गुरुवार, 21 मई 2020

रामनारायण उपाध्याय की लघुकथाएँ / बलराम अग्रवाल

(पद्मश्री पं. रामनारायण उपाध्याय जी की आज 102वीं जयंती है। इस पावन अवसर पर प्रस्तुत है 'लघुकथा शोध केंद्र, भोपाल' की निदेशक श्रीमती कांता रॉय के आदेशात्मक आग्रह पर जनवरी 2020 में लिखा गया दादा की पुस्तक 'नया पंचतंत्र' में संग्रहीत लघुकथाओं पर केंद्रित यह आलेख।--बलराम अग्रवाल) 
पं. रामनारायण उपाध्याय को निमाड़ की  संस्कृति-उर्वरा भूमि के तपस्वी रचनाकार कहा जाता है। उनका जन्म 20 मई 1918 को खंडवा जिले के एक गाँव कालमु्खी में  हुआ था। उन्होंने लोक में फैली विराट जातीय सांस्कृतिक सम्पदा के संरक्षण और उसके विकास में अपने जीवन को होम दिया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने उनको याद करते हुए एक बार कहा था, कि—‘सच तो यह है कि (पं॰ रामनारायण उपाध्याय जैसी लोक सम्बन्धी) सू्झ और ताजगी का धनी वही हो सकता है, जिसने धरती की माटी को चूमा हो, प्रकृति की गोदी में खेला हो, लोकगंगा में नहाया हो और खुले आसमान में मँडराया हो।’
उपाध्याय जी के सात व्यंग्य संग्रह हैं—बक्शीशनामा, धुँधले काँच की दीवार, नाक का सवाल, मुस्कराती फाइलें, गँवईं मन और गाँव की याद, दूसरा सूरज, और नया पंचतंत्र। उन्होंने लोकसाहित्य भी खूब लिखा है तथा कथाओं की अन्तर्कथा, चिट्ठी और मामूली आदमी भी उनकी उल्लेखनीय कृतियाँ हैं। इन सबमें उनकी कुछ ऐसी रचनाएँ शामिल हैं जिन्हें ‘लघुकथा’ के रूप में चिह्नित किया जाता है। लघु्कथाएँ मानी जाने वाली रचनाएँ मुख्यत: उनके संग्रह ‘नया पंचतंत्र’ में संकलित हैं। 
‘नया पंचतंत्र’ की भूमिकास्वरूप लिखित ‘कृति परिचय’ की शुरुआत डॉ॰ रामशंकर मिश्र ने यों की है—‘नया पंचतंत्र’ पढ़ते-पढ़ते हिन्दी व्यंग्य के विषय-विधान तथा रचना-प्रक्रिया के बदलते हुए प्रतिमानों का एक लम्बा-सा क्रम दृष्टिगत होने लगा है।’ लेकिन इसी भूमिका में उन्होंने एक अन्य बात भी कही है, जिसे डॉ॰ शकुन्तला किरण ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दी लघुकथा’ में रेखांकित किया है। वो यह, कि—‘खलील जिब्रान का लघुकथात्मक रूप भी रचना के सीमित रूप की दृष्टि से उल्लेखनीय है। ‘नया पंचतंत्र’ में उपाध्याय जी ने कथा के संक्षिप्त रूप का चयन करते हुए विषय के विस्तार को एक नये रूप में अंकित किया है। इस कृति में विषय, शिल्प और भाषा का एक नया जीवन्त रूप परिलक्षित है।’ ‘कृति परिचय’ शीर्षक भूमिका में डॉ॰ मिश्र ने यह भी रेखांकित किया है कि ‘समाज और राजनीति के प्रहरी सेवा-लीक का त्याग कर आत्मकेंन्द्रित हो चले हैं, इस सत्य के उद्घाटन के लिए उपाध्याय जी ने अनेक लघु-कथाओं की सर्जना की है।’  लेकिन इन शब्दों से भी उनका तात्पर्य व्यंग्य ही रहा है, जिसे आगे वह यों स्पष्ट करते हैं—‘यह वास्तव में उनके कथा-विन्यास की बहुत बड़ी विशेषता है। शिल्प की इस विशिष्टता के कारण श्री उपाध्याय की व्यंग्य-कृति को अन्य व्यंग्य-लेखकों की कृतियों से भिन्न रखा जा सकता है।’ इस भूमिका को पढ़ते हुए मैं पूरे सम्मान और आदर के साथ यह कहने की स्थिति में हूँ कि ‘नया पंचतंत्र’ की भूमिका लिखते हुए डॉ॰ मिश्र लगातार लघु-कथा और व्यंग्य के बीच दोलन करते रहे हैं। इसमें उनकी कोई गलती नहीं। कुछ रचनाओं में नि:संदेह यह विशेषता होती है कि वे अपनी निकटवर्ती विधा की चौखट पर खड़ी मिलती हैं। आलोचक के लिए विधापरक किसी एक मानदंड पर उन्हें परखना मु्श्किल, लगभग असम्भव हो जाता है। ‘नया पंचतंत्र’ की कुछ रचनाओं ने यह चुनौती, यह मु्श्किल, डॉ॰ मिश्र के सामने प्रस्तुत किए रखी है।
‘नया पंचतंत्र’ की जिन रचनाओं को लघु आकारीय कथा के रूप में आज तक छापा गया है, वे हैं—‘अंगूर, लोमड़ी और लड़की’, ‘पुराना सौदागर और नये बन्दर’, ‘पुराने टोटके नया फल’, ‘पुराणपंथी कछुआ और प्रगतिशील खरगोश’, ‘पुरानी लोमड़ी नया कौआ’, ‘ऊँट-सियार न्याय’, ‘दक्षिणा’, ‘मॉडर्न शकुन्तला’, ‘स्वराज्य की बेटी और मँहगाई का धनु्ष’, ‘भ्रष्टाचार के राक्षस और राजा दशरथ के दो बेटे’, ‘जल-प्रदाय योजना के महाशय नल और प्राचार्या दमयन्ती’, ‘आधुनिक श्रवण’, ‘गुरुभक्ति’, ‘वरदान’, ‘भक्तों की प्रार्थना’, ‘ऊँट और पहाड़’, ‘राजा कौन हाथी या सिंह’, ‘ऊँट और कुर्सी’, ‘पुरानी सन्धि नया अर्थ’, ‘नया समाजवाद’, ‘सहानुभूति’, ‘खोज में’, ‘गरीबी’, ‘योजनावादी लोग’, ‘प्रजातन्त्र में न्याय’, ‘छुटकारा’, ‘टिकट का अधिकारी कौन’, ‘कागज का कुआँ’, ‘समझदार आदमी का जन्म’, ‘मन मछली और आँखें’। बहुत सम्भव है कि इन 30 के अतिरिक्त भी कुछ अन्य कथा-रचनाएँ उनकी किसी अन्य पुस्तक में मिल जाएँ। यहाँ बहरहाल, इन 30 पर ही विचार रखेंगे।
इनमें ‘मन, मछली और आँखें’ एक ऐसी कथा है जिसके बारे में मुझे आश्चर्य है कि इसका नोटिस अभी तक क्यों नहीं लिया गया? इस कथा में रूपक भी है, प्रतीक भी और दर्शन भी। इस कथा में लोक-रस रचा-बसा है। यह एक युवती की निर्मल स्वच्छंदता की कथा है जिसे व्यक्त कर पाना हरेक के वश की बात नहीं है। उपाध्याय जी की रचनाओं में हमें विशुद्ध ग्राम्य संस्कृति के दर्शन होते हैं। ‘नया पंचतंत्र’ का प्रकाशन 1974 में हुआ था। अनुमानत: कह सकते हैं कि इसमें संकलित रचनाओं का रचनाकाल निश्चित ही स्वातंत्र्योत्तर रहा होगा। ऐसा इसमें संग्रहीत रचनाओं में चित्रित राजनेताओं के चरित्र के आधार पर कहा जा सकता है। ‘कागज का कुआँ’ स्वातंत्र्योत्तर भारत में राजनीतिक गिरावट का यथार्थ है तो ‘टिकट का अधिकारी कौन’ में देश के वेतनभोगी कर्मचारी के माध्यम से स्वाधीनता-संग्राम सेनानियों और सच्चे समाजसेवियों की दैहिक और आर्थिक स्थिति का भी यथार्थ अंकन उनकी लेखनी से हुआ है।  ‘
छुटकारा’ पर गत दिनों मेरे द्वारा संचालित फेसबुक समूह ‘लघुकथा साहित्य’ पर लम्बी चर्चा चल चुकी है। राजेश उत्साही को वहाँ प्रस्तुत पाठ की मौलिकता पर संदेह था। यह रचना लखनऊ से 1974 में ही प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘लघुकथा चौमासिक’ के पहले अंक में पहले छपी थी या इसी वर्ष प्रकाशित ‘नया पंचतंत्र’ संग्रह में? यह सम्भवत: हमेशा ही रहस्य और शोध का विषय बना रहेगा। लेकिन, इस रचना का आधार एक प्राचीन लोककथा है, यह निर्विवाद है। ‘प्रजातन्त्र में न्याय’ पंचतंत्र की एक कथा का पुनर्लेखन है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि साहित्य में पूर्व-प्रचलित कथाओं को नये संदर्भों के साथ लिखने को मौलिक ही माना जाता रहा है। एक बात और स्पष्ट कर दूँ, उपाध्याय जी की जिन कथाओं पर यहाँ लघुकथापरक आकलन प्रस्तुत है, वे विचारपरक व्यंग्याश्रित कथाएँ हैं। वे अपने समय में व्याप्त  विसंगतियों पर चोट करने का लेखकीय दायित्व निभाती हैं और पाठक को ‘कुछ’ नहीं, ‘बहुत-कुछ’ सोचने को विवश करती हैं। वे अपने समय के राजनेताओं और विचारक बने बैठे लोगों का चारित्रिक यथार्थ हमारे सामने रखती हैं। इसी के मद्देनजर डॉ॰ मिश्र ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है—‘वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था पर रचनाकार का व्यंग्य अधिक प्रखर तथा आंदोलित कर देने वाला है।’ ‘गरीबी’ को लोक-शैली में लिखा गया है और तय पाया गया है कि राजनीतिक कौशल गोलमोल बात करने का नाम है। ‘खोज में’ को पढ़कर मुझे गाजियाबाद निवासी एक मित्र, गजलकार ब्रज अभिलाषी याद आ गये। 1988 की बात है। वे एक दिन मिले तो पूछने लगे—“बलराम, यह बताओ कि सृष्टि में सबसे ज्यादा चालू कौन है?”
मैंने कुछ देर सोचा, फिर कहा—“पता नहीं।”
“मैं बताऊँ?” उन्होंने पूछा।
“बताओ।”
“ईश्वर!” उन्होंने कहा और आगे बोले—“बंदे ने हजार, दस हजार साल तपस्या की कुछ माँगने के लिए। इसने दर्शन दिए और उसकी बुद्धि घुमा दी। घुमाकर कहा—‘माँगो वत्स, क्या चाहिए?’ घूमी हुई बुद्धिवाले वत्स ने कहा—‘आपके दर्शन हो गये भगवन्, अब मुझे कुछ नहीं चाहिए।’ बताइए, अगले के मुँह से ‘कुछ नहीं चाहिए’ सुनने के लिए उसके दस हजार साल बरबाद करा दिये उस ‘भगवान्’ ने। मेरे भाई, कुछ नहीं माँगने से पहले भी तू फक्कड़ था, अब भी फक्कड़ रह गया। है न कमाल की बात।’’
एकदम यही किस्सा उपाध्याय जी लिखित ‘खोज में’ का भी है। 
‘सहानुभूति’ भी एक लोककथा का ही पुनर्लेखन है। इस लघुकथा की विशेष बात यह है, कि कर्जदार किसान रात के अंधेरे में प्रवेश करता है और हाथों से टटोलने पर यह पाकर चौंकता है कि भगवान की मूर्ति निर्वस्त्र है। इस एक ही आभास से सिद्ध होता है कि वह अस्पृश्य जाति का रहा होगा। स्पृश्य जाति से होता तो उसने कभी न कभी दिन के प्रकाश में भी मूर्ति को अवश्य देखा होता, वह चौंकता नहीं; और वह अगर चौंकता नहीं तो कथा में वह ट्विस्ट न पैदा होता हो अब हुआ है। सामान्य श्रेणी का व्यक्ति दिन में मंदिर जाए या रात में, कथा क्रिएट नहीं करता। कथा क्रिएट करने की क्षमता तो इस वंचित व्यक्ति में ही निहित है। ‘नया समाजवाद’ धनाढ्य और शक्तिशाली वर्ग द्वारा समाजवाद का अपने हित में दुरुपयोग करने  की वेहतरीन कथा है। ‘नया समाजवाद’, ‘पुरानी संधि नया अर्थ’, ‘पुराना सौदागर और नये बन्दर’, ‘पुराने टोटके नया फल’ या इन जैसी वे सभी कथाएँ जिनके शीर्षक में ‘नया’ शब्द जुड़ा है, उपाध्याय जी द्वारा अपनी दृष्टि के अनुरूप पुनर्लिखित होने की स्वत: ही घोषणा कर रही हैं। ‘पुरानी संधि नया अर्थ’ के माध्यम से बताया गया है कि मित्र बनाते समय व्यक्ति के और अपने परिवेश का ध्यान रखना उतना ही जरूरी होता है, जितना शक्ति के संतुलन का। भारतीय समाज में पौराणिक पात्रों के नाम का प्रयोग बहुतायत में पाया जाता है। 1970 के आसपास राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक क्षेत्रों में कार्यरत अधिसंख्य व्यक्तियों के चारित्रिक विचलन को अनेक कथाकारों ने पौराणिक नामों के प्रयोग के माध्यम से अंकित किया था। कथा पत्रिका ‘सारिका’ के संपादक कमलेश्वर ने इस शैली में लिखी गयी कथाओं/कथा-पैरोडियों को खूब प्रश्रय दिया। रामनारायण उपाध्याय जी रचित अनेक कथाएँ उस कालखंड का इतिहास बनती हैं। प्रस्तुत रचनाओं में ‘मॉडर्न शकुन्तला’, ‘स्वराज्य की बेटी और मँहगाई का धनु्ष’, ‘भ्रष्टाचार के राक्षस और राजा दशरथ के दो बेटे’, ‘जल-प्रदाय योजना के महाशय नल और प्राचार्या दमयन्ती’, ‘आधुनिक श्रवण’ आदि ऐसी ही कथाएँ हैं जिनका मुख्य उद्देश्य अपने रचनाकाल में यही बताना रहा कि समाज में चारित्रिक गिरावट का ग्राफ कितना नीचे आ चुका था। वह ग्राफ अभी भी अवनति की ओर ही गतिमान है, इस दृष्टि से इनका पंच आज भी अक्षुण्ण है। समाज के अधोगामी चरित्र की ये कालजयी रचनाएँ हैं। समय बदलने के साथ कथा की कथन-शैली में आ चुके बदलाव बहुत-सी रचनाओं को इतिहास बना देते हैं।  
बहुत-से नवागत और अनेक पूर्वागत भी, लघुकथा में कथ्य और कथानक के मध्य अंतर को समझ नहीं पाते हैं। प्रत्येक कथा-रचना में कथ्य ही प्रमुख हुआ करता है, वह कथा की आत्मा है जिसे कथाकार अपने दायित्वों और सरोकारों से प्रकाशमान करता है, दृष्टि के अनुरूप उसे आकार और धार देता है। कथानक उसकी देह है। सरोकारविहीन देहें चलना-फिरना, खाना-सोना, मैथुन और पुनरुत्पत्ति, तात्पर्य यह कि वो सारे काम किया करती हैं जो सरोकारयुक्त देहें किया करती हैं। लेकिन सरोकार-विहीन देहें! ‘ते मर्त्यलोके भुविभार भूता’ यानी साहित्य के पन्नों पर वे बोझ और लघुकथा-जगत में भीड़ ही अधिक साबित होती हैं, सार्थकता सिद्ध करती हुई अलग चिह्नित नहीं हो पातीं। मानवीय सरोकारों से युक्त कथ्यों की प्रस्तु्ति के क्रम में कुछेक स्थूल तथ्यों से विचलित होने का अधिकार पाठक और आलोचक प्रारम्भ से ही कथाकार को देते आये हैं। ‘पंचतंत्र’ की कथाओं से लेकर प्रेमचंद लिखित ‘दो बैलों की कथा’ और वर्तमान युग में लिखित अनेक लघुकथाएँ इसका प्रमाण हैं; तथापि उचित यही है कि  कथानक को तथ्यपरक रहना चाहिए। उदाहरणस्वरूप मैं उपाध्याय जी की अत्यंत सुन्दर लघुकथा ‘अंगूर, लोमड़ी और लड़की’ को यहाँ प्रस्तुत करता हूँ--
एक सरकारी क्वार्टर के छज्जे में अंगूर के गुच्छे लगे थे। एक लोमड़ी ने देखा, तो उसके मुँह में पानी भर आया।
छज्जे में खड़ी लड़की ने कहा, ‘‘लोमड़ी बहन, तुम इन अंगूरों को पाने का प्रयास मत करो। ये अंगूर तो खट्टे हैं।’’ 

  1. लोमड़ी ने कहा, ‘‘चालाक लड़की, तुम कैसे कह रही हो कि अंगूर खट्टे है; जबकि इन्हीं अंगूरों को खाकर तुम्हारा रूप निखरा है1’’

लड़की ने कहा, ‘‘लोमड़ी बहन, मेरे ऊपर वाले क्वार्टर में एक लड़का रहता है। कल उसने भी इन अंगूरों की ओर ललचाई नजरों से देखा था। इस पर उसके पिता ने कहा था--‘ये सरकारी बेल के अंगूर हैं। इनका स्वाद खट्टा है।’ तब से उसने नीचे की ओर देखना छोड़ दिया है।’’
स्थूल तथ्य, जिसका विचलन इस कथा में है, वो यह कि पशु (लोमड़ी) और मानव (लड़की) के बीच वार्तालाप हुआ है, जो असम्भव है; लेकिन सामान्य पाठक के बीच मान्य है क्योंकि साहित्य में प्रमुखता संप्रेषणीयता को दी जाती है। अब, इसके सौंदर्य पर बात करते हैं। लोमड़ी और खट्टे अंगूर की कथा से तो सब परिचित हैं ही, इसमें उसे मात्र एक टूल की तरह इस्तेमाल करके कुछ प्रतीक और बिम्ब की भाषा में नवीन सौंदर्य प्रदान किया गया है। इस नवीन सौंदर्य की एक स्थापना यह भी है कि ‘सरकारी’ सम्पत्ति, ‘सरकारी’ फल, ‘सरकारी’ लावण्य को सब नहीं लूट सकते; वे उच्च-पदस्थ कुछेक नौकरशाहों और सत्ता के गलियारों पर काबिज कुछ बिचौलियों के लिए ही उपलब्ध रहते हैं; शेष सब के लिए वे अलभ्य और ‘खट्टे’ हैं। लड़की के कथन ‘मेरे ऊपर वाले क्वार्टर में एक लड़का रहता है। कल उसने भी इन अंगूरों की ओर ललचाई नजरों से देखा था।’ में प्रयुक्त ‘अंगूरों’ में स्वयं वह लड़की भी प्रत्यारोपित है। यह वाक्य एक रूपक की रचना अलग से करता है।
‘पुराना सौदागर और नये बन्दर’ विधायकों और सांसदों द्वारा दल बदल लेने की प्रवृत्ति पर कटाक्ष है। ‘पुराने टोटके और नया फल’ मिनिस्टर को राजा बताना ही लोकतान्त्रिक प्रणाली के परदे में चल रही राजशाही की ओर कटाक्ष है, जो अपने आप में गहरी मार है; उससे भी गहरी यह, कि बिना बरसे ही वापस लौटने वाले मेघ उस (मिनिस्टर) के सम्बन्ध में जनता से कहते हैं—‘…उसकी वाणी खण्डित है, वह वचन देकर बदल जाता है।’ इस तरह उपाध्याय जी स्वयं को उस कलम का धनी सिद्ध करते हैं, जो लघुकथा की गम्भीर प्रकृति और व्यंग्य की कलात्मक धार के बीच अन्तर को लगभग समाप्त करने का कौशल जानते हैं। ‘पुराणपंथी कछुआ और प्रगतिशील खरगोश’ में ‘पुराणपंथी’ और ‘प्रगतिशील’ शब्दों को एक ही कथा में प्रयुक्त करने की व्यंजना को समझना आवश्यक है। शीर्षक में इन दो शब्दों के माध्यम से ही उपाध्याय जी प्रगतिशीलों के छद्म और पुराणपंथियों की मंदबुद्धिता की छीछालेदार कर डालते हैं। 
और अंत में, यद्यपि डॉ॰ मिश्र ने ‘नया पंचतंत्र’ की भूमिका का समापन यों किया है, कि—‘नया पंचतंत्र व्यंग्य साहित्य की रचना-पक्रिया, व्यंग्य-शिल्प के नये प्रयोग तथा व्यंग्य-विधान के विचार-क्षेत्र को विशालता के क्षेत्र में उपाध्याय जी का एक नया प्रयोग है।’ इस प्रकार इसे उन्होंने विशुद्ध व्यंग्य की कृति घोषित कर दिया है; तथापि उहोंने यह भी लिखा है, कि—‘नया पंचतंत्र को पढ़कर कोई भी सजग पाठक नये युग के निर्माण की नींव डालने का संकल्प कर सकता है।’ 
सन्दर्भित सभी रचनाओं के परिप्रेक्ष्य में उनका यह कथन सही भी है। तत्कालीन युग की विडम्बनाओं को पहचानने, सचेत नागरिक के तौर पर अपने दायित्वों और सरोकारों को निर्धारित करने, रचनाकार के रूप में कथन भंगिमा को प्रभावी बनाने की दिशा में ये कथाएँ प्रकाश-स्तम्भ सी खड़ी तो हैं ही।
सम्पर्क : एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
मोबाइल:8826499115 

हिन्दी लघुकथा : कथ्य, शिल्प और शैलीगत नवीन प्रयोग / बलराम अग्रवाल

दृष्टि-8(जन.-जून 2020) 
साहित्य में ‘प्रयोग’ एक आवश्यक क्रिया है। ये अतीत में होते रहे हैं और भविष्य में भी होते रहेंगे। लेकिन ‘प्रयोग’ शब्द सुनने, बोलने और लिखने में जितना सरल लगता है, उतना सरल है नहीं। जहाँ तक लघुकथा का सम्बन्ध है, हर दूसरा, तीसरा व्यक्ति स्वयं को ‘प्रयोगधर्मी’ कहता मिल जाता है।  लघुकथा में यह वृत्ति नवें दशक से ही अपने पाँव पसारने लगी थी। लोग स्वयं ही अपने स्वयंभू होने की घोषणा करने लगे थे। यह स्वयंभूपना कई-कई तरह का था। मसलन, स्वयं को ‘प्रयोगधर्मी’ घोषित करना/कराना, जनवादी और प्रगतिशील घोषित करना/कराना, ‘लघुकथा’ को अपनी पसन्द का कोई अन्य नाम देना या इसके आगे कोई विशेषण जोड़ देना आदि-आदि। बिना यह जाने कि साहित्य में ‘प्रयोग’ से तात्पर्य क्या है, कि ‘प्रयोगवाद’ कहते किसे हैं, कि ‘प्रयोगधर्मिता’ एक अलग ही गुण है, लोग इन शब्दों को बेशर्मी की हद तक अपने नाम के साथ लपेटने को लालायित देखे जाते थे। यह स्थिति आज भी बदली नहीं है।
          विज्ञान में ‘प्रयोग’ के दो स्तर हैंपहला, शैक्षिक और दूसरा अनुसंधानात्मक/अन्वेषणात्मक। शैक्षिक स्तर के प्रयोग विद्यालयों और महाविद्यालयों की प्रयोगशालाओं में विद्यार्थियों द्वारा किये जाने वाले प्रारम्भिक अभ्यास हैं और वे पूर्व में किये जा चुके प्रयोगों का अनुसरण और अभ्यास मात्र होते हैं। फिर भी, वे सब प्रयोग ‘अज्ञात का अन्वेषण’ के रूप में मान्यता प्राप्त होते हैं। अनुसंधानात्मक प्रयोग उच्च-स्तरीय संस्थानों में नवीन खोजों के उद्देश्य से किये जाते हैं। पद-विशेष तक अनुसरण के बाद उनका मार्ग स्वच्छन्द हो जाता है और वे पूर्णत: अज्ञात सिद्धांतों अथवा वस्तुओं की नवीन खोज के लिए होते हैं। अन्वेषण के बाद स्वयं वे अनुसरणीय बन जाते हैं। साहित्य और कला की दुनिया में होने वाले प्रयोग विज्ञान की प्रयोगशालाओं में होने वाले प्रयोगों से काफी भिन्न होते हैं। अपने मुँह मियां मिट्ठू बनकर या कुछेक चेलों की जमात से ‘प्रयोगधर्मी’ होने के नारे लगवाते रहकर कोई व्यक्ति प्रयोगधर्मी नहीं हो जाता है। यहाँ शिल्प, शैली और कथ्यों की एकरूपता को, विचार की रूढ़ि को तोड़ने का नाम ‘प्रयोग’ है।
कुल मिलाकर ‘प्रयोग’ एक वृत्ति है जो सबसे पहले तो व्यक्ति को प्रयोगशीलता से जोड़ती है। प्रयोगशील कवि, कथाकार, नाटककार, शिल्पकार, कूचीकार जब अभिव्यक्ति के खतरे उठाते हुए लगातार अपने समय की रूढ़ियों पर चोट करता है, तब वह प्रयोगधर्मी कहलाता है। साहित्य में, नित्य नये आयामों का अन्वेषण ही ‘प्रयोग’ है। इसकी वास्तविक दृष्टि स्व-विवेक के आधार पर विकसित होती है। विवेकपूर्ण दृष्टि के बिना अपने सम्पूर्ण तत्त्वों के साथ परम्परा भी सत्य का वहन नहीं कर पाती है। रूढ़ियों में लिपटा सत्य कभी भी जीवन को सही दिशा में विकसित नहीं कर सकता; इसलिए उनके स्थान पर हमें नये विचार प्रतिपादित करने की ओर अग्रसर होना पड़ता है। ‘नये विचार प्रतिपादित करने की ओर अग्रसर’ होने का दबाव ही व्यक्ति को प्रयोगशीलता की ओर ठेलता है।
        प्रयोग से तात्पर्य हैनये विचार की प्रस्तुति और नयी प्रविधि अथवा कार्यप्रणाली का विकास। व्यक्ति की प्रकृति हमेशा परिस्थितियों द्वारा चालित होती है और उसी के अनुरूप उसका व्यवहार निर्धारित होता है। इस बिन्दु पर विवेक का विशेष महत्व सिद्ध होता है। इसलिए, प्रयोग की दिशा में जिज्ञासा, विवेकजन्य दृष्टि और इनके साथ विकसित व्यावहारिक यथार्थ ही मूल्यवान होते हैं। परम्परा से प्राप्त जमीन को आधार स्वरूप अपनाए बिना साहित्य में कोई प्रयोग सम्भव नहीं है। यह एक तथ्य भी है और सत्य भी। तुलसीदास इसकी घोषणा रामचरितमानस लिखते हुए यों करते हैंनाना पुराण निगमागम सम्मतं यत् रामायणे क्वचिदन्यतोऽपि… ।
        आठवें दशक के शुरुआती वर्षों में, कथा-पत्रिका ‘सारिका’ में प्रकाशित होने वाली अधिकतर लघुकथाएँ पुराणकथाओं में वर्णित आदर्श को लिजलिजी जमीन के तौर पर इस्तेमाल करती थीं। हम मान सकते हैं कि पुराणकथाओं को ज्यों का त्यों पढ़ना अतीत की प्रतिध्वनि सुनने से अलग आज भी कुछ नहीं है। उनको अपने समय से जोड़कर कहने में एक नवीनता का आभास होता है। इस तरह तब के कथाकार परम्परा से प्राप्त प्रतिध्वनि को नयी ‘पिच’ देने की, उनमें कुछ नवीनता लाने की शुरुआत कर रहे थे। लेकिन ठोस कार्य करने की गम्भीरता के अभाव में वे सब की सब रचनाएँ पैरोडी-मात्र बनकर रह गयीं। पुरातन कथाओं को गम्भीरतापूर्वक नयी दृष्टि से प्रस्तुत करने का जितना सफल प्रयोग कथाकार जसबीर चावला ने किया है, उतना सम्भवत: किसी अन्य ने नहीं।   
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने एक जगह कहा है, कि ‘आधुनिक युग में मौलिकता की इच्छा अथवा कुछ नया देने की लालसा बड़े प्रबल रूप में दृष्टिगोचर हुई है।’ यह लालसा स्वाभाविक मानवीय वृत्ति है और हमेशा ही निरर्थक सिद्ध नहीं होती। नि:सन्देह, इसके चलते कुछ सार्थक काम भी सामने आ ही जाते हैं।
हिन्दी साहित्य में एक टर्म ‘प्रयोगवाद’ भी है। काव्य में अनेक प्रकार के प्रयोग करते हुए, इसका जन्म प्रगतिवादी काव्य की प्रतिक्रियास्वरूप हुआ था; तथापि व्यक्तिवाद का विद्रोही स्वर यह भी है। प्रयोगवादी साहित्यकार रचना के भाव-पक्ष को प्रमुखता देने की बजाय उसके शिल्प और वैचित्र्य विधान को प्रमुखता देते हैं। भाव और रस से विहीन तथा जीवन और जगत के प्रति निराशाजनक सोच से युक्त इस शुष्क साहित्य से पाठक के हृदय के कोमल-तंतु आहत होते आए हैं। एक समय ऐसा भी था, जब प्रयोगवाद एक रोग की तरह साहित्य और कला के क्षेत्र में समा गया था। आमजन की भावनाओं को परिष्कृत करने की बजाय इसने समाज के अश्लील, अस्वस्थ और नग्न यथार्थ के चित्रण को प्रमुखता दी। अनेक बार तो प्रयोगवादियों ने वैयक्तिक खीझ, कुंठा और झुँझलाहट को ही रचना के केन्द्र में रखा। उनके इस कृत्य ने सामान्य पाठक की सोच को विकृत ही अधिक किया। यह सब जान लेने के बाद स्वयं को प्रयोगवादी कहने वाले लघुकथाकार अपनी बात पर डटे रहेंगे, मैं नहीं जानता। लेकिन, प्रयोगवाद में सब-कुछ नकारात्मक और हताशाजनक ही हुआ हो, ऐसा नहीं है। उन्होंने कुछ पुराने उपमानों के स्थान पर नये उपमान गढ़े। वे आधुनिक साहित्य को उनकी देन ही कहे जायेंगे। हिन्दी लघुकथा में ये उपमान इस ‘वाद’ का सप्रयास अनुसरण किए बिना अनायास आए, यही इस विधा की सहज आधुनिकता है। उदाहरण के तौर पर, सुकेश साहनी की ‘गोश्त की गंध’ में गोश्त का उपमान, अशोक भाटिया की ‘कपों की कहानी’ में टूटे कपों का उपमान, चैतन्य त्रिवेदी की ‘खुलता बन्द घर’ में पत्नी की चूड़ी के टूटे टुकड़े का उपमान, आदि। ये सब ‘वाद’ के रूप में प्रयोग का अनुसरण नहीं कर रहे थे, इसलिए इनमें से किसी भी कथाकार को प्रयोगवादी नहीं कहा गया। समकालीन लघुकथाकारों ने भावों की अवहेलना किए बिना भाषा के स्तर पर रूपक, प्रतीक और बिम्ब का प्रयोग बखूबी किया है। नयी सदी के कथाकारों में संध्या तिवारी और चन्द्रेश कुमारी छतलानी को इस बारे में अग्रगण्य माना जा सकता है। इनके अलावा चित्रा राणा राघव भी कुछ प्रयोग किया करती हैं लेकिन अपनी कथा प्रस्तुति को उन्हें शुष्कता से उबारकर रसमय बनाना होगा। बिम्ब और प्रतीक का प्रयोग शोभना श्याम व शोभा रस्तोगी में अच्छा मिलता है। सुषमा गुप्ता के पास भावपूर्ण भाषा और हृदय को छू लेने वाले कथ्य हैं। ज्योत्स्ना कपिल में तेवर है और सविता इन्द्र गुप्ता में गहनता। कभी-कभार ही सही, लघुकथा में तार्किकता के एक सिरे पर अर्चना तिवारी भी खड़ी मिलती हैं। कान्ता रॉय में कुछ कर गुजरने की आग है। नीरज सुधांशु, दीपक मशाल, राधेश्याम भारतीय, स्नेहलता गोस्वामी, सुनीता त्यागी, सीमा जैन, संतोष सुपेकर, संतोष श्रीवास्तव, मधु जैन भावों से भरा, करीब-करीब छलकता-सा सागर लिए आते हैं। इन दिनों सक्रिय हजार से ऊपर सभी कथाकारों के कथा-चरित्र को लिखना सम्भव नहीं है। लेकिन, यह तय है, कि इन सबको मिलाकर ही आधुनिक लघुकथा के सम्पूर्ण स्वरूप का निर्धारण किया जा सकता है, किसी एक के आधार पर नहीं। कमलेश भट्ट ‘कमल’ की 1990 के आसपास कही बात पर गौर किया जाये तो हममें से कुछ लोग ‘इतिहास-पुरुष बनने की आपाधापी में’ विधा के समूचेपन की अवहेलना करके राष्ट्रपिता, राष्ट्रकवि, उपन्यास-सम्राट आदि की तर्ज पर ‘लघुकथा पुरुष’ या ‘लघुकथा माँ’ की पदवी प्रदान करना/हासिल करना अधिक आवश्यक समझते हैं। सार्थक लेखन करके विधा को पुष्ट करना हमारे लिए गौण रह गया लगता है।
कोई लेखक क्यों प्रयोग करता है। इसलिए कि वह पूर्ववर्ती लेखन से अपने आप को अलग दिखाना और रखना चाहता है। लेकिन यह ‘चाहना’ उतना महत्वपूर्ण नहीं होता है, जितना कि उसकी विवेक-दृष्टि महत्वपूर्ण है। मानक के तौर पर भविष्य में वे ही लघुकथाएँ याद रखी जा सकेंगी जो समकालीन व्यवस्था द्वारा तय अर्थनीति से बनाए और गढ़े जानेवाले समाज का एक महत्वपूर्ण क्रिटीक साबित होंगी। आज की लघुकथा अमीर और गरीब के बीच की खाई को सीधे-सीधे उस रूप में चित्रित नहीं करती है, जिस रूप में अक्सर कहानी अथवा प्रारम्भिक दौर की लघुकथाएँ करती आयी हैं। अनेक लघुकथाएँ अपनी कथावस्तु, विन्यास और विलक्षण विवरणात्मकता में प्रगतिशील परम्परा की अत्यंत महत्वपूर्ण यथार्थवादी रचना हैं। समकालीन लघुकथा ने ऐसा नया गद्य कथा-साहित्य को दिया है जिसकी मार और व्यंजना विशेषत: मध्यवर्गीय पात्रों के जीवन के तमाम विरोधाभासों को बड़े कौशल से अभिव्यक्त करने में सक्षम है। नये कथाकारों का भाषिक हुनर देखने लायक है। इस बीच, यानी मुख्यत: 2014 के बाद आयी युवा एवं प्रौढ़ दोनो ही आयु-वर्ग के नये लघुकथाकारों ने बदले जीवन अनुभवों और बदले सामाजिक व राजनीतिक यथार्थ को अपनी लघुकथाओं में समेटना शुरू किया है। इसे किसी नए कथा-प्रस्थान की आहट ज़रूर सुनी जा सकती है।
लघुकथा में जो नये प्रयोग गत दिनों मेरी नजर में आए, उनमें मैं चैतन्य त्रिवेदी, भगीरथ, मधुदीप और संध्या तिवारी का नाम प्रमुखता से लेना चाहूँगा। भगीरथ ने अपनी दूसरी पारी की लघुकथाओं को विचार-प्रधान रखा है। उनमें से कुछ इतनी अधिक विचार-प्रधान हैं कि कथा-तत्त्व उनमें नदारद होने की सीमा तक गौण हो गया है। कथा-तत्त्व से विहीन ऐसी लघुकथाएँ आलोचकों द्वारा भले ही हाथों-हाथ उठा ली जाएँ, सामान्य पाठक द्वारा न केवल अवहेलित रहती हैं, बल्कि नकार दी भी जा सकती हैं। समूचे संकोच के बावजूद हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि कथा-तत्त्व से विहीन लघुकथाएँ विधा के लिए वैसा ही खतरा प्रस्तुत कर सकती हैं जैसा खतरा काव्यरस से विहीन कविताएँ हमारे समक्ष प्रस्तुत कर चुकी हैं। कथा-रस और प्रवाहमयी भाषा लघुकथा की प्राणशक्ति हैं। विचार-प्रधान लघुकथा के तौर पर, उदाहरणार्थ प्रस्तुत है भगीरथ की रचना ‘धार्मिक होने की घोषणा’ से यह अंश        
               बंदूक कितनी सार्थक है !
पेट में चाकू उतार देना कितना सार्थक है । और कितना आसान है एक-दूसरे को बरबाद कर देना ।
घृणा का सैलाब उमड़ आया है । एक वहशीपन बरपा गया है। और यह हमारे धार्मिक होने की घोषणा है। धार्मिक होने का मापदंड अब यह रह गया है कि  हिन्दुओं ने कितने मुसलमान कत्ल किये और मुसलमानों ने कितने हिन्दू हलाल किये ।
मानवता के पक्ष में किया गया हर हस्तक्षेप अब नपुसंक हो गया है। आग फैल रही हैं और हम एक पानी बाल्टी फैंकने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं।
इसी क्रम में डॉ॰ संध्या तिवारी की लघुकथा ‘ग्रे शेड’ भी पठनीय है
  प्रेतात्माओं का शेडो डांस (छाया नृत्य) उसके पार्श्व में  निरन्तर चलता ही रहता, जब तक कि वह किटकिटाकर आँखे नहीं बन्द कर लेती। लेकिन, आँखे बन्द करने से क्या प्रेत अदृश्य हो जाते? वे तो और मुखर हो घसीट ले जाते, उसे अतीत की दुनिया में; जहाँ वह होती निडर, निशंक, बिल्ली। दूर का भाई होता घूर्त, लम्पट, घातक। माँएँ होती—छोटी-बड़ी आँखो में शंका लिए चौकन्नी, लेकिन जल्दी ही विश्वास करने वाली । हजार सवाल लिये खमोश जुबान समाज भी, और इन सबसे बेखबर उसकी सहेली, मासूम खरगोश सी। 
       लेमनचूस के जमाने में भाई बड़ी-बड़ी चॉकलेट लाता, नकली जेवर और मुम्बइया कपड़े  भी । मेला ले जाता औ नदी किनारे भी। भाई था, इसलिए माँएँ भी फिक्रमन्द नहीं थीं ।
         वह मछली को बड़ी-बड़ी चॉकलेट का चारा खिलाकर फँसाती, नदी किनारे खण्डहर में लाती । 
भाई मछली खाता, डकार मारता और उसे एक बड़ी चॉकलेट और ढेर-सारे सुनहरे सपने देता ।
         एक दिन चॉकलेट सने हाथों वाली मछली ने आत्महत्या कर ली।
         वह सन्न थी लेकिन बिल्कुल चुप।
         देर-सबेर सुना भाई ने; फिर कहीं वंशी डाली, लेकिन इस बार मछली ने उसका शिकार कर लिया।
         कलपती माँए हजार-हजार मुँह से कोस रही थीं।
         जानी पहचानी आँखो ने उसका बहिष्कार करना शुरू कर दिया था।
         ददुआएँ फलने-फूलने लगीं । 
प्रेत, जो 'भूत' बन चुके थे, रोज आते और  लौट जाते उल्टे पाँव चलकर, नदी के किनारे बने खण्हर में।
       उसे पटक जाते अन्तहीन ग्लानि के रेगिस्तान में, जीवन भर ओस चाटकर प्यास बुझाने को।
लघुकथा कहने की संध्या तिवारी की अपनी ही शैली है। नि:संदेह, इस स्तर की कथाओं ने अपना अलग पाठक-वर्ग बनाया है। संख्या में वे पाठक बहुत कम सही, लेकिन महत्वपूर्ण हैं। फिर भी, इन कथाकारों की कथा-क्षमता को देखते हुए उम्मीद है कि वे किंचित नीचे के पाठक को भी ध्यान में रखेंगे।
सन् 2001 में एक सम्भावना बनकर चैतन्य त्रिवेदी उभरे थे। उनकी कथन-शैली में नवीनता थी और आकर्षण भी। उनके गद्य में काव्य-सा प्रवाह था। वह मूलत: कवि थे और जैसाकि एक बातचीत में उन्होंने बताया भी था, लघुकथाकार की बजाय वे कवि ही बने रहना पसंद करते थे, सो उनकी रचनाओं में काव्य-तत्त्व का अनुपात कथा-तत्त्व की तुलना में अधिक रहना ही था। यही कारण रहा कि अपने लघुकथा संग्रह ‘उल्लास’ जैसा गद्य वे बाद की लघुकथाओं में नहीं दे पाये। छायावादी काव्य-सरीखे अबूझ गद्य के उदाहरणस्वरूप यहाँ प्रस्तुत है उनकी लघुकथा ‘चालाकी’
साहूकार ने कहा, ब्याज में तुम्हारा खून पी जाऊँगा।
ठीक है, लेकिन एक शर्त पर! कर्जदार भी कम नहीं था।
कैसी शर्त?
जो खून पानी-पानी हो जाएगा…
ठीक है, उसे छोड़ दूँगा।
          अन्त में साहूकार को थक-हार कर अपने मूल पर सन्तोष करना पड़ा। 
     हमारे समय के लगभग हर कथाकार ने कम से कम एक लघुकथा ऐसी छायावादी प्रकृति की लिखी ही है; लेकिन वे एक प्रयोग के रूप में ही उनके लेखन का हिस्सा है, वैसी लघुकथाओं की बहुतायत उनके लेखन में नहीं है। इसलिए उन्हें चैतन्य की श्रेणी में नहीं गिना जा सकता।
     कथा कहने की अनेक शैलियों में प्रमुख तीन ही मानी जाती हैंकथन यानी नैरेशन शैली,  कथन-प्रतिकथन यानी संवाद शैली और मिश्र यानी वह शैली जिसमें लेखक कथन यानी नैरेशन और पात्रों के संवाद को मिला-जुलाकर लिखता है। कथा-लेखन की सभी विधाओं में अधिकतर मिश्र शैली का ही अनुसरण देखने को मिलता है। कथन-शैली को प्रकारान्तर से कथावाचन की पारम्परिक शैली से भी जोड़कर देखा जा सकता है। वाचन शैली का एक अनूठा प्रयोग मधुदीप की लघुकथाओं में मिलता है। इस शैली में वे लघुकथा लिखते नहीं बल्कि सामने बैठे (श्रोता को नहीं) पाठक को सुना रहे होते हैंबात थोड़ी टेढ़ी अवश्य है, मगर एक सिरे से बयान करूँगा तो आपकी समझ में आ जाएगी।’ (समय बहुत बेरहम होता है)। लिखते-लिखते वह एकाएक ‘पाठक’ को सम्बोधित भी कर बैठते हैंतो पाठको! आप मुझे कौन-से विकल्प की सलाह देते हैं? शायद आपकी सलाह ही मुझे इस उलझन से बाहर निकाल सके!’ (विकल्प); ‘तो पाठको! यह किस्सा यूँ समाप्त होता है कि सारी औपचारिकताओं को पूरा करते-करते उस वृद्ध ने हस्पताल में दम तोड़ दिया। अब मैं इस कारण से व्यथित हूँ और इसके बाद आनेवाली परेशानियों के बारे में सोचकर दहशत में भी हूँ। घर पर पत्नी और बच्चे मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं।’ (किस्सा इतना ही है)।
    ‘कथा’ शब्द का सम्बन्ध और तात्पर्य वाचन (बोलकर पढ़ने/सुनाने) की क्रिया से जितना है, मौन-पठन की क्रिया से उतना नहीं है; जबकि पाठ की ग्राह्यता और कथ्य की गूढ़ता में उतर पाना मौन-पठन में ही अधिक सम्भव समझा और माना जाता है। मौन-पठन के गुण के मद्देनजर ही लघुकथा के भाषागत शिल्प और शैली के बारे में कहा जाता है कि वे ऐसी हों, कि घटना पाठक को सामने घटित होती-सी लगे, पढ़ी जाती-सी नहीं। यही कारण है कि लघुकथा में नैरेशन को अपेक्षाकृत कम और संवादों को नैरेशन की तुलना में प्रमुखता प्रदान करने की बात कही जाती है। लघुकथा में घटना के प्रति रोचकता और समापन के प्रति पाठकीय जिज्ञासा को बनाये रखने की दिशा में रचना का संवाद पक्ष जितना महत्वपूर्ण सिद्ध होता है, उतना महत्वपूर्ण उसका नैरेशन पक्ष आम तौर पर नहीं ही हो पाता है। नैरेटर का पाठक को सम्बोधित करना जहाँ एक ओर उसे पाठ से जोड़ने का अभिकर्म है, वहीं पाठक को वह यह भी आभास दिला सकता है कि वह कथा में वर्णित घटना का हिस्सा न होकर उसका श्रोता मात्र है। सम्भावना यह भी बनती है कि ‘तो पाठको…’ सम्बोधन सुनते/पढ़ते ही अवांछित द्वैत रचना और पाठक के बीच आ पसरे और उसे सम्प्रेषण की स्वाभाविक क्रिया के बाहर जा बैठाए।
    जीवित-व्यावहारिक भाषा को जिन रचनाकारों ने समकालीन लघुकथा का आधार बनाने का प्रयास किया है; साथ ही, जिन्होंने भाषा की व्यंजनाओं को, व्यंजना के जादू को विलक्षण आँख से पकड़ने का कौशल दिखाया है उनमें अनुराधा सैनी, शोभना श्याम, सविता इन्द्र गुप्ता, चन्द्रेश कुमार छतलानी, अनघा जोगलेकर, दीपक मशाल आदि का नाम लिया जा सकता है 
     लघुकथा में विषयों अथवा उनकी प्रस्तुति की नवीनता ही नहीं, विषयों की सामयिकता की भी उल्लेखनीय भूमिका होती है। इन दिनों मनुष्य के प्रति मनुष्य के प्रेम और उसके कमजोर न पड़ने देने के द्वंद्व की कथाएँ भी दब्बू पात्रों वाले नकारात्मक कथ्यों के खिलाफ मजबूती से आ खड़ी दिखाई देती हैं। ऐसी लघुकथाएँ देने वालों में अशोक जैन (जिंदा मैं), पवन जैन (वर्धक), अशोक भाटिया (कपों की कहानी), अन्तरा करवड़े (अबोला, बुरी हवाएँ), योगराज प्रभाकर (गुरु गोविन्द) आदि का नाम लिया जा सकता है। अनेक लघुकथाओं से गुजरते हुए विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि समकालीन लघुकथाकार मनुष्य के नितांत संवेदनहीन हो जाने का ही रोना रोते रहकर जीवन को घोर निराशावादी मान लेने के पक्षधर नहीं हैं। वे मानवीय संवेदना और जीवन मूल्यों के सूत्र को कसकर थामे हुए हैं (माँ का कमरा/श्याम सुन्दर अग्रवाल)। जीवन अन्तत: बची-खुची इन मूल्य-रश्मियों से ही ताप ग्रहण करके बचेगा। जाति व्यवस्था के खिलाफ भी लघुकथाकार अलग ही तरह से मोर्चा खोलते हैं(अदला-बदली/मालती बसंत; सिलसिले का अन्त, ऊँच-नीच/सत्यवीर मानव; पूर्वाग्रह/सविता इन्द्र गुप्ता)।
    दूसरे मनुष्य पर विश्वास एक स्वाभाविक कमजोरी है। इस अविश्वास की नश्वरता पर समकालीन लघुकथाकारों ने साधिकार कलम चलायी है। आर्थिक विपन्नता को मानुषिक वास्तविकता में बदलकर पेश करने का कौशल भी समकालीन लघुकथाकार दिखा रहे हैं(पैंट की सिलाई/राम कुमार घोटड़)। राजनीति और सामाजिक व्यवस्था पर ज्योति जैन की लघुकथा ‘बद-बदनाम’ एक कालजयी तमाचे की तरह है। भीतर छिपी अच्छाइयों का पुनरुद्धार सतीशराज पुष्करणा की ‘मन के साँप’ में हुआ है।
    सामान्य व्यक्ति की सोच में पैठ चुकी राजनीति, धर्म और सांप्रदायिक उन्माद को पटल पर रखती कुछ अविस्मरणीय लघुकथाएँ भी सामने आयी हैं; यथाअहं शूद्रास्मि (पूरन सिंह)। समाजशास्त्रीय और राजनीतिक विश्लेषण हमेशा से कथाकारों के प्रिय विषय रहे हैं। ये गहरी छानबीन की अपेक्षा रखते हैं और पृथ्वीराज अरोड़ा (पढ़ाई), राजकुमार गौतम (बाजार में प्रेरणा बहन) और प्रेमकुमार मणि (ब्लैक होल) सरीखे अनेक लघुकथाकार इस अपेक्षा पर खरे उतरते हैं।
     आंचलिक भाषा के आधुनिक कथा-स्थापत्य में संयोजन और प्रयोग तथा शहरी और देहाती भावनाओं और संवेदनाओं की विडंबनात्मक रोमैंटिक परिणति (गाँव अभी भी/बलराम अग्रवाल) की अनेक अविस्मरणीय लघुकथाएँ आज उपलब्ध हैं।  मौजूदा दौर में भोगवादी मानसिकता की वजह से मानवीय मूल्यों में गिरावट को लगातार दर्ज किया जा रहा है; लेकिन लघुकथाकार है, कि इस गिरावट से लगातार टकरा रहा है (बुजदिल/ज्योत्स्ना कपिल)। आधुनिक बनने का प्रदर्शन करते शहरी मध्यवर्गीय परिवार (मेकअप/पूरन सिंह) पर भी उसकी कलम चल रही है।
       समकालीन लघुकथा में दर्ज स्त्री अपनी आजादी को खोकर ग़ुलाम हो जाने की ढलान पर उतरने को लेशमात्र भी तैयार नहीं है (लकीरें/ऊषा अग्रवाल ‘पारस’; मर्दगाथा/रामकुमार घोटड़)। सच कहा जाए तो गत 4-5 वर्षों में ही लघुकथा में दर्ज महिलाएँ बहुत मजबूत होकर आगे आयी हैं। पारिवारिक संबंधों के मध्य मार्मिक विघटन की बात तो कथा-कहानी में आम हो गयी है। नया दौ सन्तान और माता-पिता के बीच बढ़ती संवेदनहीनता को रेखांकित करने जैसा दौर बन गया है। आज का लघुकथाकार उसके बीच फूटती आशा की एक बारीक किरण को भी नजरअंदाज नहीं करता है (जवाब/श्याम सुन्दर दीप्ति)। जीवन की दौड़-धूप में क्षुद्र समझ लिए जाने वाले क्षणों को पकड़ना और प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करना ही लघुकथा लेखन की सार्थकता है।
       इस लेख में जिन कथाकारों की रचना का उल्लेख हुआ है, उसे मेरे अध्ययन की सीमा समझा जाए। ये उल्लेख प्रसंगवश अनायास याद आने के आधार पर हैं। इनके अलावा भी नये-पुराने कथाकारों में कुणाल शर्मा, बाबू गौतम, महेश शर्मा, सविता मिश्रा, अंजु खरबंदा, उपमा शर्मा, मुकेश शर्मा, विभा रश्मि, पूनम डोगरा, प्रेरणा गुप्ता, राजकुमार निजात, कमलेश भारतीय, विजय जोशी, सतीश राठी, उमेश महादोषी, कमल चोपड़ा, बलराम, महेश दर्पण, माधव नागदा, सतीश दुबे, सूर्यकांत नागर, उमेश महादोषी आदि सहस्रों नाम हैं जिन्होंने भाषा और भाव के स्तर पर रूढ़ हो चुकी अनेक धाराओं को अपनी विवेक-दृष्टि के चलते सहज रूप से तोड़ा है। आज अनेक अनजान अथवा अल्पज्ञात कथाकारों के पास ऐसी लघुकथाएँ मिल जाती हैं जिनका उल्लेख समकालीन लघुकथा में नवीन प्रयोग के रूप में किया जा सकता है।
     देखने में यह भी आता है, कि सुधी पाठक जब लघुकथा के किसी बिन्दु पर तथ्यहीन, भावहीन अथवा मर्यादाहीन होने सम्बन्धी आरोप लगाता है तो कथाकार अपने गिरेबान में झाँकने की बजाय उसे ही अल्पज्ञ ठहराते हुए यह कहकर दुत्कारने लगता है कि ‘यह एक प्रयोग है जो आपकी समझ में नहीं आएगा’। तात्पर्य यह कि अबूझ भाषा और ऊटपटांग कथा-प्रस्तुति को ‘प्रयोग’ कहने वाले कथाकारों की कमी भी हिन्दी लघुकथा-क्षेत्र में नहीं है। मुझे यह कहने में लेशमात्र भी संकोच नहीं है कि अबूझ कलाभिव्यक्तियाँ उस पाठक-वर्ग द्वारा नकार दी जाती हैं, जिसके लिए वस्तुत: साहित्य रचा जाता है। इसलिए पाठक के पारम्परिक ज्ञान और रूढ़ हो चुकी रुचि, दोनों के परिष्कार हेतु नया सोचिए, नया लिखिए; ‘प्रयोगधर्मी’ कहलाने मात्र के लिए नहीं, दायित्व निर्वाह के लिए।
                                      दृष्टि-8 (जनवरी-जून 2020, सं. अशोक जैन) में प्रकाशित
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