बुधवार, 6 दिसंबर 2023

लघुकथा : सवाल समझ और समय का / बलराम अग्रवाल

 

बलराम अग्रवाल
एक समय था जब उपन्यास साहित्य की लोकप्रिय विधा थी और वे उपन्यास थे—देवकीनन्दन खत्री जी के। उसके बाद आया कहानी का समय। उस समय के अधिष्ठाता मुख्यत: हम प्रेमचंद को मान सकते हैं। और अब लघुकथा का भी समय है। …सिर्फ लघुकथा का नहीं है, लेकिन लघुकथा कथा-साहित्य के बीच इस समय में अपनी उपस्थिति अवश्य दर्ज करती है।

जिसे हम उपन्यास का समय कहते हैं, वह ऐसा समय था, जब समूचा कैनवस लेखक के सामने लगभग खाली पड़ा था। धार्मिक कथाओं से परिसम्पन्न महाकाव्य आदि की कथाओं-उपकथाओं से ऊब चुके पाठक और श्रोता दोनों को उनसे कुछ अलग चाहिए था, जो तत्कालीन उपन्यासकारों ने विभिन्न रूपों में दिया। पहले खत्री जी आदि ने, बाद में प्रेमचंद, प्रसाद, इलाचन्द्र जोशी, जैनेन्द जी आदि ने। लगभग यही बात कहानी के सम्बन्ध में भी कही जाती है। कहानी ने तो अपने ऊबे हुए पाठक को नयी कहानी, समांतर कहानी, सचेतन कहानी, अ-कहानी आदि से बहलाने की भी कोशिशें कीं। लेकिन कहानी से ऊबे पाठक को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल वस्तुत: लघुकथाकार हुए।  लघुकथा ने भी गत 50 वर्षों में अपने क्राफ्ट में अनेक सार्थक परिवर्तन, परिवर्द्धन किये हैं। आज की लघुकथा वही नहीं है जिसे स्वाधीनता से पहले विष्णु प्रभाकर जी, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर जी, आचार्य जगदीशचन्द्र मिश्र जी आदि लिख रहे थे; आज की लघुकथा वह भी नहीं है जिसे स्वाधीनता के बाद और 1975 तक भी अनेक कथाकार लिख रहे थे और जो ‘सारिका’ में छप रही थी। आज की लघुकथा शब्दश:  वह भी नहीं है जिसे आठवें-नवें दशक के लघुकथाकार लिख चुके हैं। वह, भले ही वहीं कहीं से प्रस्फुटित होती है, लेकिन एकदम नवीन अन्तर्वस्तु, भाषा, शिल्प और शैली, संकेत और व्यंजना की रचना है। आठवें-नौवें-दसवें दशक से लिखते आ रहे कुछ लघुकथाकार नवीन अन्तर्वस्तु प्रस्तुत करने में सफल रहे हैं। नयी पीढ़ी उनसे सीख भी रही है, प्रेरणा भी पा रही है और ताजगी प्रदान करने में सहायक भी सिद्ध हो रही है।

सन् 1970 से अब तक अधिक नहीं तो 50,000 लघुकथाएँ तो लिखी ही जा चुकी होंगी । कथ्य की प्रकृति और प्रवृत्ति की दृष्टि से अध्ययन हेतु इन सब लघुकथाओं के दो समूह बनाए जा सकते हैं । एक समूह सन् 1970 से 2000 तक की लघुकथाओं का और दूसरा सन् 2000 से 2023 के अन्त तक अथवा आगे जिस सन् में भी यह कार्य हो, उसके अन्त तक की लघुकथाओं का बनाकर उनके कथ्यों का तुलनात्मक अध्ययन करें, तभी हमें पता चलेगा कि हम आगे बढ़े हैं या जहाँ के तहाँ खड़े हैं। लघुकथाकार के रूप में हम अपना मात्र प्रचार ही कर रहे हैं या हमारी लघुकथाओं में शाश्वत भी कुछ है। जो लघुकथाएँ कुछेक आत्ममुग्धों द्वारा कुछेक आत्ममुग्धों के लिए आत्ममुग्ध-सी आकलित हों, उन पर समय नष्ट करने का समय समाप्त हो चुका है। आज हमें ऐसी लघुकथाएँ चाहिए जो अपनी गतिमानता सिद्ध करती हों। समय बेशक बहुत तेजी से भाग रहा है। उतनी ही तेजी से लघुकथाएँ भी सामने आ रही हैं। कुछ लघुकथाकार लिखने की जल्दी में हैं। कुछ लघुकथाकारों के सामने दुनिया तेजी से खुल रही है, वे किंचित ठहरकर तेजी से खुल रही इस दुनिया का जायजा लेना चाहते हैं, लिखने की जल्दी में नहीं हैं। लघुकथा को पाठक  भी दो तरह का मिल रहा है। एक वो, जिसके पास समझने की समझ नहीं है, उसे सिर्फ रंजन चाहिए या फिर हल्की-फुल्की भावुकता; दूसरा वह, जिसके पास समझने के लिए समय नहीं है; जल्दी-जल्दी पढ़कर वह जल्दी ही भूल भी जाने लगा है। ऐसा लगता है कि बहुत-से लघुकथाकार बस इन दोनों के लिए ही लिख रहे हैं। उनके कथ्य चयन में, भाषा में, शिल्प में सिंथेटिसिटी होती है, संवेदनात्मक संस्पर्श से उनकी लघुकथाएँ निस्पृह रहती हैं। झटपट तैयार की गयी सामग्री जल्दी में रहने वाले पाठकों के लिए ही हो सकती है। सामयिक भाषा में कहें तो वैसी लघुकथाएँ ‘चीनी उत्पाद’ है—गैर-टिकाऊ, गैर-भरोसेमंद और गैर-जिम्मेदार।

टिकाऊ लघुकथाकार की क्या पहचान है? पहली तो यह कि वह विगत से आगे का कथ्य प्रस्तुत कर रहा होता है; और दूसरा यह कि अलग-अलग तकनीकों और शैलियों में एक समान कथ्य को वह दोहराता नहीं है। कथ्य का दोहराव करने वाला कथाकार स्वयं तो लेखन से हट जाने की ईमानदारी दिखा नहीं सकता, आलोचक को ही आगे आकर साहस के साथ इस कार्य को सम्पन्न करना चाहिए। समकालीन जीवन की नवीन समस्याओं को साहस के साथ कह पाने में अक्षम लघुकथाकार को लादे क्यों रखा जाए? वह यदि विषय नये नहीं चुन पा रहा है तो प्रश्न तो नये खड़े कर ही सकता है; और अगर नये प्रश्न भी खड़े कर पाने की योग्यता उसमें नहीं है तो ऐसे दिवालिया व्यक्ति को कथाकार क्यों माना जाए, विधा उसे क्यों झेले? (रचना तिथि 29-5-2023)

संपर्क : एफ-1703, आर जी रेजीडेंसी, सेक्टर 120, नोएडा-201301 (उप्र)

मोबाइल : 8826499115

शुक्रवार, 1 दिसंबर 2023

समकालीन लघुकथा और स्त्री, पुरुष जीवन के द्वंद्व / बलराम अग्रवाल

27 अक्टूबर, 2018 को ‘लघुकथा कलश’ सम्पादक योगराज प्रभाकर को लिखे मेल की प्रति—

प्रिय योगराज जी,

‘लघुकथा कलश, महाविशेषांक-2 पृष्ठ 228 पर सविता इन्द्र गुप्ता की लघुकथा 'सीढ़ियाँ' छपी है।

इसे पढ़ते हुए मुझे हरिशंकर परसाई की लघुकथा ‘लिफ्ट’ और पारस दासोत की लघुकथा ‘वह फौलादी लड़की’, दोनों एक-साथ याद आयीं। यहाँ इन तीनों रचनाओं को क्रमश: पढ़िए और विचार कीजिए कि सफल स्त्री पर चारित्रिक गिरावट का लांछन लगाना इतना आसान क्यों है? ये लांछन उपजे किस मानसिकता हैं? इनमें यद्यपि परसाई जी की लघुकथा पतित पुरुष की ही मानसिकता व्यक्त करती है, लेकिन इस्तेमाल तो स्त्री ही हुई।

सविता की पात्र अंत में एक द्वंद्व से गुजरती है और पारस जी की पात्र तो नारी-सुलभ सौम्यता ही खो बैठती है। स्त्री को ही इस नियति से क्यों गुजरना पड़ता है। पुरुष के पास क्या सिर्फ दंभ है? या फिर, जीवन में क्या खोया, क्या पाया के ऐसे द्वंद्व से कभी वह भी गुजरता है? नहीं, तो क्यों? हाँ, तो किस तरह? चर्चा इस विषय पर करनी है। समकालीन लघुकथा को टाइप्ड विषयों से बाहर निकालने के लिए यह आवश्यक है।

सविता की लघुकथा में स्त्री का इस द्वंद्व से गुजरना समकालीन लघुकथा में स्त्री के चरित्र-चित्रण में एक बदलाव को रेखांकित करता है। इन सभी लघुकथा के माध्यम से आइए, उस पर बात करें:

1लिफ्ट /हरिशंकर परसाई

वे दोनों एक ही विभाग में बराबर के पद पर थे। उनके दफ्तर दूसरी मंजिल पर थे। वे अक्सर फाटक पर मिल जाते और साथ-साथ सीढ़ियाँ चढ़कर अपने कमरों में पहुँच जाते।

विभाग में एक ऊँचा पद खाली हुआ। दोनों उसके लिए कोशिश करने लगे।

ऊँचे पद का दफ्तर चौथी मंजिल पर था।

उनमें से एक को छुट्टी लेकर अपने गाँव जाना पड़ा। दूसरा कोशिश करता रहा। उसकी कोशिश के प्रकार के सम्बन्ध में दफ्तर में कानाफूसी होने लगी। पहला, छुट्टी से लौटकर आया, तो उसके कान में भी लोगों ने वे बातें कह दीं, जो वे एक-दूसरे से कहा करते थे।

फाटक पर वे दोनों फिर मिल गये। पहला सीढ़ी की तरफ मुड़ा और दूसरा लिफ्ट की तरफ।

पहले ने कहा, "आज सीढ़ियों से नहीं चढ़ोगे?"

दूसरे ने कहा, "मुझे तो अब चौथी मंजिल पर जाना है न! वहाँ सीढ़ियों से नहीं चढ़ा जाता। लिफ्ट से जाना चाहिए।"

पहले ने कहा, "हाँ भाई, लिफ्ट से चढ़ो! हमारी लिफ्ट तो 35 साल की, और मोटी हो गयी है।"

2॥ वह फौलादी लड़की / पारस दासोत

समय के साथ कदम मिलाती लड़की ने, जब उस दिन भी, हमेशा की तरह अपनी रट लगायी--"मुझे फौलाद की बना दो!" समय ने, न चाहते हुए भी, उसकी जिद रखने हेतु, उसे फौलाद की बना दिया।

फौलाद की बनने के बाद, लड़की ने देखा--उसके अमूल्य आभूषण भी फौलाद में ढल गये हैं। वे प्यारभरे झोंकों से न तो हिलते हैं, न डोलते हैं। उन्होंने धीरे-धीरे अपना अर्थ, अपनी पहचान खो दी है।

परिणाम यह हुआ, फौलाद बनी लड़की, ताप पर न तो फैलती, न ही अपनी सुगंध छोड़ती। वह तो केवल मूर्ति बनकर रह गयी। एक ऐसी मूर्ति, जिसमें जान तो है, लेकिन धड़कन नहीं है। वासना तो है, पर प्रसव-आनंद नहीं है। बच्चा तो है, लेकिन उसके पास त्यागरूपी आभूषण… ! आभूषण तो है, पर वह प्यारभरे झोंकों से न तो हिलता है, न डोलता है।

आज, जब फौलाद बनी लड़की के पास उसकी राह पर पास ही, समय चल रहा था, वह यकायक समय को, अपने पास देखकर उससे बोली, "मुझे आपसे जरूरी बात करना है, मैं आपसे कल मिलूँगी!"

दोनों, अपनी-अपनी राह, व्यंग्यभरी मुस्कान लेते, चल रहे थे।

3॥ सीढ़ियाँ / सविता इन्द्र गुप्ता

आई.सी.यू. में पिछले तीन माह से रात-दिन दवाइयाँ, ड्रिप्स, ऑक्सीजन, ब्लड ट्रांसफ्यूजन आदि से वह तंग आ चुकी है। सीमित मात्रा में शायद नशीली दवाएँ भी नियमित रूप से दी जा रही हैं, जो उसे ज़िंदा रखने के लिए जरूरी हैं। आधी सोई, आधी जागी-सी हालत में उसे रह-रह कर अपना बचपन याद आ रहा है।

बचपन में सीढ़ियाँ चढ़ने का शौक था। सब रोकते रह जाते थे लेकिन वह खटाखट चढ़ जाती थी। चढ़ती चली गयी ... स्कूल टीचर्स, अमीर साथी और हैड ऑफ़ डिपार्टमेंट, सभी के कन्धों पर चढ़ कर ... एक के बाद एक सीढ़ी ... पापा की नाराजगी को पैरों तले रौंदते हुए, माँ के दिए संस्कारों को कुचलते हुए ... जग हँसाई को नकारते हुए। किसी से लाभ उठाने में वह किसी भी हद तक जाने को तैयार रहती थी।

प्रबंधन में असाधारण योग्यता के बलबूते पर वह एक कम्पनी की सी.ई.ओ. बनी, तो उसने कंपनी के वारे-न्यारे कर दिए थे। कम्पनी का मालिक उसका मुरीद हो गया था। मालिक ने अपनी पत्नी को तलाक दे कर उसे साथ रहने को फुसलाया। वह तुरंत मान गई लेकिन कम्पनी मालिक को उसने एक ऊँची सीढ़ी से अधिक कुछ नहीं समझा था। लिव-इन की पहली रात को कम्पनी के पचास प्रतिशत शेयर उसके नाम कर दिए गए यानी पचास करोड़ रुपये, साथ में दबे पाँव एच.आई.वी. वायरस भी।

अन्धेरा सब कुछ लीलता जा रहा है।

नर्स घबरा कर डॉक्टर को बुलाती है। वह बेहोशी में बड़बड़ा रही है,

"स्मार्ट हूँ ...सुन्दर हूँ ... करोड़ों का बैंक बैलेंस है ... डॉक्टर ! मेरा सब कुछ तुम्हारा ...बस मुझे बचा लो ... उफ़्फ़ ... इतना अँधेरा ... क्यों कर रखा है ? ये बहुत लम्बी सीढ़ी कौन लाया है ?"

बुधवार, 29 नवंबर 2023

मन को मथता लघुकथा संग्रह

‘भीतर कोई बंद है’ कवयित्री-कथाकार डॉ॰ क्षमा सिसोदिया की लघुकथाओं का दूसरा संग्रह है। इसमें उनकी 67 लघुकथाएँ संग्रहीत हैं। इससे पूर्व उनकी लघुकथाओं का एक अन्य संग्रह ‘कथा सीपिका’ नाम से प्रकाशित हो चुका है। लघुकथा के अलावा ‘केवल तुम्हारे लिए’ नाम से काव्य संग्रह,  'इन्द्रधनुषीय' नाम से हाइकु संग्रह और 'जगमग बाल वाटिका' नाम से उनकी बाल कविताओं का भी एक संग्रह पूर्व में प्रकाशित हो चुका है।
जन संदेश टाइम्स, 29-11-2023, पृष्ठ 2/साहित्य संपादक संतोष सुपेकर के सौजन्य से

इस संग्रह में लघुकथाओं की प्रथम लघुकथा ‘मधुर मंगल मिलन’ है और अन्तिम ‘मृगतृष्णा से आजादी’; और इन दोनों के बीच 65 अन्य लघुकथाएँ गुनगुनी धूप का आनन्द लेती-सी इस संग्रह के विस्तृत तट पर विद्यमान हैं। ‘मधुर मंगल मिलन’ और ‘मृगतृष्णा से आजादी’, दोनों ही रचनाओं में काव्य तत्त्व की प्रमुखता है, इसीलिए इन रचनाओं को श्रेष्ठ गद्य-काव्य की श्रेणी में रखा जा सकता है। संग्रह की ‘कपाल की महिमा’, ‘बरसाती मेंढक’, ‘प्रेम की तलाश’, ‘कटी हुई पतंग’, ‘देखो वो चला गया’ को भी गद्य-काव्य ही कहा जा सकता है।

मक़तबे-इश्क का दस्तूर निराला देखा, उसको छुट्टी न मिली जिसको सबक याद हुआ—यह कथ्य है उनकी लघुकथा ‘प्रीत की पगडंडी’ का।

लेखिका के पास बेहतरीन व्यंजनात्मक भाषा है जिसका प्रयोग संग्रह की लघुकथाओं में सहज ही हुआ है। उदाहरणार्थ, ‘एक साहित्यिक सभा अपने उत्पादों का उत्सव मना रही थी’ (सौ सुनार की एक लोहार की), ‘आज की कानून व्यवस्था के ढीले पड़े नट-बोल्ट को आखिर कौन-से गैराज में टाइट करवाएँ…?’ (कवरेज), जोश के साथ बिस्तर से उठकर अपने कपड़े ठीक करते हुए पहले हथेलियों की ओर देखा और फिर हाथ से दीवार पर एक जोरदार चोट की। (न्याय की ओट में), ‘मैं फटी ओढ़नी में भी खुद को ढँकी रखी और तू रेशमी लिबास पहने हुए भी खुद को उघाड़ती रही।’ (परिभाषा), ‘जिन्हें अन्दर जगह नहीं मिली, वो बाहर से कान लम्बे करके सब सुन लेना चाहते थे।’  ‘जैसे वह अपने करंट से अपराधी को भस्म कर देना चाहती हो।’, ‘प्रश्न की बौछार से उसके वस्त्र ही तार-तार कर देगा।’ (नकाबपोश)।           

‘आपकी खूबसूरत जिन्दगी का बँटवारा वक्त कब कर देगा, वक्त कभी भी बताता नहीं है।’ (बँटवारा), ‘आगे बढ़ने की सोच रखने वाली होनहार बेटियाँ मुसीबतों से तो खूब जद्दोजहद कर लेती हैं, पर अपनी ही सुरक्षा के मोर्चे पर आकर हार जाती हैं।’, ‘आने वाला समय बेटियों के हौसलों से ही बदलेगा।’, ‘हत्यारा तो केवल शरीर नष्ट करता है, जबकि दुष्कर्मी आत्मा को हिला देता है।’, ‘मेरी बेटी भी अब चुप्पी को नहीं, चुनौती को चुनेगी।’  (न्याय की ओट में),  ‘नशा बहुत खराब चीज है, चाहे वह रूप का हो, दौलत का हो, शराब का हो, रुतबे का हो या कुर्सी का हो।’ (नशा),  ‘ईश्वर कभी किसी के साथ अन्याय नहीं करता है।’ (चलित स्वाभिमान), ‘आजकल रईसी, पद-प्रतिष्ठा खानदानी नहीं, बल्कि ऊँची कुर्सियों से पैदा होती है।’ (परिभाषा), ‘हमारी बच्चियों में बहुत शक्ति होती है, बस उसे वे पहचान नहीं पाती हैं।’ (सशक्त जागरण अभियान) जैसे सूक्ति-वाक्य भी कुछेक लघुकथाओं में ध्यान आकर्षित करते हैं।

‘पथ की अशेषता’ शैल्पिक कमजोरी का शिकार हो गयी है। ‘बाल मजदूर’ एक मार्मिक कथा है, ‘चलित स्वाभिमान’, ‘सशक्त जागरण अभियान’, ‘बदलाव’, ‘गुरु दक्षिणा’, ‘सतगुरु दीक्षा’ प्रेरक, ‘नकाबपोश’ साहसिक। ‘मासूम क्राइम’ बाल मनोविज्ञान की उत्कृष्ट लघुकथा है। ‘श्रद्धांजलि’ अपनी कथन-शैली और समापन प्रक्रिया दोनों में लघुकथा से काफी भिन्न रचना है। इसको तथा ‘मैला आंचल’ को लघु-आकारीय कहानी कहना अधिक उपयुक्त रहेगा। लघुकथा ‘विडम्बना’ का अन्त उच्च शिक्षा की पैरवी करता है, सो तो ठीक है; लेकिन जिसे यह लघुकथा ‘संस्कार’ बता रही है, वह संस्कार नहीं कु-शिक्षा है। इस लघुकथा का ‘साँप और बिच्छू के काटने पर तो औरत चिल्ला भी लेती है, लेकिन जब कोई अपना प्रिय ही डंक मारे तो वह आह भी नहीं निकाल पाती है।’ वाक्य ध्यान आकर्षित करता है। ‘न्याय की ओट में’ कथ्य, शिल्प और स्थापना आदि की दृष्टि से श्रेष्ठ लघुकथा है। ‘प्रियदर्शिनी’ में फैशन के भौंडेपन पर चोट की गयी है। ‘अतीत से निरपेक्ष’ अति सुन्दर किन्नर कथा है, बिना किसी घोषणा विशेष के।

‘कुकर्मों का हिसाब’ जैसी कुछ लघुकथाएँ एक समाधानात्मक समापन वाक्य के साथ खत्म होती हैं और लघुकथा की खूबसूरती और उसके अस्तित्व का हनन कर देती हैं। ‘पीड़ित कौन है’ में माँ-बाप के बीच सुलह संबंधी जो वाक्य सात वर्षीय मासूम से कहलाया गया है, वह स्वाभाविक नहीं लगता है। ‘पहली सासू माँ’, ‘सटीक सवाल’ में क्षमा कुछ नये, प्रगतिशील विचार प्रस्तुत करती हैं। ‘निषिद्धपाली’ कुछेक सांस्कृतिक समाधान प्रस्तुत करती रचना है। 

इस लघुकथा संग्रह का नाम अपने आप में काफी गहराई लिए, व्यंजक और दार्शनिक पृष्ठभूमि से जुड़ा प्रतीत होता है। ऐसा अभिव्यंजित होता है जैसे लेखिका के हृदय में बहुत-कुछ है जो विविध कथ्यों की इतनी लघुकथाएँ देने के बावजूद बंद है, कैद है। अनेक लघुकथाएँ तो मथती ही हैं, संग्रह का नाम भी अलग से पाठक के मन को मथता है। भाषा में क्रिया पद आदि से संबंधित कुछ कमियों के बावजूद क्षमा सिसोदिया की ये लघुकथाएँ आकर्षित करती हैं। 

समीक्षित लघुकथा संग्रह

भीतर कोई बंद है;

कथाकार—डॉ॰ क्षमा सिसोदिया; 

प्रकाशक—कलमकार मंच, 3, विष्णु विहार, अर्जुन नगर, दुर्गापुरा, जयपुर-302018 

संस्करण—प्रथम, जनवरी 2020; 

कुल पृष्ठ—96, मूल्य—रु. एक सौ पचास (पेपरबैक); 

आईएसबीएन—978-81-944492-8-7         

समीक्षक  

बलराम अग्रवाल

एफ-1703, आर जी रेज़ीडेंसी, सेक्टर 120, नोएडा-201301 (उप्र) 

मोबाइल—8826499115

रविवार, 19 नवंबर 2023

लघुकथा और सामान्य-जन/बलराम अग्रवाल

साहित्यकार-पत्रकार प्रेम विज के सौजन्य से

लघुकथा और सामान्य-जन

दुनियाभर में लघु-आकारीय कहानियों का चलन प्राचीन काल से ही रहा है, यह निर्विवाद है। विष्णु शर्मा कृत 'पंचतन्त्र' की कहानियाँ हों, जैन- कथाएँ हों, जातक कथाएँ हों, मोपासां की कहानियाँ हों, खलील जिब्रान की ये भाववादी कथाएँ हों या हितोपदेश, कथा-सरित्सागर आदि की कहानियाँ- इनमें से किसी भी कहानी को आप 'कौंधकथा' यानी फ्लैश-फिक्शन नहीं कह सकते। ये सब-की-सब अपने-आप में पूर्ण कथाएँ हैं । 'केवल बहस करने के लिए बहस' की निरर्थक प्रवृत्ति से अलग 'कुछ सार्थक पाने हेतु जिज्ञासा' की दृष्टि से बहस हो तो सवाल करने वाले से अधिक आनन्द उत्तर देने वाले को आता है।

गोस्वामी तुलसीदास कृत 'रामचरितमानस' में उत्तरकाण्ड के अन्तर्गत काकभुसुंडि-गरुड़-संवाद ऐसी ही सार्थक बहस है। तात्पर्य यह कि अपनी अहं-तुष्टि के लिए कोई वैसा प्रयास कर भले ही ले, परंतु किसी भी तरह उनको सार्थक विस्तार दे नहीं सकता; न ही उनके आकार को संक्षिप्त कर सकता है। ये कहानियाँ सार्वकालिक हैं और हर आयु, हर वर्ग, हर वर्ण, हर देश और हर स्तर के व्यक्ति का न केवल मनोरंजन बल्कि मार्गदर्शन भी करने में सक्षम हैं।

सामान्य-जन के जीवन से जुड़ी होने, जिज्ञासा बनाए रखने, जीवनोपयोगी होने, विभिन्न कुंठाओं से मुक्ति का मार्ग दिखाने का साहस रखने, मनोरंजक होने आदि के गुण से भरपूर होने के कारण कथाएँ लोककंठी हो गयीं यानी जन-जन के कंठ में जा बसीं। यह किसी भी रचना - विधा और उसके लेखक के जन सरोकारों का उत्कर्ष है कि वह इतनी लोककंठी हो जाय कि उसके लेखक का नाम तक जानने की आवश्यकता अध्येताओं-शोधकर्ताओं के अतिरिक्त सामान्य जन को महसूस न हो। पं. रामचन्द्र शुक्ल द्वारा निर्धारित गद्यकाल से पूर्व की लाखों कथाएँ इस कथन का सशक्त उदाहरण हैं। काव्य-क्षेत्र भी इस कथन से अछूता नहीं है। विभिन्न रस्मो-रिवाजों से लेकर पर्वों-त्योहारों व आज़ादी की हलचलों को स्वर प्रदान करते अनगिनत लोकगीतों के साथ-साथ इस काल में कथावाचक श्रद्धाराम फिल्लौरी द्वारा रचित बहु- प्रचलित आरती 'जय जगदीश हरे' भी इस कथन का सशक्त उदाहरण है जिसके रचयिता का नाम अधिकतर लोग नहीं जानते और न ही जानने के प्रति जिज्ञासु हैं।

                    ● बलराम अग्रवाल,  नोएडा, यूपी

चण्डीभूमि साप्ताहिक, चण्डीगढ़, 

12-18 नवंबर 2023

रविवार, 24 सितंबर 2023

लघुकथा और आज का समय / बलराम अग्रवाल

एक समय था जब उपन्यास साहित्य की लोकप्रिय विधा थी और वे उपन्यास थे—देवकीनन्दन खत्री जी के। उसके बाद आया कहानी का समय। उस समय के अधिष्ठाता मुख्यत: हम प्रेमचंद को मान सकते हैं। और अब लघुकथा का भी समय है। …सिर्फ लघुकथा का नहीं है, लेकिन लघुकथा कथा-साहित्य के बीच इस समय में अपनी उपस्थिति अवश्य दर्ज करती है।

जिसे हम उपन्यास का समय कहते हैं, वह ऐसा समय था, जब समूचा कैनवस लेखक के सामने लगभग खाली पड़ा था। धार्मिक कथाओं से परिसम्पन्न महाकाव्य आदि की कथाओं-उपकथाओं से ऊब चुके पाठक और श्रोता दोनों को उनसे कुछ अलग चाहिए था, जो तत्कालीन उपन्यासकारों ने विभिन्न रूपों में दिया। पहले खत्री जी आदि ने, बाद में प्रेमचंद, प्रसाद, इलाचन्द्र जोशी, जैनेन्द जी आदि ने। लगभग यही बात कहानी के सम्बन्ध में भी कही जाती है। कहानी ने तो अपने ऊबे हुए पाठक को नयी कहानी, समांतर कहानी, सचेतन कहानी, अ-कहानी आदि से बहलाने की भी कोशिशें कीं। लेकिन कहानी से ऊबे पाठक को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल वस्तुत: लघुकथाकार हुए।  लघुकथा ने भी गत 50 वर्षों में अपने क्राफ्ट में अनेक सार्थक परिवर्तन, परिवर्द्धन किये हैं। आज की लघुकथा वही नहीं है जिसे स्वाधीनता से पहले विष्णु प्रभाकर जी, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर जी, आचार्य जगदीशचन्द्र मिश्र जी आदि लिख रहे थे; आज की लघुकथा वह भी नहीं है जिसे स्वाधीनता के बाद और 1975 तक भी अनेक कथाकार लिख रहे थे और जो ‘सारिका’ में छप रही थी। आज की लघुकथा शब्दश:  वह भी नहीं है जिसे आठवें-नवें दशक के लघुकथाकार लिख चुके हैं। वह, भले ही वहीं कहीं से प्रस्फुटित होती है, लेकिन एकदम नवीन अन्तर्वस्तु, भाषा, शिल्प और शैली, संकेत और व्यंजना की रचना है। आठवें-नौवें-दसवें दशक से लिखते आ रहे कुछ लघुकथाकार नवीन अन्तर्वस्तु प्रस्तुत करने में सफल रहे हैं। नयी पीढ़ी उनसे सीख भी रही है, प्रेरणा भी पा रही है और ताजगी प्रदान करने में सहायक भी सिद्ध हो रही है।

सन् 1970 से अब तक अधिक नहीं तो 50,000 लघुकथाएँ तो लिखी ही जा चुकी होंगी । कथ्य की प्रकृति और प्रवृत्ति की दृष्टि से अध्ययन हेतु इन सब लघुकथाओं के दो समूह बनाए जा सकते हैं । एक समूह सन् 1970 से 2000 तक की लघुकथाओं का और दूसरा सन् 2000 से 2023 के अन्त तक अथवा आगे जिस सन् में भी यह कार्य हो, उसके अन्त तक की लघुकथाओं का बनाकर उनके कथ्यों का तुलनात्मक अध्ययन करें, तभी हमें पता चलेगा कि हम आगे बढ़े हैं या जहाँ के तहाँ खड़े हैं। लघुकथाकार के रूप में हम अपना मात्र प्रचार ही कर रहे हैं या हमारी लघुकथाओं में शाश्वत भी कुछ है। जो लघुकथाएँ कुछेक आत्ममुग्धों द्वारा कुछेक आत्ममुग्धों के लिए आत्ममुग्ध-सी आकलित हों, उन पर समय नष्ट करने का समय समाप्त हो चुका है। आज हमें ऐसी लघुकथाएँ चाहिए जो अपनी गतिमानता सिद्ध करती हों। समय बेशक बहुत तेजी से भाग रहा है। उतनी ही तेजी से लघुकथाएँ भी सामने आ रही हैं। कुछ लघुकथाकार लिखने की जल्दी में हैं। कुछ लघुकथाकारों के सामने दुनिया तेजी से खुल रही है, वे किंचित ठहरकर तेजी से खुल रही इस दुनिया का जायजा लेना चाहते हैं, लिखने की जल्दी में नहीं हैं। लघुकथा को पाठक  भी दो तरह का मिल रहा है। एक वो, जिसके पास समझने की समझ नहीं है, उसे सिर्फ रंजन चाहिए या फिर हल्की-फुल्की भावुकता; दूसरा वह, जिसके पास समझने के लिए समय नहीं है; जल्दी-जल्दी पढ़कर वह जल्दी ही भूल भी जाने लगा है। ऐसा लगता है कि बहुत-से लघुकथाकार बस इन दोनों के लिए ही लिख रहे हैं। उनके कथ्य चयन में, भाषा में, शिल्प में सिंथेटिसिटी होती है, संवेदनात्मक संस्पर्श से उनकी लघुकथाएँ निस्पृह रहती हैं। झटपट तैयार की गयी सामग्री जल्दी में रहने वाले पाठकों के लिए ही हो सकती है। सामयिक भाषा में कहें तो वैसी लघुकथाएँ ‘चीनी उत्पाद’ है—गैर-टिकाऊ, गैर-भरोसेमंद और गैर-जिम्मेदार।

टिकाऊ लघुकथाकार की क्या पहचान है? पहली तो यह कि वह विगत से आगे का कथ्य प्रस्तुत कर रहा होता है; और दूसरा यह कि अलग-अलग तकनीकों और शैलियों में एक समान कथ्य को वह दोहराता नहीं है। कथ्य का दोहराव करने वाला कथाकार स्वयं तो  लेखन से हट जाने की ईमानदारी दिखा नहीं सकता, आलोचक को ही आगे आकर साहस के साथ इस कार्य को सम्पन्न करना चाहिए। समकालीन जीवन की नवीन समस्याओं को साहस के साथ कह पाने में अक्षम लघुकथाकार को लादे क्यों रखा जाए? वह यदि विषय नये नहीं चुन पा रहा है तो प्रश्न तो नये खड़े कर ही सकता है; और अगर नये प्रश्न भी खड़े कर पाने की योग्यता उसमें नहीं है तो ऐसे दिवालिया व्यक्ति को कथाकार क्यों माना जाए, विधा उसे क्यों झेले?                                                      (रचना तिथि 29-5-2023)

गुरुवार, 14 सितंबर 2023

लघुकथा : आनेवाला कल / बलराम अग्रवाल

 

इक्कीसवीं सदी में लघुकथा के लिए नई-नई दिशाएँ खुली हैं। इस तीसरे दशक में लघुकथाकारों का एक निश्चित लक्ष्य होना चाहिएस्वस्थ  व्यक्ति, स्वस्थ मन, स्वस्थ समाज और स्वस्थ राष्ट्र। सुनने में यह किसी राजनीतिज्ञ के एजेंडा की तरह लगता है, है नहीं। इसका पूरा संबंध साहित्य और साहित्यकार से है; उस व्यक्ति से है जो अपने समाज, राष्ट्र और समूची मानव-जाति से प्रेम करता है। बावजूद इसके कि कथाकार कल्पनाओं के जाल बुनता है, वस्तुत: व्यक्ति ही है।  व्यक्ति है तो समाजगत कुंठा, घुटन, रोमांस आदि में भी सामान्य नागरिक की तरह, कम या अधिक, उसकी आसक्ति रहेगी ही। ये सब कम या ज्यादा रह सकती हैं, लेकिन इन सबका उसके जीवन से बिल्कुल लोप ही हो जाएगा, यह नहीं कहा जा सकता। डॉ. कमल किशोर गोयनका द्वारा कहा ही जा चुका है कि लघुकथा जीवन की आलोचना है, वह जीवन को आगे रखकर चलती है।

लघुकथाकार को अपनी लघुकथाओं द्वारा मानव जीवन को सुखी बनाने के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के प्रयास करने चाहिए। विषम परिस्थितियों को तोड़ने वाली कथाएँ प्रस्तुत करनी चाहिए। सामाजिक और राजनीतिक जीवन में झूठ और फरेब का पर्दाफाश करते रहना चाहिए। कुल मिलाकर यह कि उसे लघुकथा के रूप में मानव जीवन से हताशाओं और निराशाओं को दूर करने के ‘ताबीज’ बनाते रहना चाहिए। अगर ध्यान से देखें तो लघुकथा आदिकाल से ही मनुष्य के लिए ‘ताबीज’ का काम करती आयी है। अन्तर मुख्यत: यह है कि पूर्वकालीन लघुकथाएँ सीधी-सरल उपदेश की अथवा बोध की भाषा में प्रस्तुत होती थीं जबकि आज की लघुकथाएँ अपेक्षाकृत अधिक तीक्ष्ण, संकेतात्मक, व्यंजनात्मक और कलात्मक स्पर्श का परिचय दे रही हैं। मैं यह नहीं कहता कि किसी भी पूर्ववर्ती लघुकथा ने ऐसा नहीं किया, अवश्य किया है; लेकिन इक्कीसवीं सदी के इस तीसरे दशक तक आते-आते लघुकथा ने बदलते मूल्यों को पहचानने और प्रकट करने में काफी दक्षता का प्रदर्शन किया है। लघुकथाकार यदि यह देख रहा है कि जीवन को भौतिक दृष्टि से सुखी बनाने में मनुष्य का विश्वास बढ़ा है तो आध्यात्मिक तुष्टि की ओर जाने से भी उसके कदम रुके नहीं हैं, इस सत्य पर भी उसकी नजर है। लघुकथाकार आज के मनुष्य को उसकी पूर्णता में देख रहा है, न कि आधा-अधूरा। वह उसके मानसिक और आत्मिक, हर पहलू पर नजर रख रहा है।

नई सदी के लघुकथाकारों ने जीवन की बदली हुई परिस्थितियों से मोर्चा लेने के लिए त्वरित गति से पैंतरा बदला हो, ऐसा नहीं है। उन्होंने धैर्य के साथ समय को देखते-परखते ऐसा किया है। पिटे-पिटाये विषय, घिसे-घिसाये मुहावरे और नकली-सी लगती कथन-भंगिमाएँ यद्यपि कुछ लोग अभी भी दोहरा रहे हैं तथापि समेकित रूप से देखें तो उन सब को अधिकतर ने लगभग छोड़ ही दिया है। लगातार नये कथ्य, नये मुहावरे और नयी कथन-भंगिमाएँ सामने आ रही हैं।

आज का कथाकार, वह युवा हो या प्रौढ़, नित नयी समस्याओं से लोहा लेते हुए पूरी शक्ति से जूझ रहा है। यहाँ हमें कथा-लेखन के संदर्भ में ‘समस्या’ के और ‘लोहा लेने’ के स्वरूप को समझना होगा। अगर हमने विचारधारा-विशेष से स्वयं को बाँध लिया है तो वैचारिक स्वतंत्रता से हम दूर हट जाते हैं। किसी भी साहित्यकार का वैचारिक स्वतंत्रता से दूर हट जाना ही साहित्य क्षेत्र में ‘समस्या’ समझा जाना चाहिए क्योंकि यह क्षेत्र सत्य, साहस और न्याय का क्षेत्र है, आँखों पर पट्टी बाँधकर किसी एक तरफ चलते चले जाने का नहीं। रचनाकार के नाते यह उसके लिए स्वाभाविक भी नहीं है। वह यदि कला की उत्कृष्टता की ओर सचेत है, तो जीवन-सत्य को गहराई से देखने-परखने, जीवन के प्रति अपनी सत्यनिष्ठा को व्यक्त करने की ओर भी लगातार प्रयत्नशील रहना उसका दायित्व है।

लिखने की लत रखने वाले लघुकथा-लेखकों को छोड़कर अथवा लघुकथा-लेखन से वीतराग हुए लेखकों को छोड़कर अन्य कोई जागरूक और सचेत लेखक जीवन संग्राम से अलग नहीं रह सकता। जेनुइन लेखक को अपने और अपने चारों ओर के समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करना पड़ता है । लेखक सिर्फ लेखक नहीं है, वह जागरूक सामाजिक व्यक्ति भी है। व्यक्ति होने के नाते वह अकेला नहीं है।  समाज से, राष्ट्र से और अंततोगत्वा विश्व से उसका घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है। अपने समाज और राष्ट्र में जो कुछ घटित होता है उससे वह निस्पृह नहीं रह सकता। हिन्दी में शायद ही कोई ऐसा लघुकथाकार हो, जो अपनी कथा में 'भारतीयपनबरतने में संकोच का अनुभव करता हो। विशेषकर आज, जब भारतीय जीवन की नींव को मजबूत बनाना प्रत्येक नागरिक का पुनीत कर्तव्य है। बेशक, कुछ लोग देश और संस्कृति की स्वतन्त्र चेतना और साहित्य-रचना के बीच किसी प्रकार का कोई जुड़ाव नहीं मानते। वे आवश्यकता से अधिक वैश्विक हो चुके हैं और यह मानने लगे हैं कि एक ही समाज और राष्ट्र से लेखक का कुछ लेना-देना नहीं, वह तो लिखता है समूची मानव जाति के लिए। यही विचार विधा को छोड़कर दूसरी, तीसरी, चौथी विधा में जा कूदने को भी प्रेरित करता है। कुछ लोग असंतुलित विचार वाले भी हैं। वे मानसिक उलझन में पड़कर इधर-उधर भटक रहे हैं। साहित्य की जिस भूमि पर दोहा, साखी, चौपाई, कुण्डली और गजल सगर्व खड़ी हैं वहाँ लघुकथा को ‘छोटी’ विधा आँकने-मानने वालों  की बुद्धि पर तरस ही खाया जा सकता है। पूर्व में, लघुकथा-साहित्य के अनेक प्रतिभाशाली लेखक महत्वाकांक्षा की वेदी पर अपनी कला की बलि चढ़ा चुके हैं; लेकिन यकीनन, आने वाला समय लघुकथा से पलायन का न होकर, पलायन कर गये कथाकारों के लौट आने का होगा। कुछ हद तक गत दशक में ऐसा होता हम देख भी चुके हैं।                                          

                                      रचनाकाल 5 सितंबर, 2021 या उससे पहले कभी।

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