दोस्तो, हिन्दी लघुकथा में नित नया शोध सामने आ रहा है। यह नि:संदेह उत्साहवर्द्धक स्थिति है। डॉ॰ रामकुमार घोटड़ के
संपादन में वर्ष 2011 में एक महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित हुई है—‘भारत का हिन्दी लघुकथा संसार’। इस पुस्तक के पृष्ठ 160 पर डॉ॰
रामकुमार घोटड़ का एक ब्यौरापरक लेख है—‘भारतीय हिन्दी लघुकथा साहित्य में शोध कार्य’। इसे मैं ‘ब्यौरा’ कह रहा हूँ क्योंकि इसमें दर्ज सूचनाओं
के पीछे मुझे डॉ॰ घोटड़ की ‘हिन्दी
लघुकथा के लिए कुछ करने की आकांक्षा’ ही अधिक नजर आती है।
इस आकांक्षा को 'शोध' बनाने से वे थोड़ा दूर रह गये हैं। भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में पीएच॰ डी॰ की उपाधि हेतु नामांकित अथवा पीएच॰
डी॰ उपाधि से सम्मानित ऐसे सभी विषयों को जिनमें ‘लघुकथा’ शब्द का प्रयोग हुआ है, सूचीबद्ध करके उन्होंने नि:संदेह अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य किया
है, परंतु इसे पूरी तरह शोधपरक नहीं कहा जा सकता।
मैं स्वयं पीएच॰ डी॰ उपाधि हेतु
शोधार्थी रहा हूँ। नामांकन से पूर्व मुझे भ्रम था कि मैं ‘शोध’ करूँगा लेकिन वह मैं कर नहीं पाया।
मैंने भी ब्यौरे ही इकट्ठे किए और ‘शोध’ के नाम पर उन्हें विश्वविद्यालय में
जमा करा दिया। नामांकन कराए बिना मैं शायद बेहतर कार्य कर सकता था। मेरे
शोध-निदेशक ने, महाविद्यालय व विश्वविद्यालय के लिपिकों
ने, महाविद्यालय के प्रधानाचार्य ने, हिन्दी प्रवक्ताओं ने, यहाँ तक कि चपरासियों
ने भी लगातार मुझे जिस दृष्टि से देखा, मैं यही महसूस करता रहा
कि—आब गई, आदर गया, नैनन गया सनेह…। परंतु इस पत्र का विषय यह नहीं है, दूसरा है।
ऊपर संदर्भित ब्यौरे को प्रस्तुत करते
हुए डॉ॰ रामकुमार घोटड़ ने लिखा है—“उपलब्ध साक्ष्य एवं सामग्री के अनुसार…” और उसके बाद क्रमांक 1 से 5 तक
तत्पश्चात् क्रमांक 7 व 26 पर निम्न ब्यौरा प्रस्तुत किया है—
1॰ सीता हांडा / आधुनिक
हिन्दी साहित्य में लघुकथाओं के विकास का विवेचनात्मक अध्ययन /
राजस्थान वि॰वि॰, जयपुर / 1959
राजस्थान वि॰वि॰, जयपुर / 1959
2॰ कुसुम जायसवाल /
हिन्दी लघुकथाओं में सामाजिक तत्त्व / इलाहाबाद वि॰वि॰, इलाहाबाद / 1962
3॰ नारायण भाई एम॰
पटेल / स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी और गुजराती लघुकथाओं (1946-1965) का एक तुलनात्मक
अध्ययन/दक्षिण गुजरात वि॰वि॰, सूरत(गुजरात) / 1970
4॰ सोमनाथ कौल / स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी लघुकथाओं का विकास और मूल्यांकन / कश्मीर वि॰वि॰, श्रीनगर / 1977
5॰ शेख मोहम्मद इकबाल / हिन्दी और तेलुगु लघुकथाओं(1970 तक) का तुलनात्मक अध्ययन / आंध्रप्रदेश वि॰वि॰, आंध्रप्रदेश / 1978
5॰ शेख मोहम्मद इकबाल / हिन्दी और तेलुगु लघुकथाओं(1970 तक) का तुलनात्मक अध्ययन / आंध्रप्रदेश वि॰वि॰, आंध्रप्रदेश / 1978
7॰ ललिता राय / हिन्दी
एवं तेलुगु महिला लेखिकाओं (1980तक) का तुलनात्मक अध्ययन / आंध्रप्रदेश वि॰वि॰, आं॰प्र॰ / 1984
26॰ वी॰ के॰
राजन / यशपाल की लघुकथाएँ / कालीकट वि॰वि॰, केरल / 1996
अपने लेख के अंतिम पैरा में भी डॉ॰ घोटड़
ने लिखा कि—‘…प्रथम पीएच॰ डी॰ वर्ष 1959 को भी (2010
में) इक्यावन वर्ष गुजर गये।’
यहाँ यह सवाल अनायास ही मन में उभर आता है कि क्या वाकई डॉ॰ घोटड़ ने उपर्युक्त
शोध-प्रबंधों की सामग्री और साक्ष्यों को स्वयं देखा था? अगर डॉ॰ घोटड़ दक्षिण भारत में तथा अनेक प्रशासकीय हिन्दी
क्षेत्रों में प्रयुक्त कार्यालयी ‘लघु
कथा’ शब्द से परिचित होते
तो ऊपर निर्दिष्ट विषयों में प्रयुक्त ‘लघु कथा’
अथवा ‘लघुकथा’ शब्द की यथार्थ स्थिति को संदेह की
दृष्टि से अवश्य ही देखते। वहाँ आज भी ‘लघुकथा’
शब्द को अंग्रेजी के ‘शॉर्ट
स्टोरी’ का पर्याय मानकर
उसके शब्दानुवाद से प्राप्त ‘लघु
कथा’ लिखा-पढ़ा-समझा जाता
है। नई दिल्ली के ‘केन्द्रीय
सचिवालय ग्रंथागार’
में आज भी हिन्दी ‘कहानी’ की पुस्तकें ‘लघु कथाएँ’ शीर्ष के तहत दर्शित हैं। साहित्य
अकादमी, नई दिल्ली ने गत सदी के सातवें-आठवें
दशक में ‘कन्नड़ लघुकथाएँ’ नाम से कन्नड़ कहानियों का हिन्दी
अनुवाद प्रकाशित किया था, जिसमें कन्नड़ कथाकार आनन्द की एक रचना 'लड़की, जिसकी हत्या मैंने की' चौबीस पृष्ठों में फैली है। उक्त संकलन में एक भी रचना ऐसी नहीं
थी, जिसे (उस दशक की भाषा में भी) ‘लघुकथा’ कहा जा सकता हो। साहित्य अकादमी, नई
दिल्ली ने ही सन् 1981 में ‘लघु कथा संग्रह’ नाम से संस्कृत साहित्य की कथाओं का
संचयन दो खंडों में प्रकाशित किया था। ये खंड भी समकालीन और पूर्वकालीन लघुकथा की
अवधारणा से दूर संस्कृत से हिन्दी में अनूदित/पुनर्लिखित कुछ कहानियों के ही संचयन
हैं।
गत दिनों दौसा (राजस्थान) में भी एक
लघुकथा सम्मेलन का आयोजन हुआ था। उसमें राजस्थान से भगीरथ, महेन्द्र सिंह महलान आदि व हरियाणा से रामनिवास मानव, सत्यवीर मानव आदि अनेक वरिष्ठ लघुकथा-लेखकों, विचारकों ने भाग लिया। हरियाणा से पधारे एक विद्वान द्वारा मंच
से कहा गया कि हिन्दी लघुकथा पर पहली शोधोपाधि 1982 में नहीं, 1959 में दी गई थी। भाई महेन्द्र सिंह महलान से फोन पर हुई
बातचीत के आधार पर कह रहा हूँ कि इन्हीं विद्वान वक्ता ने मंच से अलग उनसे बातचीत
के दौरान अपनी बात को पुष्ट करते हुए यह भी कहा कि उक्त (सीमा हांडा, 1959) शोधप्रबंध की छाया-प्रति उनके पास मौजूद है।
यह नि:संदेह प्रसन्नता की बात है कि
हिन्दी लघुकथा में प्रथम शोध को लेकर भ्रम के बादल छँट-से रहे हैं। नये तथ्य सामने
आ रहे हैं। इस दिशा में अभी और शोध होने चाहिएँ। अपने इस लेख के माध्यम से डॉ॰
घोटड़ सहित मैं अपने सभी विद्वान मित्रों से यह अपील करना चाहता हूँ कि हिन्दी
लघुकथा पर प्रथम शोध की खोज को भी अपने शोध का विषय बनाएँ, लेकिन केवल सुनकर नहीं, शोध-प्रबंध को जाँचकर
किसी नतीजे पर पहुँचें।
यदि उपर्युक्त 7 शोधों में से किसी भी
शोध की प्रति किन्हीं मित्र के पास उपलब्ध हो और वे उसके लघुकथा-सम्मत होने के
प्रति निश्चित हों, तो कृपया उसकी संपूर्ण फोटोप्रति मुझे
वी॰पी॰ से भेजने का अनुग्रह स्वीकार करें।
बलराम अग्रवाल
एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-32
ई-मेल:balram.agarwal1152@gmail.com