बलराम अग्रवाल से सुभाष नीरव की बातचीत
आकाशवाणी, नई दिल्ली की
राष्ट्रीय प्रसारण सेवा के अन्तर्गत ‘साहित्य दर्पण’ नामक कार्यक्रम के लिए आज (28 अगस्त, 2018 को) एक बातचीत
रिकॉर्ड हुई। विषय था—‘समकलीन साहित्य में लघुकथा की प्रासगिकता’। यह विषय पत्रकार-कथाकार
मित्र महेश दर्पण ने सम्भवत: गत जुलाई माह में उन्हें सुझाया था।
स्टुडियो की रिकॉर्डिंग डेस्क पर बलराम अग्रवाल और सुभाष नीरव |
लगभग 20
मिनट लम्बी यह बातचीत मेरे और सुभाष नीरव के बीच संपन्न हुई। सवाल सुभाष ने पूछे
और जवाब मैंने दिये। घर से जो ड्राफ्ट मैं तैयार करके ले गया था, उसे यहाँ ज्यों का
त्यों दे रहा हूँ। इसमें लिखे हुए अधिकतर सवाल वही हैं, जो सुभाष ने गत रात यानी
27 अगस्त को ही मुझे 'लीक आउट' कर दिये थे और जिन्हें आज स्टुडिओ में उसने मुझसे पूछा। गत
रात बता दिए जाने से लाभ यह रहा कि मुझे उनके जवाब सोचने का समय मिल गया। यहाँ लिखे जवाब किंचित विस्तार के साथ लगभग वही हैं, जो स्टुडियो में दिये गये। वहाँ समय सीमा थी, यहाँ नहीं है। समयाभाव के कारण ही आदरणीय शंकर पुणतांबेकर
की लघुकथा ‘आम आदमी’ और भाई सतीश राठी की लघुकथा ‘जिस्मों का तिलिस्म’ वहाँ पढ़ी
नहीं जा सकीं; लेकिन मूल ड्राफ्ट में होने के कारण यहाँ उन्हें दे रहा हूँ :
कार्यक्रम की शुरुआत सुभाष ने
मेरा और अपना परिचय देने के साथ की। उसके बाद आया पहला सवाल—
सुभाष नीरव :
जब हम साहित्य की किसी विधा में प्रासंगिकता पर विचार करते हैं तो पहला सवाल यह
बनता है कि किसी रचना का ‘प्रासंगिक’ क्या होती है।
बलराम अग्रवाल
: नीरव, हम जिस विषय—‘समकालीन साहित्य में लघुकथा की प्रासंगिकता’ पर बात करने को
यहाँ बैठे है उसमें चार पद हैं—समकालीनता, साहित्य, लघुकथा और प्रासंगिकता। समकालीन
पर विचार करें तो—वह, जो हमारे समय का हो या हमारे समय में हो, समकालीन कहलाता है।
‘समकालीन’ का यह शब्दकोशीय अर्थ है और अधिअकतर यही प्रचलित भी है। लेकिन, तात्विक
अर्थ इससे कुछ गहरा जाता है। वो यह, कि समकालीनता में मानसिक-समय का भी समावेश है।
इस मानसिक-समय की रचना और निर्धारण हमारा अध्ययन, तत्संबंधी चिंतन और उससे उपजे
सिद्धांत करते हैं। इसलिए एक ही समय में होने वाले अनेक लोग शब्दकोशीय अर्थ के
दायरे में तो आ जाते हैं, सैद्धांतिक परिधियाँ उनकी अलग रहती हैं। अब, साहित्य।
कहा जाता है, कि ‘सहितेन स साहित्य;’ जो सब को साथ लेकर चलता है, वही साहित्य है।
सब का अर्थ आप समझ ही रहे होंगे। इसी बात को बहुत-से लोग ‘य हितेन स साहित्य’ जो
प्राणी मात्र के हित की बात करता है, वह साहित्य है। लघुकथा की बात हम बाद में
करेंगे, पहले प्रासंगिकता पर विचार कर लेते हैं। इस शब्द के शब्दकोशीय अर्थ चाहे
जो हों, निहित अर्थ समकालीनता और साहित्य की तरह ही काफी गहरे ठहरते हैं। इसका
निर्धारण भी मानसिक-जगत की परिपक्वता और समय की अनुकूलता पर निर्भर करता है। आप
1850 से लेकर 1900 तक लिखित साहित्य उठाकर देखिए। आपको 1857 शायद ही कहीं मिले।
1900 के बाद प्रेमचंद की कई कहानियों में सशस्त्र क्रांति के समर्थक पात्र मिलते
हैं, लेकिन अंतत; जोर वे गांधी की विचारधारा को मानने पर ही देते हैं। गोया कि
सशस्त्र क्रांति उनके लिए अप्रासंगिक थी। तो कब, क्या प्रासंगिक होगा और क्या
नहीं, इसका निर्धारण भी कभी-कभी मानसिक-समय ही करता है।
अब ‘लघुकथा’ की बात लें। आठवें
दशक से पहले की लगभग समूची लघुकथा हमें या तो दार्शनिक पृष्ठभूमि की मिलती है, या
धार्मिक पृष्ठभूमि की। आजादी का संघर्ष जिन दिनों प्रासंगिक था, उन दिनों हमारे
लघुकथा साहित्य में बोध और उपदेश के कथानकों की बहुलता क्यों थी/ इसलिए कि
मानसिक-समय में वही प्रासंगिक लग रहे थे। उस लगने ने हमें कायर और पंगु बना रखा
था।
अपने समय के साथ हिंदी लघुकथा
मुख्य रूप से जुड़ना शुरू होती है—सातवें दशक के अन्तिम वर्षों में। यों तो वीणा के
नवंबर 1944 अंक में रामनारायण उपाध्याय की 2 लघुकथाएँ छपी थीं—‘आटा और सीमेंट’ तथा
‘मजदूर और मकान’। यहाँ मैं ‘आटा और सीमेंट’ पढ़ने की अनुमति चाहूँगा।
बात है एक ऐसे छोटे-से गाँव की, जहाँ की
जनसंख्या मुश्किल-से सौ के लगभग होगी; और जहाँ का सिर्फ एक व्यक्ति अपने मकान पर
‘टीन’ छाने की वजह से ‘टीनवाले’ के नाम से आसपास के चार गाँवों में प्रसिद्ध हो
गया था।
अपने उसी गाँव में जब मैं अपने मकान की नींव को
अधिक से अधिक सुदृढ़ बनवाने में सक्षम था, तो पूछा एक मजदूर ने, “क्यूँ बाबू! आखिर
आप ये गारे-मिट्टी की जगह चूना-सीमेंट क्यूँ डलवा रहे हैं इन ईंट-पत्थरों के बीच?”
इस पर कुछ समझाते हुए मैंने बतलाया, “भाई, जिस
मकान की नींव मजबूत होती है, वह मकान मजबूत होता है। इसीलिए, ऊँची इमारतों की नींव
में बोरियों से चूना-सीमेंट मिलवाया जाता है।”
तो, बोला वह उत्सुकता-सी लिये, “अच्छा! तो क्या
भाव मिलता होगा आजकल ये चूना-सीमेंट?”
कहा मैंने, “भाव, यही कोई औसतन चार आने सेर के
करीब! और क्या?”
इस पर क्षण भर को वह रुका। कुछ झिझका। कुछ गंभीर
हुआ, कि दूसरे ही क्षण एक लम्बी-सी साँस डालते हुए कह गया वह, कुछ अजीब
नम्रतायुक्त दृढ़ता-सी लिए, कि, “ओफ् बाबू! आटा और चूना-सीमेंट एक ही भाव! तो आप
नींव में आटा भी डाल सकते हैं; और सीमेंट भी डाल सकते हैं। सवाल तो आटे या सीमेंट
का नहीं, पैसों का है। पैसा आने पर तो उससे कुछ भी खरीदा जा सकता है—आटा भी और
सीमेंट भी। हाँ, फर्क सिर्फ इतना है कि अमीरों के पास जब पैसे अधिक आते हैं तो वे
अपने मकानों की नींव में सीमेंट डलवाते हैं और गरीबों के पास जब कुछ पैसे आते हैं
तो वे अपने शरीर की नींव में आटा डालते हैं। लेकिन, यह भी समय की बलिहारी है कि जब
आप अपने मकानों की नींव में मनचाहा सीमेंट डलवा सकते हैं, तब हमें अपने शरीर की
नींव में पेटभर आटा भी डालने को नहीं मिलता। मकान की नींव पक्की बनती है, लेकिन
आदमी की नींव कच्ची ही रह जाती है। उसकी
ओर किसी का ध्यान नहीं जाता!”
1947 में ही हरिशंकर परसाई की
लघुकथा ‘बातें’ छपी थी।
यहाँ यह स्पष्ट करना जरूरी है
कि ‘आटा और सीमेंट’ समसामयिक दैनिक आवश्यकताओं पर, मजदूर के भोलेपन पर तो प्रकाश
डाल रही है, लेकिन अपने समय की मूल चिंता, देश की आजादी के लिए संघर्ष, पर बात
नहीं कर रही है। देश का धनाढ्य वर्ग अपने मकान की नींव में तो चूना-सीमेंट डालने
की तत्परता दिखा रहा है, देश की नींव को मजबूत करने संबंधी एक भी वाक्य वह नहीं
बोल पा रहा है। उस काल का मजदूर पेटभर आटा न मिल पाने से चिन्तित है, लेकिन नव-धनाढ्य
आत्मुग्ध है। इसीलिए मैं कह रहा हूँ कि प्रासंगिकताएँ केवल समय-सापेक्ष नहीं
होतीं, वे व्यक्ति सापेक्ष भी होती हैं।
भारत में
मार्क्सवाद आर्थिक गैर-बराबरी पर टिका रहा। मार्क्सवादियों ने जातिप्रथा को कभी
अपना निशाना बनाया हो, मेरी जानकारी में नहीं है। अपने-अपने पदों पर वे ठाकुर और बाम्हन ही बने रहे, जातिविहीन नहीं हो पाये। हाँ, हरिशंकर परसाई की एक
प्रसिद्ध लघुकथा ‘जाति’ जरूर सामने आती है, जिसके माध्यम से वे जाति-व्यवस्था के
पोषकों के चेहरों से नकाब हटाते हैं। बहुत छोटी और महत्वपूर्ण रचना है। मैं यहाँ
पढ़ता हूँ :
कारखाना खुला,
कर्मचारियों के लिए बस्ती बन गई।
ठाकुरपुरा से ठाकुर साहब और
ब्राह्मणपुरा से पण्डितजी कारखाने में काम करने लगे और पास-पास के ब्लॉक में रहने
लगे।
ठाकुर साहब का लड़का और
पण्डितजी की लड़की दोनों जवान थे। उनमें पहचान हुई। पहचान इतनी बढ़ी कि वे शादी करने
को तैयार हो गए।
जब प्रस्ताव उठा तो पण्डितजी
ने कहा, “ऐसा कभी हो सकता है? ब्राह्मण की लड़की ठाकुर से शादी करे! जाति चली जाएगी।”
ठाकुर साहब ने भी कहा कि ऐसा
हो नहीं सकता। पर-जाति में शादी करने से हमारी जाति चली जाएगी।
किसी ने उन्हें समझाया कि
लड़के-लड़की बड़े हैं, पढ़े-लिखे हैं,
समझदार हैं। उन्हें शादी कर लेने दो। अगर उनकी शादी नहीं हुई,
तो भी वे चोरी-छिपे मिलेंगे और तब जो उनका सम्बन्ध होगा, वह तो व्यभिचार कहा जाएगा।
इस पर ठाकुर साहब और पण्डितजी
ने कहा, “होने दो! व्यभिचार से जाति
नहीं जाती है; शादी से जाती है।”
हमारे
साहित्य में स्त्री-विमर्श भी समूची स्त्री पर केन्द्रित नहीं रहा। मुझे नहीं
मालूम कि मुस्लिम महिलाओं के लिए स्त्री-विमर्श के दौर में क्या मुद्दे उठाए और
क्या मुद्दे सुलझाए गये?
सुभाष नीरव : जो साहित्य अपने
समय में प्रासंगिक था, वह अब प्रासंगिक क्यों नहीं है, क्यों? प्रासंगिकता समय का
एक स्वभाव है।
बलराम अग्रवाल :
नीरव, जो साहित्य अपने समय में प्रासंगिक था और अब प्रासंगिक नहीं है, उसके पीछे
सबसे बड़ा कारण उसका तात्कालिक मुद्दों से जुड़ा होना रहा होगा। अप्रासंगिक मुद्दे
होते हैं, साहित्य नहीं। साहित्य तो अपना काम कर चुका होता है। वह हमेशा आज को
देखता है—बीते हुए या आने वाले कल को नहीं। तुमने देखा होगा कि जिन रचनाओं ने आने
वाले कल को देखा था, वे अपने स्वयं के समय में नकार दी गयी थीं। खत्म तो मुद्दों
की प्रासंगिकता होती है। तुम कहते हो कि प्रासंगिकता समय का एक स्वभाव है। कई
मुद्दे होते हैं जो जरूरी होते हुए भी प्रासंगिक नहीं बन पाते। कई छ्द्म
प्रासंगिकताएँ ऐसी भी सामने लाई जाती हैं जिन्हें जरूरी मुद्दों से जनता को भटकाने
के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
सुभाष नीरव : प्रासंगिकता को
आप साहित्य की कसौटी मानते हैं या उसका स्वभाव?
बलराम अग्रवाल : प्रासंगिकता
की प्रकृति को समझे बिना यह तय कर पाना लगभग असम्भव है। प्रासंगिकता केवल साहित्य
की ही नहीं, किसी भी चिंतन-प्रक्रिया की कसौटी हो सकती है, लेकिन कसौटी पर खरा
उतरने के लिए आवश्यक है कि वह उसका स्वभाव बन चुकी हो। अप्रासंगिक राग को कोई
क्यों सुनना पसंद करेगा ?
सुभाष नीरव : क्या हिंदी
लघुकथा में विमर्शों की वह स्थितियाँ दिखाई देती हैं जिनके आधार पर लघुकथाओं को
प्रासंगिकता के घेरे में खड़ा कर सकते हैं?
बलराम अग्रवाल : यह
आलोचना के क्षेत्र की बात आपने कही। आलोचना हमेशा रचना के बाद की बात है। अभी तक
मुझे लगता है कि लघुकथा की सैद्धांतिकि में ही हम लोग उलझे हुए हैं, इसकी सम्यक्
समीक्षा और आलोचना की तरफ समुचित ध्यान कम ही दिया गया है।
सुभाष नीरव : एक प्रासंगिकता
ऊपरी तौर पर नजर आती लेकिन मुझे लगता है कि साहित्य की प्रासंगिकता हमारे भीतर भी
बनती है। कुछ लघुकथाएँ आपके जेहन में ऐसी जरूर होंगी, जिनके आधार पर आप यह कह सकने
की स्थिति में हों कि साहित्य में लघुकथा की प्रासंगिकता बनती है, सिद्ध होती है।
बलराम अग्रवाल : अनेक
लघुकथाएँ हैं। रूप देवगुण की ‘जगमगाहट’, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की ‘ऊँचाई’,
अशोक भाटिया की ‘रंग’, मधुदीप की ‘अस्तित्वहीन नहीं’, सतीशराज पुष्करणा की
‘पुरुष’, श्याम सुन्दर अग्रवाल की ‘माँ का कमरा’, तुम्हारी यानी सुभाष नीरव की ‘कमरा’,
रामकुमार घोटड़ की ‘पेंट की सिलाई’, माधव नागदा की ‘सपने में सूराख’, श्याम सुन्दर
दीप्ति की ‘गुब्बारा’, हरिशंकर परसाई की ‘जाति’, प्रताप सिंह सोढ़ी की ‘खामोश
चीखें’, महेश दर्पण की ‘मिट्टी की औलाद’… सैकड़ों क्या हजारों लघुकथाएँ हैं जिनके
नाम यहाँ गिनाए जा सकते हैं और समय मिलने पर जिन्हें लिख-बोलकर प्रस्तुत भी किया
जा सकता है। यहाँ सतीश राठी की एक लघुकथा ‘जिस्मों का तिलिस्म’ सुनाता हूँ :
वे सारे लोग सिर झुकाए खड़े थे। उनके काँधे इस
कदर झुके हुए थे कि पीठ पर कूबड़-सी निकली लग रही थी। दूर से उन्हें देखकर ऐसा लग रहा
था जैसे सिरकटे जिस्म पंक्तिबद्ध खड़े हैं।
मैं उनके नजदीक गया। चकित था
कि ये इतनी लम्बी लाइन लगाकर क्यों खड़े हैं?
‘‘क्या मैं इस लम्बी कतार की
वजह जान सकता हूँ?’’ नजदीक खड़े एक
जिस्म से मैंने प्रश्न किया।
उसने अपना सिर उठाने की एक असफल
कोशिश की। लेकिन मैं यह देखकर और चौंक गया कि उसकी नाक के नीचे बोलने के लिए कोई
स्थान नहीं था।
तभी उसकी पीठ से तकरीबन चिपके
हुए पेट से एक धीमी-सी आवाज आई, ‘‘हमें पेट भरना है और यह राशन की दुकान है।’’
‘‘लेकिन यह दुकान तो बन्द है।
कब खुलेगी यह दुकान?’’ मैंने प्रश्न
किया।
‘‘पिछले कई वर्षों से हम ऐसे
ही खड़े हैं। इसका मालिक हमें कई बार आश्वासन दे गया कि दुकान शीघ्र खुलेगी और सबको भरपेट राशन मिलेगा।’’ आसपास खड़े
जिस्मों से खोखली-सी आवाजें आईं।
‘‘तो तुम लोग...अपने हाथों से
क्यों नहीं खोल लेते यह दुकान?’’ पूछते हुए मेरा ध्यान उनके हाथों की ओर गया तो आँखें आश्चर्य से विस्फारित
हो गईं।
सारे जिस्मों से हाथ गायब थे।
एक और लघुकथा डॉ॰ शंकर
पुणतांबेकर की है, ‘आम आदमी’। मुझे लगता है कि राजनीतिक धूर्तताओं का जब भी जिक्र
आएगा, यह रचना प्रासंगिक बनी रहेगी। सुनिए :
नाव चली जा रही थी।
मँझधार में नाविक ने कहा,
‘‘नाव में बोझ ज्यादा है, कोई एक आदमी कम हो
जाए तो अच्छा, नहीं तो नाव डूब जाएगी।’’
अब कम हो जाए तो कौन कम हो जाए?
कई लोग तो तैरना नहीं जानते थे, जो जानते थे
उनके लिए भी परले पार जाना खेल नहीं था।
नाव में सभी प्रकार के लोग थे—डॉक्टर,
अपफसर, वकील, व्यापारी,
उद्योगपति, पुजारी, नेता
के अलावा आम आदमी भी। डॉक्टर, वकील, व्यापारी
ये सभी चाहते थे कि आम आदमी पानी में कूद जाए। वह तैरकर पार जा सकता है, हम नहीं।
उन्होंने आम आदमी से कूद जाने
को कहा तो उसने मना कर दिया, बोला,
‘‘मैं जब डूबने को हो जाता हूँ तो आपमें से कौन मेरी मदद को दौड़ता
है, जो मैं आपकी बात मानूँ?’’
जब आम आदमी कापफी मनाने के बाद
भी नहीं माना, तो ये लोग नेता के
पास गए, जो इन सबसे अलग एक तरपफ बैठा हुआ था। इन्होंने
सब-कुछ नेता को सुनाने के बाद कहा, ‘‘आम आदमी हमारी बात नहीं
मानेगा, तो हम उसे पकड़कर नदी में पफेंक देंगे।’’
नेता ने कहा,
‘‘नहीं-नहीं, ऐसा करना भूल होगी। आम आदमी के
साथ अन्याय होगा। मैं देखता हूँ उसे। मैं भाषण देता हूँ। तुम लोग भी उसके साथ
सुनो।’’
नेता ने जोशीला भाषण आरम्भ
किया, जिसमें राष्ट्र, देश, इतिहास, परम्परा की गाथा
गाते हुए, देश के लिए बलि चढ़ जाने के आह्वान में हाथ ऊँचा कर
कहा, ‘‘हम मर मिटेंगे, लेकिन अपनी नैया
नहीं डूबने देंगे, नहीं डूबने देंगे, नहीं
डूबने देंगे।’’
सुनकर आम आदमी इतना जोश में
आया कि वह नदी में कूद पड़ा।
मोबाइल : सुभाष नीरव 9810534373
बलराम अग्रवाल 8826499115