(ॠग्वेद प्रथम मंडल के सूक्तों पर केंद्रित)
जब से होश संभाला है,
(लगभग आधी सदी तो मान ही सकते हैं) देखने में आम तौर पर यह आता रहा है, कि भारतीय ग्रंथों और भारतीय
विद्वानों द्वारा शोधित सामग्री के पठन-पाठन और शोध-कार्यादि में उनका संदर्भ देने
का चलन समाप्त-सा हो गया है। उनका संदर्भ यदि देना ही पड़े तो बी. कीथ (ए हिस्ट्री ऑव संस्कृत लिटरेचर आदि), एम. विंटरनिट्ज़ (ए हिस्ट्री
ऑव इंडियन लिटरेचर आदि), राल्फ टी. एच. ग्रिफिथ (हाइम्स ऑव द ॠग्वेदा, हाइम्स ऑव द
सामवेदा, हाइम्स ऑव द अथर्ववेदा, द टैक्स्ट ऑव द व्हाइट यजुर्वेदा आदि) के द्वारा किये गये कार्य का ही संदर्भ दे पाते हैं अथवा जानबूझकर देते
हैं। इसके मेरी नजर में जो कारण हैं, उनमें—पहला यह कि भारतीय विद्वानों ने (अभी तक भी) सामरिक महत्व के अपने ग्रंथों के सरल
हिन्दी अनुवाद और उनकी व्याख्या पर उतना श्रम नहीं किया है जितना कि अनेक विदेशी
विद्वानों का किया हमें उपलब्ध हो जाता है; दूसरा यह कि भारतीय विद्वानों द्वारा किये
गये अनेक हिन्दी अनुवाद इतने संस्कृतनिष्ठ और क्लिष्ट हैं कि वे सिर के ऊपर से ही गुजर जाते हैं, लगभग
महत्वहीन सिद्ध हो जाते हैं; और तीसरा यह कि विदेशी साहित्य और विदेशी
साहित्यकारों का संदर्भ देते हुए बात कहने से ही ‘प्रगतिशील’ दिखने की ग्रंथि
हममें पल और पक गयी है।
डॉ॰ शकुन्तला किरण ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दी लघुकथा’ में ‘यम-यमी
संवाद’ का उल्लेख किया है। उन्होंने ‘मैत्रायणी संहिता’ (1-5-12) में वर्णित एक कथा डॉ॰ विंटरनिट्ज़ की पुस्तक ‘ए हिस्ट्रि ऑव इंडियन
लिटरेचर, भाग-1; पृष्ठ 219’ के हवाले से इस रूप में उद्धृत की है—
…यम मर गया। देवताओं ने यमी को समझाया कि वह उसे भूल जाए।
परन्तु जब भी वह उसे भूलने को कहते, यमी कहती—‘वह आज ही मरा है।’ तब देवताओं ने
कहा—ऐसे तो यह उसे कभी नहीं भूलेगी। हम रात बनाएँगे। उस समय केवल दिन ही था, रात
नहीं थी। देवताओं ने रात बनाई। दूसरा दिन हुआ। इस प्रकार वह उसे भूल गयी।1
यह उद्धरण तीन डॉट्स (…) से शुरू हुआ है। इससे संदेह होता है कि
कथा इससे पहले भी जारी थी। या तो विंटरनिट्ज़ द्वारा कथा के अंश को उठाया गया था, या
उस लेखक द्वारा जिसकी पुस्तक से डॉ॰ शकुंतला किरण ने इस संदर्भ को लिया था।
‘यम-यमी संवाद’ ॠग्वेद का बहुचर्चित संवाद
है। कोई विद्वान इसे भाई-बहन के बीच, कोई पति-पत्नी के बीच संपन्न बताते हैं तो
कोई इसे प्रकृति (दिवस और संध्या के संक्रमण काल) से जोड़कर इसका अर्थ करते हैं।
गत दिनों ॠग्वेदादि आर्ष
ग्रंथों का अध्ययन करने का अवसर मिला। उनका अध्ययन करते हुए एकाएक
अगस्त्य-लोपामुद्रा संवाद (मंडल 1, सूक्त
179, मंत्र 1-6) पर नजर पड़ी। अपने-आप में यह अद्भुत संवाद है और पुरुष के समक्ष स्त्री
द्वारा रति-निवेदन के संबंध में रूढ़ि के रूप में चले आ रहे ज्ञान से प्राप्त जड़
धारणाओं को तोड़ता है। यह संवाद हमें अपनी बात को कहने का सलीका भी सिखाता है। इस
बात का जिक्र मैंने 19 नवंबर, 2019 को गाँधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली में हुए ‘लघुकथा
अधिवेशन’ के दूसरे सत्र में बोलते हुए किया था। ‘अगस्त्य-लोपामुद्रा संवाद’ केवल 6
मंत्रों में सिमटा हुआ उत्कृष्ट संवाद है, जिसमें एक शिष्य भी सम्मिलित है। कथा-लेखन
के ये प्रारंभिक क्राफ्ट हैं जो आज भी अनुपम हैं। पति-पत्नी के बीच संपन्न संवाद
और कार्य-व्यवहार दोनों का इसमें मनोवैज्ञानिक धरातल पर खरा उतरता पूरा ब्यौरा
अध्येता को मिल जाता है।
सूक्त में वर्णित अगस्त्य उस पुरुष का (समान मानसिकता की स्त्री
का भी) प्रतिनिधि है जो अपने अध्ययन आदि ज्ञान-विकास (आज की परिस्थितियों में इसे
आप ऑफिस आदि के काम में अथवा धन-संग्रह में संलिप्त रहने वाला पुरुष/स्त्री भी मान
सकते हैं) की तुलना में आवश्यक पारिवारिक कार्यों व संबंधों को हेय और अवहेलनीय
समझने लगता है। पुराणों में अनेक कथाएँ ऐसी मिलती हैं, जो यह स्थापित करती हैं कि
संतानोत्पत्ति मनुष्य का धार्मिक दायित्व है। इस बारे में, प्रसंगवश एक कथा
‘शकुन-शकुनि संवाद’ सुप्रसिद्ध जैन ग्रंथ ‘वसुदेवहिंडी’ से उद्धृत है—
किसी शकुन और शकुनि ने जमदग्नि
की दाढ़ी में घोंसला बना लिया।
एक बार शकुन अपनी से कहने लगा—“भद्रे!
तुम यही रहना,
मैं हिमालय पर्वत पर अपने माता-पिता
से मिलकर जल्दी ही आ जाऊँगा।”
शकुनी—“प्राणनाथ!
आप न जाएँ। आपको अकेले समझकर कहीं कोई
तकलीफ न देने लगे।”
शकुन—“तू डर मत। यदि मेरा कोई पराभव
करेगा तो उसका प्रतिकार करने में मैं समर्थ हूँ।”
शकुनी—“क्या भरोसा?
कहीं आप मुझे भूलकर किसी दूसरी शकुनी
से प्रेम न करने लगे! इससे
मुझे कितना कष्ट होगा!”
शकुन—“तुझे मैं अपने प्राणों से
भी अधिक चाहता हूँ। तेरे बिना मैं थोड़े समय के लिए भी अन्यत्र नहीं रह सकता।”
शकुनी—“विश्वास नहीं होता कि आप
लौटकर आ जाएँगे।”
शकुन—“तू जिसकी कहे उसकी शपथ खाने
को तैयार हूँ।”
शकुनी—“यदि ऐसी बात है तो शपथ खाइए
कि यदि आप वापस ना आए तो इस ऋषि को जो पाप लगा है, वह आपको लगे।”
शकुन—“और किसी की भी शपथ खाने को
मैं तैयार हूँ, लेकिन
इस ऋषि के पाप से लिप्त होना मैं नहीं चाहता।”
पक्षियों का यह वार्तालाप सुनकर
जमदग्नि ने सोचा कि क्या बात है जो यह पक्षी मेरे पाप को इतना बड़ा बता रहे हैं!
जमदग्नि ने दोनों को पकड़कर पूछा—“अरे
पक्षियो! देखते
नहीं, कितने
हजारों वर्षों से मैं कुमार ब्रह्मचारी रहकर तपश्चर्या कर रहा हूँ!
मैंने कौन-सा पाप किया है जो तुम मेरी
शपथ खाने से इंकार करते हो?”
शकुन ने उत्तर दिया—“महर्षि,
नि:संतान
होने के कारण आप नदी-जल के वेग से उखड़े हुए निरालंब वृक्ष की भाँति कुगति को प्राप्त
करेंगे। आपका नाम तक कोई न लेगा। क्या यह कुछ कम पाप है?
क्या आप अन्य ऋषियों के पुत्रों को नहीं
देखते?”
यह सुनकर ऋषि अरण्यवास छोड़कर दार
संग्रह के लिए चल दिया।
अलग-अलग तरह से यह कथा भृगु आदि
अन्य ॠषियों को पात्र बनाकर अलग-अलग पुराणों में भी मिलती है। वेदकालीन भारतीय
संस्कृति ‘ॠषि परंपरा’ की वाहक रही है। अधिकतर ॠषि गृहस्थ होते थे। ब्रह्मचर्य का
अर्थ तब इंद्रिय-विशेष की क्रियाओं पर अंकुश लगाने तक सीमित नहीं था। ब्रह्मचर्य
के ये भ्रष्ट अर्थ बाद के किसी काल में प्रचलित, पुष्पित-पल्लवित हुए। उपर्युक्त
कथा में पति-पत्नी के बीच संपन्न वार्तालाप में जो अपनत्व, सहजता, स्वाभाविकता और
ग्राह्यता है वह पाठक का ध्यान उनके पक्षी होने की ओर जाने ही नहीं देते। इनके
पारस्परिक संवाद कथा को रोचक, रोमांचक, जिज्ञासाजन्य और प्रवहमान बनाये रखते हैं। एकदम
यही बात ‘पंचतंत्र’ की कथाएँ भी सिद्ध करती हैं। कथा के इन मूल गुणों की खोज के
लिए भी पुरातन कथा-साहित्य में डुबकी लगाने की आवश्यकता होती है। मुझे लगता है कि
पूर्वकालीन लघुकथाएँ अपने इन्हीं गुणों के कारण जन-समाज में आज भी खम ठोंककर खड़ी
हैं, पूर्ववत् सम्मान्य हैं। और इस आधार पर हम कह सकते हैं कि समकालीन लघुकथा को भी आवश्यक गुण
मानते हुए इनका कुछेक परिवर्तनों, परिवर्द्धनों, सुधारों के साथ ही सही, अनुसरण करना
चाहिए।
पुन: अगस्त्य-लोपामुद्रा संवाद पर आते हैं; और अपनी बात रखने से
पहले उन बातों को सामने रखते हैं जिन्हें वेदों में अगाध श्रद्धा रखने वाला
व्यक्ति समुदाय रखता है।
लेकिन संदर्भ के लिए सबसे पहले ॠग्वेद से उक्त संवाद का हिन्दी अनुवाद—
(लोपामुद्रा कहती है—) मैं
दिन-रात जरा लाने वाली उषाओं में बहुत वर्षों तक श्रम करती रही। बुढ़ापा शरीरों के
सौंदर्य को नष्ट कर देता है। पुरुष पत्नियों से संगम करें।
जो पूर्वकालीन व्यक्ति सत्य-नियमों के पालन करने वाले थे, और
जिन्होंने दिव्य-शक्तियों की सहायता से प्राकृत नियमों का प्रवचन किया, वे भी
समाप्त हो गये और अंत को न पा सके कि पत्नियाँ पुरुषों से संगम करें।
(अगस्त्य कहता है—) हमने
व्यर्थ श्रम नहीं किया; क्योंकि देव हमारी रक्षा करते हैं। हम दोनों सब विघ्नों को
परास्त करें। इस संबंध में हम सैकड़ों फुसलाहटों वाले युद्ध जीतें और सम्यक् रूप से
परस्पर मिलकर अभिगमन करें।
इधर-उधर कहीं से मुझ स्तुति करने वाले और इंद्रियों का संयम
करने वाले में काम-वासना आ गयी है। मुझ वीर्यवान् को लोपामुद्रा आकृष्ट करती है;
और अधीर हुई मुझ धीर का ओष्ठपान करती है।
मैं इस सोम (प्रजापति), जो मेरे
हृदय में स्थित है, समीप से प्रार्थना करता हूँ कि जो कोई पाप हमने किया है, उसे
वह क्षमा करे। मनुष्य बहुत कामना वाला होता है।
(कंदमूल आदि की प्राप्ति
के लिए) खोदने के साधनों द्वारा खोदते हुए तथा प्रजा, संतान
और बल की इच्छा करते हुए, उग्र ॠषि अगस्त्य ने दोनों वर्णों (वरण योग्य संयम और काम) का पालन किया। देवों के
प्रति उसकी प्रार्थनाएँ सफल हुईं।2
इन्हीं मंत्रों का पं॰ रामगोविंद
त्रिवेदी द्वारा ‘हिन्दी ॠग्वेद’ में किया हुआ अनुवाद—
(लोपामुद्रा—)अगस्त्य, अनेक
वर्षों से मैं दिन-रात बुढ़ापा लाने वाली उषाओं में तुम्हारी सेवा करके श्रांत हुई (थकी) हूँ। जरा शरीर के सौन्दर्य का नाश करता है। इस
समय पुरुष स्त्री के पास क्या गमन करे!
अगस्त्य, जो प्राचीन और सत्य-रक्षक ॠषि लोग देवताओं के साथ
सच्ची बात कहते थे, उन्होंने भी रेत (वीर्य) का स्खलन
किया है; परंतु उन्हें भी अंत नहीं मिला। पुरुष स्त्री के साथ गमन करे।
(अगस्त्य) हम लोग वृथा नहीं
श्रांत हुए; (बेकार में नहीं थके; हमारी मेहनत बेकार नहीं
गयी) क्योंकि देवता लोग रक्षा करते हैं। हम सारे भोगों का
उपभोग कर सकते हैं। यदि हम दोनों चाहें तो इस संसार में हम सैकड़ों भोगों के साधन
प्राप्त कर सकते हैं।
यद्यपि मैं जप और संयम में नियुक्त हूँ तथापि इसी कारण या किसी
भी कारण मुझे काम-भाव हो गया है। सेचन करने वाली लोपामुद्रा पति के साथ संगत हो।
अधीरा स्त्री धीर और महाप्राण पुरुष का उपभोग करे।
(शिष्य) हृदय में पीत इस
सोम से मैं आन्तरिक प्रार्थना करता हूँ कि सोम मुझे सुखी करे। मनुष्य बहुत
कामनावाला होता है।
उग्र ॠषि अगस्त्य ने अनेक उपायों का उद्भावन करके बहुत पुत्रों
और बल की इच्छा करके काम और तप, दोनों वरणीय वस्तुओं का पालन किया था। अगस्त्य ने
देवों के पास सत्य आशीर्वाद प्राप्त किया।3
वैद्य रामगोपाल शास्त्री स्पष्ट करते हैं, कि—यह अगस्त्य और
लोपामुद्रा पुरुष और स्त्री के प्रतीकमात्र हैं, वे वास्तविक व्यक्ति (यानी मानवीय पात्र)
नहीं हैं। पाँचवीं ॠचा
में कहा है, कि—बड़े-बड़े सत्य-नियमों का पालन करने वाले भी इस काम-वासना का अंत
नहीं पा सके। तीसरी ॠचा में कहा है—महाबली अगस्त्य भी विचलित हो गया और कामासक्ति
से परिभूत होकर संयोग करने में प्रवृत्त हो गया।
उनके अनुसार, युवा स्त्री-पुरुष जब एक-दूसरे को देखते हैं तब
स्वाभाविक रूप से ही उनमें काम-वासना उत्पन्न हो जाती है। ॠचा 5, 6 में कहा है,
कि मनुष्य बहुत कामना वाला होता है। वह तीन प्रकार की एषणाओं (पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा) यानी धन, संतान और यश की इच्छा से युक्त है।
इस सूक्त से यह भी स्पष्ट है कि काम-वासना केवल पौष्टिक आहार
खाने वाले को ही नहीं सताती बल्कि कंद-मूल आदि खाने वाला वनवासी भी आकर्षक स्त्री
को देखकर कामासक्त हो जाता है। मनु ने लिखा है—इंद्रियाँ इतनी प्रबल हैं कि
बुद्धिमान व्यक्ति को भी विचलित कर देती हैं।
गीता अध्याय 2 श्लोक 61 में श्रीकृष्ण कहते हैं—‘हे अर्जुन, विचलित करने वाली
इंद्रियाँ यत्नशील बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलपूर्वक हर लेती अर्थात् आकृष्ट
करके गिरा देती हैं।
‘सत्यार्थ प्रकाश’ में लिखा है—काम के वेग को रोकना बड़ा कठिन
है।4
तात्पर्य यह कि ‘काम’ को मनुष्य की सामान्य प्रवृत्ति से काटकर
देखना सर्वथा अनुचित है।
अगस्त्य-लोपामुद्रा के मध्य इस संवाद को पं॰ हरिशरण सिद्धांतलंकार
की दृष्टि से भी देखते हैं ताकि इस संवाद के एक और बड़े कोण से परिचित हो सकें—
(जीवन को तीन कालों में बाँटती लोपामुद्रा कहती है—) मैंने जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में दिन-रात तथा आयु को एक-एक दिन करके
जीर्ण करती उषाओं में खूब श्रम करते हुए निभाया है (इन
प्रारम्भिक वर्षों की तीव्र तपस्या व श्रम के बाद मैं इस समय अपने यौवन में हूँ)। (समय आएगा कि जब)
जरा अवस्था शरीरों की
शोभा को हिंसित कर देती है, कम कर देती है। इसलिए अब यह यौवन की अवस्था ही वह
अवस्था है जबकि निश्चय से शक्तिशाली पुरुष पत्नियों को प्राप्त होते हैं।
जो निश्चय से अपना पूरण करने वाले ॠत से अपना मेल करने वाले थे।
जिन्होंने ज्ञानी आचार्यों के साथ सत्य-ज्ञानों का ही उच्चारण किया वे भी जीवन के
अंत की ओर बढ़ गये। पर, ज्ञान के अंत को प्राप्त नहीं किया। इसलिए अब इससे पहले कि
जीवन ढलना आरम्भ हो जाए (हम पति-पत्नी संगत हों) यानी
युवावस्था में ही पत्नियाँ शक्तिशाली पतियों के साथ संगत हों।
(अब अगस्त्य कहते हैं—) यह
असत्य नहीं है कि श्रम के द्वारा श्रांत (थके) पुरुष की सब देव रक्षा करते हैं। (हम पति-पत्नी) निश्चय से स्पर्द्धा करने वाले (काम-क्रोध आदि)
सब शत्रुओं को जीत लें। यहाँ सौ वर्ष तक चलने वाले इस
जीवन-संग्राम को जीतेंगे ही, यदि हम मिलकर इन शत्रुओं पर आक्रमण करेंगे।
मुझे तो वही ‘काम’ प्राप्त हो जो एक स्तोता का है। मुझे अपना
संयम करने का ‘काम’ प्राप्त हो। यह ‘काम’ इस लोक के दृष्टिकोण से उत्पन्न हुआ है।
परन्तु यह आँखों से न दिखने वाले किसी परलोक के दृष्टिकोण से भी हुआ है। (कामात्मा न बने हुए
मुझ) शक्तिशाली पुरुष को (लोपामुद्रा=वासनाओं
को लुप्त करने वाली) पत्नी निश्चय से प्राप्त होती है। (परंतु कदाचित् पति धीर हो और पत्नी धीर न हो तो) धीर
पति को अधीर पत्नी आहें भरते हुए (भाग्य का रोना रोते हुए) पी-सा जाती है (अशक्त बना देती है)।
अब इस सोमशक्ति को सान्निध्य के द्वारा हृदय में ही पिया हुआ
चाहते हैं। जो निश्चय से अपराध हम कर बैठें तो (वे प्रभु) हमारे जीवन को सुखी करें; क्योंकि मनुष्य निश्चय से बहुत ‘काम’ वाला है।
अगस्त्य कुदालों से खोदता है अर्थात् श्रमशील है। अपने विकास
को, संतान को और बल को चाहता है। यह अगस्त्य तेजस्वी होता हुआ अपने जीवन में
ब्राह्मण व क्षत्रिय दोनों ही वर्णों का पोषण करता है। यह देवों के विषय में उत्तम
इच्छाओं को प्राप्त होता है अर्थात् दिव्य गुणों की ही कामना करता है। 5
मंडल 1 के ही 126वें सूक्त के मंत्र 7
का यह अनुवाद देखिए—
(पत्नी
पति से कहती है—) मेरे पास आकर मुझे अच्छी तरह स्पर्श करो।
यह न जानना कि मैं कम रोमवाली अत: भोग के योग्य नहीं हूँ।
मैं गंधारी मेषी (अफगानी भेड़) की तरह
लोमपूर्ण और पूर्ण-अवयवा हूँ।6
पं॰ हरिशंकर विद्यालंकार ने इस मंत्र का अर्थ यों किया है—
(वेदवाणी कहती है—) तू
समीपता से मेरा आलिंगन कर। (सूक्ष्मता से विचार करना ही इसका
आलिंगन करना है। जितनी सूक्ष्मता से विचार किया जाएगा, उतना ही यह और-और खुलेगी।) मेरी अल्पता को मान और समझ। यह मत समझ कि मेरे शब्द कम अर्थ वाले हैं।
इनका अर्थ-गाम्भीर्य तो सूक्ष्म विचार से ही ज्ञात हो पायेगा। मैं पूर्ण हूँ।
मुझमें (रोमशा) ज्ञानजल का निवास है;
और मुझे धारण करने वालों की मैं रक्षिका के समान हूँ।7
इस अर्थ को, और ऊपर अगस्त्य-लोपामुद्रा संवाद के अर्थ को पढ़कर
वेदमंत्रों के अर्थ-गांभीर्य, पठन-दृष्टि और पठन-क्षमता का भी पता चलता है; परंतु
सभी न तो यह अर्थ दे सकते हैं और न सब ग्रहण ही कर सकते हैं।
पं॰ हरिशरण विद्यालंकार के अनुसार, ॠग्वेद
(मंडल 1,
सूक्त 105, मंत्र 9) मंत्र का अर्थ यों है—
(दो कान, दो आँखें, दो नासिका
छिद्र, एक मुख से निरंतर) जो ज्ञान की
सप्त रश्मियाँ चलती हैं, उनके होने पर मेरा यह यज्ञ विस्तृत हुआ है। यह व्यक्ति
प्रभु के साथ संबंध के लिए स्तवन करता है। इसके होने पर यह त्रित (ज्ञान, कर्म व
उपासना का विस्तार करने वाला) हुआ है। इसने प्रभु को जाना है
और उत्तम बना है। मेरे इस संकल्प को द्युलोक और पृथिवीलोक जानें।
(लेख साभार : लघुकथा
कलश, जुलाई-दिसंबर 2020; आलेख महाविशेषांक-1; संपादक :
योगराज प्रभाकर)
संदर्भ ग्रंथ :
1-
डॉ॰ शकुन्तला
किरण; ‘आधुनिक हिन्दी लघुकथा : उद्भव
एवं विकास’, हिन्दी लघुकथा, संकेत प्रकाशन, 372/26, रामगंज, अजमेर; पृष्ठ 70
2- वैद्य रामगोपाल
शास्त्री; वेदों के आख्यानों का यथार्थ स्वरूप; आर्यसमाज, करोलबाग, दिल्ली-5, वर्ष:29 अप्रैल 1972
3- पं॰ रामगोविंद
त्रिवेदी,हिन्दी ॠग्वेद, इंडियन प्रेस (पब्लिकेशन्स) लिमिटेड, प्रयाग, पृष्ठ 272
4- वैद्य रामगोपाल
शास्त्री; वेदों के आख्यानों का यथार्थ स्वरूप; आर्यसमाज, करोलबाग, दिल्ली-5, वर्ष:29
अप्रैल 1972
5-
पं॰ हरिशंकर विद्यालंकार, ॠग्वेदभाष्यम्, भाग-2; श्री
घूड़मल प्रहलादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिंडौन सिटी (राज॰); पृष्ठ 98
(शेष आगामी अंक में…)