‘कवि-हृदय कथाकार आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र’ शीर्षक से डॉ॰ ॠचा शर्मा द्वारा सम्पादित ‘आचार्य जगदीश चंद्र मिश्र रचनावली, भाग-1 (लघुकथाएँ-बोधकथाएँ / प्रथम संस्करण 2024) में भूमिका स्वरूप संकलित आलेख की चौथी, समापन किस्त…
दिनांक 01-3-2024 को प्रकाशित तीसरी किस्त से आगे……
आचार्य मिश्र का कथाकार मन मनुष्यों की बात ही न करता हो, ऐसा नहीं है। वे दरअसल, धर्म-दर्शन और इहलोक दोनों के मध्यमार्गी कथाकार हैं। उदाहरणस्वरूप देखिए, उनकी यह बोध-कथा ‘मध्यम-मार्ग’—
नीचे धरातल पर रेलगाड़ी जा रही थी, बहुत ऊपर आकाश में एक हवाई जहाज और बीच मध्य आकाश में एक श्वेत कपोत क्रीड़ा कर रहा था।
नीचे से रेल ने पुकारा—“आओ, भद्र! तुम मुझे बहुत अच्छे लग रहे हो। नीचे का धरातल बहुत ही सुहावना होता है। मैं इसी से तो दिन-रात इसके वक्ष से लगी-लगी चला करती हूँ। मेरे निकट आओ, तुम्हें भी मैं अपने साथ लेकर चलूँगी?”
ऊपर से हवाई जहाज ने कहा—“आओ भद्र। तुम मुझे बहुत प्रिय हो। अत्यन्त श्वेत, निर्मल तुम्हारी काया है। संसार में बहुमूल्य वस्तुएँ सबसे ऊपर ही रहा करती हैं। इसी से तो मैं दिन-रात ऊपर ही ऊपर उड़ा करता हूँ। मैं तुम्हें, तुम जहाँ हो, उससे भी ऊपर ले चलूँगा?”
कपोत ने एक बार नीचे देखा, एक बार ऊपर, फिर दो क्षण बाद कहा—“सखि! सखे! मैं तो मध्यम-मार्ग का अनुयायी हूँ। नीचे आता हूँ तो मेरा आत्मसम्मान जाता है; ऊपर आता हूँ तो मेरा अहंकार जागता है।”
‘उड़ने के पंख’ (प्र. सं.1960) आचार्य मिश्र की 66 बोधकथाओं-लघुकथाओं का संग्रह है। फुटनोट के अनुसार ‘लघु-बोधकथा तथा हिन्दी साहित्य में उसकी उपलब्धि की सम्भावना’ शीर्षक जयकुमार ‘जलज’ के ‘जागरण’ में प्रकाशित लेख को इसकी भूमिका के रूप में अपनाया गया है। जैसाकि ऊपर कपोत ने कहा, नीचे आने पर उसका आत्मसम्मान जाता है और ऊपर आने पर अहंकार जागता है; इसलिए वह मध्य-मार्ग का अनुसरण करता है। कथाओं के स्वरूप को देखें तो आचार्य मिश्र निचले, मध्य और ऊपरी—तीनों मार्गों के कथा लेखक ठहरते हैं। उड़ने के पंख में संग्रहीत उनकी ‘मानवीय धर्म’ शीर्षक लघुकथा देखिए—
एक अंग-रक्षक ने डरते-डरते एक मिनिस्टर से पूछा—“स्वामिन्। आप लोग अपने प्राण भय से सब समय सशंकित क्यों रहा करते हैं? सुना है, देश-भक्त तो सदा अपने प्राणों को हथेली पर लिये संसार में निडर घूमा करते हैं?”
मिनिस्टर महोदय ने क्रोध से उत्तर दिया—“अरे, जान पड़ता है, तू बधिर है? हमने अनेक बार तो अपने भाषणों में घोषणा की है कि हमारा सर्वस्व हमारा नहीं, जनता का है; तन भी, मन भी, धन भी और प्राण भी। फिर दूसरों की धरोहर की, यत्न से सब समय रक्षा करना, क्या मानवीय धर्म नहीं है?”
इस कथा में करारा व्यंग्य है। भाषा, शिल्प, शैली अपने समय की संस्कृतनिष्ठ है इसलिए अग्राह्य लग सकती है; अन्यथा लगभग यही कथ्य आज भी लघुकथा में अपनाये जा रहे हैं। भाषा में संस्कृतनिष्ठता की बात करें तो आचार्य मिश्र की ‘कला का उपभोक्ता’ शीर्षक रचना का यह पहला पैरा पढ़ें—‘एक गृह-निर्माण-कला-विशारद एक धनिक की विशालकाय अट्टालिका का निर्माण कर जब उससे नीचे उतरा तो अपनी जीर्ण-शीर्ण पर्ण-कुटी में विश्राम के लिये जा बैठा।’ इस भाषा में आचार्यत्व के दर्शन होते हैं। अक्टूबर 1958 में इस कथा की रचना हुई है। तब तक इस भाषा के प्रयोग से हिन्दी लगभग मुक्त हो चुकी थी। सुदर्शन की लघुकथाओं का संग्रह ‘झरोखे’ 1947-48 में आ चुका था जो सरल हिन्दुस्तानी भाषा में है। विष्णु प्रभाकर, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, रावी और हरिशंकर परसाई भी उक्त काल में लघुकथाएँ लिख रहे थे, लेकिन संस्कृतनिष्ठ हिन्दी में नहीं। आचार्य जगदीशचन्द्र मिश्र की भाषा संस्कृतनिष्ठ है। ‘आचार्य मिश्र की कहानी कला’ शीर्षक ‘पंचतत्व’ की भूमिका में श्रीयुत् प्रकाश चन्द्र गुप्त ने लिखा है—‘इन रचनाओं में कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि उनकी आत्मा कहानी की अपेक्षा काव्य के अधिक निकट है। हिन्दी कहानी के इतिहास में विशेष रूप से दो प्रवृत्तियाँ परिलक्षित होती हैं। ‘प्रसाद’ की काव्यमय शैली और प्रेमचन्द की यथार्थवादी, आदर्शोन्मुखी शैली। इन दोनों धाराओं ने हिन्दी कहानी को समृद्ध किया है। आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र ‘प्रसाद’ के ‘रोमैन्टिक स्कूल’ के अनुयायी हैं।’ दर्शन और राग के काव्य मिश्रित गुण से सम्पन्न रचना ‘अचल की अनुभूति’ देखें—
एक सद्यविवाहिता सुन्दरी प्रियतमा-पत्नी ने अपने पति को अपनी कोमल भुजाओं में लपेटते हुए कहा—“प्रियतम, यदि नारी के ये दो क्षण जीवन में किसी तरह अचल हो जाते!”
उसके पति ने उत्तर दिया—“प्रिय, यदि ऐसा हो जाता तो नारी और पुरुष दोनों संसार में एक प्रकार के पाषाण होकर रह जाते; न उनमें सुखाभास रहता, न दुखाभास।”
डॉ. रामकुमार वर्मा ने ‘खाली भरे हाथ’ की भूमिका में लिखा है—‘बोध कथाओं में कथा तत्व कम और ज्ञान तत्व अधिक रहता है। संक्षिप्तता बोध कथा का प्रमुख गुण है; किन्तु इस संक्षिप्तता में जीवन की व्यापकता मुखरित होती है। आचार्य मिश्र जी की लघुकथाओं में जीवन के गहन और व्यापक तत्व सूक्ष्मता के साथ स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त हुए हैं और उनकी ‘बोध कथाएँ’ तो हिन्दी साहित्य को अपने प्रकार की पहिली और ऐसी अनूठी देन हैं जो मानवता के प्रकाश स्तम्भ की भाँति समाज का मार्ग सदैव ही आलोकित करती रहेंगी।’ इस सन्दर्भ में प्रस्तुत है आचार्य मिश्र की लघुकथा ‘धरती के प्राणी, आकाश की उड़ान’—
एक विमान को आकाश में उड़ते देख एक बालक ने अपनी माता से पूछा— “अम्मा! यह क्या है?”
माता ने उत्तर दिया—“पुत्र! विमान। वह नित्य आकाश में उड़ा करता है। जो आकाश में उड़कर इधर-उधर जाना चाहते हैं, उन्हें बिठाकर आकाश में ले जाया करता है।”
बालक ने फिर पूछा—“अम्मा। जो धरती के प्राणी है, वे आकाश में क्यों जाना चाहते हैं?”
माता ने उत्तर दिया—“पुत्र! शायद वे धरती पर न रहना चाहते हों?”
बालक ने फिर पूछा—“तो क्या अम्मा! वे यह नहीं जानते, धरती के प्राणी धरती पर रहकर ही फल-फूल सकते हैं?”
“जानते तो हैं, पुत्र।” माता ने उत्तर दिया—“फिर भी वे शायद ऐसा समझते हों, हम किसी दिन इस धरती को भी अपने साथ आकाश में विमान की तरह ले उड़ेंगे!”
‘उड़ने के पंख’ में बोध-कथाओं की प्रधानता है। आचार्य मिश्र की कथाएँ वस्तुत: कवि के हृदय से उद्भूत कथाएँ हैं। उनके गद्य में काव्य का प्रभाव और प्रवाह दोनों हैं। उनकी बोधकथाओं और लघुकथाओं दोनों में काव्यत्व है। ‘मित्र के लक्षण’ उनकी एक अलग तरह की उल्लेखनीय रचना है।
‘मिट्टी के आदमी’ (प्र. सं.1966) के आवरण पर पाठकों के लिए एक महत्वपूर्ण सूचना आचार्य मिश्र ने दी है—‘संसार की विभिन्न भाषाओं में अनूदित अभूतपूर्व व्यंग्य लघुकथाएँ’। इनमें कौन-सी लघुकथा कब, किस भाषा में अनूदित हुई, यह उल्लेख कहीं नहीं है। बहरहाल, इस आधार पर इन लघुकथाओं का व्यंग्य के क्षेत्र में भी समुचित सम्मान किया जाना चाहिए था, जो सम्भवत: नहीं हुआ। प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित इस संग्रह, में 32 लघुकथाएँ हैं। इनमें ‘स्त्री-पूजा’ स्त्री-विमर्श की उत्कृष्ट प्रगतिशील लघुकथा है, भले ही इसको एक दैवी पात्र के माध्यम से दृष्टान्त-शैली में लिखा गया है। ‘जन-हित,जन-सेवा’ तथा ‘मिट्टी के आदमी’ भी उत्कृष्ट कथाएँ हैं। ‘मिट्टी के आदमी’ में जीवित मनुष्यों में एक चेतना-विशेष की कमी के दर्शन पागल दिखने वाला पात्र राजा को कराता है। ‘नयी विद्या का उपदेश’ का सेठ यजमान अपने विद्वान पुरोहित से कहता है कि आप मुझे यह सिखाइए कि—‘यजमान! अपनी ही चिन्ता किया कर। अपना ही पेट भरा कर। स्वार्थ ही इस कलिकाल में मनुष्य जीवन के सुख का मूल है। परमार्थ की बात सोचेगा तो भूखा मर जायेगा। व्यापार बिगड़ जायेगा। साहूकारा टूट जायेगा। रही पाप-पुण्य के स्पर्श की बात ? उसके धोने वालों की तो आज संसार में कमी नहीं! पर, जिनका पेट भरा होता है. उनके पास ये बिना बुलाये ही दौड़ आते हैं, घोर भूखों के पास बार-बार बुलाने पर भी तो कभी नहीं जाते।’ वर्तमान सामाजिक चाल-चलन की दृष्टि से यह एक व्यवहारिक शिक्षा है। ‘आतिथ्य-लाभ’ मित्र की लम्पटई को सामने रखती है और सामान्य गृहस्थ को सावधान करती है। ‘जन-हित, जन-सेवा’ का कथ्य आज के भारत की राजनीतिक स्थिति से उठाया गया लगता है, जबकि इसका रचनाकाल 1966 के आसपास का है। ‘नया सम्बन्ध’ और ‘अन्धों का संग’ विशुद्ध व्यंग्य कथाएँ हैं। ‘तीन दिन का दुर्भाग्य’, ‘तीसरे पैर का खोट’, ‘वनराज का पीलिया’, ‘संसार का नियम’, ‘अमृत की घूँट’, ‘अमृत और विष’ उत्कृष्ट बोध-कथाएँ है। ‘भाई-भाई’ में आचार्य मिश्र ने स्त्रियों के एक मनोविज्ञान को सामने रखा है; यहकि स्त्री अपना सब-कुछ लुटते देख सकती है, आभूषण नहीं। जब तक चोर घर की अन्य वस्तुएँ चुरा रहा था, तरुणी भार्या अपने जार के साथ डरी-सहमी खड़ी रही। जैसे ही चोर ‘एक-एक कर उस घर की स्वामिनी के प्रिय आभूषण निकालने लगा तो उस समय वह अपनी वर्तमान (यानी पति की अनुपस्थिति में प्रेमी के साथ होने की) स्थिति को सर्वथा भूल गई और जिस जगह खड़ी थी, वहीं बड़ी-बड़ी जोर-जोर से चिल्लाने लगी—‘हाय, रे! मैं तो आज बुरी तरह लुट गई।’ परिणामत: चोर तो भागा ही, डर के मारे उसका प्रेमी भी भाग खड़ा हुआ। इस संग्रह की अनेक रचनाएँ लघुकथा के बजाय शॉर्ट स्टोरी हैं। ‘केले और सेव की प्लेट’ सरीखी अनेक रचनाओं में व्यंग्य के साथ-साथ हास्य का भी पुट है।
इसप्रकार, अनेक विविधताओं से युक्त कथा-लेखन प्रस्तुत कर हिन्दी लघुकथा साहित्य को समृद्ध करने वाले आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र लघुकथा के महत्वपूर्ण पूर्वज सिद्ध होते हैं। उनकी लघुकथा-चेतना के पुनर्पाठ, पुनर्आलोचन की आवश्यकता तो है ही, उन पर शोध की दृष्टि से भी अनेक कार्य होने चाहिए। अस्तु।
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