब्द तो किसी-किसी ने 1100 शब्दों की कथा-रचना को भी लघुकथा माना है। मेरी दृष्टि में लघुकथा की आदर्श सीमा पुस्तकाकार आमने-सामने के दो पृष्ठ है तथापि किन्ही परिस्थितियों के कारण, जिनमें से कुछ का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है, वह तीसरे पृष्ठ पर भी जाती है तो रचना की प्रकृति को सामने रखकर आकलन करना होगा न कि उसके आकार को सामने रखकर। फिर भी यह तो मानना पड़ेगा कि ऐसी स्थिति में भी लघुकथा की शब्द संख्या 750-800 शब्दों से अधिक न हो और वह तीसरे पृष्ठ के अन्त से पहले ही समापन को प्राप्त हो जाए। यह तीसरा पृष्ठ नि:सन्देह कुछेक लघुकथाएँ ले रही हैं और लघुकथा के पारम्परिक आकार को चुनौती दे रही हैं।

प्रत्येक व्यक्ति का एक संवेदन-वृत्त उसके परिवेश, प्रकृति और अध्ययन के अनुरूप बन जाता है। फिर जो कुछ उस संवेदन-वृत्त की परिधि में आता है, उसके लिए वही उसका यथार्थ होता है। उसके अलावा जो भी कुछ है वह उसके लिए मात्र एक सूचनात्मक यथार्थ है। यहाँ यह भी सत्य है कि एक व्यक्ति का यथार्थ दूसरे व्यक्ति के लिए सूचनात्मक यथार्थ हो सकता है यानी सभी सत्य सभी के संवेदन-वृत्त की सीमा में नहीं आ पाते हैं। परिवेश, प्रकृति और अध्ययन के अनुरूप व्यक्ति कुछेक दुराग्रहों का भी शिकार हो ही जाता है। इन दुराग्रहों का पता व्यक्ति को विवेकशील हुए बिना नहीं चल पाता; लेकिन इस यथार्थ को कलात्मक रूप से सम्प्रेषणीय बनाने के लिए जरूरी है कि हम उसे अपने से हट या उठकर देख सकें, उसे माध्यम की तरह इस्तेमाल कर सकें। कलाकार अपने किशोर काल में 'अपने यथार्थ' से असम्पृक्त नहीं हो पाता, वह या तो उसमें रस लेता है या उसे जस्टिफाई करता है, और ज़िन्दगीभर कला के नाम पर आत्मकथा के टुकडे देता रहता है।

जो लघुकथाएँ पृष्ठ सीमा और शब्द सीमा दोनों का अतिक्रमण कर रही हैं, वे विधा के अनुशासन को नहीं, रचनात्मकता के आग्रह को मान रही हैं, ऐसा मानना चाहिए। बावजूद इसके कि विधा की अस्मिता का समुचित सम्मान किया जाना चाहिए, किसी भी रचनाकार के लिए वस्तुत: रचनात्मकता के आग्रह का सम्मान ही श्रेयस्कर है। ऐसी रचनाओं में अतिक्रमण जैसी अहितकर बातों पर विचार न करके विचार यह करना चाहिए कि इसे लिखते समय कथाकार किन तात्कालिक दबावों से गुजरा है। हमें यह भी देखना चाहिए कि ऐसी रचनाओं को पढ़ते समय क्या हमें भी लेखक जैसे दबावों से गुजरने का अनुभव हुआ? ऐसी रचनाओं को पढ़कर पाठक/आलोचक का यह भी देखना आवश्यक है कि इन्हें लेखक ने अपने पलायन का माध्यम तो नहीं बनाया है?या फिर इन्हें लिखने के लिए उसने अपने पारम्परिक परिवेश को, उसकी जड़ता को तोड़ा है, उसे भेदा है तथा उसे गहराई और सार्थकता से समझने के लिए इन कथाओं को लिखा है। प्रत्येक रचना में लेखक का परिवेश होता है और स्वयं लेखक भी उसमें साँस ले रहा होता है। कथा की भाषा, उसके प्रतीक, बिम्ब और सांकेतिकता—ये सब कथाकार की पहचान हुआ करती हैं।

मनुष्य के जीवन में कुछ सच्चाइयाँ भीतरी होती हैं और कुछ बाहरी। वह हमेशा न भीतरी सच्चाइयों के साथ रह सकता है न बाहरी सच्चाइयों के साथ। लेकिन वास्तविकता यह है कि ये दोनों सच्चाइयाँ एक-दूसरे से अलग न होकर परस्पर उलझी हुई हैं। भीतरी सच्चाई बाहरी को और बाहरी सच्चाई भीतरी को बनाती और बिगाड़ती है, प्रभावित करती है, दिशा देती है। मनुष्य को ये अपने अनुसार ढालती भी हैं और स्वयं मनुष्य के अनुसार ढलती भी हैं। एक सच्चाई दूसरी सच्चाई पर परदा डालने का, उसे दबाने, ढकने का भी काम करती है। इसके अलावा हमारी कुछ जिदें, कुछ आग्रह भी आड़े आते हैं। हम अपने पल, अपने परिवेश, अपनी अनुभूति तक सीमित रहने, उनके प्रति वफादार रहने के दुराग्रही हो जाते हैं। अपनी इन जिदों और वफादारियों के चलते हम कुछेक जरूरी घटनाओं से कट जाते हैं। कट जाने की इस घटना से जिदों और वफादारियों को छोड़े बिना किसी का भी परिचित होना सम्भव नहीं है।  

किसी भी कथाकार का यथार्थ क्या है? जो कुछ भी उसके संवेदन-वृत्त में आ जाता है, वही उसका यथार्थ है। इसके अलावा जो भी कुछ है, वह सूचनात्मक यथार्थ है। अपने यथार्थ को कलात्मक रूप से सम्प्रेषणीय बनाने के लिए उस यथार्थ को स्वयं से दूर हटकर या थोड़ा ऊपर उठकर देखना आवश्यक है। माध्यम की तरह उसका प्रयोग करना आना आवश्यक है। हर कथा किसी न किसी बिन्दु पर कथाकार की आत्मकथा हो सकती है क्योंकि रचना में वह अपना परिवेश ही जीता है। लेकिन वह आत्मकथा उस धरातल से, जिस पर वह जीता है, किंचित भिन्न धरातल की होती है।

कथाकार को सोचना यह है कि उसके जिंदगी के वास्तविक तनाव कौन-से हैं और किन प्रवृत्तियों से उसे संघर्ष करना पड़ रहा है। अगर वह इस प्रक्रिया से गुजरता है तो विश्वास करिए, उसकी हर कथा आत्मकथा होगी, भले ही उसका शिल्प आत्मकथा का न होकर कथा का होगा। वस्तुत: कलात्मक लेखन यही है। यही है जब लेखक बाहरी यथार्थ को अपने भीतर से गुजरने का अवसर देता है, कथा के रूप में उसे बदलते, बनते-बिगड़ते, आकार लेते देखता है। भोगे हुए यथार्थ के तात्पर्य को भी समझने की आवश्यकता है। भोगना सिर्फ सदेह नहीं होता है, पीड़ाओं और सुखों को अपनी संवेदना की गहराई में महसूस कर सकने की सामर्थ्य का विकास जिन्होंने स्वयं में किया है, उनके लिए कोई पीड़ा, कोई दुख, कोई सुख पराया नहीं है। अभिव्यक्त होने की कला इस महसूस करने वाले आदमी में ही विकसित होती है, आवश्यक रूप से सदेह भोगने वाले में नहीं। सच्चा कथाकार वही है जिसने दूसरों की पीड़ा को कह सकने की क्षमता का विकास स्वयं में किया है। इस विकास से विरत लोग रीति, भक्ति के गीत ही गा सकते हैं, अन्य कुछ नहीं। अपने यथार्थ को अन्य-अन्य यथार्थ से जोड़ सकने की क्षमता का विकास ही व्यक्ति को बड़ा कलाकार अथवा कथाकार बनाता है।

बाहरी यथार्थ को देखते हुए कई बार हम छद्म चरित्रों से भी टकराते हैं। इन छद्म चरित्रों को कथाकार का मन या कहें कि विवेक स्वीकार नहीं करता है। इस अस्वीकार से व्यंग्य की उत्पत्ति होती है। जब सब-कुछ बकवास लगता हो, तब उसे बकवास कहने की कला का विकास भी एक विकास ही है। ओछे और उथले चरित्र को, उसके द्वारा उत्पन्न परिस्थितियों को व्यंजित करने की कला का विकास भी एक साधना ही है। यहाँ भी जरूरी यही है कि लेखक चरित्र के भीतर के साथ तादात्म्य स्थापित करे, उसके थुलथुल शरीर, ऐंगी-बेंगी चाल आदि पर ही शब्दों को बरबाद न करता रहे। व्यंग्य में भी रोष की अभिव्यक्ति आवश्यक है, विशेष अनुशासन के साथ। इस अर्थ में व्यंग्य की उपमा माला के उस धागे से से की जा सकती है जो मोतियों या फूलों के भीतर अनदेखे रूप में विद्यमान रहता है। लघुकथा में ऐसे प्रयोग लगातार होते रहने चाहिए। यह एक ऐसी विधा है जिसमें प्रयोग की असीम सम्भावनाएँ विद्यमान हैं। यों भी किसी भी विधा को कभी भी प्रयोगों से अपच तभी होती है, जब उसके रचनाकार कुछ व्यक्तिगत धारणाओं की प्रस्तुति पर उतर आते हैं।

आलोचना पुस्तक 'लघुकथा का साहित्य दर्शन'  (मार्च 2024) में प्रकाशित

शनिवार, 6 अप्रैल 2024

लघुकथा में वैयक्तिकता / बलराम अग्रवाल

 

प्रत्येक मनुष्य के व्यक्तित्व की एक मूल चेतना होती है। इस मूल चेतना पर जब भी कोई आघात लगता है, कविता, कथा, कला की उत्पत्ति होती है भले ही उसे अभिव्यक्ति न मिले। इसलिए यह सोचना कि जो लोग अभिव्यक्त नहीं हो रहे हैं, उनकी मूल चेतना पर कभी कोई आघात नहीं लगा, गलत है। समस्त चिन्तन क्योंकि इस आघात से ही उत्पन्न माना जाता है, इसलिए साहित्य और कला को वैयक्तिक चिन्तन का परिणाम भी माना जाता है। कहा जाता है कि साहित्यकार की प्रत्येक रचना उसके वैयक्तिक चिन्तन, अनुभूति और संवेदनाओं का व्यक्त रूप होती है। यह भी माना जाता है कि प्रत्येक रचना में उसके रचनाकार का व्यक्तित्व निहित होता है और कोई भी रचना निर्वैयक्तिक नहीं होती है। हाँ, इतना जरूर है कि रचना में व्यक्तित्व ऊपर-ऊपर दिखाई नहीं देता। जैसे दही को बिलोकर नवनीत निकाला जाता है वैसे ही रचनाकार के व्यक्तित्व को कभी रचना को बिलोकर निकालना पड़ता है, तो कभी कपड़छन के द्वारा निकालना पड़ता है, जो अच्छे से अच्छे आलोचक के लिए आसान काम नहीं होता है। रचनाकार का व्यक्तित्व सिर्फ घटनाओं में नहीं होता है, उनके पीछे भी होता है। रचनाकार स्वयं किसान न होकर भी व्यथा किसान की लिख रहा होता है; स्वयं रिक्शाचालक न होकर भी संघर्ष रिक्शाचालक के लिख रहा होता है। वह उभयलिंगी होता है यानी पुरुष होकर स्त्री या किन्नर और स्त्री होकर पुरुष या किन्नर हो सकता है। अभिव्यक्त होने के लिए वह गाय, बैल, बकरी, भैंसा, गीदड़, शेर, तोता, गौरैया, पीपल, बरगद कुछ भी हो सकता है। अपने निजी सुख और दुख को, मिलन और विरह को, पीड़ा और संघर्ष को, आकांक्षा और संकल्प को अपनी रचना में वाणी देने में रचनाकार कभी कोई संकोच नहीं करता है।

लेकिन हिन्दी साहित्य के इतिहास में वीरगाथा जैसा भी एक काल रहा है। उस काल में कवि का व्यक्तित्व भिन्न है। एक काल रीति का भी रहा है। उसमें कवि का व्यक्तित्व भिन्न है; और एक समूचा स्वर्ण सरीखा भक्ति काल भी रहा है जिसमें कवि का व्यक्तित्व नितान्त भिन्न हम पाते हैं। इन भिन्नताओं का कारण यह होता है कि कालखंड-विशेष में रचनाकार की अपनी अनुभूतियाँ, उसकी वैयक्तिक भावनाएँ गौण हो जाती हैं और वह इतर गान को ही रचनाकर्म मानकर अभिभूत होने को विवश रहता है। रीतिकाल के कवि क्या कभी किसी अन्तर्द्वंद्व से नहीं गुजरे होंगे। अन्तर्द्वंद्वों के आघात-प्रतिघात का चित्रण उनके काव्य में क्यों नहीं मिलता। हम कह सकते हैं कि उक्त कवि की निजी अनुभूतियाँ उसके भीतर ही प्रस्फुटित होती और मुरझाती रहीं, कभी सामने नहीं आयीं।  इन सब विवशताओं की परत के नीचे भी एक व्यक्तित्व दबा होता है और वही उस रचनाकार का मौलिक व्यक्तित्व होता है। भारतेंदु हरिश्चन्द्र और गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अंग्रेजों की प्रशंसा में कम कसीदे नहीं पढ़े हैं: लेकिन वे कसीदे उनका मौलिक व्यक्तित्व नहीं है। संतोष की बात यह है कि उनके मौलिक व्यक्तित्व की परख के लिए उनका इतर साहित्य हमें बहुतायत में उपलब्ध है। व्यक्तित्व की परख के लिए हमें बहुतायत पर विश्वास करना होगा, उसी को आधार बनाना होगा।

भक्तिकाल में वैयक्तिकता का दूसरा ही रूप देखने को मिलता है। इस काल के किसी भी कवि ने अपने काल के किसी राजा-महाराजा, नबाव-रईस के गुणों का गान नहीं किया है। तुलसी ने राजा माना तो अपने युग के किसी राजा को नहीं, बल्कि युगों पूर्व हो चुके अवध के राजा राम को; और उनके बारे में भी उन्होंने स्पष्ट लिखा कि ‘नाम’ का प्रभाव निर्गुण ब्रह्म से और सगुण राजा राम से भी बड़ा है—

निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार।

कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार ॥ रामचरितमानस-बालकांड-23॥

कबीर, सूर, तुलसी का युग दरबारी नवरत्नों का युग था लेकिन इनमें से किसी ने भी दरबार की ओर नजर घुमाकर नहीं देखा। शहंशाहों के नवरत्नों में शुमार होने की बजाय कबीर तो स्वयं को राम का कुत्ता ही कहलाना पसंद करते हैं—‘मैं तो कूता राम का!’ इन या इन जैसे अन्य कवियों के द्वारा यह कैसे सम्भव हुआ? नि:सन्देह वैयक्तिक साधना के पथ पर चलते रहने के कारण। तुलसीदास ने लिखा—‘स्वान्त:सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा…’। अब, यह अलग बात है कि तुलसी का अन्त:करण सिर्फ उतना वैयक्तिक नहीं है जितना कि सामान्य जन का हुआ करता है। तुलसी के लिए तो—सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है। सूरदास भी अपने प्रभु को ही समर्पित हैं; और मीरा तो एक प्रकार से विद्रोहिणी हैं। वह घोषित करती हैं कि किसी राजे-रजवाड़े से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है—‘मेरे तो गिरिधर गोपाल, दूसरो न कोई।’ उनके यहाँ दुराव-छिपाव, लाग-लपेट की स्थिति भी शेष नहीं है। कहती हैं—‘अब तो बात फैल गयी, जाने सब कोई।’ वैयक्तिक अभिव्यक्ति के लिए जो कलेजा चाहिए, वह इन भक्त कवियों में भरपूर है। यही कलेजा और अभिव्यक्ति का यही विवेक आज के साहित्यकार में भी वांछित है।

लघुकथा में वैयक्तिकता की प्रस्तुति से तात्पर्य उसमें लेखक की उपस्थिति की पैरवी नहीं मान ली जानी चाहिए। वैयक्तिकता एक अलग भाव, कला और साहस है जब की लेखकीय प्रविष्टि अहं-प्रस्तुति है। अधिकतर लघुकथाएँ मुख्य रूप से बहिर्मुखी हैं और चरित्र के बाह्यरुप को ही प्रतिबिम्बित करती हैं जो कभी भी प्रभावशाली नहीं हो सकता। इसीलिए अधिकतर लघुकथाएँ एक-सा प्रभाव छोड़ने वाली होती हैं यानी निष्प्रभ रह जाती हैं। तात्पर्य यह कि अधिकतर के तो कथ्य भी समान ही होते हैं। जिनमें कथ्य भिन्न है, उनमें रूप समान है। यह ठीक है कि कोई व्यक्ति न तो पूरी तरह न तो बहिर्मुखी होता है और न ही अन्तर्मुखी। अन्तर केवल यह है कि किसी में बहिर्मुखी होने का अनुपात अधिक होता है तो किसी में अन्तर्मुखी होने का। व्यक्ति की अनुभूतियाँ दोनों ही स्तरों पर समान रहती हैं।  परन्तु एक सत्य यह भी है कि साहित्य की दुनिया में ऐसे युग जाते हैं, जब बहिर्मुखी और अन्तर्मुखी में से कोई एक प्रवृत्ति सबल और  दूसरी गौण प्रतीत होती है। दूसरी बात, अभ्यास के द्वारा इस अनुपात को घटाया-बढ़ाया भी जा सकता है।

लेखकीय प्रविष्टि में लेखक अपने कॉलर खड़े करके आता है जबकि वैयक्तिक प्रस्तुति में वह विनीत बना रहता है—‘मो सम दीन न दीन हित तुम समान रघुवीर’, ‘मो सम कौन कुटिल खल कामी’ आदि। लघुकथा में वैयक्तिता के उदाहरण अगर देखने हों तो अशोक भाटिया की ‘कपों की कहानी’, भुवनेश दशोत्तर की ‘रोटियाँ’, सुभाष नीरव की ‘बारिश’, स्नेह गोस्वामी की ‘वह, जो नहीं कहा’, सन्तोष सुपेकर की ‘आर्द्रता’ सरीखी लघुकथाओं को पढ़ें-गुनें। लघुकथा में वैयक्तिकता से आशय उत्तम पुरुष के प्रयोग से ही नहीं है; बल्कि वैयक्तिकता लघुकथा में आच्छादित रहती है। तो देखते हैं कथाकार के रूप में भुवनेश दशोत्तर की वैयक्तिकता का प्रच्छन्न रूप—

उसने नीचे झाँका।

लड़की कंधे पर बोरी लटकाए गली से गुजर रही थी।

"ए लड़की, रुक जरा।" उसने उसे आवाज़ दी।

लड़की ने ऊपर देखा और रुक गई।

"ले, ये रोटियाँ कुत्ते को दे देना। रोज कुत्ता दिख जाता है, आज एक भी नज़र ही नहीं आया।"

लड़की ने कंधे पर लटकती बोरी को ठीक किया और रोटियाँ थाम ली।

गली खत्म हो चुकी थी। उसे कोई कुत्ता नज़र नहीं आया।

आगे टीला था।

उसके नन्हें कदम टीला चढ़ रहे थे।

टीले पर चढ़ने के बाद वह रुक गई। उसकी साँस फूल रही थी।

वह, पत्थर पर बैठ गई।

उसने कागज़ में लिपटी रोटियों को सूँघा। रोटियों की सुगंध उसके भीतर समाने लगी।

उसने ठंडी साँस ली।

उसकी नज़रें कुत्ते को तलाश कर रही थीं।

दूर, पेड़ के नीचे एक कुत्ता नज़र आया।

उसके चेहरे पर सुकून छा गया। वह दौड़ती हुईं उसके पास पहुँची।

कुत्ता सो रहा था।

कुत्ते के आसपास कई रोटियाँ फैली हुईं थीं।

वह बुदबुदा उठी—"इसका तो पेट भरा हुआ है।"

उसकी आँखों में चमक जाग उठी।

"अब तो यह रोटियाँ अम्मा की और मेरी।" वह खुशी से चिल्ला उठी और घर की ओर दौड़ पड़ी।

ईमानदारी से सोचिए कि इसे पढ़ते हुए सबसे पहली प्रतिक्रिया आपके मन में क्या हुई? निश्चित रूप से यह कि मिली हुई रोटियों को लड़की कुत्ते को नहीं देगी बल्कि खुद खा जाएगी। ऐसा इसलिए कि गरीब लोगों का चरित्र हमारी कहानियों और लघुकथाओं ने कुछ ऐसा ही रूढ़ कर दिया है। उनमें चारित्रिक ईमानदारी की नन्हीं-सी रेख भी कथाकारों ने नहीं छोड़ी है। यह लघुकथा उस रूढ़ि को तोड़कर मानवीय संस्पर्श से इसे भरती है। यही लघुकथाकार की वैयक्तिकता है। लीक छोड़कर चलना ही कथाकार के चरित्र और उसकी कला की पहचान है; अन्यथा लीक पर तो हजारों लेखक रात-दिन चल ही रहे हैं। भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने कहा है कि—‘लीक-लीक गाड़ी चले, लीकहि चले कपूत। लीक छोड़ तीनहि चलें—शायर, सिंह, सपूत।’ ‘शायर’ में यहाँ समूची लेखक और कलाकार बिरादरी शामिल है। ‘गाड़ी’ और ‘कपूत’ में कौन-कौन शामिल हैं, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। कहीं-कहीं ‘गाड़ी’ के स्थान पर ‘कायर’ शब्द का प्रयोग भी मिलता है।

जैसाकि ‘रोटियाँ’ से स्पष्ट है, वैयक्तिकता में भी द्वंद्वात्मकता कायम रहती है। ‘कपों की कहानी’ तो रची ही इस द्वंद्वात्मकता से गयी है। द्वंद्वात्मकता पाठक में उद्वेलन का बीजारोपण करती है। इस उद्वेलन को समझने के लिए तलहटी की काई में नीचे-नीचे बहने वाली जीवनधारा को जानना-पहचानना और समझना आवश्यक है। एक कथाकार की सभी कथाएँ उस अर्थ में वैयक्तिक अनुभूतियों से तर-ब-तर नहीं हैं जिस अर्थ में किसी अन्य कथाकार की। ‘कपों की कहानी’ में अन्तर्द्वंद्वों का जो कचोट-भरा वर्णन हुआ है, वह कथाकार की वैयक्तिक अनुभूतियों की खरी अभिव्यक्ति है। वही अभिव्यक्ति ‘आर्द्रता’ में भी है; लेकिन ‘बारिश’ में उस कचोट का रूप बदला हुआ है।

अध्ययन और चिन्तन अनुभूतियों की रचनात्मक क्षमता को निखारते हैं। कथाकार का अपने अभावों और अतृप्तियों से बेचैन होना, उनके खिलाफ संघर्ष करते हुए लहूलुहान होना एक बात है; लेकिन उन्हें समष्टिगत बना प्रस्तुत करना दूसरी।  

आलोचना पुस्तक 'लघुकथा का साहित्य दर्शन'  (मार्च 2024) में प्रकाशित