बुधवार, 29 नवंबर 2023

मन को मथता लघुकथा संग्रह

‘भीतर कोई बंद है’ कवयित्री-कथाकार डॉ॰ क्षमा सिसोदिया की लघुकथाओं का दूसरा संग्रह है। इसमें उनकी 67 लघुकथाएँ संग्रहीत हैं। इससे पूर्व उनकी लघुकथाओं का एक अन्य संग्रह ‘कथा सीपिका’ नाम से प्रकाशित हो चुका है। लघुकथा के अलावा ‘केवल तुम्हारे लिए’ नाम से काव्य संग्रह,  'इन्द्रधनुषीय' नाम से हाइकु संग्रह और 'जगमग बाल वाटिका' नाम से उनकी बाल कविताओं का भी एक संग्रह पूर्व में प्रकाशित हो चुका है।
जन संदेश टाइम्स, 29-11-2023, पृष्ठ 2/साहित्य संपादक संतोष सुपेकर के सौजन्य से

इस संग्रह में लघुकथाओं की प्रथम लघुकथा ‘मधुर मंगल मिलन’ है और अन्तिम ‘मृगतृष्णा से आजादी’; और इन दोनों के बीच 65 अन्य लघुकथाएँ गुनगुनी धूप का आनन्द लेती-सी इस संग्रह के विस्तृत तट पर विद्यमान हैं। ‘मधुर मंगल मिलन’ और ‘मृगतृष्णा से आजादी’, दोनों ही रचनाओं में काव्य तत्त्व की प्रमुखता है, इसीलिए इन रचनाओं को श्रेष्ठ गद्य-काव्य की श्रेणी में रखा जा सकता है। संग्रह की ‘कपाल की महिमा’, ‘बरसाती मेंढक’, ‘प्रेम की तलाश’, ‘कटी हुई पतंग’, ‘देखो वो चला गया’ को भी गद्य-काव्य ही कहा जा सकता है।

मक़तबे-इश्क का दस्तूर निराला देखा, उसको छुट्टी न मिली जिसको सबक याद हुआ—यह कथ्य है उनकी लघुकथा ‘प्रीत की पगडंडी’ का।

लेखिका के पास बेहतरीन व्यंजनात्मक भाषा है जिसका प्रयोग संग्रह की लघुकथाओं में सहज ही हुआ है। उदाहरणार्थ, ‘एक साहित्यिक सभा अपने उत्पादों का उत्सव मना रही थी’ (सौ सुनार की एक लोहार की), ‘आज की कानून व्यवस्था के ढीले पड़े नट-बोल्ट को आखिर कौन-से गैराज में टाइट करवाएँ…?’ (कवरेज), जोश के साथ बिस्तर से उठकर अपने कपड़े ठीक करते हुए पहले हथेलियों की ओर देखा और फिर हाथ से दीवार पर एक जोरदार चोट की। (न्याय की ओट में), ‘मैं फटी ओढ़नी में भी खुद को ढँकी रखी और तू रेशमी लिबास पहने हुए भी खुद को उघाड़ती रही।’ (परिभाषा), ‘जिन्हें अन्दर जगह नहीं मिली, वो बाहर से कान लम्बे करके सब सुन लेना चाहते थे।’  ‘जैसे वह अपने करंट से अपराधी को भस्म कर देना चाहती हो।’, ‘प्रश्न की बौछार से उसके वस्त्र ही तार-तार कर देगा।’ (नकाबपोश)।           

‘आपकी खूबसूरत जिन्दगी का बँटवारा वक्त कब कर देगा, वक्त कभी भी बताता नहीं है।’ (बँटवारा), ‘आगे बढ़ने की सोच रखने वाली होनहार बेटियाँ मुसीबतों से तो खूब जद्दोजहद कर लेती हैं, पर अपनी ही सुरक्षा के मोर्चे पर आकर हार जाती हैं।’, ‘आने वाला समय बेटियों के हौसलों से ही बदलेगा।’, ‘हत्यारा तो केवल शरीर नष्ट करता है, जबकि दुष्कर्मी आत्मा को हिला देता है।’, ‘मेरी बेटी भी अब चुप्पी को नहीं, चुनौती को चुनेगी।’  (न्याय की ओट में),  ‘नशा बहुत खराब चीज है, चाहे वह रूप का हो, दौलत का हो, शराब का हो, रुतबे का हो या कुर्सी का हो।’ (नशा),  ‘ईश्वर कभी किसी के साथ अन्याय नहीं करता है।’ (चलित स्वाभिमान), ‘आजकल रईसी, पद-प्रतिष्ठा खानदानी नहीं, बल्कि ऊँची कुर्सियों से पैदा होती है।’ (परिभाषा), ‘हमारी बच्चियों में बहुत शक्ति होती है, बस उसे वे पहचान नहीं पाती हैं।’ (सशक्त जागरण अभियान) जैसे सूक्ति-वाक्य भी कुछेक लघुकथाओं में ध्यान आकर्षित करते हैं।

‘पथ की अशेषता’ शैल्पिक कमजोरी का शिकार हो गयी है। ‘बाल मजदूर’ एक मार्मिक कथा है, ‘चलित स्वाभिमान’, ‘सशक्त जागरण अभियान’, ‘बदलाव’, ‘गुरु दक्षिणा’, ‘सतगुरु दीक्षा’ प्रेरक, ‘नकाबपोश’ साहसिक। ‘मासूम क्राइम’ बाल मनोविज्ञान की उत्कृष्ट लघुकथा है। ‘श्रद्धांजलि’ अपनी कथन-शैली और समापन प्रक्रिया दोनों में लघुकथा से काफी भिन्न रचना है। इसको तथा ‘मैला आंचल’ को लघु-आकारीय कहानी कहना अधिक उपयुक्त रहेगा। लघुकथा ‘विडम्बना’ का अन्त उच्च शिक्षा की पैरवी करता है, सो तो ठीक है; लेकिन जिसे यह लघुकथा ‘संस्कार’ बता रही है, वह संस्कार नहीं कु-शिक्षा है। इस लघुकथा का ‘साँप और बिच्छू के काटने पर तो औरत चिल्ला भी लेती है, लेकिन जब कोई अपना प्रिय ही डंक मारे तो वह आह भी नहीं निकाल पाती है।’ वाक्य ध्यान आकर्षित करता है। ‘न्याय की ओट में’ कथ्य, शिल्प और स्थापना आदि की दृष्टि से श्रेष्ठ लघुकथा है। ‘प्रियदर्शिनी’ में फैशन के भौंडेपन पर चोट की गयी है। ‘अतीत से निरपेक्ष’ अति सुन्दर किन्नर कथा है, बिना किसी घोषणा विशेष के।

‘कुकर्मों का हिसाब’ जैसी कुछ लघुकथाएँ एक समाधानात्मक समापन वाक्य के साथ खत्म होती हैं और लघुकथा की खूबसूरती और उसके अस्तित्व का हनन कर देती हैं। ‘पीड़ित कौन है’ में माँ-बाप के बीच सुलह संबंधी जो वाक्य सात वर्षीय मासूम से कहलाया गया है, वह स्वाभाविक नहीं लगता है। ‘पहली सासू माँ’, ‘सटीक सवाल’ में क्षमा कुछ नये, प्रगतिशील विचार प्रस्तुत करती हैं। ‘निषिद्धपाली’ कुछेक सांस्कृतिक समाधान प्रस्तुत करती रचना है। 

इस लघुकथा संग्रह का नाम अपने आप में काफी गहराई लिए, व्यंजक और दार्शनिक पृष्ठभूमि से जुड़ा प्रतीत होता है। ऐसा अभिव्यंजित होता है जैसे लेखिका के हृदय में बहुत-कुछ है जो विविध कथ्यों की इतनी लघुकथाएँ देने के बावजूद बंद है, कैद है। अनेक लघुकथाएँ तो मथती ही हैं, संग्रह का नाम भी अलग से पाठक के मन को मथता है। भाषा में क्रिया पद आदि से संबंधित कुछ कमियों के बावजूद क्षमा सिसोदिया की ये लघुकथाएँ आकर्षित करती हैं। 

समीक्षित लघुकथा संग्रह

भीतर कोई बंद है;

कथाकार—डॉ॰ क्षमा सिसोदिया; 

प्रकाशक—कलमकार मंच, 3, विष्णु विहार, अर्जुन नगर, दुर्गापुरा, जयपुर-302018 

संस्करण—प्रथम, जनवरी 2020; 

कुल पृष्ठ—96, मूल्य—रु. एक सौ पचास (पेपरबैक); 

आईएसबीएन—978-81-944492-8-7         

समीक्षक  

बलराम अग्रवाल

एफ-1703, आर जी रेज़ीडेंसी, सेक्टर 120, नोएडा-201301 (उप्र) 

मोबाइल—8826499115

रविवार, 19 नवंबर 2023

लघुकथा और सामान्य-जन/बलराम अग्रवाल

साहित्यकार-पत्रकार प्रेम विज के सौजन्य से

लघुकथा और सामान्य-जन

दुनियाभर में लघु-आकारीय कहानियों का चलन प्राचीन काल से ही रहा है, यह निर्विवाद है। विष्णु शर्मा कृत 'पंचतन्त्र' की कहानियाँ हों, जैन- कथाएँ हों, जातक कथाएँ हों, मोपासां की कहानियाँ हों, खलील जिब्रान की ये भाववादी कथाएँ हों या हितोपदेश, कथा-सरित्सागर आदि की कहानियाँ- इनमें से किसी भी कहानी को आप 'कौंधकथा' यानी फ्लैश-फिक्शन नहीं कह सकते। ये सब-की-सब अपने-आप में पूर्ण कथाएँ हैं । 'केवल बहस करने के लिए बहस' की निरर्थक प्रवृत्ति से अलग 'कुछ सार्थक पाने हेतु जिज्ञासा' की दृष्टि से बहस हो तो सवाल करने वाले से अधिक आनन्द उत्तर देने वाले को आता है।

गोस्वामी तुलसीदास कृत 'रामचरितमानस' में उत्तरकाण्ड के अन्तर्गत काकभुसुंडि-गरुड़-संवाद ऐसी ही सार्थक बहस है। तात्पर्य यह कि अपनी अहं-तुष्टि के लिए कोई वैसा प्रयास कर भले ही ले, परंतु किसी भी तरह उनको सार्थक विस्तार दे नहीं सकता; न ही उनके आकार को संक्षिप्त कर सकता है। ये कहानियाँ सार्वकालिक हैं और हर आयु, हर वर्ग, हर वर्ण, हर देश और हर स्तर के व्यक्ति का न केवल मनोरंजन बल्कि मार्गदर्शन भी करने में सक्षम हैं।

सामान्य-जन के जीवन से जुड़ी होने, जिज्ञासा बनाए रखने, जीवनोपयोगी होने, विभिन्न कुंठाओं से मुक्ति का मार्ग दिखाने का साहस रखने, मनोरंजक होने आदि के गुण से भरपूर होने के कारण कथाएँ लोककंठी हो गयीं यानी जन-जन के कंठ में जा बसीं। यह किसी भी रचना - विधा और उसके लेखक के जन सरोकारों का उत्कर्ष है कि वह इतनी लोककंठी हो जाय कि उसके लेखक का नाम तक जानने की आवश्यकता अध्येताओं-शोधकर्ताओं के अतिरिक्त सामान्य जन को महसूस न हो। पं. रामचन्द्र शुक्ल द्वारा निर्धारित गद्यकाल से पूर्व की लाखों कथाएँ इस कथन का सशक्त उदाहरण हैं। काव्य-क्षेत्र भी इस कथन से अछूता नहीं है। विभिन्न रस्मो-रिवाजों से लेकर पर्वों-त्योहारों व आज़ादी की हलचलों को स्वर प्रदान करते अनगिनत लोकगीतों के साथ-साथ इस काल में कथावाचक श्रद्धाराम फिल्लौरी द्वारा रचित बहु- प्रचलित आरती 'जय जगदीश हरे' भी इस कथन का सशक्त उदाहरण है जिसके रचयिता का नाम अधिकतर लोग नहीं जानते और न ही जानने के प्रति जिज्ञासु हैं।

                    ● बलराम अग्रवाल,  नोएडा, यूपी

चण्डीभूमि साप्ताहिक, चण्डीगढ़, 

12-18 नवंबर 2023