मंगलवार, 28 मई 2024

लघुकथा में लोक-तत्त्व, भाग-2 / बलराम अग्रवाल

 गत अंक से जारी दूसरी व समापन किस्त……


यहाँ नवीन का गत के साथ मेल है। किन्तु गत नवीन को कुण्ठित नहीं करता
, उसे निर्मलता प्रदान करता है। भारतीय संस्कृति गत और नवीन के श्वास-प्रश्श्वास से ही अपना शाश्वत जीवन स्पन्दन प्राप्त करती रही है। दूसरे शब्दों में इसे ही लोक और वेद का समूह कहते हैं।

 साहित्य की आत्मा मात्र लिपि की वर्णमाला से बँधी हुई नहीं है। साहित्य के प्रकार की कोई भी सार्थक शब्दावली साहित्य का माध्यम हो सकती है। उदाहरण के लिए, एक गीत महादेवी वर्मा सरीखी कोई विदुषी महिला लिखती या गाती है और एक गीत कोई ठेठ ग्रामीण महिला केवल गाती है, लिख नहीं पाती। होंगे तो दोनों गीत ही। साहित्य की आज की परिभाषा में दोनों को स्थान देना होगा। कबीर बे-पढ़े, बे-लिखे थे । सूरदास दिव्यांग थे, न पढ़ सकते थे और न लिख ही सकते थे। इनकी दोनों की रचनाएँ लम्बे समय से साहित्य के अन्तर्गत प्रकाश स्तम्भ की तरह खड़ी हैं । इसलिए साहित्य का अर्थ और दायरा अब विस्तृत हो गया है। इस विस्तृत अर्थ और दायरे में आज मनुष्य की वह समस्त सार्थक अभिव्यक्ति सम्मिलित मानी जाती है जो लिखित या मौखिक कैसी भी हो, किन्तु जो व्यवसाय-क्षेत्र की न हो। लोकतत्व युक्त ऐसी समस्त अभिव्यक्तियाँ लोक-साहित्य के अन्तर्गत आती हैं ।

इसलिए ‘लोक-साहित्य’ के अन्तर्गत वे समस्त भाषागत अभिव्यक्तियाँ आती हैं जिनमें—

(अ)       आदिम मानस के अवशेष उपलब्ध हों,

(आ)               परम्परागत मौखिक क्रम में उपलब्ध भाषागत ऐसी अभिव्यक्ति, जिसे किसी की कृति न कहा जा सके। जिसे श्रुति ही माना जाता हो और जो लोक-मानस में समायी हुई हो ।

(इ)         वह लोक-मानस के सामान्य तत्वों से युक्त ऐसा कृतित्व हो कि उसको व्यक्तित्व के साथ सम्बद्ध करते हुए भी लोक उसे अपने ही व्यक्तित्व की कृति स्वीकार करे।

इस दृष्टि से लोक-साहित्य का क्षेत्र बहुत व्यापक हो जाता है। अभिजात्य साहित्य तो प्रायः समूचा ही लिपिबद्ध रूप में प्राप्त हो जाता है, और प्राय: वही सम्मान की वस्तु माना जाता था। विश्व और उसकी विशाल परम्परा को देखते हुए यह समस्त साहित्य बहुत ही थोड़ा है; और इसका क्षेत्र भी बहुत सीमित है।

लोक-साहित्य में लोक की अभिव्यक्ति होती है।  लोक की इस अभिव्यक्ति के सामान्यतः दो भेद तो हमें स्पष्ट ही दिखायी पड़ते हैं—

9   (1)  शरीर तोषिणी अभिव्यक्ति—जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति-मात्र के उपयोग में आने वाली अभिव्यक्ति शरीर तोषिणी अभिव्यक्ति कहलाती है। भोजन, शरण और भोग सम्बन्धी अभिव्यक्तियाँ शरीर तोषिणी अभिव्यक्ति की श्रेणी श्रेणी में आती हैं।

9   (2)  मनस्तोषिणी अभिव्यक्ति—मन को तोष प्रदान करने वाली अभिव्यक्ति मनस्तोषिणी कहलाती है। मन में दो प्रकार के भाव मौलिक हैं—(1)  भय और (2)  आश्चर्य। इनसे भिन्न एक अन्य मौलिक भाव भी सहज ही होता है—निज-प्रकृति-प्रेरित ‘रति’ का भाव। फ्रायड कहता है—यह स्तन-पान के प्रारम्भिक रूप में प्रकट होता है। दो प्रकार के मौलिक भावों में ‘आश्चर्य’ का परिणाम ‘ज्ञान’ और साधन या उत्साह अथवा वीर भाव था। ‘भय’ का आधार ‘अज्ञान’ था। भय के निवारण के लिए जो अभिव्यक्ति का स्वरूप हुआ उसे मनस्तोषी कहा गया। इसने अनुष्ठान का रूप धारण किया। आज के सभी टोने-टोटके-लोकविधि आदि इसी अभिव्यक्ति के रूप हैं।

लोक की अभिव्यक्ति का एक तीसरा भेद भी है—मोद। इसे मनस्तोषिणी से आगे मनोमोदिनी अभिव्यक्त कहना उचित होगा। यह वह अभिव्यक्ति है जिसका सम्बन्ध मनुष्य की 'मोद' वृत्ति से है ‘तोषण’ से नहीं। मानव मात्र में ये तीनों ही प्रधान वृत्तियाँ दिलायी पड़ती हैं।

लोक-साहित्य की वस्तु और रूप लोक मानस के ही अनुकूल प्रकट होते हैं। इसीलिए उसे ‘आदिम मानस’ के अवशेष कहना अनुपयुक्त नहीं है। इस आदिम का अभिप्राय केवल ऐतिहासिक दृष्टि से आदिम अथवा आदिम मानव नहीं है वरन् यह शब्द केवल उन गुणों, विशेषताओं तथा धर्मों का द्योतक है जो ऐतिहासिक दृष्टि से आदिम मानव में होंगे और जो आज भी आदिम जातियों में प्रत्यक्षतः तथा सभ्य से सभ्य जातियों में अप्रत्यक्षतः मौजूद हैं। एक कहावत है कि आदमी को जरा खुरचिये तो आपको पशु दिखायी पड़ जायगा। आज का सभ्य से सभ्य मनुष्य भी अपने आदिम संस्कारों के बीजों को नष्ट नहीं कर पाया है। आदिम मानस से लोकवार्ता यानी फोकलोर का घनिष्ठ संबंध है।

                            (मेधा बुक्स, दिल्ली-32 से प्रकाशित पुस्तक 'लघुकथा का साहित्य दर्शन' में संकलित)

लघुकथा में लोक-तत्त्व, भाग-1 / बलराम अग्रवाल

 

लोक-वार्ता, लोक-साहित्य, लोक-जीवन, लोक-तत्व…कुल मिलाकर लोक हमारे संस्कार में समाया हुआ है। लोक और साहित्य का सम्बन्ध अटूट है। साहित्य कभी भी लोकजीवन की उपेक्षा नहीं कर सकता। यदि वह उपेक्षा करता है तो जीवित नहीं रहता, मर जाता है। उसका क्षेत्र संकुचित हो जाता है। वह सामाजिक विकास का साधन नहीं बन पाता; बल्कि सामाजिक पतन का कारण बन जाता है। साहित्य का प्रमुख उद्देश्य—‘लोक की सेवा’ नष्ट हो जाता है। यही कारण है कि अपने युग में कोई भी साहित्यकार जनवर्ग की उपेक्षा नहीं कर पाते। वह जनवर्ग के बीच रहकर जनता के लिए ही अपनी साहित्य रचना करते हैं। उनका क्षेत्र किसी वर्ग-विशेष तक सीमित नहीं रहता। वह जनता के लिए लिखते हैं और इसीलिए जनता उनके लेखन में रस लेती है।

लघुकथा की बात करें तो भारतेंदु हरिश्चन्द्र अपने युग की एक महान विभूति थे। वे दूरदर्शी थे। वे लोक भाषा और लोक साहित्य का महत्व समझते थे इसीलिए उन्होंने लोक भाषा तथा लोक साहित्य का महत्व समझते हुए साहित्य और भाषा को तदनुरूप स्वरूप दिया। भारतेन्दु ने कथा लेखन को नई विचार धारा की ओर प्रवृत्त करने का यत्न किया। नए विषय और नई भावभूमि दी। सोचने की नई पद्धति दी। इसका प्रमाण यह है कि भारतेन्दु युगीन कवियों ने कविता को नए विषय दिए और अलंकारों के बोझ से उसे मुक्त किया। मध्ययुगीन कृत्रिमता को छोड़कर वह स्वाभाविकता के पथ पर अग्रसर हो चली। भारतेन्दु द्वारा सदियों बाद ऐसी कथा की रचना हुई जिसकी परिधि केवल नायक और नायिका की लीलाओं तक सीमित न रहकर मानव जाति के कुछ दारिद्रय, प्रेम, सहयोग, सहानुभूति और प्रतिरोध तक पहुँच गई। यथार्थ मानवीय जीवन का रूप प्रस्तुत करने में भारतेन्दु पूर्णतया सक्षम हैं। यही कारण है कि जहाँ पहले कथा का विषय सीमित रह गया था, वहीं अब अपने जातीय गौरव के भाव उसमें आने लगे । तुलसी और कबीर यह अच्छी तरह जानते थे कि जनता तक सन्देश लोकभाषा में ही पहुँचाये जा सकते हैं। तुलसी, कबीर, सूर आदि को आदर्श मानते हुए भारतेन्दु ने भी अपने पूर्ववर्ती कवियों की लोकभाषा नीति का अनुसरण किया। साहित्य की दुनिया में लोक का अर्थ है—सामान्य जन। लोग शब्द इसी का बिगड़ा हुआ रूप है।

भारतीय साहित्य में परम्परा से 'लोक' और 'वेद' का कुछ भेद पता चलता है। लोक-परिपाटी और वेद-परिपाटी जैसे दो पृथक परिपाटियाँ प्रचलित हों । लोक-वेद का पुराने काल से चले आने वाला अन्तर बताता था कि जो वेद में स्पष्टतः नहीं है, वह यदि लोक में हो, अथवा जो वेद में है उसके अलावा और भी कुछ यदि लोक में हो तो वह ‘लौकिक’ है । ‘लोक’ अथवा ‘लौकिक’ शब्द साहित्य में किसी अवहेलना अथवा उपेक्षा के ‘भाव’ के द्योतक नहीं थे। किंतु लोक-साहित्य का ‘लोक’ वेद से इस अलगाव को प्रकट करता हुआ भी उस अर्थ को प्रकट नहीं करता जो वह लोक-साहित्य में करता है। वहाँ वैदिक से अलग शेष समस्त बातें लौकिक ही कहलायेंगी । कालिदास का ‘शकुन्तला’ नाटक, भारवि, माघ, भवभूति की रचनाएँ सभी लौकिक कोटि की होंगी, किन्तु ‘लोक साहित्य’ नहीं होंगी।

आधुनिक काल में 'लोक' तथा 'लोक तत्व' शब्दों का प्रयोग निश्चित पारिभाषिक अर्थ में किया जाने लगा है। चेतना संघर्षित अवचेतन मानस को लोकवार्त्ता के विशेषज्ञ ऊपरी पर्त मानते हैं, यह उपार्जित अवचेतन है और मनोविश्लेषण का क्षेत्र मन का यही स्तर रहा है। इस अवचेतन का निचला स्तर सहज मानस है और यही मूलतः लोक तत्व का निर्धारक है। मनुष्य की प्रत्येक अभिव्यक्ति में वह किसी न किसी रूप में विद्यमान रहता है। इस दृष्टि से, मनुष्य-समाज के उस वर्ग को, जो अपने सम्पूर्ण जीवन की अभिव्यक्ति इसी मानस के स्तर पर करता है, लोक माना जा सकता है। लोक अभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता, पाण्डित्य की चेतना और अहंकार से शून्य है और एक परम्परा के प्रवाह में जीवित रहता है।

साहित्य और लोकतत्त्व—एक ही जीवन-रथ के दो चक्र है। दोनों के संतुलित विवेक से ही जीवन की व्याख्या की जा सकती है। जो लोकों का प्रत्यक्ष दर्शन करता है, लोकजीवन में प्रविष्ट होकर जो स्वयं उसे अपने मानस-चक्षु से देखता है, वही उसे पूरी तरह समझता है । केवल पुस्तक में स्थित विद्या से लोकतत्त्व का गहरा ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता ।

संस्कृति, धर्म, दर्शन, अध्यात्म, कला, साहित्य, समाज, आचार—इस अष्टक को जहाँ कहीं से देखने लगेंगे, भारतीय आकाश के नीचे युगों-युगों तक वेद और लोक इन दोनों की समन्वित और संयुक्त सरणि हमें उपलब्ध होती जाएगी। यही भारतीय जीवन का प्रतिष्ठा-सूत्र है। भारतीय शास्त्र की व्याख्या का क्षेत्र यहाँ का लोक-जीवन ही है।

लोक के जीवन का वार्षिक सत्र आज भी अनेक मंगल विधानों और आचारों से सम्पन्न है। लोक में भरे हुए पर्व और उत्सव, लोकनृत्य, लोकगीत, लोककथाएँ, संवत्सर का रूप सँवारने वाले अनेक व्रत और उपवास, व्रतों की अवदान कहानियाँ, देव-यात्राएँ और मेले आदि से भारतीय संस्कृति अपना अमिट स्पन्दन प्राप्त करती है। आकाश-गंगा के समान लोक की भाषा आज भी अपनी पावनी शक्ति से धरती के प्राणियों को चमका रही है। साहित्य और जीवन की कल्याण-परम्पराएँ उसी शक्ति से अस्तित्व में आ रही हैं। उसकी प्राचीन संस्कृति का श्रेय-अंश लेकर नए भारत का निर्माण हो रहा है। यही नियम जीवन को आगे बढ़ा रहा है; किन्तु इस प्रगति की अक्षय पद्धति प्राचीन संस्कृति से प्राप्त होती है और उसके साथ जुड़ी है।

शेष आगामी अंक में……

(मेधा बुक्स, दिल्ली-32 से प्रकाशित पुस्तक 'लघुकथा का साहित्य दर्शन' में संकलित)

गुरुवार, 23 मई 2024

सतीश दुबे और लघुकथा-विधा-3 / बलराम अग्रवाल

 (गतांक से जारी..../ समापन किस्त)

किसी भी शासन-व्यवस्था के दौरान न्याय और मूलभूत सुविधाएँ मिलने के प्रति सामान्य-जन की आस्था का डिग जाना यानी शासन का दायित्वहीन और पतनशील हो जाना। बिजली-पानी और रोजगार-जैसी मूलभूत सुविधाओं की इच्छा रखने वाले आदमी को समाज में आज ‘ये तो साला सचमुच पागल है!’ का रिमार्क मिलता है। यह ‘भीड़ में खोया आदमी’ है। अनास्था और अविश्वास की भीड़ में किसने धकेला इसे और क्यों? कभी-कभी धकेला नहीं जाता, व्यक्ति स्वयं ही उस जंगल में कूद पड़ता है; इसलिए कि लगातार अवहेलना से वह हताश हो चुका होता है। उसने मान लिया होता है कि मूलभूत सुविधाओं और वांछित न्याय की कल्पना भी करना इस देश में पागलपन है।

जन-सुविधा देने के लिए नियुक्त अधिकारी ही अगर बहू-बेटियों से अनाचार करने लगें तो सामान्य व्यक्ति का पागल हो जाना और अधिकारियों को ‘भूत’ जैसा आततायी समझ लेना आश्चर्यजनक नहीं रह जाता है। लघुकथा ‘ड्रेस का महत्व’। इस

के शीर्षक में प्रयुक्त ‘महत्व’ में ‘आतंक’ की व्यंजना है। भारत में आपात्काल के दौर का परिदृश्य घुटनों से नीचे तक लम्बे कुर्ते और कम मोहरी वाले सफेद बुर्राक पाजामे का रहा है। यह ड्रेस ही अपने-आप में राजनीतिक आतंक का पर्याय बन गयी थी।

बड़़े बाबू को बुलाने के लिए उन्होंने इस बार घण्टी किरकिराई तथा आदेश दिया, ‘‘नेता टाइप ड्रेस पहननेवाले जितने भी बाबू हों, सबके ट्रान्सफर प्रपोजल ले आओ।’’

स्पष्ट है कि आपात्काल का आतंक उतर जाने के बाद ही किसी अधिकारी ने ऐसे आदेश पारित करने का साहस किया होगा।

लघुकथा में कहानी-सी रोचकता कोई नई बात नहीं है। आठवें-नौवें दशक में लिखित अनेक लघुकथाओं में यह गुण मिल जाता है। सतीश दुबे की ‘स्टेच्यू’ इसका अनुपम उदाहरण है। ‘सल्तनत कायम है’ जैसी सरदारों/शासकों के आतंक से परिपूर्ण लघुकथाएँ वस्तुत: आपात्काल में सत्तादल के आतंक के अन्योक्तिपरक चित्रण की कोशिशों का ही परिणाम रही हैं।

‘विनियोग’ मानव-हृदय की स्वाभाविक आर्द्रता की अत्यन्त प्रभावपूर्ण लघुकथा है। इस लघुकथा में कमाल का अंकन यह भी है कि जब बच्चा अपनी गाँठ के पचास पैसे खर्च नहीं कर रहा था, तब पिता उसकी समस्त कृपणता के लिए सोचता है कि ‘यह शिक्षा उसे अपनी पाठशाला में मिल रही है। उसकी मम्मी भी जोड़-तोड़ के साथ पैसा खर्च करती है।’ लेकिन जब वह एक गरीब बच्चे को अपनी समूची पूँजी सौंप आने की बात उसे बताता है तब ‘पाठशाला’ और ‘मम्मी’ की शिक्षा का विचार उसके मस्तिष्क में एक बार भी नहीं आता है। ‘फैसला’ के केन्द्र में भूख है; भूख, जो दिखाई नहीं देती और गरीबों को पीढ़ी दर पीढ़ी पैतृक सम्पत्ति के रूप में प्राप्त होती रहती है। भूख बस भूख होती है। वह किसी संस्कार या नैतिकता को नहीं जानती-पहचानती। न ही उसकी कोई उपयुक्त उपमा हो सकती है। ‘अहसास’ का आठ वर्षीय बच्चा इस सत्य का प्रमाण है। ‘पासा’ दुबे जी की बहुचर्चित, बहु-उद्धृत लघुकथा है। आठवें दशक के पूर्वार्द्ध में रचित यह लघुकथा मनोविश्लेषात्मक अध्ययन की अच्छी सामग्री सिद्ध होती रही है। ‘पाँव का जूता’ बेबसी, पुत्र-प्रेम और पिता की सुश्रूषा के बीच खड़े निर्धन व्यक्ति का यथार्थ चित्रण है जो एकबारगी तो दवा-विक्रेता को भी डरा देता है।

अपनी बात को सम्प्रेषित करने के लिए कवि और कथाकार कभी-कभी प्रचलित लोक-मान्यताओं से इतर ऐसी छूट भी ले लिया करते हैं जो तथ्यपरक भी न लगें। मुझे लगता है कि ऐसी ही एक छूट दुबे जी ने ‘मोक्ष’ में ली है, लड्डू गोपाल को गिरवी रखवाकर। हर अन्यायी के हृदय में कुछ नैतिक भय भी होते हैं। सूदखोर भी इस भय से मुक्त नहीं रहते हैं। मेरा अनुमान है कि पूजा की मूर्तियों को मुनाफे का सौदा मानकर चोर चुरा लेते हैं और पुरातात्विक वस्तुओं के व्यापारी उन्हें खरीदते भी हैं, लेकिन कोई सूदखोर उन्हें गिरवी नहीं रखता है।

‘वादा’, ‘अतिथि’ और ‘अन्तिम सत्य’ साम्प्रदायिक मेल-मिलाप, हिन्दू-मुस्लिमों के मध्य आशंकाओं के घटाटोप और सद्भाव की अच्छी लघुकथाएँ है। ‘चाण्डाल’ उन लोगों का चरित्र खोलती है जिनके बारे में कहावत है—बूढ़ा मरे या जवान, हमें हत्या से काम। ‘प्रायश्चित’ को पढ़ते हुए पाठक बहुत जल्द समझ जाता है कि युवक और वृद्धा द्वारा नर्मदा में उतरने को बाध्य की जा रही युवती से उनका क्या सम्बन्ध होगा; फिर भी संवादों के माध्यम से इसे रहस्य की तरह अनावश्यक खींचा गया है। बहू को उक्त समूचे परिवार का स्नेह मिलना निश्चित ही गर्व और संतोष का विषय है जो पाठक को सुखानुभूति कराता है। इसमें प्रायश्चित के बिन्दु तलाशना मुमकिन नहीं है। ‘पागल’ लगभग अर्थहीन रचना है। इन कथानकों से कहीं बेहतर और संवेदनशील रचनाएँ उर्दू कथाकार मंटो के पास हैं और वे सब की सब लम्बे समय से हिन्दी में भी उपलब्ध हैं। ‘आस का बिरवा’ अबूझ पहेली-सी लघुकथा है। मजदूरी के लिए घर से निकले मजदूर के सामने अगर यह सवाल खड़ा हो कि ‘प्राथमिकता’ किसे दी जाए, टक्कर मारकर गिरा देने वाले टैम्पो ड्राइवर से मिलने वाले मुआवजे को या इंतजार कर रही मजदूरी को? तब, ईमानदार मजदूर निश्चित रूप से मजदूरी को ही प्राथमिकता देगा।  

‘बौड़म’ की व्यंजना अद्भुत है। इस बदले हुए समय में ईमानदारी, नैतिकता  और संवेदनशीलता कितनी बड़ी गालियाँ है, इस बात को वह भुक्तभोगी ही बेहतर जानता-समझता है जिसने ईमानदार और नैतिक रहने का अपराध किया हो। इस कथा के पात्र ‘वह’ पर कथाकार टिप्पणी करता है—

वह तेज चाल से अपने रास्ते पर बढ़ा, पर उस तेजी में भी महसूस कर रहा था कि अन्य लोगों की अपेक्षा उसकी चाल बहुत धीमी है।

         वर्तमान दैनन्दिन समय में हम देखते ही हैं कि वाकई, व्यावहारिक जीवन में सफलता की दृष्टि से ईमानदार और नैतिक लोगों की चाल बहुत धीमी सिद्ध होती है और दूसरों की तुलना में वे पिछड़ ही जाते हैं। कोई असहाय वृद्धा झोपड़ी को स्वाहा कर डालने वालों की क्या ‘शिनाख्त’ करे, जब स्वयं वे ही उसके मददगार होने का स्वांग भरते हुए सामने आ खड़े हों! कार्य के प्रति समर्पित और संकोचशील व्यक्ति का इस्तेमाल मालिक तो करता ही है, साथी-गण भी करते हैं। ऐसे व्यक्ति को हमेशा प्रशंसा की कटार से हलाल किया जाता है। लेकिन उसी व्यक्ति को अगर भोजन करने तक की छूट न मिले तो वह मालिक और संगी-साथी सबसे ‘मुक्ति’ पा लेने जैसे आवेग से युक्त भी हो उठता है। उल्लेखनीय संकेत और स्थापना यह है कि व्यक्ति के व्यवहार में समर्पण और संकोच के साथ ही कार्य-विवेक भी आवश्यक है। ‘मुक्ति’ का कामता यदि समय पर काम और समय पर भोजन के नियम पर चलता तो एकदम उग्र होकर उसे काम छोड़कर न भागना पड़ता। ‘मटमैले आकाश के बीच’ मानवीय संवेदनशीलता और नैतिकता की एक किरण हमेशा मौजूद रहती है। ‘मर्द’ सकारात्मक सोच की साहसपूर्ण कथा है। नयी पीढ़ी का महेन्द्र सिंह राणा जिन ‘नीच’ लोगों को गाँव से निकाल बाहर करने की मंशा रखता है, उनके बारे में अनुभवी ‘बाबा’ का लम्बा उपदेश इसमें है। ‘गरीब और गरीबी गाँव की रीढ़ हैं’ लघुकथा ‘रीढ़’ में बाबा का यह सूत्र-वाक्य है। कस्बा, नगर, महानगर, प्रांत, देश और विश्व के सभी शासक इस सूत्र-वाक्य का अनुसरण करते आये हैं। अब, महेन्द्र राणा के रूप में नये कर्णधारों ने भी इसी सूत्र पर चलने का मन बना लिया है।

‘बिना नोटिस के फैक्ट्री में तालाबन्दी हुए महीनों-दर-महीनों बीतते जा रहे थे।’ लघुकथा ‘शैतान की भाषा’ के इस प्रारम्भिक वाक्य में गलत शब्द-प्रयोग है। ‘महीनों-दर-महीनों बीतते जा रहे थे’ के स्थान पर ‘महीना-दर-महीना बीतता जा रहा था’ होना चाहिए। ‘दर’ दो इकाईयों की अनवरतता को ध्वनित करता है। जैसे, कदम-दर-कदम, सीढ़ी-दर-सीढ़ी, साँस-दर-साँस आदि।

‘‘प्रेसिडेण्ट! तुमने कहा था ना, शैतान सज्जनता की भाषा नहीं समझता! उसे उसी की भाषा में जवाब देना पड़ता है। तुम्हारी मूठ तुम पर ही उतारता हूँ। तुम जैसी गालियाँ नहीं दूँगा, तुम्हारी करतूतों और चेहरे को सबके सामने नंगा करूँगा।’’

यह जनवाद ही लघुकथा ‘शैतान की भाषा’ का स्थापत्य है। ‘राजा की टाँग’ में प्रतीकात्मकता है। इस प्रतीकात्मकता को स्वयं दुबे जी ने दो सूत्रों के सहारे खोला है। पहला सूत्र यह कि—‘राजा कभी-न-कभी लंगड़ा होता ही है और यदि नहीं होता है तो मानिए वह निरंकुश है’ तथा दूसरा यह कि—‘राजा के सिर पर या तो तलवार गिरती है या उसकी टाँग टूटती है। मगर अवसर मिलने पर वह राजगद्दी पर जरूर बैठे, यह न सोचे कि भविष्य में क्या होगा’।

‘बर्थ-डे गिफ्ट’ बाल-मन के स्नेहसिक्त भावों को अभिव्यक्ति देती अति उत्तम लघुकथा है। लघुकथा ‘गन्ध’ में मात्र गन्ध ही नहीं, कई-कई जीवन-रस भी समाहित हैं। स्त्री और पुरुष, दोनों में ‘काम’ अक्सर एक विकार के रूप में भी होता है। दोनों सोचते हैं कि ‘रतिक्रिया’ सम्पन्न नहीं हुई तो ‘वह’ कुछ गलत अनुमान न लगा बैठे। सम्भवत: इसी सोच और मन:स्थिति के बीच सुबोध शादी के तुरन्त बाद गाँव के घर से शहर चले जाना चाहता है। वह पत्नी से कहता है—‘…यहाँ हमारी सुहागरात मनेगी क्या, तुम्हीं सोचो!’ लेकिन स्मिता ‘काम’ के दबाव से अलग पारिवारिक मूल्यों को महत्व देती है और इस तरह पति-पत्नी दोनों का शहर जाना टल जाता है। मूल्यों की रक्षा को केन्द्र में रखकर कम लघुकथा लेखन नहीं हुआ है। वस्तुत: मूल्य ही हैं जो किसी रचनाकार की लेखनी और मस्तिष्क को जगाए रखते हैं, उसे उसे सक्रिय बनाए रखते हैं। ऐसी कथाओं का अन्त आदर्शवादी ढंग से करने का चलन पुराना है, उसी का अनुसरण इसमें भी हुआ।

लघुकथा ‘भीड़’ के सरदारजी ने बहुत कोशिश की कि भीड़ में से कोई एक व्यक्ति भी मजदूर के ठेले को टक्कर मार देने वाले ट्रक के खिलाफ गवाही देने को तैयार हो जाए; लेकिन असफल रहे। अन्तत: मजदूर, उसकी पत्नी और टूटे ठेले को वहीं पड़ा छोड़, अपना सामान दूसरे ठेले पर लादकर वह चले गये। है। सिद्ध यह हुआ कि ‘भीड़’ का चरित्र नहीं हुआ करता और न व्यापारी का ही, भले वो सरदार ही क्यों न हो।

मजदूर और धनहीन जीवन की विभिन्न त्रासदियों पर डॉ॰ दुबे ने अनेक लघुकथाएँ रची हैं जिनमें से कई का जिक्र प्रकारान्तर से हो भी चुका है। ‘फूल’ और ‘बौना आदमी’ भी ऐसी लघुकथाएँ है, जिनमें शीर्षक से ही व्यंजना प्रारम्भ हो जाती है। स्वतन्त्र भारत में नेताओं और प्रवचनकारों की कौन-सी पीढ़ी विकसित हुई है, इस सत्य का ब्यौरा लघुकथा ‘उद्धारक’ में मिलता है। दुबे जी के अनेक ऑब्जर्वेशन्स उल्लेखनीय हैं और सभी को उस गहन दृष्टि और अभिव्यक्ति की ओर प्रेरित करते हैं। प्रत्येक कथा-लेखक को तो अवश्य ही इन ऑब्जर्वेशन्स पर ध्यान देना चाहिए। कुछेक ये हैं—

इसी बीच एक व्यक्ति आया और उसने मदन-दा के कान में मच्छरों जैसा कुछ गुनगुन किया।    (उद्धारक)

बैंच आत्माहीन देह की तरह लम्बी पड़ी थी। (बौना आदमी)

मानसून समुद्र की गहराई या पहाड़ की किसी खोह में लुप्त हो गया था।                                                 (पेड़ों की हँसी)

दुबे जी की लघुकथाओं में लोक-विश्वासों को भी स्थान मिला है। ‘पेड़ों की हँसी’ के केन्द्र में यह लोक-विश्वास है कि पेड़ अगर हँसेगे नहीं, खुशी से झूमेंगे नहीं तो बारिश नहीं होगी। दुबे जी ने एक शब्द रिश्ताई (लघुकथा ‘रिश्ताई नेहबन्ध’) भी लिखा है। निश्चित रूप से इसका उद्गम रिश्ता शब्द रहा होगा; लेकिन रिश्ताई शब्द सही है, इस पर मैं शंकित हूँ। दूसरी बात, नेहबन्ध ही अपने-आप में अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति है। एक और विशेषण जोड़ने की शायद आवश्यकता नहीं थी। उम्मीद है कि कोई आलोचक इस शंका पर प्रकाश डाल सकेंगे। लघुकथा ‘कत्ल’ को अगर गहराई से देखें तो यह फिर से एक साहसिक कलम है। इसमें कुरान और उसकी शिक्षाओं पर बात करने न करने के अधिकार तक पर चर्चा है। लघुकथा का समापन यद्यपि विषय से हटकर कहीं और किया गया है तथापि इस लघुकथा का मध्यभाग अत्यन्त सुलगा हुआ है। ‘प्रेम-ब्लॉग’ आत्मालाप शैली की लघुकथा है। लास्ट लेसन प्रेरक। ‘नन्ही समझ’ में बाल-सुलभ मासूम सोच काँटे की नोंक-सी हृदय में गुभती चली जाती है।

लघुकथा में संकेतात्मकता कितनी मारक और असरकारक होती है, यह जानना हो तो ‘राज’ पढ़िए। इस लघुकथा में मास्टर जी के प्रश्न के उत्तर स्वरूप एक संवाद है और उस संवाद में भी एक ऐसा शब्द है जो ‘राज’ को एकाएक बहुत बड़ी फेंटेसी में बदल देता है। लघुकथा में इस फेंटेसी को रचना आसान काम नहीं है और इसके लिए मैं व्यक्तिगत रूप से डॉ॰ सतीश दुबे की लेखन-कला को नमन करते हुए सम्बन्धित संवाद यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ—

‘‘मैं किसी के बाबा, काका, दादा ने क्या कहा, यह नहीं पूछ रहा। मैं पूछ रहा हूँ कि किताब में लिखे अनुसार हमारे देश में किसका राज है...?’’

‘‘मैं बताऊँ सर, जनता का!’’ महिषासुर ने सीना तानकर खड़े होते हुए जवाब दिया।

इसमें फेंटेसी, उसकी गहराई व भयावहता की तलाश का दायित्व सुधी पाठक होने के नाते अब आपका है। ‘थके पाँवों का सफर’ में दुबे जी उस समय बिना कहे बहुत-कुछ कह जाते हैं जब वह लिखते हैं—

उनकी सूनी आँखें और निस्तेज चेहरे की ओर गौर से देखते हुए सत्येन्द्र कुछ और प्रश्न करे उसके पूर्व चाचाजी अस्फुट शब्दों में बोले, ‘‘अब और कुछ पूछना मत, ज्यादा बोलने से मुझे तकलीफ होती है...।’’

सत्येन्द्र ने देखा, यह कहते हुए चाचाजी ने पैर लम्बे कर तथा सिर सीट के सहारे लगाकर बूँदें टपकाने का प्रयास कर रही छोटी-छोटी आँखों को जोरों से भींच लिया है।

इस लघुकथा में चाचाजी की गहन पीड़ा को अधिक कुछ कहे बिना व्यक्त करने का कौशल अनुभूति, अध्ययन और अभ्यास के योग के बिना सम्भव नहीं था। डॉ॰ सतीश दुबे इस दृष्टि से समकालीन हिन्दी लघुकथा के आवश्यक हस्ताक्षर सिद्ध होते हैं। उनकी लघुकथाओं का पूर्ण मनोयोग से अध्ययन वांछित है।

सम्पर्क :  8826499115

लघुकथा में मूल्य-बोध, भाग-3/बलराम अग्रवाल

 गतांक से आगे…

4 कड़ियों में समाप्य लम्बे लेख की तीसरी कड़ी 

मूल्य-परिवर्तन के कारण

मूल्यों में परिवर्तन होता क्यों है, इसके कारण क्या हैं, यह एक युक्तिसंगत प्रश्न है। इस प्रश्न पर विचार करने से पहले यह जानना आवश्यक है कि मूल्यों का विकास अथवा उनमें परिवर्तन होता है। विश्व एक विकसनशील अवयव है। उसमें मानव-संस्कृति के अनुरूप ही मानव-मूल्यों का भी विकास होता है। इस विकास को ही हम परिवर्तन की संज्ञा देते हैं।

‘मूल्य’ उपजता है, विवशता के भीतर सम्बन्धों के संतुलन में । इसमें विवशता का क्या अर्थ होता है। मनुष्य जब उपलब्ध मूल्यों के साथ स्वयं को जीवन जीने में विवश पाता है, तब वह परिवर्तन की आवश्यकता को अनुभव करता है। इसी को ‘विवशता’ कहते हैं यानी मन की विवशता।

कहा जाता है कि मूल्यान्वेषण की मानवीय प्रवृत्ति के कारण मूल्य बदलते हैं। मनुष्य में मूल्यान्वेषण की प्रवृत्ति क्यों है? इसीलिए कि वह बदलते हुए परिवेश के साथ कुछ न कुछ सृजन करते रहना चाहता है। सृजन करने की इच्छा यानी सृजन का सपना भी देखना वस्तुतः मूल्यों में बदलाव की आधारभूमि है। सृजन का कोई क्षण, कोई स्थान, कोई व्यक्ति निश्चित नहीं होता; लेकिन मानव-इतिहास इस बात का साक्षी है कि मूल्यों में सदा परिवर्तन होता रहा है और उस परिवर्तन का प्रभाव साहित्य पर पड़ता रहा है।

समाज सदैव नैतिक व्यवस्था से परिचालित होता है। दूसरी ओर, मनुष्य में स्वाभाविक रूप से कुछ वर्जनाएँ भी मौजूद रहती हैं। ये वर्जनाएँ प्रचलित नैतिक व्यवस्था को तोड़ना चाहती है, जबकि समाज में प्रचलित नैतिक व्यवस्था उन वर्जनाओं का विरोध करती है। वर्जना और व्यवस्था के इस संघर्षण के परिणामस्वरूप नये मूल्यों का उदय होता है। साहित्य में सातवें-आठवें दशक में विकसित लघुकथा-लेखन की प्रवृत्ति इसका सशक्त उदाहरण है ।

प्रचलित नैतिक व्यवस्था और उसकी वर्जना के संक्रमण की तरह ही आदर्श और यथार्थ का संघर्ष भी निरन्तर चलता है। यह संघर्ष भी नये मूल्यों को जन्म देता है। आदर्शवाद एक काल्पनिक लेकिन यथासम्भव सकारात्मक संसार की रचना करता है, जबकि यथार्थवाद का धरातल ठोस होता है और भावना की बजाय तर्क की जमीन पर खड़ा होता है। वैचारिक धरातल पर ये दोनों छोर जीवन-भर परस्पर टकराते रहते हैं और इस टकराव के परिणामस्वरूप भी नये मूल्य विकसित होते रहते हैं। वैचारिक जगत में नित नयी अन्वेषणप्रियता की मानवीय प्रवृत्ति भी नये मूल्यों के उदय में सहायक का कार्य करती है।

मूल्यों को बदलाव की दिशा में प्रेरित करने वाले इनके अतिरिक्त भी अनेक कारण हैं । मनुष्य का कभी-कभार अथवा अक्सर अनिर्णय और अनिश्चय की स्थिति का होना, दूसरी संस्कृति अथवा दूसरी सभ्यता के अनुकरण की ओर झुकना, कतिपत ऐतिहासिक घटनाओं का दबाव होना, अपनी इच्छा और सुविधा पर अधिक बल देना, अपने मत से भिन्न व्यक्ति, दल वा सरकार द्वारा चुनाव जीत जाना, दो संस्कृतियों का परस्पर मिल जाना, यथास्थिति से ऊब जाना अथवा मोहभंग होना, सामाजिक- आर्थिक-सांस्कृतिक परिवर्तन होना आदिमूल्य-तन्त्र में परिवर्तन का कारण बनते हैं। लेकिन मार्क्सवादी विचारधारा के अनुसार, मूल्य-परिवर्तन का प्रमुख कारण सिर्फ और सिर्फ पूँजीवाद है।

दरअसल, वस्तु का स्थान व संदर्भ बदल जाने के साथ ही उसके मूल्य भी बदल जाने सम्भावित होते हैं। नये मूल्यों का उदय कभी भी एकाएक अथवा एक-दो दिन में नहीं, बल्कि समय की एक लम्बी दूरी तय करके, एक प्रक्रिया के तहत होता है। नए मूल्य हमेशा परिवर्तन की लम्बी प्रक्रिया से छनकर अस्तित्व में आते हैं । प्रत्येक परिवर्तन मूल्यों के संक्रमण से ही होता है और मूल्यगत संक्रमण का कारण मानवीय दृष्टिकोण के चुनाव की प्रक्रिया अथवा समस्या होती है।

मूल्य केवल बनते-बिगड़ते नहीं हैं। कभी-कभी वे जड़ भी हो जाते है। जड़ हो गये मूल्य भी अक्सर मानव-मूल्य कहे जाते रहते हैं। इसलिए कह सकते हैं कि पुराना, नया और जड़, हर मूल्य किसी न किसी मनुष्य के लिएमूल्यकहलाने का अधिकार रखता है। ऐसी स्थिति में सवाल पैदा होता है कि मानव मूल्यकी विशेषताएँ या उसका वास्तविक दर्शन क्या होता है?

सीधे-सीधे कहें तोवे मूल्य जो मनुष्य की अंत:प्रकृति के, उसके सहज स्वरूप के जितना अधिक निकट प्रतीत होते है, उतने की श्रेष्ठ मानव-मूल्य बनते अथवा कहलाते हैं। मानवीय सम्वेदनाओं की उनमें मुक्त और उदार स्वीकृति मिलती है। मानवीयता की प्रतिष्ठा ही उन मूल्यों की प्रतिष्ठा का उद्देश्य है । इन मूल्यों को सर्वश्रेष्ठ कहे जाने का कारण भी यही है। उनमें मनुष्य की सम्पूर्णता को जगह मिलती है। व्यक्ति अपने अस्तित्व से ही मूल्य को स्वीकारता अथवा नकारता है।

मानसिक व शारीरिक प्रत्येक बन्धन से मुक्ति के प्रयास व्यक्ति का सहज स्वभाव हैं। उस मुक्ति के लिए वह पूरी उम्र संघर्ष करता है। वस्तुत: संघर्ष ही चेतनशील जीवन का लक्षण है। मानव को जीवन में जो अत्यधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई, वह उसकी संघर्षशील प्रकृति के कारण स्वतन्त्रता और मुक्ति जैसे मूल्यों को  अपनाने से हुई। लेकिन भारतीय दार्शनिक चिन्तन ने आध्यात्मिकता की ओर विशेष झुकाव होने के कारण मुक्ति को सामाजिक अर्थ में कम, आध्यात्मिक अर्थ में अधिक ग्रहण किया। इसी कारण भारतीय जन आध्यात्मिक चेतना के स्तर पर तो मुक्त रहा लेकिन सामाजिक अर्थ में वह कम मुक्त हो पाया। धीरे-धीरे मुक्ति की यह कामना अत्यन्त एकांगी हो गयी; और जब सामाजिक सम्बन्धों का भी उसमें निषेध होने लगा तो पुनः उसके विरोध में स्वर उठने लगे। इसी कारण भौतिकवादी मूल्यों को प्रतिष्ठा मिली ।

मूल्य-परिवर्तन किसी निश्चित दिशा या क्रम में नहीं होता है क्योंकि प्रकृति के व्यक्त स्तर पर दिखाई देने वाली व्यवस्था का अव्यक्त मूलाधार पूर्ण अव्यवस्थित है तथा अप्रकट में प्रकट होने वाली घटनाओं का क्रम भी पूरी तरह अनिश्चित है। मन के अव्यक्त अचेतन आधार चेतन स्तर में प्रादुर्भूत होने वाली घटनाओं का कोई भी सुनिश्चित क्रम नहीं है। मूल्य-संक्रमण भी इसी तरह से अनिश्चित है और उसका पता कोई रूपरेखा उभरने पर ही चलता है।

शेष आगामी अंक में…

(मेधा बुक्स, दिल्ली-32 से प्रकाशित पुस्तक 'लघुकथा का साहित्य दर्शन' में संकलित)

सोमवार, 13 मई 2024

लघुकथा में मूल्य-बोध, भाग-4/बलराम अग्रवाल

 गतांक से आगे…

4 कड़ियों में समाप्य लम्बे लेख की चौथी व अन्तिम कड़ी 
मूल्य-बोध का उदय सचेतन मानसिक स्तर की वस्तु है, अनिश्चित होने के बावजूद, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। यदि मनोविश्लेषकों की मानें तो मूल्य-विध्वंस और मूल्य-निर्माण की प्रक्रिया चेतन और अचेतन के परस्पर संघात के कारण ही जारी रहती है। इसी सन्दर्भ में विकासवाद की चर्चा करना भी अन्यथा नहीं है। मनुष्य को बौद्धिक रूप से विकसित पशु मानते हुए भी, विकासवाद का सिद्धान्त पशु की प्रवृत्तियों की तुलना में मानव-प्रकृति को समझने का अभ्यस्त है। इसलिए विकासवाद के सिद्धान्त में मनुष्य की उच्चतर आकांक्षाओं को भारतीय चिंतन जितनी दृढ़ता के साथ नहीं पकड़ा गया है। कह सकते हैं कि भारतीय चिन्तन मानव मूल्यों को अधिक उदात्त और गरिमामय धरातल देता है ।

मूल्य-बोध का आधार महामानवको माना जाय यालघु-मानवको? उत्तर है कि मूल्य-बोध का आधार न तो महामानव है और न ही लघु मानव; बल्कि उसका आधार सहज मानवहै । यहाँ, यह सवाल भी किया जा सकता है कि क्या मानव के साथ कोई विशेषण लगाना अनिवार्य है? मानव को मानव के रुप में ही नहीं देखा जा सकता? और यह कि क्या मूल्य-बोध का आधार मानव ही नहीं होना चाहिए?

पश्चिमी समाज की संरचना मानव-नियति की निर्धारण गति के रूप में की गयी है। इस अवधारणा से भारतीय समाजशास्त्री भी प्रभावित हैं। मूल्यों के सामाजिक पक्ष पर विचार करते हुए यह तथ्य ध्यान में रखना होगा कि समाज की ही शक्ति सर्वाधिक प्रबल है; और यह बात भी तय है कि यदि प्रत्येक व्यक्ति काम करना बंद कर दे तो मूल्यों के सामाजिक प्रभाव लुप्त हो जाएँगे। उनके लुप्त होते ही मनुष्य का नैतिकता-रूपी सर्वाधिक शक्तिशाली रक्षाकवच भी टूट जाएगा और नैतिकता के भंग होने के साथ ही मानव-मंगल की भावना भी समाज से समाप्त हो जाएगी । अत: व्यक्ति द्वारा सामाजिक नैतिकता के प्रति प्रतिबद्धता ही वह आधार है जिस पर शेष सब खड़ा होता है।

मूल्यों के परिवर्तन में सबसे शक्तिशाली हाथ समाज का ही होता है। भारत में किसी समय कर्मकांड से जीवन की चर्या निर्धारित होती थी, किन्तु आज समाज में कर्मकांड को इतनी स्वीकृति नहीं है कि उससे दिनचर्या का निर्धारण हो।

मूल्यों को जीवित रखती है उनकी सामाजिकता । जो मूल्य असामाजिक हो जाते हैं अथवा सामान्य जीवन से कट जाते हैं, उनमें परिवर्तन स्वमेव ही आवश्यक हो जाता है। व्यक्ति सामाजिक संस्कारो में पलता है, उन संस्कारों को स्वीकार करता है और जब सामाजिक संस्कार व्यक्ति के विकास के मार्ग को अवरुद्ध करने लगते हैं तो वह अकेला अथवा सामूहिक रूप से उनसे टक्कर लेता है। नये मूल्यों का उदय इसी तरह होता है।

अर्थ आज मानव जीवन का केन्द्र है। आज के व्यक्ति-जीवन को अर्थ-तन्त्र ही निर्धारित करता है। इसलिए जीवन-मूल्यों के बदलाव में अर्थ की भूमिका प्रमुख हो गयी है। सेवा, त्याग, निष्ठा और ईमानदारी जैसे मूल्यों में विघटन होने का मुख्य कारण भी अर्थ ही है। विश्व में पनपे हुए पूँजीवाद या साम्यवाद जैसी प्रणालियों के पार्श्व में भी अर्थ काम कर रहा है। जीवन क्योंकि बहुत-कुछ अर्थ-तन्त्र पर निर्भर करता है इसलिए जैसा अर्थ-तन्त्र होगा, मूल्यों की उद्भावना भी वैसी ही होगी। उदात्त और व्यापक मूल्यों की व्याख्या भी विभिन्न अर्थ-तन्त्रों के अनुरूप समय-समय पर बदल जाती है। मूल्यों के औचित्य-अनौचित्य पर जब केवल अर्थ की दृष्टि से विचार किया जाता है, तब मानव मूल्यों के साथ न्याय नहीं हो पाता। क्यों? इसलिए कि भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तो वे मूल्य काम दे जाते है, लेकिन भौतिकता से ऊपर उठकर कुछ सोचने पर, वे मूल्य उसका साथ नहीं दे पाते। मूल्यों का आर्थिक पक्ष इस दृष्टि से कमजोर हो जाता है।

समाज में किसी भी क्रिया का सबसे पहला केंद्र व्यक्ति स्वयं होता है। सामने आने वाली हर वस्तु को वह अपने ही  दृष्टिकोण से देखता-परखता है। इस सब्जेक्टिव एप्रोच यानी आत्मनिष्ठ दृष्टि के कारण व्यक्ति किन्हीं मूल्यों को नकार देता है तो किन्हीं को स्वीकार भी करता है। इधर के वर्षों में, मूल्यों के सम्बन्ध में वैयक्तिक पक्ष खासा प्रबल हो उठा है। पाश्चात्य विचारकों द्वारा प्रतिपादित ईगो और सुपर ईगो के सिद्धांतों से प्रभावित व्यक्ति अपनेस्वमें ही केन्द्रित हो गया है। मूल्यों का चयन या उनकी व्याख्या वह अपनी सुविधा के अनुरुप करने लगा है। यही कारण है कि आज एक ही सामाजिक मूल्य के अनेक व्यक्तिगत प्रारूप दिखाई देते हैं। कोई भी व्यक्ति अपनी सुविधा को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। इस परिप्रेक्ष्य मेंसुविधाही जैसे अपने आप में एक मूल्य हो गया है। अन्य सभी मूल्यों का संचालन व निर्धारण उसी के अनुरूप होता है।

राजनीति के आयाम और मूल्य

राजनीति और समाजनीति दोनों में शास्त्रत: भले ही कुछ अन्तर हो, तत्वत:  कोई विशेष भेद नहीं है।

नीतिशास्त्र मानव मूल्यों का तो अध्ययन करता ही है; अच्छे और बुरे मूल्यों में भेद करने का प्रयास भी करता है। सिद्धान्तत: राजनीति का उद्देश्य भी मानव की भलाई ही है। राजनीति सैद्धान्तिक स्तर पर तो मानवीय मूल्यों को ही लेकर चलती है, लेकिन व्यावहारिक स्तर पर अनेक बार मानव मूल्यों का हनन भी करती है। व्यवहारिक राजनीति में सत्ता हथियाने का कार्य प्रमुख और मानव कल्याण की भावना गौण हो जाती है ।

विश्व में होने वाली राजनीतिक उथल-पुथल मानव मूल्यों को बहुत दूर तक वहन करती है। राजनीतिक स्तर पर छिड़ा हुआ शीत युद्ध कब भयानक शस्त्र-युद्ध में बदल जायेगा, कहा नहीं जा सकता। इस स्थिति के परिणाम स्वरूप मानव समाज निरीहता के साथ मूल्यों का नग्न ध्वंस देखता है। ऐसी हालत में मानव-गौरव, स्वातंत्र्य, समानता आदि उदात्त मूल्यों के स्थान पर अनास्था और अविश्वास आदि मूल्यहीनता के स्वर फूटने लगते हैं।

वर्तमान समय में विश्व में भय, आतंक, भूख, महामारी, अविश्वास, अनास्था और अस्थिरता सब के लिए अगर कोई उत्तरदायी है तो वह राजनीति है। सचाई यह है कि राजनीति का नियन्ता क्योंकि मनुष्य ही है इसलिए सारा दोष मानव का ही ठहरता है; लेकिन जिस घरातल से राजनीति जन्म लेती है और उसके बारे में जो धारणाएँ या विचार बन चुके है और उन्हें बदल पाना भी सम्भव नहीं लगता है। कारण यह कि विश्व में शक्ति-संतुलन की बात तो होती है, वादों की चर्चा भी अधिक होती है और उन्हीं को आधार बनाकर मनुष्य मूल्यों की हत्या कर देता है। मानव-मूल्यों को लेकर भी राजनीति के दांव-पेंच चलाये जाते है, जिससे उनकी भी गरिमा नष्ट होती है। उनकी व्यापकता और उदात्तता लुप्तप्राय हो जाती है।

क्या कोई वास्तविक मूल्य भी हैं? जी हाँ, अवश्य हैं। आज का इंसान आत्मविश्वास के साथआत्मोपलब्धिके लिए आगे बढ़ रहा है। अपने आप में यही वास्तविक मूल्य है। 

समाप्त

(मेधा बुक्स, दिल्ली-32 से प्रकाशित पुस्तक 'लघुकथा का साहित्य दर्शन' में संकलित)

 

रविवार, 12 मई 2024

लघुकथा में मूल्य-बोध, भाग-2 / बलराम अग्रवाल

 गतांक दिनांक 11-5-2024 से आगे…

4 कड़ियों में समाप्य लम्बे लेख की दूसरी कड़ी

वैचारिक प्रक्रिया के स्तर पर मनुष्य को प्राय: हीन संदर्भों से गुजरना पड़ता है। इस प्रक्रिया में किसी सदर्भ को वह नकारता है, किसी को स्वीकारता है और किन्हीं संदर्भों में वह मौलिक अस्तित्व की ओर बढ़ता है। मनुष्य कभी स्थापित मूल्यो के प्रति संशय से गुजरता है तो भी उनकी निरर्थकता के स्तर से; कभी-कभी वह नये मूल्यों की आवश्यकता और वैचारिक अवमूल्यन के स्तरों से भी गुजरता है। इन आधारों पर मानव मूल्यों को निम्न वर्गों में रखा जा सकता है—

1. धर्म आदि की प्रधानता वाले सामाजिक मूल्य। इनमें जीवन-चक्र धार्मिक ग्रंथों या संहिताओं से आबद्ध था।

2. अनेक मानव मूल्यों का विकास अब अवरुद्ध हो गया है। ये मानव-मूल्य पूरी तरह विकसित अथवा स्थायित्व प्राप्त हैं। इनमें एक ओर प्राचीन मूल्यो के प्रति मोह प्रकट होता है और दूसरी ओर सहअस्तित्व के प्रति सजगता। तात्पर्य यह कि अतीत के प्रति मोहग्रस्तता, आस्था तथा नवीन के प्रति संशय के संघात से इन मूल्यो का जन्म होता है। कथा साहित्य में लघुकथा का उन्नयन इसी का परिणाम है ।

३. विकासशील अथवा नये मानव-मूल्य इस तीसरे वर्ग में आते हैं। वैज्ञानिक क्रान्ति तथा तकनीकी उपकरणों के निर्माण से जो सह-अस्तित्व, विश्व-बन्धुत्व आदि मूल्य सामने आते हैं, वे विकासशील मूल्य हैं। इनमें निरन्तर विकास हो रहा है। हिन्दी की समकालीन लघुकथा इन्हीं मूल्यों से प्रभावित है ।

इसके अलावा कई तरह की अन्तरंग अभौतिक प्रवृत्तियों से सम्बद्ध रहने के कारण कुछ मूल्य आत्मनिष्ठ अथवा भावात्मक हो जाते हैं। इनके अलावा आर्थिक व सामाजिक परिवर्तनों से सम्बन्ध रहने के कारण कुछ मूल्य वस्तुनिष्ठ हो जाते हैं । इस अर्थ में, हम कह सकते हैं कि समूचा मूल्य-जगत आत्मनिष्ठता और वस्तुनिष्ठता का सम्मिश्रण है। मूल्यों का विकास अक्सर ऊर्ध्व और निम्न दिशाओं में होता है। ऊर्ध्व से निम्न दिशाओं की ओर होने वाले मूल्य-विकास को पुरातनता की ओर लौटना कहते हैं ।

मानव-मूल्य कुल कितने हैं और कौन-कौन से हैं? इस जिज्ञासा का जवाब प्रस्तुत करने में विचारकों ने बहुत माथपच्ची की है। भारतीय विचारकों ने सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् तथा पाश्चात्य विचारकों ने समानता, स्वच्छंदता और भ्रातृत्व आदि मूल्यों को प्रस्तुत किया जो प्रकारान्तर से सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् का ही सरलीकृत रूप हैं। इसी क्रम में नये विचारों के जन्म के साथ-साथ स्वतन्त्रता और स्वाभिमान जैसे मूल्यों का भी उदय हुआ। मानव-जीवन में इन मूल्यो की नये सिरे से स्वीकृति हुई । ध्यातव्य है कि एक व्यक्ति के स्वाभिमान की सार्थकता अन्य व्यक्तियों के स्वाभिमान की सामाजिक स्वीकृति में निहित है ।

प्रजातन्त्र और साम्यवाद का संघर्ष भी इन मूल्यो की स्वीकृति-अस्वीकृति तथा सम्मान और अपमान पर ही आधारित है । सच यह है कि अमानवीय आधारों को लेकर कोई भी वाद पनप नहीं सकता है । यों भी, किसी वाद की स्थापना कभी अमानवीय उद्देश्य से नहीं होती है। वस्तुत: किसी वर्ग-विशेष की मानवीयता जब दूसरे वर्ग-विशेष की मानवीयता से मेल नहीं खाती है, संघर्ष तभी उत्पन्न होता है।

पूँजीवादी व्यवस्था में समाज के एक बड़े वर्ग का शोषण होता है, इस बात को नकारा नहीं जा सकता । पूँजीपति वर्ग अपने हित-साधन के लिए मजदूरों और किसानों का शोषण करता है। इस तरह, आर्थिक रूप से सम्पन्न एक मानव द्वारा आर्थिक रूप से विपन्न दूसरे मानव का शोषण होता है जोकि अनैतिक भी है और अमानवीय भी है। दोनो व्यवस्थाओं में से एक में श्रम का अभाव है तो दूसरी में पूँजी का। फिर भी, व्यक्ति या राष्ट्र को इन दोनो में से किसी एक का ही चुनाव करना होता है। हमें मानव मूल्यों की स्थापना और रक्षा के लिए पूँजी और श्रम दोनों को मिलाकर एक आदर्श-व्यवस्था के निर्माण का प्रयास करना होगा। वही अधिक बेहतर सिद्ध हो सकता है ।

सवाल है कि—क्या मानवीयता के भीतर अमानवीयता को भी समाहित किया जा सकता है? उत्तर है—नहीं। क्योंकि मानवीयता एक सत्य है और अमानवीयता एक दम्भ। किसी भी सत्य में अमानवीयता के छोटे-से-छोटे अंश को भी समाहित करने सेमूल्यकी प्रकृति और पवित्रता दूषित होती है।

शेष आगामी अंक में…

(मेधा बुक्स, दिल्ली-32 से प्रकाशित पुस्तक 'लघुकथा का साहित्य दर्शन' में संकलित)

शनिवार, 11 मई 2024

लघुकथा में मूल्य-बोध भाग-1/बलराम अग्रवाल

4 कड़ियों में समाप्य लम्बे लेख की पहली कड़ी
 
जिन आलोचकों ने अभी तक लघुकथा को समझने की कोशिश नहीं की है, इसे मिसइंटरप्रेट करने में सबसे अधिक हाथ उन स्वनाम धन्य आलोचकों 
का रहा है। दूसरा महत्वपूर्ण हाथ, प्रतिष्ठा प्राप्त कुछ लघुकथाकारों का भी रहा है। उन्होंने लघुकथा में शब्द संख्या का बखेड़ा खड़ा किया। स्थानीय संस्करण वाले कुछेक अखबारों को सामान्य पाठक वर्ग के लिए चुटकुलेनुमा अथवा भावुकता की चाशनी में लिपटे कथात्मक फिलर चाहिए होते हैं। ऐसे ही फिलर कुछेक पत्रिकाओं की भी विवशता बन जाते हैं। लेकिन कुछ पत्रिकाएँ हैं जो चुटकुलों अथवा भावना-प्रधान कथाओं की तुलना में कुछ बेहतर चयन को प्रस्तुत करती हैं और लघुकथा की विधापरक यात्रा को किंचित सुगम बना पाती हैं तथापि ऐसी पत्रिकाओं की संख्या इन दिनों लगभग नगण्य है। महत्वपूर्ण समझे जाने वाले आलोचकों का मिसइंटरप्रिटेशन ही वह कारण रहा कि लघुकथा के महत्वपूर्ण मुद्दों को साफ करने के लिए लघुकथाकारों को स्वयं सामने आना पड़ा। ऐसे ही दबावों के चलते, पूर्व में नयी कविता और नयी कहानी के रचनाकारों को अपनी विधा की पैरवी के लिए आलोचना के क्षेत्र में उतरना पड़ा था। इसलिए आलोचना के इतिहास में यह पहला अवसर नहीं है, जब लघुकथा को समझने की शक्ति प्रदान करने के लिए लघुकथाकार को सृजक के साथ-साथ आलोचक और व्याख्याकार बनना पड़ा। लघुकथा की ताकत की सही पहचान कराने के लिए यदि भगीरथ, अशोक भाटिया, कमल चोपड़ा, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, सत्यवीर ‘मानव’, सुकेश साहनी, रामकुमार घोटड़ आदि रचनाकार ऐसा न करते तो बहुत सम्भव था कि लघुकथा की सही ताकत भी पहचान में न आती।

लघुकथा बहुआयामी है, यह तो सभी स्वीकार करते हैं और यह कहना आसान भी है। फिर मुश्किल क्या है? मुश्किल है उसके सभी आयामों पर खुली चर्चा करना। ऐसा क्यों? इसलिए कि आज तक लघुकथा के एक-एक रचनाकार को लेकर बात करना अभी शेप है। ‘पड़ाव और पड़ताल’ के माध्यम से मधुदीप ने एक शुरुआत की थी। उनके बाद भगीरथ और अशोक भाटिया ने लघुकथाकार केन्द्रित पुस्तकों की रचना की। ऐसे एक-दो छिटपुट कार्य और लेखकों ने किए, लेकिन वे ऊँट के मुँह में जीरा ही साबित हुए हैं। लघुकथा की प्रथम पंक्ति की एक परम्परा स्थापित हो चुकी है और इस परम्परा-बोध के लिए स्वतन्त्र आलोचकों का आगे आना नितान्त आवश्यक है। अनेक सक्षम लघुकथाकारों के सृजन का मूल्यांकन होना अभी शेष है। ‘अभी समय नहीं आया है’ कहकर लघुकथा और इसके सर्जकों की प्रथम पंक्ति के मूल्यांकन को टालना अब किसी भी दृष्टि से श्रेयस्कर नहीं कहा जा सकता।

लघुकथा में मूल्यबोध क्या है? इसका विस्तृत विश्लेपण अभी तक नहीं हुआ है। सम्पूर्ण मूल्य-प्रेक्षण एक जोखिम भरा काम है। फिर भी, कभी न कभी, किसी न किसी के द्वारा तो यह किया ही जाना है। लघुकथा में मूल्य की बात को मैंने अपने ढंग से सोचा और कहा है। बहुत सम्भव है कि कुछ मित्रों को यह पसन्द न आये लेकिन उस ना-पसन्दगी का कारण उन मित्रों को जरूर खोजना होगा । हुआ यों कि अब से कुछ वर्ष पहले, अपने एक लेख में एक लेखिका की किसी लघुकथा को मैंने निम्नतर आँका था। उसे पढ़कर हमारे एक मित्र जो उन महिला लेखिका की सहानुभूति लूटना चाहते होंगे, बोले—‘आपने इनकी लघुकथा की कटु आलोचना लिखी है क्योंकि अवश्य ही इन्होंने अपनी पत्रिका में आपकी किसी रचना को स्थान नहीं दिया होगा।’ उनका यह आकलन अत्यन्त निम्न स्तर का था। इसलिए नहीं कि उन्होंने इसे मेरे सन्दर्भ में कहा बल्कि इसलिए कि उन्होंने उक्त रचना को देखे-पढ़े बिना मेरे आकलन पर टिप्पणी करने की धृष्टता की। आलोचना कटु है या मृदु है, इसका आकलन रचना को पढ़े बिना कैसे किया जा सकता है?

लघुकथा के सदर्भ में बदलते हुए मूल्यों और प्रतिमानों की चर्चा उनके वांछित सन्दर्भों तक नहीं हुई है। वस्तुत: अपने कलागत संदर्भों में मूल्य जिस जागरूकता को उत्तेजित करते हैं, परिवर्तित मूल्यों की चेतना उस जागरूकता के परिणामस्वरूप रचनात्मक आधारों पर प्रतिष्ठित होती है ।

समकालीन लघुकथा की ‘रचनाभूमि’ प्रचलित और स्थापित मूल्यों के अस्वीकार और निषेध की ओर अग्रसर मानी जा सकती है। इस समग्र मूल्य-प्रसंग में 'मूल्यों' के पारिभाषिक स्रोत का परीक्षण अनिवार्य हो जाता है।

'मूल्य' क्या है? इस प्रश्न के साथ हम सहज ही नीतिशास्त्र की सीमाओं में प्रविष्ट हो जाते हैं। 'मूल्य' शब्द अर्थशास्त्र से आया है और वहाँ इसका प्रयोग (1) किसी वस्तु की मानवीय आवश्यकता अथवा इच्छा-पूति की क्षमता और (2) अन्य वस्तुओं से विनिमय से प्राप्त किसी वस्तु के माप के लिए किया जाता है। उदाहरण के लिए, आधुनिक समय में वस्तु के मूल्य के रूप में मुद्रा को माना और सम्बोधित किया जाता है।

क्योंकि 'मूल्य' की स्थिति मनुष्य में है, किसी वस्तु में नहीं इसलिए 'मूल्य' की कल्पना मनुष्य को उसके पूर्ण अस्तित्व में स्वीकार करके ही संभव है । मूल्यों का निर्धारण अथवा संचालन मनुष्य ही करता है और मूल्य भी मनुष्य की आवश्यकता के अनुरूप ही बनते या बिगड़ते है। 'मूल्य' का तात्विक विश्लेषण करने के क्रम में विद्वानों द्वारा स्पष्ट कहा गया है कि आन्तरिक मूल्य मानव की इच्छा, आकांक्षा या परितोष पर आश्रित रहता है न कि वस्तु-आश्रित। इस सम्बन्ध में द्रष्टव्य है कि—'मूल्य-मान को वस्तु में नहीं, बल्कि वस्तु से उद्भुत इच्छाओं और इच्छाओं की पूर्ति के रुप में देखना होगा ।’

हमें याद रखना चाहिए कि ‘कोई भी वस्तु अपने-आप में मूल्यवान नहीं होती, बल्कि उस वस्तु से मिलने वाला सुख या आनन्द ही अपने-आप में एक मूल्य होता है। 'मूल्य' कोई मूर्त्त वस्तु नहीं, बल्कि एक अवधारणा, एक अनुभव है।

कोई भी वस्तु मूल्यवान तो हो सकती है, लेकिन वह अपने आप में मूल्य नहीं हो सकती । मूल्य अमूर्त्त है। व्यक्ति उसे भोगता है और अनुभव के स्तर पर उसे जीता है । यह अनुभव इन्द्रिय-गम्य न होकर कल्पना के स्तर का अनुभव होता है। यह अनुभव ही किसी वस्तु को मूल्यवान बनाता है। 'मूल्य' का अस्तित्व वस्तु पर नहीं, व्यक्ति की इच्छा पर आधारित होता है। हर मान्यता की अस्वीकृति के बाद मनुष्य के पास अपने अनुभव को स्वीकार करने के सिवा कोई अन्य चारा नहीं होता । मूल्य-बोध से सम्बद्ध किसी भी सवाल पर विचार करते हुए हमें इस तथ्य को दृष्टिगत रखना होगा कि—'मानव-अस्तित्व की व्याख्या के अतिरिक्त मूल्यों का कोई सदर्भ नहीं है।’

साहित्य के सन्दर्भ में अक्सर ही नैतिक मूल्य, सामाजिक मूल्य या सौदर्य-मूल्य जैसे शब्द सुनने को मिलते हैं। वास्तविकता यह है कि मनुष्य के बिना इन मूल्यों की कल्पना नहीं की जा सकती है।

मूल्य नैतिक हों, सामाजिक हों, सौंदर्यगत हों या दार्शनिक, उनका सीधा और गहन सम्बन्ध सम्वेदनात्मक व्यक्तित्व से ही होता है। इसलिए  सभी 'मूल्य', 'मानव-मूल्य' ही होते हैं। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि, मानव-मूल्य अनिवार्यत: मानव-अस्तित्व से ही सम्बद्ध हैं। मानव जीवन में प्रयुक्त विभिन्न संस्कारों, घटना-प्रवाहों, सामाजिक दायित्वों के वैचारिक ग्रहण के अलावा किसी भी मानव मूल्य का कोई मतलब नहीं है।

शेष आगामी अंक में

(मेधा बुक्स, दिल्ली-32 से प्रकाशित पुस्तक 'लघुकथा का साहित्य दर्शन' में संकलित)