शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

समकालीन लघुकथा और मनोविज्ञान-2/बलराम अग्रवाल



                                                                                                         चित्र:बलराम अग्रवाल

(…गतांक से आगे)
समसामयिक परिस्थितिया और तात्कालिक स्थितियाँ किस तरह मनुष्य के मनोविज्ञान को प्रभावित करती हैं और उनका कितना प्रतिकूल संदेश जनमानस में प्रसारित होता है, समकालीन लघुकथा के संदर्भ में इस सत्य को रतीलाल शाहीन ने यों लिखा है—‘आज की लघुकथा के संदर्भ में अगर आप पूछेंगे, तो मैं सन् 1992 के मुंबई के दंगों से यह हवाला देना चाहूँगा। दंगों के बाद महानगर के लोगों का जीवन ही उजड़ गया। मुंबई में ही धार्मिक उपनिवेशवाद ने सख्ती से जन्म ले लिया। मकान बेचते और खरीदते समय धर्म सर्वोपरि बन गया। लोग एक जगह इंसानियत नहीं, एकता नहीं, हिन्दुस्तानी नहीं, संबंध नहीं सिर्फ हिन्दू, सिर्फ मुसलमान, सिर्फ मराठी होने के नाते से रहने के लिए विवश हो गए।
     उसके बाद जैसाकि हर दंगे या लड़ाई या युद्ध के बाद होता है, तबाही खामियाजा भी उन्हीं लोगों को ही भरना होता है। महँगाई इतनी बढ़ी, रहनसहन इतना अलगाववादी हो उठा कि मुंबई में जहाँ कभी किसी पर जुल्म होने पर सारी जनता एक स्वर से चिल्लाने लगती थी,  विरोध में हाथ उठा लेती थी, अब वह भावना ही चली गई। विरोध में उठने वाले हाथ या स्वर दब्बू की तरह दबकर रह जाते हैं। न जाने कौन ए॰ के॰ 47 या बम या गुप्ती ही निकाल ले। अब संवेदना और हमदर्दी के स्वर संवेदनाशून्य हो गए।
    इस बीच कम्प्यूटर ने अपना रुतबा दिखाना शुरू किया। जो लोग दंगे से नहीं उजड़े, उनको कम्प्यूटरीकरण ने उजाड़ दिया। पिक्चरें थियेटरों में कम, केबलों पर ज्यादा देखी जाने लगीं। काम करने वाले हाथ कम हो गए। बेकारी बढ़ती जा रही है।––सड़क और रेलों के किनारे रहने और रोजीरोटी चलाने वाले उजड़े, उजड़ रहे हैं।
    कहने का तात्पर्यजीवन में आमूलचूल परिवर्तन आते ही चले गए। कहानियाँ तो कम, लघुकथाएँ ज्यादा छप रही हैं।1
       ‘लघुकथा में आम आदमी के जीवन से जुड़ी संवेदना, आघातप्रतिघात, अकल्प परिणाम व अन्त, नफरत की अपेक्षा में स्नेह या आनन्द से आश्चर्यचकित कर देने वाला मानवीय व्यवहार, यह सब निश्चित रूप से पाया जाता है। आम या अमीर आदमी की संवेदना का चित्रण लघुकथा में होता है तो साथ में राजकीय, सामाजिक परिस्थितियों में प्रकट होती करुणा, व्यंग्य और कटाक्ष का आलेख भी लघुकथा में अक्सर होता रहता है।2
     आज का लोकाचार—‘झूठहि लेना झूठहि देना, झूठहि भोजन झूठ चबेनाआज की लघुकथाओं का आधार है। कोई चुनाव में खड़ा हुआ है। प्रत्याशी झूठ बोलकर धोखा देना अपना धर्म समझता है। कुत्ते की बोली बोलकर, सियार की बोली का अनुकरण कर वातावरण को बदल देना आज की लघुकथा में हम आसानी से देख सकते हैं। राजनीति का हस्तक्षेप, प्रशासन का ढीलापन, स्वार्थपरताखुदगर्जीपन, भाईभतीजावाद, शोषण, उठापटकवाद आदि से संबंधित लघुकथाएँ नि:संदेह कल आज के इतिहास का अतापता देंगी।3 
    कुछ लघुकथाकारों ने बीचबीच में हास्य के साथसाथ टॉन्टऔर आइरनीका बड़ा ही भव्य संयोजन किया है। ऐसी लघुकथाओं की शैली संवेदनात्मक होती है। एक प्रमुख घटना या स्थिति को केन्द्र में रखकर ऐसे लघुकथाकार कभीकभी प्रासंगिक और सूच्य घटनास्थिति का आयोजन करते हैं। रचना कभीकभी किस्सागो की भांति शुरू होती है और कभीकभी एकाएक शुरू होकर मंथर गति से बढ़ती हुई अन्त में ऐसा वेग धारण करती है कि सिर धड़ से अलग हो जाता है। व्यंजना शक्ति पर आधारित ये लघुकथाएँ कहानीतत्वों की ऐसी घनीभूत इकाई बन जाती हैं कि सहृदय समीक्षकों के लिए इनके आरपार गुजरना एक जोखिमभरा कार्य हो जाता है। ये ध्वनिकाव्य की भाँति सहृदयों को कथ्याकथ्य की मन:स्थिति में ले जाती हैं।4
    बलराम अग्रवाल के अनुसार—‘लघुकथा एक पारदर्शी कथारचना है जो अपने लघु आकार में पूरे परिवेश, मनोवृत्तियों और मनोभावों को समेटे रहती है।5 परंन्तु क्या यह सब बहुत आसान है। नहीं। नि:संदेह पूंजीवादी साजिशें और ताकतें लघुकथाओं के आन्तरिक संसार में धुंध फैलाकर मिसगाइड करती हैं। लेकिन प्रगतिशील एवं जनवादी दृष्टिकोण की लघुकथाएँ पूंजीवादी साजिशों के धुंध का सहज सफाया कर देती हैं तथा एक नयी गाइडलाइन तैयार करती हैं। ये रचनाएँ गाँव को शहर ले जाती हैं तथा शहर को गाँव पहुँचाकर आत्मीय संबंधों में बाँधती हैं। एकदूसरे की भोग यथार्थ की अनुभवयात्रा के सहसंबंधों को प्रगाढ़ करती हैं। यह अवश्य है कि लघुकथाएँ अपने संक्षिप्त आकार, सार्थक भाषा और जेनुइन स्वर के माध्यम से विचारक्रांति, जनजाग्रति तेजी से लाती हैं और अपनी स्थापनाओं के साथ जनसमुदाय पर जल्दी ही हावी हो जाती हैं। सुखद बदलाव की स्थितियाँ पैदा करने का यह सशक्त माध्यम हैं लेकिन यह लघुकथालेखक की रचनात्मक क्षमता, कलावादिता की रचनात्मक उ़र्जा पर निर्भर है।6 तथापि यह भी सच है कि वर्तमान परिवेश और परिप्रेक्ष्य में लिखी जा रही लघुकथाएं विचारक्रांति के सुखद बदलाव की कोशिशों में संलग्न न होकर प्रचारसुख का अनुभव करने में लगी हैं।7
    विक्रम सोनी के अनुसार—‘आज का लघुकथाकार अपने पीछे की साहित्यिक उपलब्धियों का सम्मान करता है, लेकिन बीते कल की सामाजिक, राजनीतिक मान्यताओं पर आस्था नहीं जतलाता। वह अपने वर्तमान में ही जीना चाहता है। एकएक क्षण को भोगना चाहता है। बुद्धिविवेक की तुला पर दृष्टिपैमाइश के माध्यम से भोगग्राह्य को परिणाम की कसौटी पर कसने के बाद ही तथ्य को सत्य निरूपित करता है। यह मानने से कतई इंकार नहीं कि नए लघुकथाकार लघुकथा की टेक्नीक के मामले में थोड़ा भ्रमित है लेकिन उन्हें आठवें दशक के जन्मे और नौवें दशक में स्थापित लघुकथाकार साथ लेकर चलें, तो नए भी सही दिशा पा लेंगे। दरअसल, आज लघुकथा के स्वस्थ चिंतन पक्ष पर लिखने की आवश्यकता है। आठवें दशक के तपस्वी कलमोंके परस से जीवन्त लघुकथाओं की स्थापना को एकाएक नौवें दशक के आरम्भ में आई बाढ़ने गंदोला करने का प्रयास जरूर किया था; किन्तु यह प्राकृतिक सत्य है कि बाढ़ जल्दी उतर जाता है। आज की लघुकथाएँ बाढ़ उतरने के बाद की जायज लघुकथाएँ हैं।…प्रथम श्रेणी की लघुकथाएँ लिखते हुए(आठवें दशक के उत्तरार्द्ध से ही) डॉ॰ कमल चोपड़ा, कमलेश भारतीय, अशोक भाटिया, धीरेन्द्र शर्मा, सुरेन्द्र मंथन, प्रबोध कुमार गोविल, भगवती प्रसाद द्विवेदी, विक्रम सोनी, नन्दल हितैषी, संतोष सरसजहाँ चोरबाजारी, बेईमानी, फरेब, अनैतिकता की जन्माई तमाम कुरूपताओं, विसंगतियों से लेकर आदमी के पशुपन और ईश्वर की सत्ता पर प्रहार करने से नहीं चूक रहे हैं वहीं रमेश श्रीवास्तव, हीरालाल नागर, अंजना अनिल, चित्रेश, जसवीर चावला, अनवर शमीम, उर्मि कृष्ण, दुर्गेश, डॉयश गोयल, हसन जमाल, हरनाम शर्मा, बलराम अग्रवाल, रतीलाल शाहीन, कृष्णा बांसल, रामप्रसाद कुमावतµवैज्ञानिकता, यांत्रिकता के आग्रह को स्वीकारते हुए अपनी विशिष्ट चिंतनप्रणाली, जीवनदृष्टि को अभिव्यंजित करने के लिए कटिबद्ध हैं। लघुकथाओं के माध्यम से व्यवस्था पर, छद्म पर, मोहभंग की स्थिति पर, विवशता पर, आर्थिक विषमता, कुण्ठाजन्य मानसिकता पर हथौड़े बरसाने में कहीं पीछे नहीं दिखते। इनमें से कई तो अपेक्षाओं से उ़पर उठकर लघुकथा के कर्जदार हो गए हैं। विधा को पूर्णत: समर्पित ये नाम नौवें दशक की प्रबलतम संभावनाओं में से प्रथम हैं।8
    समकालीन लघुकथा में मनोवैज्ञानिक यथार्थ का समावेश अनगिनत रूपों में हुआ है। उसे देखते हुए बिना किसी संकोच के कहा जा सकता है कि मानवमन की जितनी भी भंगिमाएँ संभव हैं उन सभी का सफल चित्रण समकालीन लघुकथा में हुआ है। उदाहरण के लिए प्रस्तुत हैं कुछ लघुकथाएँ:
विकलांग9
लंगड़ा भिखारी बैसाखी के सहारे चलता हुआ भीख माँग रहा था।
‘‘तेरी बेटी सुख में पड़ेगी। अहमदाबाद का माल खायेगी। मुम्बई की हुण्डी चुकेगी। दे दे सेठ, लंगड़े को रुपएदो रुपए।’’
उसने साइकिल की एक दुकान के सामने जाकर गुहार लगाई। सेठ कुर्सी पर बैठाबैठा रजिस्टर में किसी का नाम लिख रहा था। उसने सिर उठाकर भिखारी की तरफ देखा।
‘‘अरे, तू तो अभी जवान और हट्टाकट्टा है। भीख माँगते शर्म नहीं आती? कमाई किया कर।’’
भिखारी ने अपने को अपमानित महसूस किया। स्वर में तल्खी भरकर बोला,‘‘सेठ, तू भाग्यशाली है। पूरबजनम में तूने अच्छे करम किए हैं। खोटे करम तो मेरे हैं। भगवान ने जनमते ही एक टाँग न छीन ली होती तो मैं भी आज तेरी तरह कुर्सी पर बैठा राज करता।’’
सेठ ने इस मुँहफट भिखारी को ज्यादा मुँह लगाना ठीक नहीं समझा। वह गुल्लक में भीख लायक परचूनी ढूँढ़ने लगा। भिखारी आगे बढ़ा।
‘‘ये ले, लेजा।’’
भिखारी हाथ फैलाकर नजदीक गया। परन्तु एकाएक हाथ वापस खींच लिया, मानो, सामने सिक्के की बजाय जलता हुआ अंगारा हो। कुर्सी पर बैठकर राज करने वालेकी दोनों टांगें घुटनों तक गायब थीं।
अदलाबदली10
‘‘क्या आप मुझे गोद लेना पसन्द करेंगे?’’
सुनकर उस हरिजन व्यक्ति ने सिर से पैर तक उस नवयुवक को देखा, जिसका यह प्रश्न था।
‘‘मुझे इसकी क्या जरूरत है? मेरा भी लड़का तुम्हारी उम्र का है।’’
‘‘नहीं, मेरा मतलब––मेरा मतलब सिर्फ सरकारी कागजों पर मुझे अपना लड़का बना लें। मैं ब्राह्मण हूँ। मेरे पिताजी मुझे आगे पढ़ाने में असमर्थ हैं। आपका लड़का बनने पर मुझे हरिजनस्कॉलरशिप मिल जायगी।’’
‘‘मेरा भी लड़का पढ़ता है, पर वहाँ सवर्ण लोगों के साथ अपने को हीन समझता है और अपनी जाति को कोसता है। कहता हैऐसी जाति में जनम लेने से मर जाना अच्छा! तुम अपने पिताजी से पूछकर आओ कि क्या वे मेरे लड़के को गोद ले लेंगे?’’
काम11
मौसम की शुरुआत में आम खाने का मजा ही और है। सो, इस बार भी मैं अकेला होने के बावजूद एक किलो आम खरीद लाया। खाने बैठा तो खाऊँ कैसे?  खिड़की में खड़ा सोच ही रहा था कि सामने से पड़ोस का किशोर गुजरता नजर आया ।
‘‘अरे किशोर! भीतर आ जाओ। आम खायेंगे।’’ मैंने उसे आग्रहपूर्वक आवाज देकर बुलाया।
किशोर और मैंने साथसाथ आम खाए ।
कुछ देर खामोश बैठा रहने के बाद वह बोला,‘‘अंकल, आपको मुझसे क्या काम है?’’
‘‘कैसा काम ? मैं समझा नहीं।’’ मैंने उलटे उसी से पूछा।
‘‘असल में अंकल, वो सामने वाले सुरेश भाईसाहब हैं न, जब भी उन्हें मुझसे कोई काम करवाना होता है––बुलाकर पहले कुछ न कुछ खिलाते जरूर हैं। मैंने सोचा, शायद आपको भी…अंकल, कोई काम हो तो आप मुझे आवाज देकर बुला लेना।’’ कहकर वह भोलेपन-से बाहर निकल गया।
डाका12
परिवार के बाकी सदस्यों के साथ राममनोहर जी अपने घर में लुटेपिटेसे बैठे हैं। आर्थिक दुश्चिन्ताओं से सबके चेहरे मलीनक्लान्त हैं। चारों तरफ जैसे मातमी माहौल छाया है।
कल तक घर का कोनाकोना जगमगजगमग कर रहा था। घड़ी, सोफा, फ्रिज, टेपरिकार्डर, डबलबेड, स्टील के बर्तन और ऐसी ही चीजों से घर भरा पड़ा था। तिजोरी नोटों से फुल थी।
पर आज…! आज कोनाकोना खाली है। न तो वहाँ कोई डाका पड़ा है और न ही किसी आतंकवादी ने वहाँ कोई विस्फोट किया है।
हाँ, लोग बताते हैं कि उनके घर से आज सुबह बेटी की विदाई हुई है।
अगर पेट न होता13
चाय की दुकान पर लोग चाय पी रहे थे और गप्पें हाँक रहे थे। अचानक एक व्यक्ति बोल उठा,‘‘अगर पेट न होता तो…?’’
‘‘…तो मेरी मां रखैल नहीं होती। मेरी बहन रंडी नहीं होती और मैं भड़वा नहीं होता।’’ दूसरा बोला; परन्तु वह जो बोला, वह किसी ने न सुनान जाना।
चाबी14
आज कोर्ट में उसका छठा चक्कर था । मुकदमे की एक जरूरी फाइल पेशकार के बाबू की कैद में थी। बाबू उसे प्रतिदिन कोई न कोई बहाना बनाकर टाल देता था।
आज भी उसने बुझे कदमों से बाबू के कमरे में प्रवेश किया। टेबुल के पास पहुँचकर झुका और बोला,‘‘साहब, फाइल मिली?’’
‘‘अरे क्या बताएँ माखनलाल, फाइल तो मिल गई। काम भी तुम्हारा हो गया। परन्तु बड़े बाबू आज छुट्टी पर हैं और अलमारी की चाबी भी पता नहीं कहां रख गये हैं। ऐसा करो, कल ले लेना।’’ बाबू ने कहा।
वह बुझे कदमों से फिर लौट पड़ा। लौटते वक्त नमस्कार की मुद्रा में कुछ ज्यादा ही झुका तो एक अठन्नी उसकी जेब से निकलकर बाबू की मेज की फाइलों पर जा गिरी।
वह अभी दरवाजे तक ही आया था कि पीछे से बाबू की आवाज आई,‘‘अरे भाई माखनलाल, चाबी मिल गई ।’’
उसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ। पलटकर देखा तो बाबू उसे चाबी दिखा रहा था। उसकी दूसरी मुट्ठी बंद थी।
    उपर्युक्त लघुकथाएँ समकालीन हिन्दी लघुकथा में मनोविज्ञान के विभिन्न पहलुओं की उपस्थिति को दर्शाने की दृष्टि से उसके विशाल भण्डार से बानगीभर हैं। मनोविश्लेषण की दृष्टि से भी समकालीन हिन्दी लघुकथा में व्यापकता व पूर्णता के दर्शन होते हैं। अपने उत्तरदायित्व को अनेकायामी करने के कारण ही समकालीन लघुकथाकारों की लघुकथाओं में असामान्यताएँ आई हैं। वह अन्तस के उद्घाटन की इच्छा भी रखता है और मानस के विश्लेषण की भी। वह यह जानता है कि उसके उ़पर एक बड़ी सामाजिक जवाबदेही है। इस प्रयास में उपलब्ध सफलता उसे अपर्याप्त लगती है, वह उससे संतुष्ट नहीं हो पाता है। परिणामत: हताशा उत्पन्न होती है जो उसे असामान्यता की ओर प्रेरित करती है। लेकिन यह बात भी स्पष्ट रूप से जान लेनी चाहिए कि समकालीन हिन्दी लघुकथा में दर्शित विकृति, असामान्यता और जटिलता कहानीकार की देन नहीं बल्कि जटिल असामान्यजीवन की प्रतिक्रिया है। सच्चाई यह है कि आज व्यक्ति और समाज के बीच तालमेल समाप्तप्राय: हो गया है। व्यक्ति का व्यक्तित्व खंडित हो गया है। समाज में व्यक्ति तभी तक ग्राह्य है जब तक वह उसके काम का है। यह बात व्यक्ति को हीन भी बना रही है और असामान्य भी। जीने के लिए दमन और बलात् समायोजन का विकल्प व्यक्ति के सामने है। समकालीन हिन्दी लघुकथाकार ने इसे कुशलता के साथ अपनी रचनाओं में निबाहा है।
संदर्भिका:
1॰ रतीलाल शाहीन : हिन्दी लघुकथा:दशा और दिशा : समांतर(लघुकथा अंक, जुलाईसितम्बर, 2001) : पृष्ठ 33
2॰ हरीश पंड्या : सीमित सर्जन की कला:लघुकथा : समांतर(लघुकथा अंक, जुलाईसितम्बर, 2001) : पृष्ठ 35
3॰ डॉ स्वर्ण किरण : लघुकथा:एक इतिहास भी : ज्योत्स्ना(लघुकथा विशेषांक, जनवरी 1988) : पृष्ठ 8
4॰ डॉब्रजकिशोर पाठक : हिन्दी लघुकथा आन्दोलन : द्वीप लहरी(लघुकथा विशेषांक, अगस्त 2002) : पृष्ठ 15
5॰ बलराम अग्रवाल : लघुकथा विमर्श : द्वीप लहरी(लघुकथा विशेषांक, अगस्त 2002) : पृष्ठ 64
6॰ राधेलाल बिजघावने : लघुकथाओं की वैचारिकता : लघु आघात(जुलाईदिसम्बर 1984) : पृष्ठ 37
7॰ वही, पृष्ठ 37
8॰ विक्रम सोनी : लघु आघात : (मानचित्र, विशेषांक, जनवरीजून 1983) : पृष्ठ 7
9॰ माधव नागदा : विकलांग : आग(लघुकथा संग्रह) : पृष्ठ 12
10॰ मालती महावर : अदलाबदली : अतीत का प्रश्न(लघुकथा संग्रह) : पृष्ठ 29
11॰ महेश दर्पण : काम : द्वीप लहरी(लघुकथा विशेषांक, अगस्त 2002) : पृष्ठ 56
12॰ महेन्द्र सिंह महलान : डाका : लघु आघात(गणतन्त्रांक, जनवरीमार्च 1988) : पृष्ठ 13
13॰ रत्नेश कुमार : अगर पेट न होता : लघु आघात(जुलाईसितम्बर 1982) : पृष्ठ 25
14॰ वी॰ के॰ जौहरी बदायूंनी’ : लघु आघात(जुलाईसितम्बर 1982) : पृष्ठ 24