विषय की एकता एवं प्रभावान्विति (यूनिटी
आफ इम्प्रेशन)
समकालीन लघुकथा की ऐसी विशेषता है जिसे जाने-अनजाने अक्सर उसकी कमजोरी बनाकर
प्रस्तुत किया जाता है। कहा जाता है कि ‘लघुकथा में आसपास के
परिवेश का चित्रण
नहीं हो सकता’ या ‘लघुकथा में चरित्र के व्यापक चित्रण की गुंजाइश नहीं होती है’ या ‘लघुकथा में
मनोभावों का विस्तृत चित्रण असम्भव है’ आदि-आदि। लघुकथा के परिप्रेक्ष्य
में, ये या इस तरह के सभी
वक्तव्य गलत हैं।
वास्तविकता यह है कि लघुकथा में ‘यूनिटी आफ इम्प्रेशन’ को बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि
बहुत-सी अवांछनीय चेष्टाएँ इस रचना-विधा में न की जाएँ। उदाहरण के लिए, आसपास के परिवेश के चित्रण को लें। इसका
प्रतिपादन कथा
के प्राचीन आचार्यों ने आलंकारिक योजना की प्रस्तुति के माध्यम से कहानी के आकार को
यथासंभव प्रभावी बनाने की दृष्टि से किया होगा। परन्तु इस शास्त्रीय गुर का प्रयोग अनेक कहानीकार
रचना को बोझिल बना डालने की हद तक करके उसकी हत्या तक कर डालते हैं।
लघुकथा में परिवेश का आभासभर ही पाठक को उसके समूचेपन से परिचित करा देता है।
उदाहरण के लिए, यहाँ
प्रस्तुत सुभाष नीरव की लघुकथाओं में से एक ‘बारिश’ को ले सकते हैं। इसमें वह
लिखते हैं, ‘दूर
तक कोई घना-छतनार पेड़ नहीं था। नए बने हाई-वे के दोनों ओर दूर तक उजड़े-से खेत ही बचे
थे, बस।’ इन दो वाक्यों
से ही वे बता देते हैं कि प्रगति के नाम पर जहाँ हमने लम्बे-खुले
हाई-वे तैयार किए हैं, वहीं
दग्ध कर देने
वाला सन्नाटा भी जाल की तरह सुदूर क्षितिज तक पसार दिया है। इन हाई-वेज पर दौड़ती
निगाहें मदद की गुहार लिए जब याचक-सी चारों ओर घूमती हैं, तब कोई घना-छतनार पेड़ यानी मदद के लिए आगे
आता-सा कोई हाथ कहीं दिखाई नहीं देता। सन्नाटा और बियाबान ही नज़र आता है,
बस। लेकिन इस विदग्धकारी स्थिति के बीच वे आशा की
किरण को बरकरार रखते हैं -सड़क किनारे एक जर्जर झोंपड़ी, एक झिलंगा चारपाई और एक बूढ़े के रूप में।
यहाँ वे जीर्ण हो चुकी पारंपरिक ‘मानवतावादी’
संस्कृति को ही बिम्ब प्रदान कर रहे हैं शायद। वह संस्कृति जो नई पीढ़ी को सुरक्षित
जगह देने का दायित्व अभी भी निभा रही है। वह संस्कृति जो नई पीढ़ी को उल्लसित देखकर स्वयं भी
उल्लसित हो नाच उठती है। उसका सुख नई पीढ़ी के उल्लास में ही छिपा हो जैसे।
इसी के साथ, वे
यह भी संकेत कर रहे हैं कि हाई-वे बनानेवाली मशीनरी पर्यावरण-रक्षा की दृष्टि से
वृक्षों के प्रति
और इस तरह मानव-सभ्यता की रक्षा के प्रति कितनी संवेदनहीन है। दरअसल, अशोक भाटिया की लघुकथा ‘कपों की कहानी’
समकालीन लघुकथा की जिस शक्ति को द्वंद्व के माध्यम से संप्रेषित करती है,
सुभाष नीरव की यह लघुकथा ‘बारिश’ उसे द्वंद्व से
मुक्ति के माध्यम से...उन्मुक्तता की भावना में सराबोर होकर संप्रेषित करती है।
समकालीन लघुकथा पर आलोचकीय दृष्टि डालने का यह एक उदाहरणभर है। यही
बात लघुकथा में पात्रों के व्यापक चरित्र-चित्रण तथा मनोभावों के विस्तृत चित्रण के संदर्भ
में भी न्यायसंगत है।
रचनात्मक साहित्य की हर विधा
की तरह समकालीन लघुकथा के केन्द्र में भी मनुष्य और उसकी बेहतरी की चिंताएँ हैं। मूल्यों को
हम राजनैतिक, सामाजिक,
आर्थिक, धार्मिक...जिस फ्रंट पर भी रखकर
परिभाषित करने की चेष्टा करें, यह
तो ध्यान में
रखना ही होगा कि कुछ मूल्य शाश्वत होते हैं और कुछ सामयिक। व्यक्ति न शाश्वत मूल्यों की
अवहेलना करके चैन से बैठ सकता है, न
सामयिक मूल्यों की अवहेलना करके। लेकिन मूल्यों की अवहेलना के इन दोनों ही पक्षों
से उसे कभी न कभी
गुजरना और इस द्वंद्व में फँसना पड़ ही जाता है कि वह इधर जाए या उधर। गलती उसकी नहीं,
समय ही ऐसा विकट है कि अच्छे-भले आदमी
की विवेकशक्ति को डावाँडोल कर देता है। समकालीन लघुकथा आदमी की इस भ्रमशील
स्थिति से बिना किसी नारेबाजी के उसको परिचित कराती है। सुभाष की ‘कमरा’ इस सहज
उद्बोधन का उत्कृष्ट
उदाहरण बनकर सामने आती है। ‘कमरा’ दो खण्डों में सम्पन्न होती है—पहले खण्ड में पिता को उनके कमरे से
हटाकर ऊपरी मंजिल पर शिफ्ट कर देने की क्रिया घटती है तथा दूसरे खण्ड में,
बच्चों की पढ़ाई के लिए खाली कराया हुआ कमरा तीन हजार
रुपए मासिक की आमदनी के लालच में किराए पर चढ़ा देने की क्रिया घटती है। कथाकार ने किसी
आदर्शवादी या आक्रोशपरक मंतव्य को इसमें अपनी ओर से कहीं भी व्यक्त नहीं किया है
और न ही वैसी शब्दावली या भाषा का प्रयोग कहीं किया है। बहू-बेटा का अपने
बच्चों की शिक्षा को लेकर बुजुर्ग पिता की सुख-सुविधा के प्रति असंवेदशील
होना जिस विशेष तरह के दबाव का परिचायक है, वह तीन हजार रुपए मासिक की आय के सामने
बच्चों के शान्तिपूर्वक पढ़ पाने की बलि चढ़ा देने के रूप में
सामने आता है। आर्थिक विपन्नता किस तरह संस्कारहीनता और दायित्वहीनता दोनों
को जन्म दे रही है, यह
लघुकथा इस ओर
संकेत करके अपना काम पूरा कर जाती है।
‘धूप’ दो बातों की तरफ इशारा करती है—पहली यह कि महानगरों की
ऊँची-ऊँची इमारतों में, वे
चाहे कार्यालय
की दृष्टि से खड़ी की गई हों चाहे निवास की दृष्टि से, नैसर्गिक धूप में नहा पाने का सुख दुर्लभ हो गया
है। दूसरी यह कि धूप का सुख पाने के लिए व्यक्ति को अफसर होने के खोल से
बाहर निकलकर आम लोगों के बीच बैठना पड़ता है। इस बिन्दु पर यह लघुकथा अशोक
भाटिया की ‘रंग’ जैसा आनन्द प्रदान करती है। ‘धूप’ यहाँ रिश्तों की गरमाहट
का भी प्रतीक है। ‘बीमार’ बाल-सुलभ जिज्ञासा और आकांक्षा को अत्यंत सहजता
से प्रकट करती है। बाल-मनोविज्ञान को व्यक्त करने वाली सफल लघुकथाओं में इसे
उतनी ही आसानी से रखा जा सकता है, जितनी
आसानी से बलराम की ‘गंदी बात’ को। आर्थिक मोर्चे पर निम्न और
निम्न-मध्य वर्ग की
त्रासद स्थिति को यह लघुकथा बाल-जिज्ञासा और बाल-आकांक्षा के माध्यम से पाठक के
समक्ष रखती है। ‘सफर में आदमी’ में दिखाया गया है कि विवशता के मात्र स्थूल
रूप ही नहीं होते, सूक्ष्म
रूप भी होते
हैं। जीवन में दैहिक विश्राम एक आवश्यक क्रिया है। देह को सामान्यतः निश्चित समय-अंतराल
में विश्राम न मिले तो मानसिक अभिजात्यता के पूर्वग्रहित सभी बंधन एक-एक कर
टूटने-बिखरने लगते हैं। यह सिद्धांत विश्राम ही नहीं, देह की समस्त क्रियापरक आवश्यकताओं पर
समयानुरूप लागू होता है। ‘सफर
में आदमी’ मनुष्य की इस जटिल मानसिकता को सफलतापूर्वक प्रस्तुत करती लघुकथा है। यह मानसिक
अभिजात्यता अकेले कथानायक में ही नहीं है, यह दर्शाने के लिए सुभाष नीरव ने किसी अन्य स्टेशन
पर वैसे-ही एक अन्य यात्री की प्रविष्टि लघुकथा में कराई है जिससे यह
कथानक गतिमान हो उठा है। अभिजात्यता के खण्डित होने का इसमें प्रभावशाली
चित्रण देखने को मिलता है।
‘बरफ़ी’ आमजन से कुछ ऊपर, समाज में विलास-वृत्ति के भोगवादी वर्ग
की कथा है। आर्थिक
रूप से तुष्ट यह भौतिक सुख-सुविधाओं में डूबा हुआ वर्ग है। इसकी सुबह दिल्ली में,
दोपहर मुंबई में और रात न्यूयॉर्क में
बीतती है। भोक्ता और भोग्या की, शोषक
और शोषित की, नैतिक
जीवन-मूल्यों के निर्वाह की यहाँ हर बहस बेमानी है। यहाँ कब, कौन परिचित-अपरिचित महिला ‘बरफ़ी’ बनकर
सामने आ खड़ी
होगी, ऑर्डर देने वाला नहीं
जानता। स्वयं ‘बरफ़ी’ भी नहीं कि उसे किसके गले में उतरने के लिए भेजा जा रहा है।
यह व्यवसाय बिचौलियों के जरिए दुनियाभर में फल-फूल-फैल रहा है,
निर्बाध। कारण वही, अपरिमित भौतिक इच्छाएँ और उन्हें पूरा करने
के लिए अनेक प्रकार के मानसिक, दैहिक,
बौद्धिक समझौते, गिरावटें।
एक पुरानी कहावत है कि परदेश गए पति की स्त्री को दृष्ट या अदृष्ट,
क्रूर और कृत्रिम वचनमुद्राओं द्वारा
धूर्त पुरुष हर लेते हैं। नीरव की ‘सेंध’ सीधी-सादी लघुकथा है और इस बात की ओर
इशारा करती है
कि महिलाओं को विशेषकर निकट के लोगों से कितना सावधान रहना पड़ता है।
‘लाजवंती’ जीवन में आ पसरी
वैयक्तिकता के बीच स्नेह और सौहार्द के दो पलों को सुरक्षित रख लेने की कोशिश की सफल
प्रस्तुति है। इस रचना में भी समकालीन जीवन में केंसर के जीवाणुओं की तरह आ
घुसे द्वैत को बड़ी सहजता से सुभाष ने पिरोया है। बाजार किस तरह विवेकपूर्ण और
निष्पक्ष लेखन को प्रभावित करता है, इसका उल्लेख ‘बाजार’ शीर्षक लघुकथा में
हुआ है तो ‘मकड़ी’ अपने शीर्षक को सार्थक करते हुए यह स्थापित करती है
कि उपभोक्ता के प्रति बाजार की सहृदयता उसके लिए कितनी घातक है।
‘समकालीन लघुकथा का जागरूक हस्ताक्षर’ शीर्षक से मैंने सुभाष के लघुकथा संग्रह
‘सफर में आदमी’ की भूमिका लिखी थी। ‘कमरा’, ‘बाज़ार’
और ‘मकड़ी’ के परिप्रेक्ष्य में यहाँ उक्त भूमिका में लिखी टिप्पणी को ज्यों का त्यों उद्धृत कर
रहा हूँ—
“विश्वभर
में सामाजिक
और सांस्कृतिक विषयों के विशेषज्ञों के बीच बाजारवाद आज विशेष रूप से विचारणीय मुद्दा
है। उन्हें लगता है कि समाज के गरीब से लेकर सुसम्पन्न अर्थात् हर व्यक्ति के सामने ‘बाज़ार‘
सुरसा के मुख की तरह लगातार भयावह ढंग से फैलता जा रहा है और आदमी ‘बाजार‘ के
ही द्वारा क्रेडिट-कार्ड आदि के रूप में मुहैय्या सुविधाओं को अपनाकर
उसके काबू में न आने की वैसी ही असफल कोशिश कर रहा है जैसी प्रारम्भ में
महावीर हनुमान ने की थी-‘जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा, तासु दून कपि रूप दिखावा‘। लेकिन बहुत
जल्द उनकी समझ में आ गया कि लगातार फैलते जा रहे इस ‘बाज़ार‘ पर
पार पाना है तो क्रेडिट-कार्ड से मुक्ति पाकर दूसरा तरीका अपनाना पड़ेगा
और तब-‘अति लघु रूप पवन सुत लीन्हा‘।
‘बाज़ार‘
को उसकी स्पर्धा में रहकर नहीं, स्पर्धा
से दूर रहकर ही धराशायी किया जा सकता हैय लेकिन आदमी की अहंजनित आवश्यकताएं
‘बाज़ार‘ से लड़ाई
के इस तरीके को भोथरा किए रखती हैं। इसी कारण मानवीय संवेदनाओं के तन्तु उसकी चेतना को
झकझोर पाने में अक्षम हो जाते हैं। वर्तमान दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के सामने उसे अन्य
सभी आवश्यकताएँ, यहाँ
तक कि नैतिक दायित्व
भी, क्षुद्र प्रतीत होने
लगती हैं। यहाँ एक अन्य सत्य की ओर इंगित करना भी आवश्यक-सा है। आज का आदमी
वस्तुओं में ही नहीं, रिश्तों
में भी ‘प्रोडक्टिविटी‘ ही
तलाश करता है। जिन वस्तुओं और रिश्तों की प्रोडक्टिव उपयोगिता उसकी दृष्टि में समाप्त हो
चुकी होती है, उन्हें
वह अनदेखा करना, त्याग
देना श्रेष्ठ समझता है। सुभाष नीरव की लघुकथा ‘कमरा‘ के हरिबाबू और उनकी पत्नी को जब
वृद्ध पिता अनुपयोगी और अपने पुत्र की शिक्षा उपयोगी प्रतीत होते हैं तब वे उपयोगी से
अनुपयोगी को रिप्लेस करने का विवेक और दायित्व से हीन कदम उठाते हैं।
दायित्वहीन इस अर्थ में कि रिप्लेसमेंट की इस क्रिया को वे रिश्तों की गरिमा को
भूलकर हानि और लाभ के गणित को ध्यान में रखकर अंजाम देते हैं। अन्ततः
हानि-लाभ का यही गणित उन्हें बेटे के भविष्य को दांव पर लगा देने हेतु भी
उकसाता है जिसके कारण पिताजी से खाली कराया गया कमरा बिना झिझक तीन हजार रुपए
प्रतिमाह किराए पर चढ़ा दिया जाता है। ‘बाज़ार‘ की इसी क्रूर और हिंसक
वृत्ति का सटीक चित्रण सुभाष नीरव की लघुकथा ‘मकड़ी’ में हुआ है—
‘लेकिन,
कुछ बरस पहले बहुत
लुभावना लगने वाला बाजार
अब उसे भयभीत करने लगा था। हर माह आने वाले बिलों का न्यूनतम चुकाने में ही उसकी आधी
तनख्वाह खत्म हो जाती थी। इधर बच्चे बड़े हो रहे थे, उनकी पढाई का खर्च बढ़ रहा था।
हारी-बीमारी अलग थी। कोई चारा न देख, आफिस के बाद वह दो घंटे पार्ट-टाइम करने
लगा। पर इससे अधिक राहत न मिली। बिलों का न्यूनतम ही वह अदा कर
पाता था। बकाया रकम और उस पर लगने वाले ब्याज ने उसका मानसिक चौन छीन लिया
था। उसकी नींद गायब कर दी थी। रात में, जैसे-तैसे आँख लगती तो सपने में
जाले-ही-जाले दिखाई देते जिनमें वह खुद को बुरी तरह फंसा और मुक्ति हेतु
छटपटाता हुआ पाता।‘
अपनी आकर्षक, लुभावनी और निःस्वार्थ प्रतीत होती
सेवा-शर्तों के पीछे ‘बाज़ार‘ कितना क्रूर और छिपा हुआ हत्यारा सिद्ध
होता है, इस सत्य का
यथार्थ-चित्रण करती ‘मकड़ी‘ एक ऐसी सम्पूर्ण लघुकथा है, जिसकी तुलना में ‘बाजार‘ के हिंसक और मारक चरित्र को
केन्द्र में रखकर लिखी गई कोई अन्य लघुकथा आसानी से टिक नहीं पाएगी। इसके जालों की चपेट में अब
तक भारत का मध्य अथवा निम्न-मध्य वर्ग ही नहीं, निम्न आय वर्ग भी आ चुका है। सत्य का
आभास होने तक व्यक्ति अपने शरीर का अधिकांश खून इस ‘मकड़ी‘ से चुसवा चुका होता है।”
‘बारिश’ नाटकीयता से परिपूर्ण
मनोवैज्ञानिक कथा है। बारिश के इसमें अनेक रूप हैं-पहला वह, जिसमें भीगने से बचने के लिए बाइक पर
कहीं जा रहे लड़का-लड़की हाई-वे के दोनों ओर एक छतनार पेड़ तक
नहीं देख पाते हैं। इस पर चर्चा इस लेख के पहले पैरा में हो चुकी है। बारिश का दूसरा
रूप वह है, जब झोंपड़ी के भीतर खाट पर लेटा
बूढ़ा उन्हें एकान्त देने की गरज से स्वयं बारिश में जा बैठता है। तीसरा वह है, जब लड़के की शरारत से बचने के लिए लड़की
बारिश में भीगने
को हथियार के रूप में इस्तेमाल करती है तथा चौथा वह, जो इस कथा को क्लाइमेक्स पर पहुँचाता है। बारिश में
भीगते लड़का-लड़की के साथ बूढ़े का स्वयं अपने बचपन में उतर जाना और उस
युवा जोड़े की तरह बारिश की बूँदों को चेहरे पर लपकने का खेल खेलना शुरू कर
देना। ऐसी दृश्यात्मकता और ‘वस्तु’ प्रेषण के ऐसे गहरे व अर्थगर्भी नेपथ्य
के साथ हिन्दी में कम ही लघुकथाएँ आ पाई हैं। यह दरअसल, इक्कीसवीं सदी की लघुकथा का शिल्प है जो
उसे ‘कौंध’ से बहुत आगे की विधा सिद्ध करता है।
‘जानवर’ एक व्यंजनापरक प्रभावपूर्ण लघुकथा
है जिसमें दिखाया गया है कि कुछ लोग अपने भीतर के जानवर की क्षुधा को शांत करने के लिए ही प्यार
का नाटक करते हैं। ‘सेंध’ हो, ‘जानवर’
हो या ‘बारिश’ सुभाष की लघुकथाओं के स्त्री-पात्र अपने चारित्रिक कुशल-क्षेम के प्रति
सजग हैं। समकालीन लघुकथा की यह विशेषता है कि कथाकार किसी आदर्शपरक, उपदेशपरक अथवा विद्रोहपरक वाक्य या
संवाद का प्रयोग किये बिना पाठक में अपने संदेश को संचरित कर
देता है। सुभाष नीरव ने विशेषतः अपनी इन ताज़ा लघुकथाओं में इस युक्ति का
प्रयोग सफलतापूर्वक किया है।
सुभाष की इन लघुकथाओं की गहराई में कहीं न
कहीं स्त्री जरूर है। ‘तकलीफ’ की पत्नी को देखिए... मदद की नीयत होना अलग
बात है, लेकिन प्रतिद्वंदी को तैयार होते देखना...
किसी भी स्त्री के लिए यह असह्य है। अनेक बार कथाकार के सामने कथ्य-प्रस्तुति प्रमुख हो जाती
है और तथ्यात्मकता कभी कुछ कदम तो कभी मीलों पीछे छूट जाती है। सुभाष की
लघुकथा ‘डूबते को किनारा’ ऐसी ही लघुकथा है। पूरी कथा दिवा-आत्मालाप में
सम्पन्न होती है, और
इसे खूबसूरत बिम्बों
से सँवारा गया है। सामान्य मनोविज्ञान कहता है कि स्पर्श के प्रति, वह शरीर से हो या निगाहों से, जितनी संवेदनशील महिलाएँ होती हैं,
पुरुष उसका दशांश भी नहीं होता। ‘डूबते को
किनारा’ की सरिता दो बच्चों की माँ होने के बावजूद स्पर्शानुभूति की गहराई
से अनभिज्ञ है या सागर-सरीखे भावुकों को इस्तेमाल करने में माहिर,
यह अध्ययन का विषय हो सकता है। इस कथा में, सागर भले ही सरिता में डूबने से बच गया
हो, तथ्यात्मकता भावुकता
में डूब
गयी है।
चिंता और चिंता में
फर्क होता है। जो लोग समय पर लंच के लिए सीट छोड़ रहे हैं, बहुत संभव है कि अपनी सीट के कार्य और
अपने से इतर ‘पेट
की चिंता’ से वे भी बहुत दूर न हों, लेकिन स्वयं के परिवार से अलग किसी अन्य परिवार के पेटों की चिंता ही
दायित्वबोध से जुड़ी चिंता है। ‘शरारती
आँखें’ की पत्नी और उसके वार्तालाप को ‘तकलीफ’ की पत्नी और उसके वार्तालाप के समांतर
देखें, तो आपको दाम्पत्य
जीवन के दो नायाब आयाम देखने को मिलेंगे। ‘गुड़िया’ गत एकाध दशक में
एकाएक बदल चुकी सामाजिक हवा के मद्देनजर लिखी गई शानदार लघुकथा है।
‘तृप्ति’ के हरीलाल पर एक नज़र डालिए। वे ‘स्टोरनुमा छोटे-से कमरे में’ रहते
सही, लेकिन सम्पन्नता का
भाव उनमें निहित
है। उनके हाथ में ‘छड़ी’ है, लाठी
नहीं; बैठने को अपना ‘बेड’
भी है, खाट नहीं। सुबह-सुबह
घूमने के लिए निकल जाने की छूट भी उनको है। इस चित्रण से तनिक भी आभास नहीं मिलता कि वे
अतृप्त रहते होंगे। उनको ‘बूढ़ी काकी’ की तरह चित्रित करने के पीछे कथाकार का
क्या मंतव्य रहा, यह
अस्पष्ट है। ‘पानी’
अत्यंत खूबसूरत रचना है जिसे द्वंद्व के माध्यम से आगे बढ़ाया गया है। ‘पानी’ में
अलंकार और मुहावरा, दोनों
का प्रयोग देखने को मिलता है। लघुकथा साहित्य को सम्पन्न करने की दिशा
में ऐसी ही रचनाओं की हमेशा जरूरत बनी रहेगी।
स्त्री अगर अपने
स्त्री होने को भूलना भी चाहे तो प्रकृति उसे ऐसा करने नहीं देती है। वह
हर महीने उसे याद दिला देती है कि वह स्त्री है। सुभाष ने ‘लड़की की बात’
के केन्द्र में इस प्राकृतिक आपदा को ही रखा है। यहाँ लेकिन लड़की इस आपदा से
क्षुब्ध नहीं है, लज्जित
भी नहीं है।
शेष परिवार को वह साहसपूर्वक ही नहीं, अधिकारपूर्वक याद दिलाती है कि वह लड़की है। शुद्ध शालीन भाषा में लिखी
गयी, अलग तरह की लघुकथा,
जिसके लिए सुभाष बधाई के पात्र बनते हैं। ‘काला
समय’ मात्र वही नहीं है, जब
आततायी और लुटेरे
सत्ता पर काबिज हों। शिक्षा संस्थानों और सांस्कृतिक इकाइयों का अक्षम हाथों में चले
जाना भी ‘काला समय’ ही है। सुधी आलोचक के रूप में ख्यात किसी प्राध्यापक द्वारा
सैद्धांतिक और व्यवहारिक आलोचना के मापदंड पर नकारी जा चुकी कृति यदि अपने विद्यार्थियों
को पाठ्यक्रम के अंतर्गत पढ़ाने को विवश होना पड़े, तो जीवन के कटु, कठोर और व्यवहारिक यथार्थ को आसानी से महसूस किया जा सकता
है। किसी न किसी रूप में यह ‘काला समय’ हम सबके समक्ष आ चुका होता है, आता रहता है। ‘गुड़ुप’ व्यवहारिक
मनोविज्ञान का आधुनिक संवाद प्रस्तुत करती लघुकथा है। लड़का-लड़की के
बीच प्रेम-संवाद सुभाष का प्रिय विषय महसूस होता है। यह ‘खूबसूरत डायन
और उसकी हँसी’ लघुकथा में भी मिलता है। इसमें वे ‘जानवर’, ‘बरफ़ी’, ‘बारिश’ आदि अलग-अलग आयाम की कई लघुकथाएँ पाठकों को दे चुके
हैं।
सरकारी, अर्द्ध-सरकारी अथवा गैर-सरकारी कार्यालयों में कार्यरत
जो लोग किसी भी स्तर पर अतिरिक्त-कमाई वाली सीटों पर काबिज हैं,
उनके घरों का मासिक खर्चा वेतन से कहीं-अधिक होना
स्वाभाविक है। कठोपनिषद् की स्थापना है—न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्याः। अर्थात् धन की ओर से मनुष्य
हमेशा अतृप्त ही बना रहता है। लघुकथा ‘दिहाड़ी’ का मुख्य-पात्र रतन
पुलिस की नौकरी में है। उसकी तैनाती ऐसे बाजार में है जहाँ के रेहड़ी-पटरी
वालों से वह ‘दिहाड़ी’ वसूलने की स्थिति में है। बस, उसकी यह सामर्थ्य ही उसके तनाव का मुख्य
कारण है। घर-खर्च
को वेतन की रकम जितना सीमित रखना उसकी पत्नी और वह, दोनों ही भूल चुके हैं। लघुकथा में यद्यपि पत्नी और
उसके व्यवहार को नेपथ्य में रखकर रतन को ही फोकस में रखा गया है तथापि-‘सुबह
बच्चे बिना खाये-पिये ही स्कूल चले गये थे। पत्नी ने पड़ोसियों से कुछ भी
माँगने से साफ इन्कार कर दिया था’ के माध्यम से कथा को प्रभावित करते उसके
चारित्रिक-आभास को नकारा नहीं जा सकता है। अपने इस इन्कार के जरिये ही वह
बीमार पति पर ‘दिहाड़ी’ वसूलने जाने का मनोवैज्ञानिक दबाव बनाती है।
स्कूल का ‘रफ’ काम करने के लिए ऑफिस के ‘फ्रेश’ रजिस्टर
का उपयोग सरकारी कार्यालयों में कार्यरत लोगों के बच्चों के लिए आम बात है।
सरकारी-स्टेशनरी का यह सदुपयोग बच्चों को कराते अपनी-अपनी पहुँच के अनुरूप अफसर से लेकर
चपरासी तक सभी देखे जा सकते हैं। छोटी लगने वाली इस चोरी को कुछ लोग आदतन
करते हैं तो कुछ अनायास। ऑफिस स्टेशनरी का आदतन आनन्द लूटने वालों में
सुभाष नीरव की लघुकथा ‘चोर’ के मि. नायर का उल्लेख किया जा सकता है।
‘अपने
क्षेत्र का दर्द’ अपने देश में राजनीतिज्ञों के संवेदनहीन हो
जाने की कथा है। ‘पत्र को पढ़कर उसे अपनी बेटी का ध्यान हो आया। आये दिन वह
एक नयी माँग के साथ धकेल दी जाती है—मायके में। क्या किसी दिन उसे भी ?
नहीं-नहीं... वह भीतर तक काँप उठा।’ के माध्यम से इस
लघुकथा में फ्रायड के मनोविश्लेषण-सिद्धांत ‘आरोपण’ का भी निर्वाह हुआ है।
‘रंग
परिवर्तन’ सुभाष नीरव द्वारा प्रयुक्त सांकेतिक शीर्षक है। मन्त्री महोदय के
कमरे में बिछे कीमती कालीन, सोफा-कवर्स
और खिड़कियों पर लहराते पर्दों के माध्यम से उन्होंने नए-नए मन्त्री बने मनोहर लाल जी की मानसिकता
और कार्यशैली दोनों पर गहरा कटाक्ष किया है। एक पत्रकार के प्रश्न के उत्तर
में मनोहर लाल जी ‘फिजूलखर्ची रोकने और अंधविश्वासों से ऊपर उठने’ को
प्राथमिकता देने की बात करते हैं लेकिन इन दोनों ही कमजोरियों से मुक्त
नहीं रह पाते।
‘अकेला
चना’ शासकीय
कर्मचारी वर्ग में व्याप्त संवेदनहीनता, अभद्रता और अमानवीयता को तो यथार्थतः हमारे सामने रखती ही है,
सामाजिकों के भी स्त्रैण-चरित्र का उद्घाटन करती है।
सोचने की बात यह तो है ही कि कथानायक के साथ कैसा व्यवहार हुआ, यह भी है कि सामाजिक के तौर पर
कभी-न-कभी, कहीं-न-कहीं हर आदमी अपने-आप को ‘अकेला’
खड़ा जरूर पाता है, इसके
बावजूद किसी और को वैसा अकेला फंसा देखकर वह आग नहीं पकड़ पाता है। बस,
देखता और आनन्द लेता रहता है। जिस प्रकार ‘अकेला चना’
की घटना बस-यात्रा के दौरान घटित होती है उसी प्रकार ‘कड़वा अपवाद’ भी बस-यात्रा के दौरान ही
घटित एक घटना को हमारे सामने रखती है। लेकिन ‘कड़वा अपवाद’ का कथ्य ‘अकेला
चना’ के कथ्य से एकदम भिन्न और अलग स्तर का है। ‘अकेला चना’ का महानगरीय
भागमभाग में फंसा नायक शासकीय कर्मचारियों की गलत कार्यपद्धति के
खिलाफ लड़ता हुआ अपने जैसे ही अन्य यात्रियों की संवेदनहीनता का शिकार होकर
हारता है जबकि ‘कड़वा अपवाद’ का नायक इस सत्य का सामना करता है कि छल और
छù से भरे इस समाज में
सभी झूठे और मक्कार
नहीं हैं। कुछ लोग निःसंदेह दीनता और हीनता का जीवन जीते हुए असहाय मर जाने को विवश हैं।
...तभी, मैं आगे बढ़कर बोला, “साला, बन रहा है... नशा करके लेटा होगा... ” और मैंने एक झटके से उसके ऊपर की चिथड़ा हुई धोती को
खींचकर एक तरफ कर दिया।
मेरे
पाँव के नीचे से ज़मीन खिसक गयी। वह तो सचमुच ही ठंड से अकड़कर मर चुका था।
यहाँ पर अनायास ही ‘भेड़िया
आया-भेड़िया आया’ वाली पुरातन कहानी हमारे सामने एक अलग अर्थ ध्वनित करती हुई खुल जाती है।
‘वह तो सचमुच ही ठंड से अकड़कर मर चुका था।’- कौन ? वह अविश्वास जो दलित और दमित आबादी के
निरन्तर रुदन ‘भेड़िया
आया’ वाली कहानी ने हमारे मन में जमा दिया है। यह लघुकथा एक जिम्मेदार साहित्यिक कृति का दायित्व
पूरा करते हुए हमें बताती है कि सारे रुदन धोखे से भरे नहीं होते।
‘वॉकर’
यों तो एक निम्न-मध्यवर्गीय गृहस्थ के हर्ष और व्यथा दोनों को
व्यक्त करती कथा नजर आती है लेकिन यह एक स्तरीय मनोवैज्ञानिक कथा है। सुभाष नीरव
अपने अनेक कथ्यों का निर्वाह मनोवैज्ञानिक धरातल पर करते हैं। इसके
अलावा उनके अनेक शीर्षक अघोषित व्यंजना से भरे होते हैं। ‘वॉकर’ भी
व्यंजनापरक है। पैदल यानी वाहन आदि की सुविधा से हीन जैसे-तैसे ही सही,
अपने पांवों पर चलने-फिरने वाले व्यक्ति के लिए भी ‘वॉकर’
शब्द का ही प्रयोग किया जाता है। ‘मुन्नी’ सम्बोधित अपनी लाड़ली संतान हेतु ‘वॉकर’ खरीदने के निमिŸा निकालकर दिए जाने वाले सौ रुपए के नोट का समापन घर
में आने वाले मेहमानों के बहाने ही सही, घर-खर्च की भेंट चढ़ जाएगा, ऐसा पति-पत्नी दोनों ने ही नहीं सोचा
होगा। इस स्थिति को स्वयं कथानायक के शब्दों में देखिए—
मैंने एक बार हाथ में पकड़े हुए सौ के नोट को देखा और फिर पास
ही खेलती हुई मुन्नी की ओर। मैंने कहा, “मगर, वह
मुन्नी का वॉकर...।”
“अभी
रहने दो। पहले घर चलाना ज़रूरी है।”
मैंने देखा, मुन्नी
मेरी ओर आने के लिए उठकर खड़ी हुई ही थी कि तभी धम्म् से नीचे बैठकर रोने लगी।
अन्तिम पैरा में सुभाष नीरव द्वारा ताने गये
बिम्ब को समझे बिना इस लघुकथा की तीव्रता को समझना असम्भव है। आम भारतीय
परिवार की यह आर्थिक-विडम्बना है कि उसे ‘घर’ पहले चलाना है, बच्चे के बारे में बाद में सोचना है।
‘बीमार’ बाल-मनोविज्ञान की
उत्कृष्ट लघुकथा है। इस लघुकथा का नायक अपनी असहाय आर्थिक स्थिति को हलाहल की तरह उसी तरह
अपने कंठ में धारण करने को विवश है जिस तरह सम्पूर्ण विश्व में जीवन को
बचाने के लिए भगवान शंकर। निम्न और निम्न-मध्य वर्ग के इस त्रास को शब्द
देती अनेक स्तरीय रचनाओं में इस लघुकथा का स्थान विशिष्ट माना जा सकता
है।
‘बीमारी’
इस देश
के लगभग सभी सरकारी कार्यालयों में अपने अधीनस्थों के प्रति अधिकारियों के व्यवहार की सचाई
को पाठकों के सामने रखती है तो ‘चन्द्रनाथ की नियुक्ति’ सरकारी कामकाज के तौर-तरीकों
का यथार्थ-दर्शन हमें कराती है। न्याय-प्रक्रिया की पेचीदगियों और
किताबी-नियमों पर आधारित न्यायिक निर्णयों ने आम आदमी के मन को
न्यायालयों के प्रति अविश्वास से भर दिया है। सुभाष नीरव की ‘अपना-अपना नशा’,
‘चोरी’ आदि कुछेक लघुकथाओं में विपरीत स्थिति के चित्रण
जैसा प्रयोग भी हुआ है। ऐसी लघुकथाओं के पूवार्द्ध में कथानायक नैतिक सम्भाषण करते दिखाया जाता
है तथा उत्तरार्द्ध में उसके कथन के एकदम विपरीत कार्यों में उसे लिप्त
दिखा दिया जाता है। इस तकनीक की पहली लघुकथा निःसंदेह प्रेमचंद की ‘राष्ट्र
का सेवक’ है लेकिन देशकाल के मद्देनजर वह एक स्तरीय लघुकथा है।
विपरीत स्थिति, कृत्य
अथवा मानसिकता को दर्शाती लघुकथाओं के तांडव को आठवें दशक में ‘सारिका’ ने खूब
हवा दी थी। वस्तुतः
वह काल भी कुछ-कुछ वैसी अभिव्यक्ति को शब्द देने का आवश्यक काल था; लेकिन लघुकथा आज अपने उस शैशवकाल से अब
बाहर आ चुकी है। अतः लघुकथा में अब ऐसे प्रयोगों को बचकाना ही माना जाएगा।
‘एक
और कस्बा’ यथार्थ और फैंटेसी के सम्मिश्रण से रची बेहतरीन रचना है। बाजार से
बोटियाँ खरीदकर घर लौटते सुक्खन द्वारा कटी पतंग को लूटने में लगा देने के बहाने
इसमें खेल के प्रति
बाल-सुलभ उछाह का स्वाभाविक चित्रण हुआ है तथा मांस की बोटियों को लेकर विभिन्न
समुदायों के लोगों तथा कुत्तों के माध्यम से इसमें फैंटेसी का प्रवेश हुआ है।
‘सफर
में आदमी’ ऊपरी तौर पर विपरीत स्थितियों के चित्रण का पुंज नजर आती है लेकिन वह
असामान्य परिस्थितियों में भी ‘अनुकूलन’
की स्वाभाविक मानवीय वृत्ति को दर्शाती एक श्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक लघुकथा है। इस लघुकथा
का अन्त इसको कथ्य के स्तर पर भी और विचार के स्तर पर भी अनन्त प्रवाह प्रदान करता है।
‘अनुकूलन’ की वृत्ति के अनुरूप ही ‘साधारणीकरण’
भी सहज मानवीय वृत्ति है। व्यक्ति कभी-कभी अपने पद और ख्याति के तानो-बानों में इस
तरह उलझ जाता है कि खुली हवा में सांस लेने, खुली ‘धूप’ का आनन्द लेने और सामान्य आदमी की तरह
उनके बीच उठने, बैठने,
लेटने, जीने को वह तरस जाता है। ‘धूप’ दर्पानुभूति
में जी रहे एक अधिकारी के माध्यम से आम जीवन जीने की उसकी लालसा की कथा है।
गोधन
गजधन बाजधन और रतनधन खान।
जब
आवै संतोषधन सब धन धूरि समान ।।
‘मुस्कराहट’ के माध्यम से सुभाष
नीरव ने अब्दुर्रहीम खानखाना द्वारा प्रतिपादित इस दार्शनिक सत्य को कथात्मक अभिव्यक्ति दी
है। बेटे द्वारा स्थापित टूरिस्ट कंपनी का मालिक बन जाने के बाद सदानंद
बाबू का चेहरा चमक उठता है लेकिन गरीबी और भुखमरी के दिनों में भी होठों
पर खेलती रहने वाली उनकी मुस्कान अब किसी को नजर नहीं आती।
‘सर्व
धर्म समभाव’ का नारा समाज-सेवकों द्वारा समय-समय पर उछाला जाता रहता है;
लेकिन इसमें विश्वास करने और इस पर अमल करने वाले गृहस्थ
की सामाजिक स्थिति लोगों की नजर में क्या रह जाती है? ‘कोठे की औलाद’ के माध्यम से सुभाष नीरव
ने इस तथ्य पर प्रकाश डालने का यत्न किया है। लेकिन इस लघुकथा में एक
नकारात्मक एप्रोच दिखलाई देती है जिससे लेखक को बचना चाहिए।
‘कबाड़’
समाज और परिवार के समकालीन चारित्रिक पतन की कथा प्रस्तुत करती है।
ख़ुद तंगी में रहकर किशन बाबू ने बेटे को तालीम तो ऊँची दिला दी लेकिन
पतनशील सामाजिक चाल-चलन से उसे वे नहीं बचा पाए। इस लघुकथा में किशन बाबू
की खाट को तीसरे कमरे से हटाकर किचन के बराबर वाले स्टोर में स्थानांतरित
करने का कार्य अगर बहू के द्वारा सम्पन्न होता तो यह सामान्य कथानक वाली
लघुकथा होती। समाज और परिवार में आई नैतिक गिरावट के चित्रण के लिए अति
आवश्यक है कि कथाकार पुराने कथानकों की लीक से हटकर चलें और कुछ ऐसे सत्यों का
उद्घाटन करें जो स्थिति का आरोपित नहीं बल्कि यथार्थ चित्रण करने में
सक्षम हों।
‘सहयात्री’
एक द्वंद्व-प्रधान
लघुकथा है। सीट पर बैठे पुरुष के मन में निरंतर झंझावात चलता है जो अन्ततः उसे वही करने को
उकसाता है जो किसी भी सत्पुरुष को वैसी स्थिति में करना चाहिए। ‘भला मानुष’ को
अन्तर्मन की आवाज के रूप में देखना चाहिए। वह नौजवान जो कार-दुर्घटना में
घायल एक युवती को अस्पताल पहुंचाने की सामाजिक जिम्मेदारी निभाता है,
अस्पताल पहुंचने तक सांत्वना देने के बहाने ऑटो में उसकी
पीठ को सहलाने, गाल
थपथपाने और उसका मुँह-माथा चूमने जैसी काम-चेष्टाएं करता रहता है-
“घबराओ नहीं...
हिम्मत रखो...
कुछ नहीं हुआ। अभी पहुँचे जाते हैं अस्पताल। सब ठीक हो जाएगा।” कहते हुए वह लड़की की पीठ सहलाने लगा। कहारती
हुई लड़की को वह रास्तेभर दिलासा देता रहा। कभी उसके गाल थपथपाकर,
कभी सिर, कन्धे, कमर, हाथ-पैर दबाकर और कभी उसका मुँह-माथा चूमकर कहने लगता,
“बस, अभी पहुँचे अस्पताल... हिम्मत रखो! ड्राइवर!
पीछे क्या देखते हो? आगे देखो और थोड़ा तेज चलो।”
फ्रॉयड के अनुसार ‘मनुष्य
मात्र के सभी कर्मों की मूल प्रेरणा व्यक्ति की कामेच्छा है जो उसमें जन्म से ही
उत्पन्न हो जाती है। उसका कहना है कि व्यक्ति का समस्त जीवन इसी कामेच्छा की
तृप्ति का इतिहास होता है। उसने इसे ‘रंजन सिद्धान्त’ (प्लेयर प्रिंसीपिल) नाम दिया है। उसका मानना
है कि सामाजिक
दृष्टि से अशोभनीय इच्छाएँ व्यक्ति के अचेतन में चली जाती हैं और वह उन्हें चेतन में
आने से रोक लेता है। समयानुरूप ये दमित इच्छाएँ समाज सेवा, मानवसेवा अथव प्राणी सेवा जैसा परिष्कृत
रूप धारण करके चेतन में प्रवेश पाने में समर्थ हो जाती हैं।’
सुभाष नीरव की लघुकथा ‘भला मानुष’ के नायक का कृत्य फ्रॉयड के इस सिद्धान्त को पुष्ट
करता है।
‘तिड़के घड़े’ लघुकथा के रूप
में वृद्ध-जीवन का यथार्थ-दर्शन है। इस पूरी कथा को समझने के लिए पाठक का निम्न पंक्तियों
में बद्ध बिम्ब को समझ लेना नितान्त आवश्यक है जो सुभाष नीरव के
ग्राम्य-संस्कारों की देन है तथा जिसे शैल्पिक कलाकारी दिखाते हुए एक अच्छे बॉलर की
तरह उन्होंने कथा के करीब-करीब उस स्थान पर टप्पा खिलाया है जिसे क्रिकेट
की भाषा में ‘फुल लेंथ’ कहा जाता है-
दिनभर शब्दों के अनेक
कंकर-पत्थर बूढ़ा-बूढ़ी के मनों के शान्त और स्थिर पानियों में गिरते
रहते हैं। गुड़ुप-सी आवाज होती है। कुछ देर बेचैनी की लहरें उठती हैं और फिर
शान्त हो जाती हैं।
इन लघुकथाओं में सुभाष
नीरव एक समर्थ कथाकार होने का परिचय देते हुए कथ्य और कथानक दोनों ही स्तरों पर
प्रस्तुति-वैभिन्य का निर्वाह करने में सफल रहे हैं। किसी एक ही विषय अथवा भाव पर
उन्होंने अनेक लघुकथाएं न लिखकर जहाँ अपने अनुभवों की व्यापकता का परिचय दिया
है, वहीं एक वस्तु को
अनेक कोण प्रदान
करने की कथात्मक त्वरा का उन्होंने सफल निर्वाह किया है। अपनी लघुकथा ‘बांझ’ में
उन्होंने बच्चे की अनुशासनहीनता की ओर से अपनी आँखें मूंदे रखकर प्रकारान्तर से उसको प्रश्रय
देने वाली माँ का चित्र प्रस्तुत किया है तो ‘वाह मिट्टी’ में बच्चे को
अनुशासित रखने की जिद में उसकी स्वाभाविक क्रीड़ा-वृत्ति को बाधित कर डालने वाली
अतिरिक्त-सावधानी से युक्त माँ का चित्र प्रस्तुत किया है-
“छी-छी! गंदी मिट्टी! मिट्टी में नहीं खेलते बेटा। देखो, हो गए न गंदे हाथ-पैर! छी!” सोनू बाहर चला जाता तो रमा उसे तुरन्त उठाकर
अन्दर ले आती। प्यार से समझाती-झिड़कती।
यह अतिरिक्त सावधानी
और हर समय की टोका-टाकी स्वतन्त्र रूप से खेलने की बच्चे की भावना का दमन कर देती
है—
फिर, न जाने क्या हुआ कि सोनू ने बाहर जाकर
मिट्टी में खेलना तो क्या उधर झांकना भी बन्द कर दिया। दिनभर वह घर के
अन्दर ही घूमता रहता। कभी इस कमरे में, कभी उस कमरे में। कभी बाहर वाले दरवाजे
की ओर जाता भी तो तुरन्त ही ‘छी
मिट्टी!’ कहता हुआ अन्दर लौट आता। अब न सोनू हँसता था, न किलकारियाँ मारता था। हर समय खामोश और गुमसुम-सा
बना रहता।
इस दमित बच्चे को दादा-दादी
के समीप गांव में भेजकर और मिट्टी में खेलता हुआ दिखाकर सुभाष नीरव बच्चे को उसकी जड़ों और
परम्पराओं से जोड़े रखने का पक्ष पाठकों के समक्ष रखते हैं।
गत सदी के छठे-सातवें
दशक तक भी भारतीय माता-पिता शैशवकाल से ही अपने बच्चों को कुछ नैतिकताएँ सिखाने
की ओर सचेत देखे
जाते थे। ग्राम-संस्कारों वाले माता-पिता को छोड़कर यह चेतनता महानगरीय क्या नगरीय और कस्बाई
संस्कारों के माता-पिता में भी अब नहीं बची है। नैतिक-शिक्षा की दृष्टि से माता-पिता
द्वारा आज का बच्चा पूर्वकाल के बच्चों की तुलना में लगभग पूरी तरह
अनदेखा और अनछुआ है। बच्चे की विध्वंसक गतिविधियों को आज के माता-पिता उसकी
शिशु-सुलभ चपलता और बुद्धिमत्ता
मानते और उल्लसित
होते हैं तथा दूसरों के समक्ष उनका वर्णन बिल्कुल इस अंदाज में करते हैं जैसे कि
उनका लाड़ला अपने समय के शेष सभी शिशुओं में विशिष्ट हो। इस क्रम में वे दूसरों की कोमल भावनाओं
को आहत करने से भी अक्सर नहीं चूकते हैं। ‘बांझ’ में सुभाष नीरव ने इसी
क्लिष्ट मनोवैज्ञानिक विषय को कथ्य बनाया है और सफलतापूर्वक निभाया भी है।
‘इस्तेमाल’ स्थापित एवं वयोवृद्ध लेखकों द्वारा नवोदित एवं
साहित्य-क्षेत्र में स्थापित होने के लिए संघर्षरत लेखकों के भावनात्मक शोषण
की कथा है।
आदमी का दार्शनिक व मनोवैज्ञानिक इतिहास
बताता है कि वह क्षुद्र स्वार्थों का उलझा हुआ गुच्छा है। अनेक स्थितियों में
क्षुद्र स्वार्थों के कारण ही वह धर्म-निरपेक्ष होने का ढोंग रचता है
जबकि यथार्थतः वह संकुचित आस्था और विश्वास से आजन्म मुक्त नहीं हो पाता।
निःसंदेह प्रत्येक क्षुद्र स्वार्थ मानवीय दृष्टि से या तो सकारात्मक होता
है या फिर नकारात्मक, बिल्कुल
वैसे जैसे
यथार्थ सिर्फ कटु नहीं होता, मृदु
भी होता है तथा यथार्थ का चित्रण सिर्फ सकारात्मक प्रभाव ही नहीं उत्पन्न
करता, नकारात्मक प्रभाव भी
उत्पन्न करता
है। सुभाष नीरव की लघुकथा ‘धर्म-विधर्म’ में चित्रित पति समाज की नकारात्मक स्वार्थ
वाली इकाई का प्रतिनिधि है। इसमें यद्यपि पत्नी द्वारा पुत्र का पक्ष लेने हेतु पति के समक्ष
प्रस्तुत तर्कपूर्ण कथन को भी क्षुद्र स्वार्थ की
श्रेणी में ही गिना जा सकता है परन्तु सामाजिक सरोकार की दृष्टि से वह सकारात्मक प्रभाव वाला
है। समकालीन लघुकथाओं का आकलन वस्तुतः इस दृष्टि से भी होना चाहिए कि
उनमें व्यक्त अपने समय के सकारात्मक अथवा नकारात्मक अथवा दोनों प्रकार का
यथार्थ किस स्तर का मानसिक उद्वेलन उत्पन्न कर रहा है।
सुभाष नीरव नौवें दशक के प्रतिभासंपन्न लघुकथाकार हैं।
रूपसिंह चंदेल व हीरालाल नागर के साथ उनकी लघुकथाओं को एक संकलन ‘कथाबिंदु’ सन् 1997 में आया और फिर वर्ष 2012 में एकल लघुकथा संग्रह ‘सफ़र में आदमी’। लेखन, अनुवाद व संपादन आदि लघुकथा की बहुआयामी
सेवा के मद्देनजर
लघुकथा के लिए पूर्णतः समर्पित पंजाब की साहित्यिक संस्था ‘मिन्नी’ द्वारा सन् में उन्हें
प्रतिष्ठित ‘माता शरबती देवी पुरस्कार’ से सम्मानित किया जा चुका है। इस संकलन की
लघुकथाओं को पढ़कर निःसंकोच कहा जा सकता है कि अपने समकालीनों की तुलना में
भले ही उन्होंने कम और कभी-कभार लेखन किया है लेकिन जितना भी किया है वह
अनेक दृष्टि से उल्लेखनीय है। सबसे बड़ी बात यह कि लघुकथा के प्रति समर्पित
भाव उनमें लगातार बना रहा है। उनके इस जुड़ाव के कारण ही पंजाबी का
लघुकथा-संसार हिन्दी क्षेत्र के संपर्क में बहुलता से आना प्रारम्भ हुआ जिसे
सौभाग्य से अन्य अनुवादकों का भी संबल हाथों-हाथ मिला। नीरव लघुकथाएँ
लघुकथा-लेखन के अनेक आयाम प्रस्तुत करती हैं और हिन्दी लघुकथा-साहित्य की सकारात्मक
धारा को पुष्टि प्रदान करती हैं।
अपनी लघुकथाओं के शीर्षकों
में (और कथा-निर्वाह में भी) सुभाष नीरव ने कुछ व्यंजनापरक प्रयोग किए हैं। ‘बरफ़ी’,
‘जानवर’, ‘सेंध’ ‘पानी’ जैसे शीर्षक पाठक की जिज्ञासा को
जगाते हैं और कथा के अंत में उसकी सुप्त-चेतना को चौकस-सा करते हैं। इस चौकस करने को कोई
झकझोरना न समझे और न ही इसे ‘चौंक’ तत्व (?) से जोड़ ले। ‘चौंक’ विट का धर्म है,
कथा का नहीं। कथा का धर्म पाठक में मानवीय
संवेदनशीलता को बरकरार रखना है जोकि मनुष्य होने की इकलौती शर्त है। प्रत्येक कथाकार धरती पर
मनुष्यता को बरकरार रखने के मानवीय दायित्व को निभाता है। समकालीन लघुकथा
लेखक के रूप में सुभाष नीरव भी निःसंदेह इस मुहिम में शामिल है।
(सुभाष
नीरव के पूर्व लघुकथा संग्रह ‘सफ़र में आदमी’ की भूमिका का परिवर्द्धित
रूप)