बुधवार, 10 अगस्त 2016

लघुकथा में पात्र सर्जना / बलराम अग्रवाल



लघुकथा में पात्र मुख्य है; या उसका कथानक?  यह सवाल मुर्गी और अण्डे के सवाल जैसा ही पेंचीदा है। अनेक विचारकों के विद्वतापूर्ण नज़रियों के माध्यम से इस पर प्रकाश डालने का प्रयास करते हैं—
ड्राइडन के अनुसार—'स्टोरी इज़ द लास्ट पार्ट'। यानी कथा में पात्र ही अधिक महत्वपूर्ण है, इतना महत्वपूर्ण कि कथानक उसके बाद की ही चीज़ है। न सिर्फ ड्राइडन, बल्कि ए॰ बैने के अनुसार भी‘द फाउण्डेशन ऑफ अ गुड फिक्शन इज़ कैरेक्टर क्रिएटिंग एंड नथिंग एल्स।’ यानी अच्छी कथा में एक उल्लेखनीय पात्र की प्रस्तुति से अधिक कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है।
यदि कथा की समीक्षा के शास्त्रीय, या कहें कि परम्परागत ढंग के बारे में सोचें तो पाश्चात्य विद्वानों ने ‘कथा’ के छ: प्रमुख तत्व निर्धारित किए हैं—वस्तु, चरित्र, संवाद, वातावरण, शैली और उद्देश्य। पाश्चात्य विद्वानों से अलग भारतीय आलोचकों ने नाटक के तत्वों का अनुसरण करते हुए 'कथा' के भी तीन ही तत्व माने हैं—वस्तु, नायक और रस। पाश्चात्य और भारतीय,  दोनों अवधारणाओं का मिलान करने पर हम पाते हैं कि लघुकथा में ‘वस्तु’ और ‘चरित्र’, इन दो का होना अति आवश्यक है। तथापि लघुकथा के समीक्षात्मक मापदंडों को निर्धारित करते हुए शास्त्रीय समीक्षा के कुछ विद्वानों के द्वारा  उपर्युक्त छ: तत्वों को  यों गिनाया जाता रहा है— वस्तु, चरित्र, संवाद, वातावरण, शैली और सम्प्रेषणीयता। इनमें से वातावरण और  शैली को यदि गौण मान लिया जाए तो लघुकथा के प्रमुख तत्व वस्तु, संवाद, चरित्र और सम्प्रेषणीयता ही उचित  प्रतीत होते हैं। इससे कोई यह अर्थ न लगाएँ कि लघुकथा में वातावरण अथवा शैली की उपयोगिता को नकारा जा रहा है या उन्हें कम उपयोगी आँका जा रहा है। गौण मानने से मन्तव्य सिर्फ यह है कि ये दो अवयव कथा-विकास में साधन मात्र हैं। यद्यपि इसका यह भी अर्थ नहीं है कि साध्य की प्राप्ति के लिए मात्र एक को ही साधन बनाकर बढ़ा जा सकता है। अगर ऐसा हो सकता होता तो इन चारों के माध्यम से ही साध्य की प्राप्ति क्यों अनिवार्य है ? अनिवार्य है भी या नहीं ?  बेशक, कोई लंगड़ा व्यक्ति समय पड़ने पर बिना बैसाखियों के भी दूरी तय कर सकता है; तथापि यदि दोनों बैसाखियाँ मौजूद हों तो उसे बिना उनके क्यों चलना चाहिए ? अवसर विशेष पर वह एक को बगल में लगाकर और दूसरी को कन्धे पर लादकर चले तो अल्प समय के लिए तो इसे सहा भी जा सकता और प्रशंसनीय भी माना जा सकता है; लेकिन इसे यदि वह अपना ब्रांड ही बना ले तो हास्यास्पद भी कहा जाएगा। इस सब के बावजूद, उसके द्वारा चली जा चुकी दूरी को तय किया जा चुका तो मानना ही पड़ेगा।
         विभिन्न लघुकथाओं के अध्ययन के आधार पर हम यह कह सकने की स्थिति में है कि पात्र के चरित्र-विकास को चार प्रकार से अंकित किया जा सकता है—वर्णन यानी नैरेशन के द्वारा, संकेत के द्वारा, पात्रों के परस्पर वार्तालाप के द्वारा और लघुकथा में घटित घटनाओं के द्वारा। इनमें, मैं कहूँगा कि नैरेशन की अधिकता से जितना बचा जा सके, लघुकथाकार को बचना चाहिए।
लघुकथा में कथा और पात्र एक-दूसरे के पूरक हैं। यदि हम पात्र (के नाम को) को गौण रखते हैं तो या कथानक को ‘मैं’ पात्र के सहारे व्यक्त करना होगा या ‘वह’ पात्र के सहारे। इधर, कुछ विद्वान आलोचक लघुकथा में ‘मैं’ पात्र की प्रस्तुति को लेखक का स्वयं उपस्थित होना घोषित करने लगे हैं। यह सिद्धांत सिरे से ही गलत है और लघुकथा में ‘लेखक की उपस्थिति’ को न समझने जैसा है। कमजोर लेखक पात्र का कोई नाम (मोहन, राम, आरिफ आदि) रखकर भी स्वयं उपस्थित हो जाने की गलती कर सकता है। समकालीन लघुकथा के शुरुआती दौर में मान्य कथाकारों की भी अनेक लघुकथाएँ अनजाने ही 'लेखक की उपस्थिति' दर्ज करती रही हैं। लेकिन ‘मैं’ पात्र की सर्जना के सहारे वस्तु-प्रेषण 'लेखक की उपस्थिति' से अलग स्थिति है। संक्षेप में, कथा लेखन में ‘आत्मकथात्मक’ भी एक शैली है जिसे ‘लेखक के उपस्थित हो जाने’ से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। यदि कथानक को गौण रखते हैं तो हो सकता है कि रचना लघुकथा की मर्यादाओं, सीमाओं, अनुशासनों से बाहर दर्शन, निबंध, कथात्मक गद्य आदि की श्रेणी में चली जाए। वस्तुत: लघुकथा के मुख्य तत्व तीन हैं—(कथा) वस्तु, (कथा) नायक और सम्प्रेषण। ‘पंच लाइन’ कहकर लघुकथा के प्रभाव को उसके अन्त में समेट देना स्पष्टत: सम्प्रेषण नहीं है । सम्प्रेषण किसी एक शब्द या वाक्य में संकुचित नहीं रहता, लघुकथा की पूरी काया में समाया होता है, मानव शरीर में मन की तरह। अकेली ‘पंच लाइन’ में ही लघुकथा की सम्प्रेषणीयता को देखने की वृत्ति लघुकथा-समीक्षा में जिस व्याधि को जन्म दे रही है वह असाध्य हो जाएगी, इसमें सन्देह नहीं है। अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए मैं एक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत करना चाहूँगा—पसीना शारीरिक-श्रम कर रहे व्यक्ति को भी आता है और बैठे-बिठाये व्यक्ति को भी। शारीरिक-श्रम करके आए पसीने की संज्ञा ‘श्रमबिन्दु’ है। इसके आने की एक प्रक्रिया है। लेकिन बैठे-बिठाए आ जाने वाला पसीना 'श्रमबिन्दु' नहीं कहलाता। वह हृदयाघात जैसे जानलेवा रोग का पूर्व-सूचक हो सकता है। लघुकथा चाहे चरित्र-प्रधान हो चाहे घटना-प्रधान; उसमें  सम्प्रेषणीयता के गुण का होना आवश्यक है, उसकी समूची काया में कथापन का होना आवश्यक है। आयुर्वेद में कहा जाता है कि जिस व्यक्ति की पाचन-क्रिया में क्लेश हो, उसे अमृत पिलाकर भी नहीं बचाया जा सकता। इसीप्रकार लघुकथा की समूची काया में अगर सम्प्रेषणीय विश्वसनीयता का गुण नहीं है, वह अगर अपने समय के सरोकार से विलग है तो 'पंच लाइन' अकेली पड़कर उसे 'विट' अथवा 'चुटकुला' बनाकर छोड़ दे सकती है।  कहानी और उपन्यास की समीक्षा के लिए निर्धारित ‘उद्देश्य’ की तुलना में लघुकथा में 'सम्प्रेषण' के गुण का होना कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। दरअसल, कथा-साहित्य में ‘उद्देश्य’ पाश्चात्य मत की देन है जो हिन्दी कहानी पर भी यथा-प्रयास लागू होता रहा है, होता है; परन्तु लघुकथा की परम्परा कहानी और उपन्यास की परम्परा से बहुत पहले की है और आदिकाल से ही ‘सम्प्रेषण’ उसका मूलतत्व रहा है। जहाँ तक ‘उद्देश्य’ की बात है, लघुकथा का मूल उद्देश्य ‘उद्वेलन’ अथवा ‘उद्बोधन’ रहा है। शायद इसी कारण अधिकतर प्राचीन लघुकथाएँ दृष्टान्तों, नीतिकथाओं अथवा बोधकथाओं के रूप में ही प्राप्त होती हैं।
          कथानक और पात्र के चरित्र-विकास का उचित सामन्जस्य ही लघुकथाकार का कौशल है। फिर भी, जहाँ तक लघुकथा की सफलता का सवाल है, कथानक से अधिक चरित्र के उन्नयन पर ध्यान दिया जाना चाहिए। लघुकथा में यथार्थ की सम्पुष्टि के लिए तनिक भी आवश्यक नहीं है कि उसके पात्र समाज के वास्तविक चरित्र हों । आवश्यक यह है कि वे वास्तविक प्रतीत अवश्य हों । इसके लिए लघुकथाकार द्वारा प्रयुक्त पात्रोचित भाषा-प्रयोग कथानकोचित वातावरण की सर्जना और उसका शिल्प-विधानादि प्रमुख भूमिका निभाते हैं । समाज के वास्तविक चरित्र को भी लघुकथाकार उसके वास्तविक जीवन से कहीं अधिक सम्प्रेषक बनाकर प्रस्तुत करता है। यही कौशल उसके और किसी समाचार-लेखक के बीच अन्तर को रेखांकित करता है। परस्पर बातचीत के दौरान, सम्भवत: 1976-77 में, कहानीकार सोमेश्वर ने लघुकथा के अस्तित्व पर उँगली उठाते हुए पूछा था—समाचार और लघुकथा में क्या अन्तर है? मैंने उनकी शंका का समुचित समाधान प्रस्तुत करने की भरसक कोशिश की लेकिन उन्हें उनके दुराग्रह से डिगा नहीं पाया था। मेरी ओर से आज भी, उनकी शंका का यही उत्तर है कि ‘लघुकथा वास्तविक जीवन की सृजनात्मक कला है जबकि समाचार मात्र सूचनात्मक।’ यह बात कथाकार, समीक्षक और आलोचक…सभी की समझ में आनी चाहिए कि लघुकथा का उद्देश्य ‘वस्तु को सम्प्रेषित करना’ होता है और समाचार का उद्देश्य मात्र सूचित करना। ‘समाचार’ तटस्थ चरित्र अपना सकता है लेकिन लघुकथा को न्यायिक मार्ग से गुजरकर अपना प्रभाव और अस्मिता अक्षुण्ण रखने के प्रति सचेत रहना होता है। इस अर्थ में, समाचार-लेखक कतिपय अ-मर्यादित, अशोभनीय रवैया अपना सकता है, लघुकथा-लेखक नहीं।
          ‘चरित्र’ के बारे में अरस्तु ने लिखा है—‘किसी व्यक्ति की रुचि-विरुचि का प्रदर्शन करते हुए जो नैतिक प्रयोजन को व्यक्त करे, वही चरित्र है।’ उनका मानना है कि चरित्र को जीवन के अनुरूप होना चाहिए अर्थात् पात्र को सामाजिक यथार्थ एवं विश्वसनीयता से युक्त होना चाहिए। परन्तु, जैसाकि सभी मानते हैं, लघुकथा की कुछ विशेष मर्यादाएँ हैं इसलिए लघुकथा के पात्र पर जीवन के अनुरूप रहने की अरस्तु की अवधारणा भी अंशत: ही लागू होती है। आम व्यक्ति का जीवन परिवर्तनशील होता है और इस अर्थ में चरित्र भी परिवर्तनशील ही होगा। स्पष्ट है, इस परिवर्तनशीलता को पूरी तरह दिखाना लघुकथा के अनुशासन से अलग का विषय है, इसलिए यह इसकी मर्यादा से परे भी है। ‘पात्र को सामाजिक यथार्थ और विश्वसनीयता से युक्त होना चाहिए’—अरस्तु के इस कथन का प्रयोजन समाचार लेखन से कतई नहीं है। अमृतराय ने भी लिखा है—‘जीवन का मात्र अनुसरण या प्रतिच्छवि प्रस्तुत करना यथार्थवादी साहित्य का लक्ष्य नहीं हो सकता।’  कार्ल मार्क्स और एंगिल्स ने अपनी पुस्तक ‘लिटरेचर एंड आर्ट’ में एक स्थान (पृष्ठ 36) पर लिखा है—‘जो वास्तविक चरित्र हैं, वही यथार्थ चरित्र नहीं होते।’ इस कथन को उद्धृत करने का एकमात्र उद्देश्य ‘वास्तविक’ और ‘यथार्थ’ के बीच अन्तर को स्पष्ट करना है। कथाकार द्वारा प्रत्यारोपित किये जाने वाले उसके सत्य से विहीन चरित्र ‘नैचुरलिस्टिक’ तो हो सकते हैं, यथार्थ नहीं। यथार्थ चित्रण के साथ ही अरस्तु ने विशिष्ट अतिरंजित चरित्रों का भी अनेक स्थानों पर उल्लेख किया है। उन्होंने स्वीकार किया है कि विशिष्ट चरित्र चौंकाते हैं और साहित्य में अतिरंजित चरित्र को उत्पन्न करते हैं। ऐसे चरित्र कलाकार के सत्य के वाहक होते हैं। हम विश्वासपूर्वक यह कहने की स्थिति में हैं कि समकालीन हिन्दी लघुकथा में ऐसे अनेक चरित्र उपलब्ध हैं।
          भारतीय आचार्यों और अरस्तु के मतों में उल्लेखनीय भेद यह है कि अरस्तु मात्र नायक में विशिष्ट गुणों की स्थापना पर जोर देते हैं जबकि भारतीय चिंतक अन्यान्य पात्रों में भी विशिष्ट गुणों की स्थापना के समर्थक हैं। लेकिन लघुकथा क्योंकि एकांतिक कथ्य की रचना है, इसलिए इसमें पात्रों की भीड़ जुटाने का अवकाश नहीं होता है। इसमें प्रमुख पात्र का विशिष्ट गुण भी उसके कृत्य अथवा कथन के द्वारा प्रकट होता है, विस्तार के द्वारा नहीं।
               अब जरा ‘ऑस्पेक्ट ऑफ द नॉवेल’ के लेखक और आधुनिक साहित्य के सुप्रसिद्ध समीक्षक ई एम फोर्स्टर की बातों का भी जायजा लें। उक्त पुस्तक के ‘पीपुल’ नामक अध्याय (पृष्ठ 65) में वे चरित्रों को दो वर्गों  में बाँटते हैं—फ्लैट कैरेक्टर यानी सपाट चरित्र और राउण्ड कैरेक्टर यानी गूढ़ अथवा परिवर्तनशील चरित्र।  सपाट चरित्र एक ही विचार के वाहक, प्रतिक्रियाविहीन और भावशून्य होते हैं तथा इसी कारण वे याद रखे जा सकते हैं। रावी की लघुकथाओं में अक्सर यही पात्र मिलते हैं। गम्भीर एवं अपरिवर्तनशील होने के कारण ये ‘बोर’ भी हो सकते हैं। परिवर्तनशील पात्र पाठक में संवेदना उत्पन्न करने की अधिक क्षमता रखते हैं। ये पाठक को जिज्ञासु भी बनाए रखने में सक्षम होते हैं: क्योंकि ये ‘वचस्य अन्यत् मनस्य अन्यत्’ के समर्थक रहते हैं। ये जैसे दीखते हैं, वैसे होते नहीं हैं इसलिए कथानक पर छाए रह सकते हैं।  फोर्स्टर के अनुसार, ‘परिवर्तनशील पात्रों के भी क्रियाकलाप विश्वसनीय अवश्य होने चाहिए।’ (द टेस्ट ऑफ ए राउंड कैरेक्टर इज़ व्हेदर इट इज़ कैपेबुल ऑफ सरप्राइजिंग इन ए कन्विंसिंग मैनर; पृष्ठ 75)
          वाल्टर एलेन के अनुसार, ‘कथा के पात्र स्वयं अपनी संवेदनाओं के सहारे नहीं चलते। वे कथाकार की संवेदनाओं के वाहक बनकर सामान्य चरित्रों से भिन्न प्रतिक्रियाएँ करते रहते है।’ लेकिन इस कथन का यह अर्थ कदापि नहीं लगा लेना चाहिए कि उनके बहाने कथाकार अपने मन्तव्यों को पाठक पर थोपने के लिए उन्मुक्त रहता है।

(सन्1986-88 के बीच लिखित लेख का सम्पादित रूप। 1989 से 1991 के बीच 'उत्तर प्रदेश' मासिक अथवा 'अवध पुष्पांजलि' के किसी अंक में प्रकाशित। प्रकाशन की जानकारी सुनिश्चित नहीं है।)

बुधवार, 3 अगस्त 2016

लघुकथा:सृजन और विमर्श / बलराम अग्रवाल

यह लेख 6-11-2014 को लिखा गया था। इससे पहले अंशत: इसकी कुछ बातें मैंने अक्टूबर 2014 में पंजाब में सम्पन्न 'अन्तर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलन' में अपने वक्तव्य में कही थीं। तब भाई जगदीश कुलरियाँ ने उक्त वक्तव्य की प्रति माँगी थी; लेकिन उसे मैं किसी अन्य को सौंप चुका था। मैंने कुलरियाँ जी से वादा किया था कि जाते ही अपने वक्तव्य को मैं लिखित रूप में पूरा करके भेज दूँगा। मैंने वादे के अनुसार लिख तो दिया लेकिन इसकी फाइल कहाँ 'सेव' की है, यह भूल गया। आज अचानक यह फाइल हाथ लग गयी है तो इसे आप सबके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसे लिखवाने का मुख्य श्रेय तो भाश्याम सुन्दर अग्रवाल जी को है, जिन्होंने सम्मेलन में पढ़ने के लिए किसी एक विषय पर पर्चा लिख लेने को कहा था। लेकिन उस समय मैं केवल कुछ बिंदु ही तय कर पाया था और उन्हीं पर मंच से अपनी बात कर ी। बाद में उन बिंदुओं पर विस्तार से बात करने को प्रेरित करने का श्रेय तीन व्यक्तियों को है--डॉ॰ उमेश महादोषी, मधुदीप और जगदीश कुलरियाँ। इन का आभार व्यक्त करते हुए………बलराम अग्रवाल।

दुनिया का, यहाँ तक कि आपसी सम्बन्धों का भी, बाजार में बदलते जाना आपको डराता है। उस पर आप एक बेहतरीन लघुकथा लिखते हैं। यह सब तो किसी हद तक समझ में आता है; लेकिन अपनी रचनाओं को लेकर आपका बाजारू हो उठना बाजार से आदमी और रिश्तों को बचाने की आपकी अकुलाहट को खोखला साबित कर देता है। यह किसी एक लेखक का चरित्र नहीं है बल्कि प्रकारान्तर से हम सभी उस घेरे में कैद हैं।
यह नि:संदेह शोध का विषय बनता है कि हिन्दी के कुछ स्वनामधन्य प्राध्यापक अपनी आलोचकीय मेधा को एकाध पुस्तक अथवा एकाध रचनाकार पर ही क्यों टिकाए हुए हैं? पुस्तक और रचनाकार भी वो जिन्हें उन्हें कक्षा में पढ़ाना पड़ता है। हम लघुकथा की बात करते हैं। यह इस विधा की हार है कि गत लगभग पचास वर्षों में नए-पुराने किसी आलोचक ने इसको अपनी कलम से परखना जरूरी नहीं समझा; या फिर आलोचक की? इससे क्या यह सिद्ध नहीं हो जाता है कि वे आलोचना के बने-बनाए फ्रेम में ही चूहा-दौड़ करते रहने के अभ्यस्त हैं, अपनी आलोचकीय छवि के लिए नया फ्रेम उन्हें असुरक्षित लगता है। कम से कम लघुकथा के मामले में तो यह दावे के साथ कहा ही जा सकता है कि हिन्दी कथा का आलोचक नई पगडंडियाँ रचने का ‘रिस्क’ लेने का साहस नहीं जुटा पाता है। और आलोचना के मामले में यही वह बिंदु है जहाँ यह तय हो जाता है कि अनेक तरह की आकर्षक शब्दावली का प्रयोग करने के बावजूद आलोचक भी कमोबेश अपनी मार्केटिंग की ही चिंता से घिरा है, स्वतंत्र नहीं है। करीब-करीब उसी घेरे में कैद है जिसमें हम कुछ लेखकों को भी खड़ा देख रहे हैं।
जो लेखक और आलोचक सामाजिक शुचिता और संस्कृति के संरक्षण को तरजीह देने की तरफदारी करते हैं, प्रगतिशीलता, आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता की रेस में शामिल लेखक और आलोचक उन पर दकियानूसी विचारों का पोषक होने का आक्षेप लगाकर उनकी चिंता को दरकिनार करते दिखाई देते हैं।
पिछली सदी के सातवें-आठवें दशक की लघु्कथाएँ मुख्यत: बेरोजगारी, चौतरफा गरीबी, राजनीतिक दोमुँहेपन और सम्बन्धों में आते बिखराव की चिंताओं से लैस थीं। क्या आज ये सब मुद्दे खत्म हो गये हैं? नहीं। तो आज की लघुकथा में ये क्यों नहीं हैं? और,  हैं तो क्यों हैं? बावजूद इसके कि आज भी हमारा समाज इन पुरातन चिंताओं से मुक्त नहीं हो पाया है, मैं अपने आप को इन्हीं समस्याओं पर लघुकथा के चकराते रहने से पूरी तरह सहमत नहीं पाता हूँ। आज की लघुकथा अगर इन मुद्दों से आगे की, कुछ नवीन चिंताओं के आ जुड़ने,  घनीभूत हो उठने और यदा-कदा पुरानी चिन्ताओं के भी परिवर्तित व परिवर्द्धित रूप में आ जाने की पैरवी कर रही है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए।
‘समकालीन भारतीय साहित्य’ के दिसम्बर 2013 विशेषांक में सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ॰ विश्वनाथ त्रिपाठी का एक साक्षात्कार प्रकाशित हुआ है। उसमें एक स्थान पर वे कहते हैं—“…कहानी के केन्द्र में कोई एक बात ही होनी चाहिए। …कथानक में बिखराव से कहानी की कला भी नष्ट होती है।” अज्ञेय और राजेन्द्र यादव के बाद डॉ॰ त्रिपाठी तीसरे व्यक्ति हैं जिन्होंने ‘कहानी के केन्द्र में कोई एक बात’ होने की बात कही है।  हमारा मानना है कि डॉ॰ त्रिपाठी का यह आकलन बहुत लेट, कहानी की सूरत बिगड़ जाना शुरू होने के 45-50 साल बाद आया है। कहानी की दुर्दशा को देखकर सही समय पर यह आकलन सबसे पहले अज्ञेय ने दिया था। ‘हिन्दी चेतना’ के कथा-आलोचना विशेषांक, अक्टूबर-दिसम्बर 2014 में लगभग इसी बात को असगर वजाहत ने यों कहा है—“इधर हिन्दी में कहानी किस्म के उपन्यास आने लगे हैं। लगता है, बेचारी कहानी को पीट-पीटकर उपन्यास बना दिया गया है.…”  असगर साहब ने यह बात उपन्यास के सन्दर्भ में कही है; जब कि एकदम यही बात सातवें-आठवें दशक में छप रही कहानी पर भी लगभग ज्यों की त्यों लागू होती थी। साफ नजर आता था कि  केवल लम्बाई बढ़ाने की नीयत से छोटी-सी एक बात को जबरन खींच-तानकर कहानी बनाने का करिश्मा किया गया है। कथा-प्रस्तुति के साथ इस जबरन खींच-तान के विरोध का नाम ही समकालीन लघुकथा है।
अपने दौर की कहानी के बिखराव से खुद को बचाते हुए आठवें दशक के कथाकारों ने विषय की एकतानता को केन्द्र में रखकर लघुकथा लिखना शुरू कर दिया था। कथानक के बिखराव को रोकते हुए उन्होंने कहानी की कला को नष्ट होने से बचाने की पुरजोर कोशिश की। हाँ, इतना जरूर हुआ कि लेकिन पारम्परिक आलोचकीय दृष्टि उस मुहिम से खुद को जोड़ नहीं पाई। वस्तु के चुनाव और कथा-प्रस्तुति में अपने समय की चिन्ताओं से युक्त लघुकथाओं की पड़ताल आज बहुत जरूरी है। आज स्थिति यह है कि लघुकथा की सम्यक पड़ताल के बिना कहानी की पड़ताल लगभग अधूरी है।
आठवें दशक से पहले की लघुकथा का स्वर मनुष्य को मुख्यत: उसका नैतिक चरित्र  सुधारने का उपदेश देने वाला होता था।  आठवें दशक से लघुकथा के उपदेशपरक चरित्र में बदलाव आना लक्षित होता है। बेशक, पहले भी उसके केन्द्र में मनुष्य ही था; लेकिन सम्प्रेषण के उसके माध्यम मानवेतर भी थे गोया कि उनके माध्यम से कही बात मनुष्य की समझ में आसानी से आएगी। लघुकथा का वह कलेवर पंचतंत्र और मोपासां से प्रभावित था, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता। समकालीन लघुकथा ने पात्रों के मानवेतर होने से मुक्ति पाकर मनुष्य को उसकी समग्रता में अपनाना और चित्रित करना शुरू किया। उसने मनुष्य से मनुष्य की बात सीधे मनुष्य के माध्यम से कहने के समकालीन कहानी के तेवर से खुद को जोड़ना शुरू किया। इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि समकालीन लघुकथा ने मानवेतर पात्रों को पूरी तरह खारिज दिया है। हाँ, इसका यह मतलब अवश्य है कि पूर्वकालीन लघुकथा में जो पात्र प्रमुखत: प्रयुक्त होते आये थे, वे अब गौण हो गये हैं तथा मनुष्य और उसका मानसिक धरातल ही अब प्रमुख पात्र बन गए हैं। ‘कथानक’ गौण और  ‘वस्तु’ प्रमुख हो गयी है। ‘चरित्र-चित्रण’ गौण और ‘वस्तु’ के अनुकूल पात्र-संयोजन प्रमुख हो गया है। ‘कथोपकथन’ ‘कथन-अनुकथन’ में ढलकर ‘वस्तु-प्रेषण’ में अधिक क्षिप्र हो गया है। ‘देशकाल और वातावरण’ बाहरी नेरेशन का अपना चोला त्यागकर बिम्ब और प्रतीक के रूप में स्वयं एक पात्र की तरह सक्रिय भूमिका निभाने लगे हैं। और अन्त में, ‘प्रभाव’—लघुकथा में यह कहानी की तरह अलग से कोई अवयव न होकर उसकी समूची देह में पसर गया है। प्रभाव की दृष्टि से अपनी समग्रता में समकालीन लघुकथा बहुआयामी कथा रचना है।
लिखित रूप में अभिव्यक्त होने के लिए आम बोलचाल में ‘लेखन’ शब्द का प्रयोग होता है। गोस्वामी तुलसीदास ने कृति को ‘वर्णानाम् अर्थसंघानाम्’ वर्णों का ऐसा समूह जो अर्थवान् हो, कहा है। ‘लिखने’ के अनेक सोपान हैं। इनमें पहला सोपान बेशक ‘लिखना’ ही है; लेकिन लघुकथा जैसी लघुकाय कथा विधा के साथ हो यह रहा है कि अधिकतर लोग नोट्स अंकित कर लेने को, विचार अथवा घटना के प्राथमिक स्तर को ‘लेखन’ समझ लेते हैं और अपने आप को लेखक होने की श्रेणी में खड़ा कर लेते हैं। वर्णों का समूह यानी शब्द और वाक्य जिन सोपानों से गुजरकर ‘रचना’ बनता है उन सोपानों से अक्सर हम गुजरना ही नहीं चाहते या कहें कि बहुत-से लेखक लघुकथा को उतना श्रम करने लायक रचना-विधा मानकर चलते ही नहीं हैं। ‘हिन्दी चेतना’ के कथा-आलोचना विशेषांक (अक्टूबर-दिसम्बर 2014) में ‘कथावृत्त:सर्जना और सम्प्रेषण की परिधि में’ शीर्षक अपने आलेख की शुरुआत कथाकार राजी सेठ ने यों की है—
मेरे पास एक घटना है—निहायत सच्ची और आँखों देखी। क्या उसकी रचना बन सकती है? हो सकता है कुछ न कुछ बन जाए, पर कहानी नहीं बन सकती है। हालाँकि कहानी को मूलरूप से किसी घटना का ब्यौरा ही माना जाता है। यह सुनना अटपटा लग सकता है कि केन्द्र में किसी घटना का एकदम सच होना कहानी नहीं बन सकता। कहानी को अपना सच स्वयं अर्जि करना पड़ता है। स्वयं ढूँढ़ना पड़ता है और अपनी सृजनशक्ति से उसमें ऐसी अर्थवत्ता भरनी पड़ती है कि वह सच भी लगे और विश्वसनीय भी। कहानी में विश्वसनीयता घटना के सच होने मात्र से पैदा नहीं होती; उसे भी कथा-रचना में संरचना के एक जरूरी तत्व की तरह कमाना पड़ता है। वह जीवन के प्रति हमारी व्यावहारिक समझ और उस क्षेत्र में हमारे संवेदनात्मक विस्तार से हाथ लगती है। सच यह है कि घटना या घटनाओं का समूह रचना नहीं है; बल्कि घटना के सृजनात्मक इस्तेमाल का नाम रचना है जिसे हम रचकर ही अर्जित कर सकते हैं।
राजी सेठ का यह वक्तव्य लघुकथा पर भी ज्यों का त्यों लागू होता है। अनेक वरिष्ठ लघुकथा-लेखक नयी पीढ़ी के लेखकों को यह कहकर भ्रमित करते रहे हैं कि ‘लघुकथा’ लिखने के लिए घटनाएँ अखबार के पन्नों पर बिखरी पड़ी हैं। ऐसे वक्तव्य को पढ़ने के बाद उनकी बुद्धि पर आने वाले तरस का अन्दाजा आसानी से लगाया जा सकता है। क्या वे नहीं जानते कि अखबार के पन्नों तक पहुँचने से बहुत पहले समूची घटनाएँ गली-मुहल्ले में, सड़कों-बाजारों और प्लेटफार्मों से लेकर रेल के डिब्बों तक में  बिखरी पड़ी होती हैं। अखबार या टीवी समाचार का हिस्सा वे बाद में बनती हैं। तो लघुकथा-लेखन में आने वाली नई पीढ़ी को हम उसके सांवेदनिक विस्तार से हटाकर अखबार के पन्नों तक संकुचित क्यों कर डालना चाहते हैं?
अनेक आलोचकों ने लघुकथा को ‘कौंध’ कहा है। हमारा मानना है कि संसार की हर रचना ‘कौंध’ का रचनात्मक विस्तार है—कहानी भी, उपन्यास भी, महाकाव्य भी। ‘कौंध’ प्रेम के, घृणा के, तिरस्कार के, लालच के, आकांक्षा के…गरज यह कि मानव स्वभाव के किसी भी बिंदु पर उद्भूत होकर विस्तार पाने की क्षमता से सम्पन्न होती है, बशर्ते कि समर्थ मस्तिष्क और सधे हुए हाथ उसे मिलें। नकारात्मक हो या सकारात्मक, ‘कौंध’ रचनाशीलता का प्रस्थान बिंदु है। घृणा के शिखर पर पहुँचकर यह मानसिक विकृत बन जाती है। विध्वंसात्मक रूप लेकर नागासाकी पर गिरती है,  वर्ल्ड ट्रेड सेंटर’ से टकराती है, तेजाब बनकर किसी खूबसूरत चेहरे को झुलसा डालती है। तिब्बत की गुलामी और बंगलादेश की आजादी कौंध का ही परिणाम हैं। कौंध न होती तो बैरिस्टर ही रह जाते करमचंद, महात्मा गाँधी न बन पाते। इसलिए ‘कौंध’ को काया की लघुता से न जोड़ा जाकर उसकी तीव्रता से जोड़ा जाना चाहिए, रचनाशीलता के रिक्टर पैमाने पर। किस केन्द्र से उठकर कौंध कहाँ तक की धरती को उद्वेलित कर डालेगी, कोई नहीं कह सकता। लघुकथाकारों को इस बारे में किंचित आत्म-सर्वेक्षण की भी आवश्यकता है। इस बारे में एक घटना को यहाँ उद्धृत करना आवश्यक लग रहा है—
विंस्टन चर्चिल एक बार अपने देश के एक पागलखाने का निरीक्षण करने गये। उन्होंने देखा कि एक पागल अपनी बायीं हथेली पर रखे काल्पनिक कागज पर दाएँ हाथ की उँगलियों में काल्पनिक कलम थामे कुछ लिख रहा है। उसके नजदीक जाकर उन्होंने पूछा, “क्या कर रहे हो?”
यह सवाल सुनते ही पागल ने कहा, “अन्धे हो? दिख नहीं रहा कि खत लिख रहा हूँ।”
उसकी इस मासूमियत पर चर्चिल मुस्कराए और पूछा, “किसके लिए लिख रहे हो?”
बोला, “खुद के लिए लिख रहा हूँ।”
“अच्छा! जरा बताओ कि खत में क्या लिखा है?”
इस पर पागल नाराजगी के साथ उनकी ओर देखने लगा। कुछ देर बाद बोला, “अजीब अहमक हो। भई, यह खत अभी लिखा जा रहा है। पूरा लिखा जाने के बाद इसे डाक में डाला जाएगा। उसके बाद यह मुझ तक पहुँचेगा। मैं इसे पढ़ूँगा। तभी पता चलेगा न कि इसमें क्या लिखा है। जो खत अभी मुझे मिला ही नहीं है, मैं कैसे बता सकता हूँ कि उसमें क्या लिखा है?”
वैसे तो हर रचनाकार के लिए यह एक मानक उद्बोधन है; लेकिन यह लेख क्योंकि लघुकथा के सन्दर्भ में है, इसलिए लघुकथाकारों से यह कहना मुझे बहुत उचित महसूस होता है कि वे इस पागलपन को अपने चरित्र में उतारने की कोशिश अवश्य करें। लिखी जाने के बाद लघुकथा को किसी पत्र-पत्रिका के संपादक के भेजने से पहले वे खुद को भेजने के लिए डाक में डालें। मिलने पर उसे पढ़ें और देखें कि उसमें क्या लिखा है? तात्पर्य यह कि अपनी रचना के पहले पाठक वे स्वयं बने और उसके आकलनकर्ता भी। स्वयं सन्तुष्ट होने के बाद रचना को आगे भेजें।
डॉ॰  उमेश महादोषी का कहना है कि “लघुकथा की स्थापना का चरण पूरी तरह संपन्न हो चुका है और अब उसे नई विधा की प्रशिक्षण कक्षा से बाहर लाना चाहिए।” लघुकथा सर्जना से जुड़े विमर्श में कई मुद्दों पर  बात होती रही है। शुरू-शुरू में कहा जाता था कि देश में कागज के संकट ने लिखी जाने वाली रचना का आकार सीमित रखने का दबाव लेखक पर बनाया है। उसके बाद पढ़ने के लिए समय की कमी का रोना भी रोया गया। जिंदगी की भागमभाग और पता नहीं क्या-क्या। ये सारे आरोप और बहसें भी समय के साथ निरर्थक सिद्ध होकर ठंडी होती चली गईं। विमर्श के मामले में मैं डॉ॰ उमेश महादोषी की एक चिंता को यहाँ उद्धृत करना चाहूँगा। वह कहते हैं—“इस पर विधागत विमर्श पाँच दशक पूर्व जहाँ से शुरू हुआ था, सामान्यतः वहीं पर खड़ा दिखाई देता है. विमर्श के वही मुद्दे, वही पुरानी बातें हैं, जिन्हें लगातार दोहराया जा रहा है। चूंकि इन पर आवश्यकतानुरूप पर्याप्त बातें हो चुकी हैं तो अब इनकी पुनरावृत्ति मन को गहराई तक कचोटती हैं।” लघुकथा सृजन को उसके प्रारम्भ से रेखांकित करने और साहित्य के आलोचकों द्वारा उसकी पड़ताल कराके श्रृंखलाबद्ध प्रस्तुत करने का महत्त्वपूर्ण कार्य लघुकथाकार मधुदीप ने अपने हाथ में लिया है।  इस श्रृंखला की खूबी यह है कि आम तौर पर इसमें उन्हीं लेखकों को शामिल किया गया है जिनके पास यथेष्ठ संख्या में प्रभावपूर्ण लघुकथाएँ हैं और जो किसी न किसी रूप में लघुकथा आंदोलन का हिस्सा रहे हैं। श्रृंखला के छठे खण्ड को लघुकथाकार डॉ॰ अशोक भाटिया ने संपादित किया है। इस खण्ड का मेरी नजर में विशेष महत्त्व है क्योंकि इसमें संकलित कथाकार लघुकथा की ‘नींव के नायकों’ में से कुछ हैं। इनके नाम हैं—अयोध्या प्रसाद गोयलीय, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, जगदीशचन्द्र मिश्र प्रभाकर, प्रेमचंद, विष्णु प्रभाकर तथा हरिशंकर परसाई। इसी खण्ड में स्व॰ रमेश बतरा से, विष्णु प्रभाकर से और हरिशंकर परसाई से लघुकथा विधा पर केन्द्रित बातचीत भी दी हैं। श्रृंखला का भले ही यह छठा खण्ड है, लेकिन लघुकथा साहित्य के अध्येताओं को यह बताने-समझाने का यह आधार खण्ड है कि विशेषत: स्वाधीनता-पूर्व लघुकथा लेखन की विषयवस्तु क्या थी? तथा स्वाधीनता के बाद आम आदमी की उम्मीदें राजनेताओं, समाजसेवियों, धर्मगुरुओं और संस्कृतिकर्मियों के द्वारा कहाँ-कहाँ ध्वस्त हुई। इस श्रृंखला में अब तक शामिल लघुकथाकारों के नाम हैं—अशोक वर्मा, अशोक भाटिया, अशोक लव, अयोध्या प्रसाद गोयलीय, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, कमल चोपड़ा, कुमार नरेन्द्र, चित्रा मुद्गल, जगदीश कश्यप, जगदीशचन्द्र मिश्र, दीपक मशाल, प्रेमचंद, पृथ्वीराज अरोड़ा, बलराम, बलराम अग्रवाल, भगीरथ, मधुकांत, मधुदीप, माधव नागदा, मोहन राजेश, युगल, राजकुमार गौतम, रमेश बतरा, रूप देवगुण, विक्रम सोनी, विष्णु प्रभाकर, श्याम सुन्दर अग्रवाल, सुभाष नीरव, सतीश दुबे, सूर्यकांत नागर, सुकेश साहनी, सतीशराज पुष्करणा, हरनाम शर्मा और हरिशंकर परसाई।
जहाँ तक विमर्श का सवाल है, इस श्रृंखला में लघुकथा की पड़ताल के लिए हिन्दी साहित्य के अनेक ऐसे आलोचकों को जोड़ा गया है जिन्होंने लघुकथा को अब से पहले इस दृष्टि से नहीं पढ़ा था कि उन्हें कभी इस विधा के आलोचना-कर्म से भी जुड़ना पड़ेगा। इनमें सबसे पहला नाम तो डॉ॰ कमल किशोर गोयनका का ही आता है, जिन्होंने सन् 1988 में ‘पड़ाव और पड़ताल’ के पहले खण्ड में लघुकथा आलोचना का गुरुतर दायित्व सँभाला था । उनके बाद दूसरे खण्ड में प्रो॰ मृत्युंजय उपाध्याय, प्रो॰ ॠषभदेव शर्मा, प्रो॰ शैलेन्द्रकुमार शर्मा, डॉ॰ पुरुषोत्तम दुबे, डॉ॰ उमेश महादोषी, डॉ॰ भारतेन्दु मिश्र, तीसरे खण्ड में डॉ॰ जितेन्द्र जीतू, चौथे खण्ड में डॉ॰ मलय पानेरी, छठे खण्ड में डॉ॰ बलवेन्द्र सिंह, डॉ॰ ओमप्रकाश करुणेश और डॉ॰ राजेन्द्र टोकी ऐसे आलोचक हैं जिन्होंने अन्य विधाओं की कृतियों पर तो आलोचनात्मक कलम खूब चलाई थी, लेकिन इनमें से कई ने लघुकथा को शायद पहली ही बार अपनी आलोचकीय दृष्टि से देखा-परखा हो। साथ ही, इनमें कुछ ऐसे आलोचक भी शामिल हैं, जो एक रचनाकार के तौर पर तो पहले से ही काफी जाने-पहचाने जाते रहे हैं, लेकिन आलोचना पर उन्होंने कम ही काम किया है। कुल मिलाकर यह श्रृंखला समकालीन लघुकथा पर नए तरीके से आलोचना-दृष्टि डालने की शुरुआत करने वाली सिद्ध हो सकती है। मैं यह नहीं कहता कि इस श्रृंखला में कुछ कमजोर कथाकार या कुछ कमजोर लघुकथाएँ या कुछ कमजोर आलोचनाएँ शामिल नहीं होंगी; लेकिन यह जरूर कह सकता हूँ कि यह श्रृंखला लघुकथा-लेखन और आलोचन की अब तक की तस्वीर को लगभग साफ दिखाने वाला एक आईना जरूर सिद्ध होगी।

अंत में, मैं यह बात अवश्य कहना चाहूँगा कि बदल चुके परिवेश में लघुकथा घटना-लेखन मात्र नहीं रह गई है। आज यह उलट स्थितियों का उलथा चित्रण मात्र भी नहीं है। अब यह पाठक के संवेदन-तंतुओं को झनझना देने की शक्ति से लैस है। इसलिए आलोचक बंधु भी इसे इसी त्वरा के साथ देखने-परखने पर ध्यान देना शुरू करें। लघुकथा की विधागत स्थिति को बताने के लिए जो जुमले अब तक कहे जा चुके हैं, उन्हें दोहराना अब बंद कर दें और स्थापना चरण के बाद लघुकथा के स्वरूप की स्थिति को व्यक्त करने की ओर ध्यान दें।