गुरुवार, 14 जनवरी 2021

रचना और शास्त्र का अन्तर्संबंध/ बलराम अग्रवाल

अच्छी और उत्साहवर्धक बात है कि गत कुछ दिनों से हिंदी लघुकथा में शैलियों की विशेष पड़ताल की जाने लगी है। इस पड़ताल के दो लाभ होंगे। एक तो यह, कि अब तक अपनाई जा चुकी विभिन्न शैलियों को रेखांकित किया जा सकेगा। दूसरी यह, कि पूर्व कथाकारों द्वारा अपनाई जा चुकी कथा शैलियों के मध्य छूट रही शैलियों में भी लघुकथा लेखन को बढ़ावा दिया जा सकेगा।  वर्तमान पड़ताल के अंतर्गत मृणाल आशुतोष की एक पोस्ट में 'विज्ञापन शैली' का जिक्र भी हुआ है। यह टिप्पणी मुख्य रूप से उसी पर केंद्रित है। 

2008 में कमल चोपड़ा द्वारा संपादित 'संरचना' के लिए लिखे अपने आलेख में मैंने भारतेतर संसार की कुछ संस्थाओं द्वारा निश्चित शब्द-संख्या में लघुकथा लेखन को बढ़ावा देने के प्रयासों का उल्लेख किया था। उनमें 59 लाइनर्स, 69 लाइनर्स, 100 लाइनर्स के साथ-साथ अर्नेस्ट हेमिंग्वे की 6 शब्दों वाली रचना 'फाॅर सेल बेबी शूज नेवर वोर्न' को भी उद्धृत किया था। इस रचना के दो पाठ मिलते हैं। एक में अंतिम शब्द 'वोर्न' है और दूसरी में 'बोर्न' है। दोनों ही शब्दों के साथ रचना व्यापक अर्थ ध्वनित करती है। पहले शब्द के साथ रचना का अर्थ, 'बिकाऊ हैं शिशु जूते अन-पहने' बनता है और दूसरे शब्द के साथ इसका अर्थ, 'बिकाऊ हैं अनजन्मे शिशु के जूते' बनता है।

गहराई से देखें, तो रचना के दोनों ही पाठ अर्थ और संवेदना की व्याप्ति से भरे हैं। हेमिंग्वे ने  प्रथम विश्वयुद्ध में सक्रिय भाग लिया था और दूसरे विश्वयुद्ध तक भी उनका रचनाकाल फैला है। उस अवधि में अनेक युद्धों के वह प्रत्यक्षदर्शी रहे। नि:संदेह किसी युद्ध के दौरान उन्होंने  'अन-पहने शिशु जूते' मलबे में तब्दील हो चुके किसी आवास पर अवश्य देखे होंगे। किसी अन्य जगह किसी अन्य ने किसी गर्भवती युवती के शव को 'शिशु जूते' मुट्ठी में दबाए पड़ा देखा होगा। और यहीं से हेमिंग्वे की रचना के दूसरे पाठ का जन्म हुआ होगा। यद्यपि यह रचना मुख्यतः युद्धकाल में और विदेश में रची गई है इसलिए इसके संदर्भ भारत में 'कन्या भ्रूण हत्या' से जोड़ना तथ्यपरक सच्चाई नहीं है तथापि, कथापरक और संवेदनापरक सच्चाई अवश्य है। भारत में, गर्भस्थ शिशु के लिए माताओं द्वारा जूते और स्वेटर आदि बुनने का चलन पुरातन समय से रहा है। कामायनी में श्रद्धा गर्भस्थ शिशु के लिए स्वयं कपड़े बुनती दिखाई देती है। मातृत्व और वात्सल्य शाश्वत संस्कार बनकर धरती की उत्पत्ति के समय से ही महिलाओं के रक्त में दौड़ रहे हैं। क्या बीतती होगी उस माँ पर, जिसकी गर्भस्थ कन्या की जबरन हत्या कर दी गई हो और जिसके नन्हें पाँवों के लिए रात-रात भर जागकर बुने-अधबुने जूते उसके हाथ की सलाइयों में ही अटके रह गए हों।

गत कुछ दिनों से, अंतरजाल पर 6 शब्दों की उक्त रचना को संसार का सबसे छोटा उपन्यास तक बताया जाने लगा है। उससे पहले इसे संसार की सबसे छोटी कहानी कहा जाता था। इससे सिद्ध होता है कि संवेदना यदि अपनी संपूर्णता और गहनता में व्यक्त हो तो उसे किसी एक विधा में बाँधकर रख पाना शास्त्रकारों के लिए सर्वथा असंभव रहता है। मात्र 3 शब्दों की अज्ञेय की रचना 'मेंढक/पानी/छप्' भी अनंत तक जाने वाली कथा और कविता दोनों है। अशोक भाटिया की अनेक लघुकथाओं में कविता जीवित हो उठती है। सातवें दशक (1966) में आई 'स्वाति बूँद' (सुगनचंद 'मुक्तेश') की अनेक कथाएँ कविता को छूती हैं।  ऐसी रचनाएं शास्त्रीय नियमों से 'बगावत' करने वाली सिद्ध होती हैं। हास-परिहास और चुटकुले के पान में लपेटकर आत्माभिमान को जगाने की जो गोली भारतेंदु अपने समय के नव धनाढ्यों को खिलाते हैं, वह अभूतपूर्व है। तब के नव धनाढ्य कमरे की बत्ती बुझाने के लिए 'मोहना' को बुलाते थे, अब के नव धनाढ्य 'रिमोट' ढूँढ़ते हैं।  (आगे जारी रह सकता है)

रविवार, 3 जनवरी 2021

लघुकथा का वैदिक काल, भाग-2 / बलराम अग्रवाल

 (दिनांक 02-01-2021 से आगे, समापन किश्त)

(ॠग्वेद प्रथम मंडल के सूक्तों पर केंद्रित)

त्रित का आख्यानशौनक के बृहद्देवता (3-132-36) में लिखा है—

गौओं के पीछे चल रहे त्रित को कुएँ में फेंककर सालावृकों के क्रूर पुत्र सारी गौओं को वहां से अपहृत करके ले गये।

शाट्यायन ब्राह्मण के आधार पर सायण ने अपने भाष्य में इसे यों लिखा है—

पुरा काल में एकत, द्वित और त्रित—इन तीन ॠषियों ने कभी मरुभूमि में एक कूप को प्राप्त किया। उनमें से त्रित जल पीने के लिए कूप में उतरा। स्वयं पीकर, अन्य दोनों के लिए पानी लाकर उसने दिया। उन दोनों ने जल पीकर त्रित को कूप में धकेल दिया और कूप को रथ-चक्र से ढाँपकर, त्रित का धन लेकर भाग गये।

इसी सूक्त पर स्कन्द स्वामी ने अपने ॠग्वेद भाष्य में निम्न इतिहास दिया है—

आप्त्य ॠषि के एकत, द्वित और त्रित तीन पुत्र थे। उन्होंने यज्ञ की इच्छा से गौएँ माँगीं। उन गौओं को लेकर जब वे सरस्वती नदी के किनारे-किनारे जा रहे थे तो उनको नदी के परले तट पर बैठे हुए भेड़िये ने देखा। वह नदी में तैरता हुआ उनके सामने आया और उन्हें डराया। वे तीनों भागे और त्रित एक घास तृण आदि से ढँके हुए अंधकूप में गिर पड़ा। एकत और द्वित गौएँ लेकर घर को चले गये। कूप में गिरे त्रित ने सोचा, कि ‘सोमयाग किये बिना मरना अच्छा नहीं। तो किस उपाय से सोमपान करूँ?’

वैद्य रामगोपाल शास्त्री के अनुसार, ॠग्वेद (मंडल 1, सूक्त 105, मंत्र 9) में त्रित का आख्यान मानवीय इतिहास नहीं, अपितु त्रित के माध्यम से आध्यात्मिक भाव का वर्णन है। उनके अनुसार, उपर्युक्त तीनों आख्यान भिन्न-भिन्न ग्रंथों के वर्णन हैं जो एक-दूसरे के विपरीत हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि त्रित की कथा ऐतिहासिक नहीं। शाट्यायन ब्राह्मण में एकत, द्वित और त्रित तीनों ॠषि कहे गये हैं। एक तो त्रित ने दोनों ॠषियों को लाकर पानी पिलाया; बदले में उन्होंने उसे कूप में धकेल दिया। ऐसा लगता है कि ॠषियों के चरित्र पर लांछन लगाने के लिए किसी ने ऐसी कथा घड़ी है।

आख्यान का वास्तविक रहस्य प्रस्तुत करते हुए वह लिखते हैं—निरुक्त (4-6) में ‘त्रित’ का निर्वचन ‘बुद्धि में सबसे अधिक बढ़ा हुआ’ किया है। इसका मतलब हुआ कि मोह-माया के अंधकूप में फँसे हुए एक महान् विद्वान ने जीवन के रहस्य को समझकर मोह-माया के कूप से निकलने के लिए इस सूक्त द्वारा ईश-प्रार्थना की।

आरम्भ में उसने चन्द्र, अग्नि, वरुण, अर्यमन्, इन्द्र, सविता आदि दिव्य शक्तियों से प्रार्थना की कि आप संसार का इतना उपकार करते हो, मेरा भी कल्याण करो और मुझे इस मोह-माया रूपी अंधकूप से बाहर निकालो। अंत में उसने इन सब शक्तियों के स्वामी वृहस्पति से प्रार्थना की जिसे सुनकर वृहस्पति ने उसे सच्चा ज्ञान देकर उसका कल्याण किया।

आचार्य यास्क ने निरुक्त (5-20) में इस आख्यान को ज्योति-मंडल पक्ष में लगाया है, मानवीय इतिहास पक्ष में नहीं। इस पर पं॰ भगवद्दत्त जी का अनुवाद—‘अरुण अर्थात् प्रकाशक मासों का बनाने वाला चन्द्रमा पथ पर चलते हुए (नक्षत्र गण) को (उनसे नीचा होने से) देखता है। ऊर्ध्व जाता है (प्रत्येक नक्षत्र के योग से) (उनको) देखकर बढ़ई के समान, जो पीठ से रोगी है, (अर्थात् झुककर काम करने से थकी हुई पीठवाला है और विश्राम के लिए उठता है वैसे चन्द्रमा उठता है)।’

त्रित के आख्यान को निरुक्त (4-6) पर स्कंद स्वामी ने अपनी टीका में त्रित को क्षेत्रज्ञ अर्थात् जीव माना है, जो कि पुण्य और पाप कर्मपाशों से बँधा हुआ माता के गर्भ-रूपी नरक-समान कूप में पड़ा हुआ उस बीभत्स अवस्था से निकलने के लिए वृहस्पति परमात्मा से प्रार्थना करता है।   

इस सूक्त की 18वीं ॠचा में ‘वृक’ पद आया है। इसी शब्द के आधार पर कह दिया गया कि त्रित और उसके दोनों भाइयों को भेड़िये ने देखा। देखकर वह तैरता हुआ उनकी ओर आया। दो भाई तो भाग गये, किंतु त्रित डरकर कुएँ में गिर गया। यह सर्वथा मन-घड़ंत कथा है। वास्तव में ‘वृक’ का अर्थ यहाँ चन्द्रमा है। खुली हुई ज्योति वाला अथवा विकृत अर्थात् उष्ण से विकृत यानी शीत ज्योति वाला अथवा (तारागण से) प्रबल ज्योति वाला, विक्रांत होता है।8

ॠषि दधीचि का आख्यानॠग्वेद प्रथम मंडल के 84वें सूक्त के मंत्र 13 पर सायण-भाष्य में शाट्यायन ब्राह्मण का आख्यान उद्धृत है—

अथर्वन् का पुत्र दध्यंग जब जीवित था, तब उसके देखने से ही असुर पराजित हो गये थे। जब उसकी मृत्यु हो गयी तो पृथिवी असुरों से भर गयी। इंद्र उन असुरों के साथ युद्ध करने में असमर्थ था। वह इसलिए स्वर्ग में जाकर पूछ्ने लगा कि क्या उस दध्यंग का कोई अंग शेष है? देव बोले—हाँ, एक अश्व का सिर है, जिसके द्वारा उसने अश्विनों को मधुविद्या सिखायी थी। पर हमें नहीं पता कि वह अब कहाँ है? फिर इंद्र ने कहा, कि उसे ढूँढो। तब उन्होंने ढूँढकर बताया कि वह शर्यणावत् सरस् में पड़ा है। इंद्र ने उस सिर की अस्थियों से वज्र बनाकर असुरों का वध किया।

इसी मंत्र पर स्कंद स्वामी ने अपने भाष्य में यह आख्यान किया है—

कालंजय नाम के असुर थे। उनसे पीड़ित होकर देवता रक्षा का उपाय जानने ब्रह्मा के पास गये। ब्रह्मा ने उन्हें दध्यंग ॠषि के पास भेज दिया। देवता उनके पास गये। ॠषि ने उनके आने का प्रयोजन जानकर अपने प्राणों को त्याग दिया। उसकी अस्थियों से इंद्र ने असुरों का वध किया।

इसी सूक्त के 14वें मंत्र पर स्कंद स्वामी ने एक अन्य आख्यान दिया है—

इंद्र ने अथर्वन् के पुत्र दध्यंग को ‘मधु’ नामक परब्रह्म विद्या का प्रवचन किया और उस ॠषि से कहा कि अदि किसी अन्य को यह विद्या बताओगे तो तुम्हारा सिर गिर जाएगा। ॠषि के पास मधुविद्या जानने को अश्विद्वय पहुँचे। उन्होंने कहा, हमारे लिए परब्रह्म का प्रवचन करो। ॠषि ने सिर गिर जाने की बात बताई और मना कर दिया। तब अश्विनों ने कहा, हम तुम्हें अन्य सिर लगा देंगे। दध्यंग मान गये। अश्विनों ने उनका सिर काटकर अश्व का सिर लगा दिया। उस सिर से तब ॠषि ने उन्हें मधुविद्या का अध्यापन किया।

शौनक ने बृहद्देवता अध्याय 3, श्लोक 17-24 में यह आख्यान यों है—

इंद्र ने प्रसन्न होकर अथर्वन् के पुत्र को मधुविद्या दी और उसे किसी अन्य को बताने का मना करते हुए कहा कि यदि बताओगे तो तुम्हें जीवित नहीं छोड़ूँगा। तब अश्विनी द्वय एकांत में जाकर उस ॠषि से मधुविद्या का ज्ञान मांगने लगे। ॠषि ने इंद्र की धमकी उन्हें बता दी। उन भाइयों ने उससे कहा कि अश्व के सिर द्वारा वह विद्या हमें सिखा दो, तो इंद्र तुम्हें नहीं मारेगा। ॠषि ने अश्वशिर द्वारा विद्या उन्हें बता दी। इंद्र ने उसका वह अश्वशिर काट दिया। बाद में, अश्विनद्वय ने उसका वास्तविक सिर लगा दिया। इंद्र ने उस अश्वशिर को वज्र से काटकर टुकड़े-टुकड़े कर दिया। वह सिर शर्यणावत् पर्वत पर एक तालाब में जा गिरा। वहाँ वह सिर जल से उठकर प्राणियों को वर देता है और युग-पर्यंत वहीं पड़ा रहता है।

ॠग्वेद प्रथम मंडल सूक्त 84 मंत्र 13 व 14 पर भिन्न-भिन्न प्रकार के आख्यान हैं। एक आख्यान में तो इंद्र ने दध्यंग ॠषि की अस्थियों से असुरों का वध किया; और 14वीं ॠचा के आख्यान में कहा है कि दध्यंग ॠषि ने अश्व के सिर द्वारा अश्वियों को मधु परब्रह्म विद्या का प्रवचन किया। मधुविद्या को अश्विनों को देने का वर्णन ॠग्वेद में अन्यत्र प्रथम मंडल के सूक्त116 मंत्र 12 भी है और प्रथम मंडल के सूक्त 117 मंत्र 22 में भी है।

इन दो भिन्न-भिन्न आख्यानों पर भी भिन्न-भिन्न ग्रंथों में भिन्न-भिन्न प्रकार से वर्णन किया गया है। कथानकों का भेद सिद्ध करता है कि यह मानवीय इतिहास नहीं। होता तो इस प्रकार के विरोधी कथानक न बनते। इन दो आख्यानों का वास्तविक रहस्य यह है—

दध्यंग आदित्य की अवस्था-विशेष का नाम है। ॠग्वेद प्रथम मंडल, सूक्त 80 मंत्र 16 में स्कंद स्वामी ने भी अथर्वा, मनु और दध्यंग को आदित्य तेज की विशेष अवस्थाएँ बताया है। इस दध्यंग की सोम छोड़ने वाली रश्मियाँ ही उसकी अस्थियाँ हैं। उन्हीं अस्थियों से इंद्र विद्युत बल प्राप्त करके वृत्रों मेघों का हनन करता है।

यास्क ने निरुक्त 12-34 में दध्यंग के दो निर्वचन किये हैं। पहला—जो ध्यान की ओर अभिमुख है अर्थात् जो ध्यानमग्न है। यह आध्यात्मिक पक्ष का निर्वचन है। दूसरा—जिसकी ओर ध्यान जाता है; यह सूर्य है जिसकी ओर सबका ध्यान जाता है। 

इसपर सायण अपने भाष्य में लिखते हैं—यह पवित्र सोम सूर्य द्वारा अंतरिक्ष में छोड़ा जाता है। सोम एक प्रकार की ऊर्जा है जो सूर्य रश्मियों द्वारा अंतरिक्ष में विद्युत् इंद्र को प्राप्त होती है। इससे इंद्र मेघों का हनन करता है, अर्थात् वर्षा करता है।

बृहदारण्यक 2-5-5 के अनुसार इंद्र परमात्मा का वाचक है और दध्यंग ईश्वर के ध्यान में मग्न व्यक्ति का वाचक है। ॠग्वेद प्रथम मंडल के सूक्त 164 मंत्र 46 में इंद्र, अग्नि, मित्र, वरुण, यम, मतरिश्वा आदि सभी परमात्मा के नाम कहे गए हैं।

इंद्र ने अपनी शक्ति से द्यौ और पृथिवी का विस्तार किया। शक्तिशाली इंद्र ने सूर्य को प्रकाशित किया। इंद्र ने ही सारे भुवनों को वश में कर रखा है। सोम भी इंद्र के आधीन है।

अथर्वा का पुत्र आथर्वण ही दध्यंग अथवा दधीचि है। अथर्वा इंद्र का पर्यायवाची है— ‘निश्चल अथवा अटल परमात्मा’। ध्यान में मग्न दध्यंग को ‘परमात्मा का पुत्र’ कहा गया है।

शतपथ ब्राह्मण (2-1-4-23) के अनुसार, अश्व का अर्थ है—वीर्य या बल।

ॠग्वेद के प्रथम मंडल में ही अनगिनत ऐसे कथा-सूत्र उपस्थित हैं जिनको पढ़कर संबंधित कथा के विस्तार को जानने की मानव-स्वाभाविक जिज्ञासा उत्पन्न होती है। उदाहरण के लिए, इसके 62वें सूक्त के तीसरे मंत्र को देखिए—

इंद्र और अंगिरा के गौ खोजते समय सरमा नाम की कुतिया ने, अपने बच्चे के लिए इंद्र से अन्न या दूध लिया था। उस समय इंद्र ने असुर का वध कर गौ का उद्धार किया था। देवों ने भी गायों के साथ आह्लादकर शब्द किया था। 9

वेदमंत्रों का अर्थ करते हुए ‘सरमा’ को ‘देवताओं की कुतिया’ बताना बेहद हास्यास्पद प्रतीत होता है। लेकिन पुराण कथाओं के कर्ताओं ने इसी शब्द को ग्रहण करके कथाएँ लिखी हैं। गूढ़ रहस्यों से युक्त वैदिक कथा-सूत्रों को सामान्य कथाओं में परिवर्तित-परिवर्द्धित करना उस समय किसी भी दृष्टि से न तो आसान रहा होगा और न ही सुरक्षित। नि:संदेह बाद के किसी दौर में कुछ कथाएँ उच्छृंखलता को प्राप्त हो गयी होंगी जोकि स्वाभाविक ही है; लेकिन प्रारम्भिक दौर में यह एक प्रकार का दुस्साहसभरा कार्य रहा होगा। जब आज का वेदानुयायी उन पात्रों को ‘मानव’ मानने को तैयार नहीं है, तो कल्पना कीजिए कि उस समय कितना विरोध उन कथाकारों को झेलना पड़ा होगा, जिन्होंने इन दैवी पात्रों को जमीन पर उतारा, उन्हें मनुष्य बनाया। कथा-पात्रों को देवता से मनुष्य बनाना और स्वर्ग से खींचकर उन्हें पृथ्वी पर ला घुमाना उस अवधारणा के प्रति खुला विद्रोह था जो देवता को सर्व-शक्तिमान मानकर उससे केवल याचना ही करती थी। और कमाल की बात देखिए कि दैवी-शक्तियों में अंधों की तरह विश्वास करने वाले उन्हें जब मानवीय बना लेने और जनता के बीच स्थापित करने में सफल हो गये, तब दैव से हमारे भीतर बैठे भय ने कहना शुरू कर दिया—‘यह लीला करने को धरा पर आए हैं।’ 

वेद के कथा-सूत्रों के विकास पर दोनों तरह से विचार करने की आवश्यकता है। एक ओर यह कि वेद में वर्णित कथा-सूत्रों का स्रोत निश्चित रूप से पूर्व-प्रचलित कोई कथा, कोई किस्सा रहा होगा; और दूसरी ओर यह कि वैदिक कथा-सूत्रों का पूर्ण कथा के रूप में विकास किन-किन सोपानों से गुजरा होगा।

(लेख साभार : लघुकथा कलश, जुलाई-दिसंबर 2020; आलेख महाविशेषांक-1; संपादक : योगराज प्रभाकर)

 

संदर्भ ग्रंथ :

6-             रामगोविंद त्रिवेदी,हिन्दी ॠग्वेद, इंडियन प्रेस (पब्लिकेशन्स) लिमिटेड, प्रयाग,पृष्ठ 191

7-             पं॰ हरिशंकर विद्यालंकार, ॠग्वेदभाष्यम्, भाग-2; श्री घूड़मल प्रहलादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिंडौन सिटी (राज॰); पृष्ठ 98

8-             वैद्य रामगोपाल शास्त्री; वेदों के आख्यानों का यथार्थ स्वरूप; आर्यसमाज, करोलबाग, दिल्ली-5, वर्ष:29 अप्रैल 1972

9-             रामगोविंद त्रिवेदी, हिंदी ॠग्वेद, इंडियन प्रेस (पब्लिकेशन), लिमिटेड, प्रयाग, वर्ष : 1954, पृष्ठ 87

शनिवार, 2 जनवरी 2021

लघुकथा का वैदिक काल, भाग-1 / बलराम अग्रवाल

 (ॠग्वेद प्रथम मंडल के सूक्तों पर केंद्रित)

जब से होश संभाला है, (लगभग आधी सदी तो मान ही सकते हैं) देखने में आम तौर पर यह आता रहा है, कि भारतीय ग्रंथों और भारतीय विद्वानों द्वारा शोधित सामग्री के पठन-पाठन और शोध-कार्यादि में उनका संदर्भ देने का चलन समाप्त-सा हो गया है। उनका संदर्भ यदि देना ही पड़े तो बी. कीथ (ए हिस्ट्री ऑव संस्कृत लिटरेचर आदि), एम. विंटरनिट्ज़ (ए हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर आदि), राल्फ टी. एच. ग्रिफिथ (हाइम्स ऑव द ॠग्वेदा, हाइम्स ऑव द सामवेदा, हाइम्स ऑव द अथर्ववेदा, द टैक्स्ट ऑव द व्हाइट यजुर्वेदा आदि) के द्वारा किये गये कार्य का ही संदर्भ दे पाते हैं अथवा जानबूझकर देते हैं। इसके मेरी नजर में जो कारण हैं, उनमें—पहला यह कि भारतीय विद्वानों ने (अभी तक भी) सामरिक महत्व के अपने ग्रंथों के सरल हिन्दी अनुवाद और उनकी व्याख्या पर उतना श्रम नहीं किया है जितना कि अनेक विदेशी विद्वानों का किया हमें उपलब्ध हो जाता है; दूसरा यह कि भारतीय विद्वानों द्वारा किये गये अनेक हिन्दी अनुवाद इतने संस्कृतनिष्ठ और क्लिष्ट  हैं कि वे सिर के ऊपर से ही गुजर जाते हैं, लगभग महत्वहीन सिद्ध हो जाते हैं; और तीसरा यह कि विदेशी साहित्य और विदेशी साहित्यकारों का संदर्भ देते हुए बात कहने से ही ‘प्रगतिशील’ दिखने की ग्रंथि हममें पल और पक गयी है।  

डॉ॰ शकुन्तला किरण ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दी लघुकथा’ में ‘यम-यमी संवाद’ का उल्लेख किया है। उन्होंने ‘मैत्रायणी संहिता’ (1-5-12) में वर्णित एक कथा डॉ॰ विंटरनिट्ज़ की पुस्तक ‘ए हिस्ट्रि ऑव इंडियन लिटरेचर, भाग-1; पृष्ठ 219’ के हवाले से इस रूप में उद्धृत की है—

…यम मर गया। देवताओं ने यमी को समझाया कि वह उसे भूल जाए। परन्तु जब भी वह उसे भूलने को कहते, यमी कहती—‘वह आज ही मरा है।’ तब देवताओं ने कहा—ऐसे तो यह उसे कभी नहीं भूलेगी। हम रात बनाएँगे। उस समय केवल दिन ही था, रात नहीं थी। देवताओं ने रात बनाई। दूसरा दिन हुआ। इस प्रकार वह उसे भूल गयी।1

यह उद्धरण तीन डॉट्स (…) से शुरू हुआ है। इससे संदेह होता है कि कथा इससे पहले भी जारी थी। या तो विंटरनिट्ज़ द्वारा कथा के अंश को उठाया गया था, या उस लेखक द्वारा जिसकी पुस्तक से डॉ॰ शकुंतला किरण ने इस संदर्भ को लिया था। ‘यम-यमी संवाद’ ॠग्वेद का  बहुचर्चित संवाद है। कोई विद्वान इसे भाई-बहन के बीच, कोई पति-पत्नी के बीच संपन्न बताते हैं तो कोई इसे प्रकृति (दिवस और संध्या के संक्रमण काल) से जोड़कर इसका अर्थ करते हैं।   

 गत दिनों ॠग्वेदादि आर्ष ग्रंथों का अध्ययन करने का अवसर मिला। उनका अध्ययन करते हुए एकाएक अगस्त्य-लोपामुद्रा संवाद  (मंडल 1, सूक्त 179, मंत्र 1-6) पर नजर पड़ी। अपने-आप में यह अद्भुत संवाद है और पुरुष के समक्ष स्त्री द्वारा रति-निवेदन के संबंध में रूढ़ि के रूप में चले आ रहे ज्ञान से प्राप्त जड़ धारणाओं को तोड़ता है। यह संवाद हमें अपनी बात को कहने का सलीका भी सिखाता है। इस बात का जिक्र मैंने 19 नवंबर, 2019 को गाँधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली में हुए ‘लघुकथा अधिवेशन’ के दूसरे सत्र में बोलते हुए किया था। ‘अगस्त्य-लोपामुद्रा संवाद’ केवल 6 मंत्रों में सिमटा हुआ उत्कृष्ट संवाद है, जिसमें एक शिष्य भी सम्मिलित है। कथा-लेखन के ये प्रारंभिक क्राफ्ट हैं जो आज भी अनुपम हैं। पति-पत्नी के बीच संपन्न संवाद और कार्य-व्यवहार दोनों का इसमें मनोवैज्ञानिक धरातल पर खरा उतरता पूरा ब्यौरा अध्येता को मिल जाता है।

सूक्त में वर्णित अगस्त्य उस पुरुष का (समान मानसिकता की स्त्री का भी) प्रतिनिधि है जो अपने अध्ययन आदि ज्ञान-विकास (आज की परिस्थितियों में इसे आप ऑफिस आदि के काम में अथवा धन-संग्रह में संलिप्त रहने वाला पुरुष/स्त्री भी मान सकते हैं) की तुलना में आवश्यक पारिवारिक कार्यों व संबंधों को हेय और अवहेलनीय समझने लगता है। पुराणों में अनेक कथाएँ ऐसी मिलती हैं, जो यह स्थापित करती हैं कि संतानोत्पत्ति मनुष्य का धार्मिक दायित्व है। इस बारे में, प्रसंगवश एक कथा ‘शकुन-शकुनि संवाद’ सुप्रसिद्ध जैन ग्रंथ ‘वसुदेवहिंडी’ से उद्धृत है—  

किसी शकुन और शकुनि ने जमदग्नि की दाढ़ी में घोंसला बना लिया।

एक बार शकुन अपनी से कहने लगा—“भद्रे! तुम यही रहना, मैं हिमालय पर्वत पर अपने माता-पिता से मिलकर जल्दी ही आ जाऊँगा।”

शकुनी—“प्राणनाथ! आप न जाएँ। आपको अकेले समझकर कहीं कोई तकलीफ न देने लगे।”

शकुन—“तू डर मत। यदि मेरा कोई पराभव करेगा तो उसका प्रतिकार करने में मैं समर्थ हूँ।”

शकुनी—“क्या भरोसा? कहीं आप मुझे भूलकर किसी दूसरी शकुनी से प्रेम न करने लगे! इससे मुझे कितना कष्ट होगा!

शकुन—“तुझे मैं अपने प्राणों से भी अधिक चाहता हूँ। तेरे बिना मैं थोड़े समय के लिए भी अन्यत्र नहीं रह सकता।”

शकुनी—“विश्वास नहीं होता कि आप लौटकर आ जाएँगे।”

शकुन—“तू जिसकी कहे उसकी शपथ खाने को तैयार हूँ।”

शकुनी—“यदि ऐसी बात है तो शपथ खाइए कि यदि आप वापस ना आए तो इस ऋषि को जो पाप लगा है, वह आपको लगे।”

शकुन—“और किसी की भी शपथ खाने को मैं तैयार हूँ, लेकिन इस ऋषि के पाप से लिप्त होना मैं नहीं चाहता।”

पक्षियों का यह वार्तालाप सुनकर जमदग्नि ने सोचा कि क्या बात है जो यह पक्षी मेरे पाप को इतना बड़ा बता रहे हैं!

जमदग्नि ने दोनों को पकड़कर पूछा—“अरे पक्षियो! देखते नहीं, कितने हजारों वर्षों से मैं कुमार ब्रह्मचारी रहकर तपश्चर्या कर रहा हूँ! मैंने कौन-सा पाप किया है जो तुम मेरी शपथ खाने से इंकार करते हो?

शकुन ने उत्तर दिया—“महर्षि, नि:संतान होने के कारण आप नदी-जल के वेग से उखड़े हुए निरालंब वृक्ष की भाँति कुगति को प्राप्त करेंगे। आपका नाम तक कोई न लेगा। क्या यह कुछ कम पाप है? क्या आप अन्य ऋषियों के पुत्रों को नहीं देखते?

यह सुनकर ऋषि अरण्यवास छोड़कर दार संग्रह के लिए चल दिया।

अलग-अलग तरह से यह कथा भृगु आदि अन्य ॠषियों को पात्र बनाकर अलग-अलग पुराणों में भी मिलती है। वेदकालीन भारतीय संस्कृति ‘ॠषि परंपरा’ की वाहक रही है। अधिकतर ॠषि गृहस्थ होते थे। ब्रह्मचर्य का अर्थ तब इंद्रिय-विशेष की क्रियाओं पर अंकुश लगाने तक सीमित नहीं था। ब्रह्मचर्य के ये भ्रष्ट अर्थ बाद के किसी काल में प्रचलित, पुष्पित-पल्लवित हुए। उपर्युक्त कथा में पति-पत्नी के बीच संपन्न वार्तालाप में जो अपनत्व, सहजता, स्वाभाविकता और ग्राह्यता है वह पाठक का ध्यान उनके पक्षी होने की ओर जाने ही नहीं देते। इनके पारस्परिक संवाद कथा को रोचक, रोमांचक, जिज्ञासाजन्य और प्रवहमान बनाये रखते हैं। एकदम यही बात ‘पंचतंत्र’ की कथाएँ भी सिद्ध करती हैं। कथा के इन मूल गुणों की खोज के लिए भी पुरातन कथा-साहित्य में डुबकी लगाने की आवश्यकता होती है। मुझे लगता है कि पूर्वकालीन लघुकथाएँ अपने इन्हीं गुणों के कारण जन-समाज में आज भी खम ठोंककर खड़ी हैं, पूर्ववत् सम्मान्य हैं। और इस आधार पर हम कह सकते हैं कि समकालीन लघुकथा को भी आवश्यक गुण मानते हुए इनका कुछेक परिवर्तनों, परिवर्द्धनों, सुधारों के साथ ही सही, अनुसरण करना चाहिए।

पुन: अगस्त्य-लोपामुद्रा संवाद पर आते हैं; और अपनी बात रखने से पहले उन बातों को सामने रखते हैं जिन्हें वेदों में अगाध श्रद्धा रखने वाला व्यक्ति समुदाय रखता है।

लेकिन संदर्भ के लिए सबसे पहले ॠग्वेद से उक्त संवाद का हिन्दी अनुवाद—

(लोपामुद्रा कहती है—) मैं दिन-रात जरा लाने वाली उषाओं में बहुत वर्षों तक श्रम करती रही। बुढ़ापा शरीरों के सौंदर्य को नष्ट कर देता है। पुरुष पत्नियों से संगम करें।

जो पूर्वकालीन व्यक्ति सत्य-नियमों के पालन करने वाले थे, और जिन्होंने दिव्य-शक्तियों की सहायता से प्राकृत नियमों का प्रवचन किया, वे भी समाप्त हो गये और अंत को न पा सके कि पत्नियाँ पुरुषों से संगम करें।

(अगस्त्य कहता है—) हमने व्यर्थ श्रम नहीं किया; क्योंकि देव हमारी रक्षा करते हैं। हम दोनों सब विघ्नों को परास्त करें। इस संबंध में हम सैकड़ों फुसलाहटों वाले युद्ध जीतें और सम्यक् रूप से परस्पर मिलकर अभिगमन करें।

इधर-उधर कहीं से मुझ स्तुति करने वाले और इंद्रियों का संयम करने वाले में काम-वासना आ गयी है। मुझ वीर्यवान् को लोपामुद्रा आकृष्ट करती है; और अधीर हुई मुझ धीर का ओष्ठपान करती है।

मैं इस सोम (प्रजापति), जो मेरे हृदय में स्थित है, समीप से प्रार्थना करता हूँ कि जो कोई पाप हमने किया है, उसे वह क्षमा करे। मनुष्य बहुत कामना वाला होता है।

 (कंदमूल आदि की प्राप्ति के लिए) खोदने के साधनों द्वारा खोदते हुए तथा प्रजा, संतान और बल की इच्छा करते हुए, उग्र ॠषि अगस्त्य ने दोनों वर्णों (वरण योग्य संयम और काम) का पालन किया। देवों के प्रति उसकी प्रार्थनाएँ सफल हुईं।2

         इन्हीं मंत्रों का पं॰ रामगोविंद त्रिवेदी द्वारा ‘हिन्दी ॠग्वेद’ में किया हुआ       अनुवाद—

(लोपामुद्रा—)अगस्त्य, अनेक वर्षों से मैं दिन-रात बुढ़ापा लाने वाली उषाओं में तुम्हारी सेवा करके श्रांत हुई (थकी) हूँ। जरा शरीर के सौन्दर्य का नाश करता है। इस समय पुरुष स्त्री के पास क्या गमन करे!

अगस्त्य, जो प्राचीन और सत्य-रक्षक ॠषि लोग देवताओं के साथ सच्ची बात कहते थे, उन्होंने भी रेत (वीर्य) का स्खलन किया है; परंतु उन्हें भी अंत नहीं मिला। पुरुष स्त्री के साथ गमन करे।

(अगस्त्य) हम लोग वृथा नहीं श्रांत हुए; (बेकार में नहीं थके; हमारी मेहनत बेकार नहीं गयी) क्योंकि देवता लोग रक्षा करते हैं। हम सारे भोगों का उपभोग कर सकते हैं। यदि हम दोनों चाहें तो इस संसार में हम सैकड़ों भोगों के साधन प्राप्त कर सकते हैं।

यद्यपि मैं जप और संयम में नियुक्त हूँ तथापि इसी कारण या किसी भी कारण मुझे काम-भाव हो गया है। सेचन करने वाली लोपामुद्रा पति के साथ संगत हो। अधीरा स्त्री धीर और महाप्राण पुरुष का उपभोग करे।

(शिष्य) हृदय में पीत इस सोम से मैं आन्तरिक प्रार्थना करता हूँ कि सोम मुझे सुखी करे। मनुष्य बहुत कामनावाला होता है।

उग्र ॠषि अगस्त्य ने अनेक उपायों का उद्भावन करके बहुत पुत्रों और बल की इच्छा करके काम और तप, दोनों वरणीय वस्तुओं का पालन किया था। अगस्त्य ने देवों के पास सत्य आशीर्वाद प्राप्त किया।3

वैद्य रामगोपाल शास्त्री स्पष्ट करते हैं, कि—यह अगस्त्य और लोपामुद्रा पुरुष और स्त्री के प्रतीकमात्र हैं, वे वास्तविक व्यक्ति (यानी मानवीय पात्र)  नहीं हैं। पाँचवीं ॠचा में कहा है, कि—बड़े-बड़े सत्य-नियमों का पालन करने वाले भी इस काम-वासना का अंत नहीं पा सके। तीसरी ॠचा में कहा है—महाबली अगस्त्य भी विचलित हो गया और कामासक्ति से परिभूत होकर संयोग करने में प्रवृत्त हो गया।

उनके अनुसार, युवा स्त्री-पुरुष जब एक-दूसरे को देखते हैं तब स्वाभाविक रूप से ही उनमें काम-वासना उत्पन्न हो जाती है। ॠचा 5, 6 में कहा है, कि मनुष्य बहुत कामना वाला होता है। वह तीन प्रकार की एषणाओं (पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा) यानी धन, संतान और यश की इच्छा से युक्त है।

इस सूक्त से यह भी स्पष्ट है कि काम-वासना केवल पौष्टिक आहार खाने वाले को ही नहीं सताती बल्कि कंद-मूल आदि खाने वाला वनवासी भी आकर्षक स्त्री को देखकर कामासक्त हो जाता है। मनु ने लिखा है—इंद्रियाँ इतनी प्रबल हैं कि बुद्धिमान व्यक्ति को भी विचलित कर देती हैं।

गीता अध्याय 2 श्लोक 61 में श्रीकृष्ण कहते हैं—‘हे अर्जुन, विचलित करने वाली इंद्रियाँ यत्नशील बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलपूर्वक हर लेती अर्थात् आकृष्ट करके गिरा देती हैं।

‘सत्यार्थ प्रकाश’ में लिखा है—काम के वेग को रोकना बड़ा कठिन है।4

तात्पर्य यह कि ‘काम’ को मनुष्य की सामान्य प्रवृत्ति से काटकर देखना सर्वथा अनुचित है।

अगस्त्य-लोपामुद्रा के मध्य इस संवाद को पं॰ हरिशरण सिद्धांतलंकार की दृष्टि से भी देखते हैं ताकि इस संवाद के एक और बड़े कोण से परिचित हो सकें—

(जीवन को तीन कालों में बाँटती लोपामुद्रा कहती है—) मैंने जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में दिन-रात तथा आयु को एक-एक दिन करके जीर्ण करती उषाओं में खूब श्रम करते हुए निभाया है (इन प्रारम्भिक वर्षों की तीव्र तपस्या व श्रम के बाद मैं इस समय अपने यौवन में हूँ)(समय आएगा कि जब)  जरा अवस्था शरीरों की शोभा को हिंसित कर देती है, कम कर देती है। इसलिए अब यह यौवन की अवस्था ही वह अवस्था है जबकि निश्चय से शक्तिशाली पुरुष पत्नियों को प्राप्त होते हैं।

जो निश्चय से अपना पूरण करने वाले ॠत से अपना मेल करने वाले थे। जिन्होंने ज्ञानी आचार्यों के साथ सत्य-ज्ञानों का ही उच्चारण किया वे भी जीवन के अंत की ओर बढ़ गये। पर, ज्ञान के अंत को प्राप्त नहीं किया। इसलिए अब इससे पहले कि जीवन ढलना आरम्भ हो जाए (हम पति-पत्नी संगत हों) यानी युवावस्था में ही पत्नियाँ शक्तिशाली पतियों के साथ संगत हों।

(अब अगस्त्य कहते हैं—) यह असत्य नहीं है कि श्रम के द्वारा श्रांत (थके) पुरुष की सब देव रक्षा करते हैं। (हम पति-पत्नी) निश्चय से स्पर्द्धा करने वाले (काम-क्रोध आदि) सब शत्रुओं को जीत लें। यहाँ सौ वर्ष तक चलने वाले इस जीवन-संग्राम को जीतेंगे ही, यदि हम मिलकर इन शत्रुओं पर आक्रमण करेंगे।

मुझे तो वही ‘काम’ प्राप्त हो जो एक स्तोता का है। मुझे अपना संयम करने का ‘काम’ प्राप्त हो। यह ‘काम’ इस लोक के दृष्टिकोण से उत्पन्न हुआ है। परन्तु यह आँखों से न दिखने वाले किसी परलोक के दृष्टिकोण से भी हुआ है। (कामात्मा न बने हुए मुझ) शक्तिशाली पुरुष को (लोपामुद्रा=वासनाओं को लुप्त करने वाली) पत्नी निश्चय से प्राप्त होती है। (परंतु कदाचित् पति धीर हो और पत्नी धीर न हो तो) धीर पति को अधीर पत्नी आहें भरते हुए (भाग्य का रोना रोते हुए) पी-सा जाती है (अशक्त बना देती है)

अब इस सोमशक्ति को सान्निध्य के द्वारा हृदय में ही पिया हुआ चाहते हैं। जो निश्चय से अपराध हम कर बैठें तो (वे प्रभु) हमारे जीवन को सुखी करें; क्योंकि मनुष्य निश्चय से बहुत ‘काम’ वाला है।

अगस्त्य कुदालों से खोदता है अर्थात् श्रमशील है। अपने विकास को, संतान को और बल को चाहता है। यह अगस्त्य तेजस्वी होता हुआ अपने जीवन में ब्राह्मण व क्षत्रिय दोनों ही वर्णों का पोषण करता है। यह देवों के विषय में उत्तम इच्छाओं को प्राप्त होता है अर्थात् दिव्य गुणों की ही कामना करता है। 5

मंडल 1 के ही 126वें सूक्त के मंत्र 7  का यह अनुवाद देखिए—

 (पत्नी पति से कहती है—) मेरे पास आकर मुझे अच्छी तरह स्पर्श करो। यह न जानना कि मैं कम रोमवाली अत: भोग के योग्य नहीं हूँ। मैं गंधारी मेषी (अफगानी भेड़) की तरह लोमपूर्ण और पूर्ण-अवयवा हूँ।6

पं॰ हरिशंकर विद्यालंकार ने इस मंत्र का अर्थ यों किया है—

(वेदवाणी कहती है—) तू समीपता से मेरा आलिंगन कर। (सूक्ष्मता से विचार करना ही इसका आलिंगन करना है। जितनी सूक्ष्मता से विचार किया जाएगा, उतना ही यह और-और खुलेगी।) मेरी अल्पता को मान और समझ। यह मत समझ कि मेरे शब्द कम अर्थ वाले हैं। इनका अर्थ-गाम्भीर्य तो सूक्ष्म विचार से ही ज्ञात हो पायेगा। मैं पूर्ण हूँ। मुझमें (रोमशा) ज्ञानजल का निवास है; और मुझे धारण करने वालों की मैं रक्षिका के समान हूँ।7

इस अर्थ को, और ऊपर अगस्त्य-लोपामुद्रा संवाद के अर्थ को पढ़कर वेदमंत्रों के अर्थ-गांभीर्य, पठन-दृष्टि और पठन-क्षमता का भी पता चलता है; परंतु सभी न तो यह अर्थ दे सकते हैं और न सब ग्रहण ही कर सकते हैं।

पं॰ हरिशरण विद्यालंकार के अनुसार, ॠग्वेद (मंडल 1, सूक्त 105, मंत्र 9)  मंत्र का अर्थ यों है—

(दो कान, दो आँखें, दो नासिका छिद्र, एक मुख से निरंतर) जो ज्ञान की सप्त रश्मियाँ चलती हैं, उनके होने पर मेरा यह यज्ञ विस्तृत हुआ है। यह व्यक्ति प्रभु के साथ संबंध के लिए स्तवन करता है। इसके होने पर यह त्रित (ज्ञान, कर्म व उपासना का विस्तार करने वाला) हुआ है। इसने प्रभु को जाना है और उत्तम बना है। मेरे इस संकल्प को द्युलोक और पृथिवीलोक जानें।

(लेख साभार : लघुकथा कलश, जुलाई-दिसंबर 2020; आलेख महाविशेषांक-1; संपादक : योगराज प्रभाकर)

संदर्भ ग्रंथ :

1-    डॉ॰ शकुन्तला  किरण; ‘आधुनिक हिन्दी लघुकथा : उद्भव एवं विकास’, हिन्दी लघुकथा, संकेत प्रकाशन, 372/26, रामगंज, अजमेर; पृष्ठ 70

2-  वैद्य रामगोपाल शास्त्री; वेदों के आख्यानों का यथार्थ स्वरूप; आर्यसमाज, करोलबाग, दिल्ली-5, वर्ष:29 अप्रैल 1972

3-       पं॰ रामगोविंद त्रिवेदी,हिन्दी ॠग्वेद, इंडियन प्रेस (पब्लिकेशन्स) लिमिटेड, प्रयाग, पृष्ठ 272

4-    वैद्य रामगोपाल शास्त्री; वेदों के आख्यानों का यथार्थ स्वरूप; आर्यसमाज, करोलबाग, दिल्ली-5, वर्ष:29 अप्रैल 1972

5-     पं॰ हरिशंकर विद्यालंकार, ॠग्वेदभाष्यम्, भाग-2; श्री घूड़मल प्रहलादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिंडौन सिटी (राज॰); पृष्ठ 98

 

                                                     (शेष आगामी अंक में…)