बुधवार, 19 अक्तूबर 2016

लघुकथा : परम्परा और विकास-3 / बलराम अग्रवाल


तीसरी किस्त
 
दिनांक 12-10-2016 से आगे
आवरण : के॰ रवीन्द्र
डाॅ. शकुन्तला किरण के अनुसार, ‘आज हिन्दी लघुकथा गद्य के विभिन्न कथात्मक रूपों के अन्तर्गत अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाने में न केवल समर्थ सिद्ध हुई है, अपितु अभिव्यक्ति के सभी माध्यमोंप्रकाशन, प्रसारण, मंचाभिव्यक्ति के अतिरिक्त संचार-क्रान्ति के प्रमुख ‘इन्टरनेट’ पर स्वतन्त्र तथा अन्य वेबसाइटों पर पढ़ी जाने वाली सर्वाधिक लोकप्रिय विधा साबित तो रही है जो स्वयं इसके महत्त्व का स्वतःसिद्ध प्रतिपादन है।


     आज यह जिस मुकाम पर विद्यमान है, उस तक पहुँचने के लिए इसके जुझारू युवा-लेखन को, अपने अत्यन्त सीमित साधनों, माध्यमों के मध्य पर्वत बनेपूँजीवादी व्यवस्था एवं साहित्य के राज-सिंहासनों पर आरूढ़ बड़े-बड़े नामधारी सर्वशक्तिमानों के विरोधों एवं आरोपों का डटकर कड़ा सामना करना पड़ा।’
     ‘परिवर्तन के चक्र में, युगीन परिस्थितियों के साथ-साथ ही साहित्य में भी परिवर्तन आना बहुत सहज एवं स्वाभाविक है, क्योंकि साहित्य सदैव अपने युग का ही प्रतिनिधित्व करता है। इसी कारण अपनी सापेक्ष माँग के अनुरूप, प्राचीन कथाओं का उद्देश्यधर्म, नीति, व्यावहारिकता आदि की शिक्षा देना या किसी आदर्श की स्थापना कर प्रेरणा देना अथवा तत्कालीन समाज का चित्रण करना या मनोरंजन प्रदान करना आदि ही रहा है और वर्तमान में परिवर्तित स्थितियों-परिस्थितियों के अनुसार, बदली हुई मानसिकता के अन्तर्गत आधुनिक कथा-साहित्य का उद्देश्य भी बदल गया है। इसका उद्देश्य शिक्षात्मक व मनोरंजनात्मक भूमि से हटकर यथार्थ के धरातल पर आ गया है, जिसके अन्तर्गत किसी भी प्रकार की गलत व्यवस्था पर चोट करना, व्यक्ति के बाह्य एवं आन्तरिक परिवेश की विकृतियों, विसंगतियों को उजागर करना तथा ओढ़े गए मुखौटों को नोंच-उतारकर उनके वास्तविक रूप से परिचित कराना आदि रहा है, जो वर्तमान युग की परिस्थितिजन्य माँग है।’
बदले हुए शासन-तन्त्र से आम-आदमी का मोहभंग कितनी जल्दी हो गया था, उसका प्रमाण डाॅ. ब्रजकिशोर पाठक द्वारा प्रस्तुत इस एक ही उद्धरण से मिल जाता है—‘1958 की एक बात इस प्रसंग में मुझे याद आ रही है। अपने घर पर राधाकृष्ण जी ने एक गहरा चिंतन मुझे सुनाया था। उन्होंने कहा थाआजादी के बाद हमारा देश राष्ट्र नहीं बन पा रहा है, यह तो राष्ट्र की एक पैरोडी के रूप में उभर रहा है। यही हालत रही तो आगे चलकर चुटकुला हो जाएगा हमारा देश। अब हमारे देश में जो कविताएँ लिखी जाएँगी, उनमें राष्ट्रीय जीवन की पैरोडी व्यक्त होगी और कहानियाँ चुटकुले बन जाएँगी।’
     इस कथन के कुछ ही वर्षों के बाद सत्तर के दशक में आम आदमी की हैसियत क्या थी? यह कि ‘वर्तमान यान्त्रिक युग की तीव्र गतिशीलता एवं विषमताओं, विसंगतियों से उत्पन्न संघर्षों के मध्य, व्यक्ति का जीवन खण्ड-खण्ड हो, टुकड़े-टुकड़े में बँट गया और इन टुकड़ों से गुज़रती उसकी जीवन-यात्रा दिन-प्रतिदिन जटिल से जटिलतर होती चली गई। भारतीय राजनीतिक क्षेत्र में व्याप्त विकृतियों के कारण जन-सामान्य की पूर्व से चली आ रही अभावग्रस्त स्थितियों में वांछित सुधार होने की अपेक्षा उनका जीवन-स्तर और गिरने लगा। महँगाई, भ्रष्टाचार व बेरोजगारी के चक्रव्यूह से निकलने के बदले, उल्टे वे उसमें अधिक फँसते चले गए। सरकारी नौकरियों में प्रवेश बिना रिश्वत, सिफारिश, चापलूसी के कठिन से कठिनतर होता चला गया। योग्य प्रत्याशी चाँदी की खनक या किसी प्रभावशाली व्यक्ति से सम्बन्ध एवं पहचान के अभाव में चयनित न होने पर दर-दर भटकने के लिए बाध्य होने लगे और अयोग्य व निकम्मे प्रत्याशी इन आधारों एवं तिकड़मों के सहारे चयनित होने लगे। परिणामस्वरूप, अयोग्य व निकम्मे प्रत्याशियों के कारण अपेक्षित कार्य-कुशलता के अभाव में, कार्य-क्षेत्रों व निर्माण-कार्यों की गति अपेक्षाकृत धीमी व गड़बड़ होने लगी। हड़ताल, आन्दोलन, तालाबन्दी आदि क्रिया-कलापों में प्रमुख लक्ष्य गौण होता चला गया। अधिकारियों व अधीनस्थों और शासकों व कर्मचारियों के मध्य तनाव बढ़ते चले गए जिससे आपसी सम्बन्धों में दरारें पड़ने लगीं और जीवन कटु से कटुतर होता चला गया।’
     1994 से 1996 तक राष्ट्रीय प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव रहे राजीव सक्सेना ने लिखा है—‘भारत में स्वातन्त्र्योत्तर भ्रमोन्मूल और असन्तोष सातवें दशक के उत्तरार्द्ध में अपनी चरम सीमा पर पहुँचा और उग्र जन-संघर्षों में फूट पड़ा। विद्रोह के एक व्यापक वातावरण में सभी राजनीतिक दलों का आन्तरिक संकट गहरा हो गया।’ वह कहते हैं—‘इस पृष्ठभूमि में अगर साहित्य तथाकथित ‘शुद्ध साहित्यिक मूल्यों’ से चिपका रहता तो आश्चर्य होता। एक आम विद्रोह उठ खड़ा हुआ मुख्यतः युवा लेखकों-कवियों में; जिन्होंने प्रतिष्ठान (एस्टेब्लिशमेंट) और सेठाश्रय, दोनों को चुनौती दी।’
     ‘देश की शासन-व्यवस्था के अन्तर्गत सत्ताधारियों का लक्ष्य पद-प्राप्ति एवं उसकी सुरक्षा के साथ निजी आर्थिक लाभ तक ही सिमटकर रह गया। जनकल्याण की भावना मात्र उनके वक्तव्यों-भाषणों की रेशमी डोरी में गुँथकर उनकी शोभा बढ़ाने तक ही सीमित रह गई। राष्ट्र-प्रगति की योजनाएँ, सरकारी कागजों की यात्रा में ही बनने-बिगड़ने लगीं। चुनाव-यात्रा में सभी प्रकार के वैध-अवैध हथकण्डे अपनाए जाकर, अर्थ एवं आतंक के बल पर विशेषकर ग्रामीणों एवं अशिक्षितों से वोट ऐंठे जाने लगे, जिससे दल की शक्ति के बदले दल-बदलुओं के आवागमन की गति बढ़ने लगी और शासन-व्यवस्था की नीतियों, उद्देश्यों व कार्य-प्रणालियों से अनभिज्ञ व्यक्ति शासकीय पदों पर आरूढ़ होने लगे। दूरदर्शिता, ईमानदारी, श्रम, निष्ठा व नैतिकता के अभाव में राष्ट्रीय उत्पादन कम व विदेशी कर्ज अधिक बढ़ने लगा। शासकों की लापरवाही, स्वार्थपरता एवं ऐशो-आराम के मध्य विदेशी मैत्री-सम्बन्धों की सुदृढ़ता एवं उपयोगिता से लाभ तो कम किन्तु उनकी शर्तों के शिकंजों की जकड़न अधिक बढ़ने लगी। साथ ही, सत्ताधीशों द्वारा अपने ईमानदार, राष्ट्र-हित-चिन्तक, कर्तव्यनिष्ठ, निर्भीक एवं कर्मठ सहयोगियों का राजनीति से किसी-न-किसी तरह पत्ता ही काट दिया जाने लगा ताकि उनके निजी स्वार्थ-लाभ में कोई बाधक तत्त्व न रहें और चापलूस ‘जी-हुजूर’ व्यक्तियों-पिछलग्गुओं को महत्त्व दिया जाने लगा। फलस्वरूप जन-असन्तोष की लहर बढ़ती चली गई।’
     ‘देश पर सन् 1962 में चीन व 1965 में पाकिस्तान द्वारा हुए आक्रमणों के अन्तर्गत युद्ध-व्यय तथा सन् 1970-71 में पाक-बांग्ला विवाद से उत्पन्न परिस्थितियों में हुए अतिरिक्त व अप्रत्याशित व्यय के भार-स्वरूप देश की आर्थिक व्यवस्था लड़खड़ाने लगी। मुद्रा की क्रयशक्ति घट गई जिससे मँहगाई, चोर-बाजारी बढ़ने लगी। देश के इस आर्थिक संकट का प्रभाव सभी क्षेत्रों पर पड़ा।’ शकुन्तला किरणःहिन्दी लघुकथा
     सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिकतात्पर्य यह कि जीवन के सभी क्षेत्रों में व्याप्त अधमताओं, अनैतिकताओं, विसंगतियों, विकृतियों, कृत्रिमताओं, छलों-छद्मों आदि से लड़ते आम आदमी के खण्ड-खण्ड जीवन की सूक्ष्म संवेदनाओं को स्वर देने के लिए अभिव्यक्ति के किसी ऐसे माध्यम की खोज नेजो उन सूक्ष्मतर संवेदनाओं को वहन कर गलत व्यवस्था पर सकारात्मक, सार्थक और निर्णायक प्रहार कर सकेहिन्दी लघुकथा को जन्म दिया। कोई सन्देह नहीं कि समकालीन लघुकथा ने आज जीवन में अभिव्यक्ति के नए सन्दर्भों को प्रस्तुत किया है। अभिव्यक्ति के नए सन्दर्भों की तलाश दलित और दमित मानव समाज को हमेशा ही रही है। जहाँ जीवन इतनी तेज गति से चल निकला हो कि आदमी आदमी को रौंदकर भी अपनी अभिलाषा पूर्ण करने से न चूक रहा हो, तब अभिव्यक्ति के पारम्परिक मानक रूढिता को प्राप्त हो छोटे से कालखण्ड में ही व्यर्थ हो जाते हैं। इस प्रकार हिन्दी कथा क्षेत्र में अभिव्यक्ति के नए माध्यम के रूप में, लघुकथा पूर्णतः आधुनिक माध्यम है।
     ‘इस अधुनातन माध्यम, आधुनिक हिन्दी लघुकथा, को और भी बल दिया देशव्यापी आकस्मिक कागज संकट ने, जिसके फलस्वरूप उसकी जड़ें मजबूती से जमती चली गईं। देश में कुछ अरसे से निरन्तर कागज के उत्पादन में कमी आते रहने के कारण सन् 1973-74 में आए कागज-संकट से पत्र-पत्रिकाओं की दुनिया में भयंकर उथल-पुथल मच गई, जिसमें बड़ी-बड़ी स्थापित पत्रिकाएँ एवं पत्र तक लड़खड़ाने लगे।’  डाॅ. शकुन्तला किरण आगे कहती हैं—‘कई छोटी-छोटी पत्रिकाएँ एवं पत्र तो पुनः अपने अस्तित्व में ही नहीं आ पाए। सरकार ने तब बड़े-बड़े प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों तक का ‘कोटा’ निश्चित कर दिया था, यहाँ तक कि ‘धर्मयुग’ जैसी पत्रिका के भी कई अंक नहीं निकल सके थे। बरसाती पत्र-पत्रिकाओं के तो चिह्न तक नहीं बचे। इसी कागज-संकट के अन्तर्गत कई पत्र-पत्रिकाओं ने अपने सीमित पृष्ठों के अन्तर्गत, पाठकीय आकर्षण बनाए रखने के लिए, लम्बी रचनाओं के स्थान पर अन्य विविध सामग्री देने के लिए, लघु-आकारीय रचनाओं को स्थान दिया और इन्हीं लघु रचनाओं के चयन में ‘लघुकथा’ को भी स्थान मिला। ‘लघुकथा’ चूँकि अपने नए परिवेश के अन्तर्गत नए कथ्य, शिल्प, प्रभाव के साथ प्रस्तुत हुई थी; इसीलिए अन्य रचनाओं के मध्य यह विशेष प्रभावोत्पादक रही और इसी प्रभावोत्पादकता ने पाठकों का नए-पुराने ध्यान इसकी ओर आकर्षिक किया। बढ़ती पाठकीय रुचि ने न केवल संपादकों, बल्कि लेखकों को भी आकृष्ट किया। इसकी क्षमता से अनभिज्ञ जो संपादक अपनी पत्रिकाओं में इसका उपयोग मात्र विविध रचनाओं को स्थान देने एवं रिक्त रहे स्थान की पूर्ति हेतु ही जाने-अनजाने या विवशता वश कर रहे थे, इसके बढ़ते जा रहे महत्त्व से सजग होकर इसके स्थापन या प्रस्तुतिकरण का सेहरा अपनी-अपनी पत्रिका के सिर बँधवाने के लिए सही-गलत सभी तरह का प्रचार करने लगे। फलस्वरूप, इन सब क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं ने ‘लघुकथा’ को एक चर्चा देकर इसे एक आन्दोलन का रूप दे दिया और इस आन्दोलन के सिंचन ने लघुकथा को पल्लवित किया।
     लघु पत्र-पत्रिकाओं के सीमित साधनों की विवशता ने भी लघुकथा को बल प्रदान किया। लघु पत्र-पत्रिकाओं को प्रायः अपने आर्थिक अभावों के अन्तर्गत प्रकाशन सम्बन्धी अपेक्षित व प्रभावी साधन उपलब्ध नहीं हो पाते। अपने सीमित व सम्भव, उपलब्ध साधनों में ही उन्हें निर्वाह करना पड़ता है, चूँकि लघु पत्र-पत्रिकाओं के संपादक प्रायः युवा रचनाकार ही रहे हैं। अतः स्थापित साहित्यकारों व पत्र-पत्रिकाओं की शिविरों में बँधी रूढ़-दृष्टियों की उपेक्षा से जब उनके अन्तस के सृजक का स्वाभिमान आहत होता है तो समाज को कुछ नया दे सकने व कुछ नया कर पाने की उनकी चाह खिन्न होने लगती है। तब उस आहत स्वाभिमान की प्रतिक्रिया का बल, सीमित व उपलब्ध साधनों के ही मध्य, सृजन की छटपटाहट की क्रियान्विति स्वरूप किसी लघु पत्र-पत्रिका के जन्म का कारण बनता है। जन-साधारण के लिए अधिकतम उपयोगी बना सकने, उनकी रुचि को परिष्कृत कर सकने, उनको एक दिशा दे सकने आदि के लिए बिना किसी आर्थिक लाभ के, बल्कि ऋण-चक्र में फँसे रहकर भी वे अपनी अन्तिम सीमा तक उस पत्र-पत्रिका को जीवित रखने का प्रयास करते हैं। और उन लघु पत्र-पत्रिकाओं में लघु, किन्तु गम्भीर सामग्री दे सकने के लिए जब उनकी दृष्टि ‘देखन में छोटी लगे, घाव करे गम्भीर’ जैसी ‘लघुकथा’ विधा पर पड़ी तो उसकी सार्थकता एवं महत्त्व से प्रभावित हो, उन्होंने इसे अतिरिक्त सम्मान के साथ स्थान दिया। इसकी प्रसंगिकता, संक्षिप्तता एवं सम्प्रेषणीयता व प्रभावोत्पादकता...इन तिहरी-चौहरी विशेषताओं ने इसे तीव्र गतिशील बना दिया। साथ ही इन लघु पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों को यह लघुकथात्मक रचना-सहयोग, बिना अतिरिक्त मूल्य या अति श्रमसाध्य प्रयत्नों के सुलभ होता रहा, क्योंकि बड़े-बड़े प्रतिष्ठित नामों की अपेक्षा इसे नए युवा हस्ताक्षरों ने ही समर्पित भाव से समृद्ध किया। इसे तराश, इसके प्रस्तुतिकरण में सूत्रधार की भूमिका निभाई; अतः न केवल उन्होंने अपना रचनात्मक सहयोग ही दिया, बल्कि इससे सन्दर्भित अन्य सम्भव सहयोग व साधनों को भी उन्हें उपलब्ध करवा सकने के प्रयास किए तथा सम्बन्धित सुझाव दिए। फलस्वरूप, लघुकथा की यात्रा, तीव्र से तीव्रतर गतिशील होती चली गई।
     पत्र-पत्रिकाओं के लघु आकार में न केवल ‘अन्तर्देशीय’ बल्कि ‘पोस्टकार्ड’ के आकार की पत्रिका भी उस काल में निकाली गईं। ‘अन्तर्देशीय’ पत्रिका के प्रमुख उदाहरण ‘मिनी अन्तर्यात्रा’, ‘अतिरिक्त’, ‘प्रीतमणी’ आदि हैं तथा ‘पोस्टकार्ड’ आकारीय पत्रिकाओं में ‘कथ्य परिवेश’ प्रमुख कही जा सकती है जो ‘संघर्षशील नवलेखन' के आधार पर निकाली गई। अतः लघु पत्र-पत्रिकाओं के सीमित स्थानों में, लघु किन्तु गम्भीर रचनाओं के प्रकाशन की अनिवार्य विवशता से ‘लघुकथा’ को बहुत बल मिला।’ डाॅ. कमल किशोर गोयनका भी लगभग ऐसा ही मत प्रकट करते हैं—‘हिन्दी लघुकथा के विकास में लघु-पत्रिकाओं का योगदान महत्वपूर्ण है। हिन्दी की बड़ी पत्रिकाओं में ‘धर्मयुग’, ‘सारिका’ ने भी लघुकथाएँ प्रकाशित की हैं। ‘सारिका’ ने तो काफी प्रकाशित की हैं।’
     ‘प्रायः बड़ी पत्रिकाओं एवं पत्रों ने लघुकथा को इसकी बेधक क्षमता एवं इसके महत्त्व से प्रभावित होकर नहीं, बल्कि सामग्री की विविधता एवं रिक्त रहे स्थान-पूर्ति के अन्दर सुविधा के कारण इसमें रुचि ली; किन्तु पाठकीय दृष्टिकोण में अन्तर के सापेक्ष इसकी क्षमता एवं प्रभावोत्पादकता के कारण बढ़ती रुचि ने, इसकी व्यापकता में वृद्धि की। फलस्वरूप, बड़ी पत्रिकाओं के द्वारा भी इसको स्थान दे सकने के प्रयासों ने इसे ठोस जमीन दी।
     इस प्रकार कागज-संकट, बड़ी पत्रिकाओं व पत्रों द्वारा उनके विविध सामग्री दे पाने के सम्मोह, एवं स्थान-पूर्ति में प्रभावी भूमिका निभा सकने के आकर्षण तथा लघु पत्र-पत्रिकाओं से सीमित साधनों की विवशताजन्य अनिवार्यता, साथ ही यान्त्रिक जीवन की निरन्तर बढ़ती जा रही व्यस्तता के अन्तर्गत, पाठकीय सुविधा आदि कारणों से लघुकथा को बहुत बल मिला, इसकी जड़ें मजबूत होती गईं। इसका अर्थ यह नहीं कि यदि ये कारण न होते तो लघुकथा की जड़ें कमजोर रह जातीं अथवा इनके अभाव में इसका रूप धुँधला रह जाता याकि उसकी गति रुक जाती। वस्तुतः लघुकथा का स्थान उसकी बेधकता, उपयोगिता, प्रासंगिकता, नवीनता, प्रभावोत्पादकता, सम्प्रेषणीयता आदि क्षमताओं के कारण ही महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावशाली बना है, अन्य किन्हीं बाह्य कारणों से नहीं। उन कारणों का महत्त्व केवल इतना ही है कि वे इसकी व्याप्ति एवं गति में थोड़ा सहायक बने।’ शकुन्तला किरण : हिन्दी लघुकथा
                                  शेष आगामी अंक में…

बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

लघुकथा : परम्परा और विकास-2 / बलराम अग्रवाल



पहला अध्याय

 
दूसरी किस्त (दिनांक 3-10-2016 से आगे)
आवरण:के. रवीन्द्र
लघुकथा की इस यात्रा में अचानक हम सातवें दशक के उत्तरार्द्ध से नौवें दशक के अन्त तक एक लेखकीय बाढ़ आई पाते हैं और इसी के साथ आरम्भ होता हैलघुकथा लेखन में चुनौतियों का एक सिलसिला। आठवें दशक के उत्तरार्द्ध तक आते-आते जो लोग अन्य विधाओं के साथ-साथ इस विधा को भी पकड़े हुए सक्रिय थे, उनकी परम्परा को आगे बढ़ाने में तत्कालीन नयी पीढ़ी के कुछ लोगों के द्वारा महत्त्वपूर्ण योगदान किया गया।
कथा साहित्य की अन्य विधाओं के आकार की तुलना में लघुकथाएँ छोटी होने के कारण अधिक रुचिकर हो रही हैं। इस मशीनी सभ्यता में, लोगों के पास वक्त के लाले पड़ रहे हैं, आदमी खुद नट-बोल्ट होकर घिस रहा हैकहाँ किसको फुर्सत है कि मोटे-मोटे आख्यान पढ़े। आदमी का पूरा परिवेश चाहने लगा है ‘समरी’ स्वरूप कुछ पढ़ना, छना हुआ सत्व। जाहिर है लघुकथाएँ साहित्य की इतर विधाओं की तुलना में अधिक धारदारी से काम कर सकती हैं, बशर्ते कथानक प्रभावी हो और अन्दर तक टीप जाए। शैली भी अपने प्रवाह में हो जो एक झटके से अपनी सार्थकता रेखांकित कर जाए।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डा. जे. पी. श्रीवास्तव ने अपने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में हिन्दी गद्य की अन्य नवीन विधाओं के तहत संभवतः सर्वप्रथम लघुकथाओं पर मुख्तसर चर्चा की है।
लघुकथा की लोकप्रियता के अनेक कारणों में एक यह भी है कि ‘आज के इस मशीनी युग में जब कि हर वस्तु तीव्रगति से भाग रही है सभी लोग पेट और समय के इशारे पर नृत्य कर रहे हैं, लघुकथा ही वह विधा है जो उनकी व्यस्तताओं के बीच भी दो मिनट समय चुरा ही लेती है।...यह वह विधा है जो वक्त छीनकर पाठक पैदा करती है क्योंकि शीघ्र पढ़ी जाने और झटका देने का गुण तो इसमें है ही है, जो उन्हें विवश करता है।’
हिन्दी में लघुकथा की आमद का आकलन जगदीश कश्यप ने यों किया है—‘खलील जिब्रान की लघुकथात्मक पुस्तक ‘दि मैडमैन’ जब ‘पागल’ शीर्षक से हिन्दी में अनुवाद होकर आई तो स्व. सुदर्शन जो प्रसिद्ध कहानीकार थे, ने उसी आधार पर ‘झरोखे’ संग्रह निकाला जो खलील जिब्रान की रचनाओं से शत-प्रतिशत प्रभावित था। ऐसी रचनाओं से प्रभावित होकर उपेन्द्रनाथ अश्क ने तीसरे दशक में ऐसी गद्य रचनाएँ लिखीं जो आज लघुकथा के नाम से पुकारी जाती हैं और ये रचनाएँ आज की पीढ़ी के लिये बिल्कुल ताजी हैं। इसी परिपाटी को कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ ने ‘आकाश के तारे: धरती के फूल’, आनन्द मोहन अवस्थी ने ‘बन्धनों की रक्षा’ नामक लघुकथा संग्रह में आगे बढ़ाया।’
मैं समझता हूँ कि ‘लघुकथा’ कही जाने वाली उपेन्द्रनाथ अश्क की रचनाएँ नयी पीढ़ी के लिए कभी भी ताजी नहीं रहीं। हिन्दी के लघुकथा-पाठक पर उन्होंने कभी भी उल्लेखनीय प्रभाव नहीं डाला।
कुछ लोग लघुकथा के लिए व्यंग्य को अनिवार्य मानते हैं और उसके बिना उस रचना को लघुकथा नहीं मानते।...दरअसल यह व्यंग्य की स्थिति ‘सारिका’ द्वारा प्रकाशित अनेक लघुकथा विशेषांक (लघुकथा बहुल खण्डों को) छोटे-छोटे अन्तराल में प्रकाशित करते रहने के कारण आई। उस समय देश की राजनीति अस्थिरता के दौर में प्रवेश कर चुकी थी। राजनीति के मापदंड छितरा रहे थे। आर्थिक और राजनैतिक संकट के बादल गहरा रहे थे। आम जनता में आक्रोश और बेचैनी फैली हुई थी। इन्हीं विसंगतियों को लघुकथा के माध्यम से ‘सारिका’ सम्पादक ने कुछेक पैरोडीकारों के माध्यम से प्रस्तुत करते थे। ज्यादातर रचनाएँ ऐसी छापी जाती थीं जिनमें तीखा व्यंग्य होता था। नतीजा यह हुआ कि अनेक लोगों ने समझा, लघुकथा में व्यंग्य का होना अति आवश्यक है।
अमर गोस्वामी के अनुसार—‘लघुकथा आज के युग की महती आवश्यकता हो सकती है। जब जीवन ज्यादा व्यस्त-विकट, कर्मसंकुल, नाना प्रकार के घात-प्रतिघातों से आहत-प्रत्याहत, नाना प्रकार के प्रहारों से क्षत-विक्षत, क्लांत-विपन्न होता जा रहा है। नाना प्रकार की दौड़-धूप, भागम-भाग, आपाधापी, कशमकश व जद्दोजहद से जीर्ण-शीर्ण, उद्विग्न-खिन्न होता जा रहा है तब हम लघुकथाओं के माध्यम से उस जीवन-मरू को नखलिस्तान प्रदान कर सकते हैं, जीवन के नैराश्य निशीथ में आशा के दीप व आस्था के सन्दीप जला सकते हैं। भ्रम-भ्रान्ति के घनघोर जंगल में चाँदनी खिला सकते हैं, दिशाहीनता के आकाश में ध्रुवतारा दिखा सकते हैं, जीवन के श्मशान में संजीवनी ला सकते हैं, लघुकथाओं के माध्यम से तंत्रों-मंत्रों-यंत्रों की रचना कर जीवन को भूत-प्रेत-पिशाचों से यानी संपूर्ण प्रेतबाधा से मुक्ति दिला सकते हैं। लघुकथाओं के माध्यम से कीटाणुनाशकों का निर्माण कर जीवन को कीटाणुओं से मुक्ति दिला सकते हैं, लड़खड़ाते जीवन को लघुकथा का टाॅनिक पिला उसे सरपट दौड़ा सकते हैं।’
लघुकथा के उन्मेष के पीछे भागम-भाग की जिंदगी को कारण मानने वालों के समक्ष यह तर्क हमेशा ही अपना सिर उठाए खड़ा रहेगा कि ‘क्या वास्तव में आज पाठकों के पास समय की इतनी कमी है कि बड़ी रचनाओं के लिए गुंजाइश नहीं रखी गयी है? अगर ऐसा होता तो आज जो विपुल आकार के ग्रन्थ निकल रहे हैं, कई खंडों के उपन्यास प्रकाशित हो रहे हैं, उनका प्रकाशन ठप हो गया होता।’
लेकिन यह एक सचाई है कि ‘राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक सभी क्षेत्रों की जटिलताओं के चक्रव्यूह में व्यक्ति फँसता चला गया, किन्तु उसकी जिजीविषा उसे इन संघर्षों से जूझ सकने का बल एवं साहस देती रही और जीवन ‘जैसा भी है’ उसे जीने के लिए उसका मोह उसे बाध्य करता रहा, क्योंकि साहित्य के रूप, जीवन को समझने के भिन्न-भिन्न माध्यम हैं। अज्ञेय के अनुसार, ‘जीवन से जो मिलता है, उसको दूसरों तक पहुँचाना साहित्यिक कर्म है। जो दूसरे तक पहुँचता नहीं, सिर्फ अपने को अभिव्यक्त करता है, मैं उसको साहित्य नहीं मानता। दूसरा नहीं है, तो साहित्य नहीं है। साहित्य में दूसरों तक पहुँचने की तड़पन होती चाहिए।’
अतः जीवन-यात्रा में हुए विविध अनुभवों के अन्तर्गत बाह्य एवं आन्तरिक संघर्षों के क्षणों को वाणी देने के लिए अभिव्यक्तिकरण की दिशा में अपने भटकाव के मध्य एक रास्ता पा लेने की छटपटाहट ने नई पीढ़ी को उपन्यासों-कहानियों की भीड़ से निकालकर खुले मैदान में ला खड़ा किया, जहाँ वह घुटन से मुक्त हो खुली साँस ले सके, यथार्थ के आलोक में सही दिशा ज्ञात कर उस ओर नया चरण रख सके; और इस यात्रा में उसे सर्वप्रथम आवश्यकता हुईअभिव्यक्ति के किसी ऐसे माध्यम की, जो उसके खण्ड-खण्ड जीवन की जटिलताओं एवं संघर्षों के बीच गुजरती सूक्ष्मतर संवेददनाओं को व्यक्त करने में समर्थ हो सके, जो हर गलत व्यवस्था पर प्रहार करने एवं नए सार्थक-मूल्यों के लिए भूमि तैयार कर सकने में उसका सहायक हो सके तथा सामाजिक परिवर्तन हेतु क्रान्तिकारी भूमिका निभाने में सक्षम हो। इसके लिए नई भावभूमि, भिन्न शिल्प की खोज अपेक्षित थी।’ इसी खोज का परिणाम रहीपरम्परा से प्राप्त लघुकथा की काया, जिसमें प्रवेश कर समकालीन कथाकार ने उसे ‘आज’ से जोड़ दिया।’
मेरी प्रिय कहानियाँ’ की भूमिका-स्वरूप ‘प्रतिवेदन’ में अज्ञेय जी द्वारा मार्च 1975 में लिखित ये पंक्तियाँ देखें—‘‘बिना कहानी की सम्यक परिभाषा के कहा जा सकता है कि कहानी एक क्षण का चित्रा प्रस्तुत करती है। क्षण का अर्थ आप चाहे एक छोटा कालखण्ड लगा लें, चाहे एक अल्पकालिक स्थिति, एक घटना, डायलाग, एक मनोदशा, एक दृष्टि, एक (बाह्य या आभ्यन्तर) झाँकी, संत्रास, तनाव, प्रतिक्रिया, प्रक्रिया...इसी प्रकार चित्रा का अर्थ आप वर्णन, निरूपण, संकेतन, सम्पुंजन, रेखांकित, अभिव्यंजन, रंजन, प्रतीकन, द्योतन, आलोकन, जो चाहें लगा लेंया इनके जो भी जोड़-मेल। बल्कि और भी महीन-मुंशी तबीयत के हों तो ‘प्रस्तुत करना’ को लेकर भी काफी छानबीन कर सकते हैं। इस सबके लिए न अटक कर कहूँ कि कहानी क्षण का चित्रा है और क्षण क्या है, इसी की हमारी पहचान निरन्तर गड़बड़ा रही है या संदिग्ध होती जा रही है।’’ और इसी के साथ नयी कहानी के उन्नायकों में से एक, कथाकार-आलोचक-संपादक राजेन्द्र यादव की यह टिप्पणी भी पढ़ें—‘सड़े आदर्शों और विघटित मूल्यों की दुर्गंधि से भागने की छटपटाहट बौद्धिक मुक्ति का प्रारंभ थी। वैयक्तिकता की खोज और प्रामाणिक अनुभूतियों का चित्राण, आरोपित लक्ष्यों, नकली परिवेश और हवाईपने से ऊबा हुआ कथाकार अपने और अपने परिवेश के प्रति ईमानदार रहना चाहता है इसलिए उसने अनदेखे अतीत और अनभोगे भविष्य से नाता तोड़कर अपने को ‘यहाँ और इसी क्षण’ पर केन्द्रित कर दिया, उसका अपना ‘यही क्षण’, जो उसका कथ्य है, तथ्य है और उसका अपना जीवन-मूल्य है।’ इन दोनों में ही वक्तव्यों में कहानी के परम्परागत कथ्य, रूप-स्वरूप, प्रस्तुति और परिभाषा में बदलाव के स्पष्ट संकेत हैं; और इस तरह के संकेत उस काल के लगभग हर कहानी-विचारक के वक्तव्य में देखने को मिलते हैं। यह अनायास नहीं था कि जिस काल में अज्ञेय, राजेन्द्र यादव और उनकी समूची कथा-पीढ़ी ‘यहाँ और इसी क्षण’ पर केन्द्रित ‘एक क्षण के चित्रा’ को कहानी कह रही थी, नई पीढ़ी के कतिपय कथाकार उसी ‘एक क्षण के चित्रा’ को निहायत ईमानदारी, श्रम और कथात्मक बुद्धिमत्ता के साथ लघुकथा के रूप में प्रस्तुत करने का कौशल दिखा रहे थे। कहानी के कभी इस तो कभी उस आन्दोलन में दशकों तक पलटिया मारकर थक चुकी तत्कालीन कथा-पीढ़ी उसके परम्परागत स्वरूप के बारे में अपनी आभ्यन्तर अस्वीकृति को वक्तव्यों से आगे यदा-कदा ही कथात्मक अभिव्यक्ति दे पा रही थी (‘अपने पार’ और ‘हनीमून’राजेन्द्र यादव) और टाप-आर्डर आलोचकों की अस्वीकृति व उदासीनता से आहत हो उस दिशा में सार्थकतः आगे नहीं बढ़ पा रही थी। (सन्दर्भतः देखें—‘वस्तुतः नई कहानी के बाद समकालीन कहानी को गंभीरता से समझने में आलोचना ने अधिक दिलचस्पी नहीं ली। विजय मोहन सिंह भी कुछ ही आगे बढ़ पाए।’ वीरेन्द्र मोहन, समकालीन कहानीः परम्परा और परिवर्तन)
समकालीन भारतीय साहित्य’ के दिसम्बर 2013 विशेषांक में सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी का एक साक्षात्कार प्रकाशित हुआ है। उसमें एक स्थान पर वह कहते हैं...कहानी के केन्द्र में कोई एक बात ही होनी चाहिए। ...कथानक में बिखराव से कहानी की कला भी नष्ट होती है। अज्ञेय और राजेन्द्र यादव के बाद डॉ. त्रिपाठी तीसरे व्यक्ति हैं जिन्होंने ‘कहानी के केन्द्र में कोई एक बात’ होने की बात कही है।  हमारा मानना है कि डॉ. त्रिपाठी का यह आकलन बहुत लेट, कहानी की सूरत बिगड़ जाना शुरू होने के 45-50 साल बाद आया है। कहानी की दुर्दशा को देखकर सही समय पर यह आकलन सबसे पहले अज्ञेय ने दिया था, जो कि ऊपर उद्धृत है। ‘हिन्दी चेतना’ के कथा-आलोचना विशेषांक, अक्टूबर-दिसम्बर 2014 में लगभग इसी बात को असगर वजाहत ने यों कहा है—”...इधर हिन्दी में कहानी किस्म के उपन्यास आने लगे हैं। लगता है, बेचारी कहानी को पीट-पीटकर उपन्यास बना दिया गया है।...“  असगर साहब ने यह बात उपन्यास के सन्दर्भ में कही है; जब कि एकदम यही बात सातवें-आठवें दशक में छप रही कहानी पर भी लगभग ज्यों की त्यों लागू होती थी। साफ नजर आता था कि  केवल लम्बाई बढ़ाने की नीयत से छोटी-सी एक बात को कला के नाम पर जबरन खींच-तानकर कहानी बनाने का करिश्मा किया गया है। कथा-प्रस्तुति के साथ इस जबरन खींच-तान के विरोध का नाम ही ‘समकालीन लघुकथा’ है।
लघुकथा से जुड़े कथाकारों ने ऐसी प्रत्येक अस्वीकृति और उदासीनता का सामना बेहद धैर्यशीलता के साथ रचनात्मकता से जुड़े रहकर किया और विधा को सँवारने, सर्वमान्य-सम्मान्य बनाने व पूर्व पीढ़ी को इस धारा से जोड़े रखने में सफल रहे। इस सन्दर्भ में विशेष उल्लेखनीय यह भी है कि लघुकथा को उच्च-स्तर पर प्रसारित करने का श्रेय, हिन्दी कहानी के कथ्यों को प्रेमचंदपरक कथ्यों से आगे सरकाने की साहसपूर्ण, सक्रिय और सकारात्मक पहल करने वाले कथाकारों में से एककमलेश्वर को जाता है। कहानी के जड़-फार्म को तोड़ने की आवश्यकता का आभास कराने की पहल करते हुए ‘सारिका’ के कई अंकों को उन्होंने लघुकथा-बहुल अंक के रूप में प्रकाशित किया। यह एकदम अलग बात है कि कुछेक रचनाओं को छोड़कर अधिकांशतः उनकी वह पहल व्यंग्यपरकता के नाम पर छिछली चुटकुलेबाजी में ही उलझी रही। निःसन्देह यह भी लघुकथा से गम्भीरतापूर्वक जुड़े तत्कालीन कथाकारों का ही बूता था कि हास्यास्पद लघुकथाएँ लिखकर ‘सारिका’ में छपने के मोह में वे नहीं फँसे और गम्भीर लेखन से नहीं डिगे।
राजेन्द्र यादव लघुकथा को कहानी का ‘बीज’ बताते हैं। अब, ‘बीज’ को अगर स्थूल अर्थ में ग्रहण करें तो इसे नासमझी ही माना जाएगा; क्योंकि उन जैसे पके और पघे विचारक के किसी भी शब्द या वाक्य को स्थूल अर्थ में ग्रहण नहीं किया जाना चाहिए। हम यों भी तो सोच सकते हैं कि यह सिर्फ कहानी का नहीं, बल्कि समूची कथा-विधा का ‘बीज’ है और इसको सिद्ध किए बिना कथा के परमतत्व की प्राप्ति असंभव है। दरअसल हर कथा-रचना के अन्तर में कम से कम एक लघुकथा विद्युत-तरंग की तरह विद्यमान है और पैंसठोत्तर-काल की तो अनगिनत कहानियाँ ऐसी हैं जो अन्यान्य प्रसंगों के सहारे विस्तार पाई हुई लघुकथा ही प्रतीत होती हैं। इस दृष्टि से देखें तो लघुकथा को कहानी का बीज क्या, समूचे कथा-साहित्य का ‘बीज’, सीधे-सीधे उसकी शक्ति कहना भी न्यायसंगत है। 
                                       शेष आगामी अंक में जारी…