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(पूर्ण लेख का उत्तर-भाग-1 यानी बीच वाला हिस्सा 16 सित्म्बर, 2010 को तथा उत्तर-भाग-2 यानी अन्तिम भाग, 1सितम्बर 2010 को प्रकाशित किया जा चुका है। इस बार प्रस्तुत है लेख का पूर्व-भाग यानी शुरुआती हिस्सा। इस प्रकार यह लेख समापन को प्राप्त हुआ।–बलराम अग्रवाल)
लेख प्रारम्भ करने से पहले यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि गुलेरी जी द्वारा लिखित सभी पत्रों में हस्ताक्षरित नाम ‘श्रीचन्द्रधर शर्मा’ है, ‘चन्द्रधर शर्मा’ नहीं। अत: स्पष्ट है कि गुलेरी जी का मूल नाम अभिव्यक्ति-लाघव का शिकार होता आया है। अब चूँकि यही नाम प्रचलित भी है इसलिए संशोधन की आवश्यकता नहीं है।
साहित्य एक अनवरत धारा है। ऐसी धारा, जो अनेक स्रोतों से फूटती है और ऐसी अनवरत कि उसका कोई स्रोत समयावधि विशेष के दौरान शान्त और विस्मृत तो हो सकता है, मृत नहीं। मृत हो जाना साहित्य की प्रकृति नहीं है। शान्त अथवा विस्मृत मान लिये गये स्रोत भी मात्र इस अर्थ में विस्मृत होते हैं कि उन्होंने अपने समय के साहित्य से बहुत भिन्न गति की रचनाएँ सर्जित की होती हैं। यह भिन्न गति इतनी धीमी हो सकती है कि अपने समय के साहित्य से काफी पीछे छूट जाए और इतनी तीव्र भी कि अपने समय के साहित्य से बहुत आगे निकल जाए। दोनों स्थितियों में यह तत्कालीन समाज को कोई दृष्टि दे पाने में अक्षम ही रहती है।
साहित्य की धारा कुछ-कुछ पृथ्वी की गति जैसी होती है, जो अपनी धुरी पर भी घूमती है और आगे भी बढ़ती है; अर्थात इसमें आलोड़न और उद्वेलन साथ-साथ चलते हैं। इसलिए कालान्तर में, पीछे छूट गई या आगे निकल आई विस्मृत मान ली गई साहित्य-धाराओं से भी जा-आ मिलती है। तात्पर्य यह कि आवश्यक नहीं कि किसी साहित्य की प्रवृत्ति को उसके रचनाकाल के दौरान ही जान और समझ लिया जाए। चेखव की रचनाओं का उचित मूल्यांकन उनकी मृत्यु के उपरांत ही हो सका। वस्तुत: लेखक जिस मन्तव्य के साथ सर्जन करता है, उस मन्तव्य को अलग रखकर उसकी रचनाओं का उचित आकलन असंभव है।
आकलन की उपेक्षा के ऐसे दौर को हिंदी लघुकथा ने भी सहा है। अव्वल तो पूर्व-कथाकारों द्वारा स्वतन्त्र कथा-प्रकार के रूप में लघुकथा-सर्जना कम ही हुई; परन्तु जितनी भी हुई, अवांछनीय बिखराव के साथ। विचाराभिव्यक्ति या कथाभिव्यक्ति के समय शाब्दिक-सघनता पर ध्यान केन्द्रित करने की स्थिति में उस काल का साहित्य संभवत: नहीं था। हिंदी साहित्योत्थान का वह शैशव जैसा ही काल था। कथा के सन्दर्भ में तो यह धारणा शब्दश: सही प्रतीत होती है। हिंदी का प्रारम्भिक कथा-साहित्य वर्णनात्मक और व्याख्यात्मक ही अधिक है। आज की दृष्टि से देखें तो उसमें विरलता भी है। वस्तुत: आकारगत लघुता उस काल में प्रचलन से परे की चीज थी। अत: वैसी कथा-रचनाओं को आकलन योग्य भी नहीं माना गया और शायद इसीलिए तत्कालीन लेखकों ने लघ्वाकारीय रचना-कर्म से स्वयं को यथासंभव दूर रखना ही बेहतर समझा। लघ्वाकारीय रचना-कर्म से दुराव की यह मानसिकता कुछेक मौकों को छोड़कर पिछ्ली सदी में सातवें दशक के उत्तरार्द्ध तक बनी रही। लघ्वाकारीय हिंदी कथा-रचनाओं के बारे में पहली टिप्पणी संभवत: प्रेमचंद के द्वारा कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ की लघु कथा-रचनाओं के बारे में सामने आई, परन्तु इससे लघुकथा-लेखन की स्थिति में कोई रचनात्मक परिवर्तन नहीं आया। मिश्र जी स्वयं तो जरूर लगे रहे, अपने समय के अन्य कथाकारों को इस ओर प्रवृत्त होने की प्रेरणा न तो दे सके और न ही बन सके। हालाँकि लगभग सभी महत्वपूर्ण कथा-लेखकों ने लघ्वाकारीय कथा-सर्जना की है—भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, अयोध्या प्रसाद गोयलीय, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, सुदर्शन, माखनलाल चतुर्वेदी आदि सभी ने; परन्तु इनमें से किसी के भी इस कार्य का अलग से कभी आकलन नहीं हुआ। ‘परिहासिनी’(1875-76) में संकलित भारतेन्दु हरिचन्द्र की हास-परिहासात्मक व गंभीर लघ्वाकारीय रचनाओं पर भी हमारी दृष्टि ‘भारतेन्दु समग्र’ के प्रकाशनोपरांत 1985 में ही पड़ पाई यानी मूल पुस्तक के प्रकाशन के लगभग 110 वर्ष बाद। वह भी इसलिए कि एक स्वतंत्र कथा-विधा के रूप में लघुकथा तब तक अपनी अस्मिता सिद्ध कर चुकी थी।
भारतेन्दु के उपरांत गुलेरी जी एक और महत्वपूर्ण कथाकार हैं जिनकी पर्याप्त (17 या 18) लघ्वाकारीय कथा-रचनाएँ ‘खोज’(?) ली गई हैं। गुलेरी साहित्य के खोजी डा. मनोहर लाल के अनुसार—उन्होंने अपने निबन्धों, लेखों, और पत्रों में यत्र-तत्र पुराणों, धर्मग्रन्थों तथा संस्कृत-साहित्य के दृष्टान्तों के रूप में कुछ लघुकथाएं उद्धृत की हैं जिन्हें कथाकार-पत्रकार-संपादक बलराम ने वहाँ से नोंच लिया है। गुलेरी जी की लघुकथाओं के संबंन्ध में यह कथन विशेष महत्व रखता है क्योंकि कथित रूप से उनके द्वारा लिखी लघुकथाओं में से अधिकतर जैन आचार्य सोमप्रभसूरि द्वारा संवत 1241 में रचित संस्कृत-ग्रंथ ‘कुमारपालप्रतिबोध’ तथा आचार्य मेरुतुंग द्वारा संवत 1361 में रचित संस्कृत-ग्रंथ ‘प्रबंधचिन्तामणि’ के श्लोकों की व्याख्या हेतु संदर्भ-कथा के रूप में प्रयुक्त हुई हैं। इस आधार पर नि:संकोच कह सकते हैं कि गुलेरी जी ने स्वतन्त्रत: एक भी लघुकथा नहीं लिखी है उनके द्वारा उद्धृत की जाने तथा बलराम जैसे प्रबुद्ध लघुकथा-संपादक के उद्योग के कारण उक्त संदर्भ-कथाओं का अलग से आकलन अवश्य किया जा सकता है।
यद्यपि जिस तरह से ‘परिहासिनी’ की रचनाओं को लघुकथा मानने न मानने जैसी मत-भिन्नता है, वैसी ही गुलेरी जी की लघुकथाओं के बारे में भी हो सकती है, तथापि ऐसी मत-भिन्नता का मुख्यत: एक ही कारण होता है—आलोचक का दृष्टि-संकोच। वह ‘आज’ की दृष्टि से इन रचनाओं की भाषा, शैली, शिल्प, कथानक और उसके विस्तार को परखता है। जिस काल में लिखी गई रचना को उसने आकलन के लिए उठाया है, उस काल की रचनाशील प्रवृत्तियों, क्षमताओं और विवशताओं को उनकी सम्पूर्ण व्यापकता और गहनता के साथ महसूस करने के लिए अपने ज्ञान और संवेदन-तन्तुओं को उस काल से जोड़ने की क्षमता जब तक वह अपने भीतर पल्लवित नहीं करेगा, रचना का उचित एवं न्यायपूर्ण विवेचन नहीं कर पाएगा। किसी भी रचना के उचित एवं न्यायपूर्ण आकलन के लिए आलोचक का न सिर्फ रचना और उसके काल से बल्कि रचनाकार और उसकी प्रवृत्तियों से भी जुड़ाव आवश्यक है। अफ्रीकी-गुरिल्लाओं के आचरण, चरित्र, स्वभाव और प्रवृत्तियों पर शोध कर रही जर्मन जीवविज्ञानी जंगल में गुरिल्ला-समूह का पीछा करते हुए मनुष्य-जैसा व्यवहार करने की बजाय गुरिल्ला-जैसा पशुवत-व्यवहार ही करती है। मस्तिष्क से वह मनुष्य होती है और व्यवहार से पशु। गुरिल्ला-समूह में घुल-मिल जाने के लिए, निकट से उनके हर पक्ष का अध्ययन करने के लिए उसकी गुरिल्लावत चेष्टाएँ ही उसको सफल बना सकती हैं। गुरिल्लाओं के बीच भी उसे अगर मानव के रूप में अपने विकसित और सभ्य हो जाने का रौब गाँठे रखना है तो उन्हें उनके हाल पर छोड़कर उसे अपनी विकसित और सभ्य दुनिया में लौट जाना चाहिए।
गुलेरी जी की लघु कथा-रचनाओं का काल सन 1904 से 1922 तक बताया जाता है। भारतीय स्वातन्त्र्यान्दोलन के ये महत्वपूर्ण वर्ष हैं। 1915 में गांधीजी का भारत में पदार्पण हो चुका था। पूरा देश राष्ट्रप्रेम की भावना और उनके आह्वानों से इस कदर आन्दोलित था कि 1920 में उनके असहयोग-आन्दोलन से प्रेरित होकर प्रेमचन्द तक ने सरकारी-सेवा को सलाम कह दिया था, ऐसा हम पढते हैं। विश्व-परिदृश्य को लें तो प्रथम विश्वयुद्ध, रूसी-क्रान्ति और वहाँ पर ज़ारसाही का खात्मा आदि अनेक ऐतिहासिक घटनाएँ उसी काल में घटित मिलती हैं। ऐसे उद्वेलनकारी काल में गुलेरी जी ने जिन कथानकों को उठाया—ऊपरी तौर पर बेशक वे कालानुरूप तेवर प्रस्तुत नहीं करते, परन्तु यह बात ध्यान देने योग्य है कि गुलेरी जी का अपना व्यक्तित्व क्या है? रचना के किसी भी स्तर पर क्या वे हमें अधीर होते नजर आते है? उनकी कालजयी कृति ‘उसने कहा था’ को ही लें—किशोरावस्था के प्रेम को लहनासिंह अंत तक अपने हृदय में पाले रखता है, लेकिन शरतचन्द्र के देवदास की शैली में नहीं। बचपन की उस घटना और उस लड़की को वह जैसे भूल ही चुका था, अगर सूबेदारनी होरां खुद ही अपने-आप को उसके आगे प्रकट न कर देती और अपने पति और पुत्र की रक्षा का अनुरोध न कर बैठती। बचपन की घटना के पच्चीस साल बाद हुई यह अचानक भेंट और अनुनय उसे पुन: जज्बे के उसी मोड़ पर लाकर खड़ा कर देती हैं जिस पर अपनी जान की परवाह न करते हुए एक दिन उसने ताँगे के नीचे आती लड़की की जान बचाई थी। पच्चीस साल पहले फूटा प्रेम का अंकुर हरहरा उठता है और शेष जीवन का वह जैसे उद्देश्य ही निश्चित कर लेता है। सूबेदार हजारासिंह से मृत्यु के निकट पहुँच चुके लहनासिंह के वे शब्द—सुनिए तो, सूबेदारनी होरां को चिट्ठी लिखो तो मत्था टेकना लिख देना। और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उन्होंने कहा था, मैंने वही किया—हमें गुलेरी जी के सरल व्यक्तित्व के दर्शन तो कराते ही हैं, उन्हें सकारात्मक दिशा का कथाकार भी सिद्ध करते हैं। युद्ध और उसके क्षेत्र की समस्त विभीषिकाओं के बीच, यहाँ तक कि मृत्यु-मुख में पड़े होने की स्थिति में भी वह प्रेम और आदर्शों की रक्षा हेतु प्राणाहुति में विश्वास करते हैं। शरतचन्द्र का देवदास भी वचन का पालन करता है। उसका तो प्राणांत भी पारो की ससुराल में ही होता है, परन्तु वह नकारात्मक दिशा का नायक है। दोनों कथाकारों की प्रवृत्तियाँ भिन्न हैं इसलिए ‘उसने कहा था’ का नायक देवदास नहीं है, लहनासिंह है। ‘उसने कहा था’ शाब्दिक चमत्कार, लहनासिंह के भौतिक या आदर्श प्रेम या फिर प्रेमिका के साथ वचनबद्धता के निर्वाह मात्र की कहानी नहीं है। वह एक ऐसे व्यक्तित्व का चित्रांकन है, जो अपनी धीरता और निष्ठा-परायणता में हर दृष्टि से सकारात्मक और पूर्ण है। वह न युद्ध-क्षेत्र की विभीषिका से हिलता है और न लम्बे समयोपरांत प्रेमिका से अचानक भेंट हो जाने की असीम प्रफुल्ल्ता से। वह सागर-तल-सा धीर और सहज है। यही कारण है कि गुलेरी जी घोर राजनीतिक उथल-पुथल के काल में भी सहज लेखन करते हैं। वह न उच्छृंखल और नकारात्मक प्रेम के गीत गाते हैं और न हिंसक-अहिंसक मारा-मारी के। वह सहज रहते हैं, लेकिन एक तेवर के साथ। उनका तेवर ‘महर्षि’ के ‘अर्शी तमुक’ का तेवर है जो 1904 में भी, जबकि साधु-संयासियों के प्रति आमजन की अंधश्रद्धा आज की तुलना में कहीं अधिक रही होगी, चरणों में गेरुआ बूट, देह में रेशमी कंबल और मुँह पर चिकनी दाढ़ीधारी ‘महर्षि अमुकानन्द सरस्वती’ पर तुरन्त कटाक्ष करने से नहीं चूकता। ‘महर्षि’ में अर्शी तमुक के माध्यम से महर्षि अमुकानन्द सरस्वती पर ही नहीं—‘बरक्कत’ में वेश्या के माध्यम से राजा भोज पर भी वह वैसा ही कटाक्ष करते हैं। ‘बरक्कत’ और ‘राजा की नीयत’ पात्रों के बदलाव के साथ एक ही कथानक की दो रचनाएँ प्रतीत होती हैं।
(बलराम द्वारा संपादित लघुकथा संकलन ‘गुलेरी की लघुकथाएँ’, मासिक ‘उत्तर प्रदेश’ तथा त्रैमासिक ‘वर्तमान जनगाथा’ में प्रकाशित।)