सोमवार, 3 मार्च 2014

बदलाव ही नवीनता को रेखांकित करते हैं / बलराम अग्रवाल


प्रभा - महिलाओं की बिगड़ती दशा के लिए कौन जिम्मेदार है-समाज, परिवार, खूनी खापें या स्वयं वे?
                                  photo:Balram Agarwal
बलराम अग्रवाल-जब हम समाज के किसी वर्ग-विशेष को शिक्षा से काट देते हैं यानी शिक्षा पाने के मूल अधिकार से वंचित कर देते हैं तो उस वर्ग-विशेष की हालत निश्चित रूप से कमजोर होगी ही। पुरातन समाज के परिप्रेक्ष्य में लगभग समूचे महिला-वर्ग को तथा दलित-वर्ग को हम उक्त वंचित समुदाय में गिन सकते हैं। शिक्षा, विवेक और तार्किकता-इन तीनों का जीवन में होना बहुत जरूरी है। ये तीनों शिक्षा से ही आएँगे। अगर ये अशिक्षा से आते हैं तो कमजोर ही होंगे। यहाँ, शिक्षा से तात्पर्य अकादमिक शिक्षामात्र नहीं है। पुराने समय में लड़कियों को घरेलू स्तर पर अनौपचारिक शिक्षा दी जाती थी, परन्तु आज के समय में औपचारिक शिक्षा भी आवश्यक है।

प्रभा - नई शिक्षा में खिंचाव पैदा हो रहा है, क्यों?
बलराम अग्रवाल-मेरा मानना है कि पुरातन मान्यताओं के विरुद्ध नई शिक्षा की तर्कशील प्रवृत्ति से उत्प्रेरित कुछ लोग अनर्गल तर्क का आश्रय लेते हैं जब कि तर्क केवल तर्क के लिए न होकर किसी निर्णय पर पहुँचने की नीयत से किया जाना चाहिए। तर्क के लिए तर्क या केवल बहस में बने रहने के लिए तर्क अहम् अथवा कुत्सित बुद्धि का हिस्सा है, चेतनशीलता का नहीं। संतोष की बात है कि आज के समय में शिक्षा की वृद्धि हो रही है। बच्चियाँ पढ़ रही हैं। कष्ट की बात यह है कि समाज में बच्चियों की स्थिति खराब है; उनके खिलाफ एक विशेष प्रकार की पाशविकता पुरुष समाज में फैल रही है।

प्रभा - हम पुरुषों पर ध्यान केन्द्रित करें या परिस्थितियों पर, जो पाशविकता पैदा कर रही हैं?
बलराम अग्रवाल-जस दूलह तस बनी बराताकहें या जैसा राजा वैसी प्रजावाली कहावत को सच मानें। ३राजा अगर संकल्पहीन है तो प्रजा भी संकल्पहीन होगी ही। हमारा पूरा राजतंत्र ही संकल्पहीन है। आज किसी भी रूप में सही, पर है राजतंत्र ही; क्योंकि प्रजा के हाथ में कुछ भी रह नहीं गया है। हमारे राजनीतिक लोग लगातार अनैतिक होते जा रहे हैं और उनकी अनैतिकता जब सामने आती है तब भी वे ढीठ बने कुर्सी को जकड़कर बैठे रहते हैं। ऐसी अवस्था में आप उनसे प्रजा के हित की कल्पना नहीं कर सकते।

प्रभा - साहित्य के क्षेत्र में जो युवा पीढ़ी द्वारा बदलाव आया है, उसका जिम्मेदार आप किसे मानते हैं-लेखक स्वयं या वे पुराने साहित्यकार या संपादक?
बलराम अग्रवाल-परिवर्तन अचानक नहीं आता, वह शनैः शनैः आता है। परिवर्तन एक प्रक्रिया है। आज की पीढ़ी पुरानी पीढ़ी को पढ़कर आज के समाज को देखने की कोशिश करती है। अगर आज के समूचेपन को पुरानी दृष्टि से नहीं देखा जा पा रहा तो वह उस दृष्टि में बदलाव की कोशिश करती है। ये बदलाव ही उस समाज व उस लेखक की नवीनता व ऊर्जस्विता को रेखांकित करते हैं। संस्कृति यों बनती है कि-हमने पुरानी पीढ़ी को पढ़ा, समझा, उसे आज भी उपयोगी व विश्वसनीय पाया तो ज्यों का त्यों आगामी पीढ़ी को उसे सौंप दिया। लेकिन वह परम्परा जो आज की पीढ़ी के लिए उपयोगी व विश्वसनीय नहीं रह गई है उसमें तो विकास के मद्देनजर बदलाव चाहिए ही। देशकाल की उपेक्षा करके आगामी पीढ़ी के आगे ज्यों की त्यों रख दी जाने वाली परम्परा रूढि़बन जाती है जो समूचे समाज के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकती है।

प्रभा - वर्तमान समय में आज का साहित्यकार समाज से कुछ अलग-सा हो गया है; यानी समाज की विषम परिस्थितियों में अपनी भागीदारी दर्ज नहीं करवा रहा। क्या सोचते हैं आप?

बलराम अग्रवाल-इंसान का पहला धर्म है इंसान होना। लेखक का भी पहला धर्म है नागरिक होना; सिर्फ कमरे में बैठकर लिखना ही उसका धर्म नहीं है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना के आंदोलन के बारे में, मैं समझता हूँ कि लेखकों के बीच बुनियादी मतभेद नहीं है; लेकिन उसमें भागीदारी कितनों ने की? रूस, फ्रांस आदि जितनी भी बड़ी क्रांतियाँ हुई, उनके लेखकों ने सक्रिय रूप से गहरी जिम्मेदारी के साथ उनमें भागीदारी की है। वर्तमान भारत में ऐसा कम हो पा रहा है।

प्रभा - कविता, कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में इस समय दलित साहित्यकेन्द में पहुँच चुका है या अब भी हाशिये पर ही है?
बलराम अग्रवाल-इसे आप हाशिया का केन्द्र नहीं कह सकते। साहित्य में दलित चेतना की बात कह सकते हैं। पिछले कुछ दशक में दलित चेतना ने आम पाठक को झकझोरा है या कहिए कि अलग तरीके से सोचने पर मज़बूर किया है।

प्रभा - क्या ये दया पाने के लिए तो नहीं कर रहे?
बलराम अग्रवाल-नहीं, वे सब सहानुभूति पाने तक ही सीमित नहीं हैं। उन्होंने कुछ ऐसे विषयों पर कलम चलाई है जिनकी तरफ सवर्ण समाज का ध्यान कभी गया ही नहीं। समाज में लम्बे समय से महिलाओं और दलितों की स्थिति लगभग समान है। दोनों ही उपेक्षित जीवन जी रहे हैं३ बदलाव आने के बावजूद भी उपेक्षा का प्रतिशत ज्यादा है।

प्रभा - किस तरह का ध्यान चाहते हैं?
बलराम अग्रवाल-वे स्वतंत्रताएँ, जो पुरुष अपने लिए चाहता है, स्त्री को भी दे; और जो स्वतंत्रताएँ सवर्ण समाज अपने लिए चाहता है, वही दलितों को भी दे। इसमें वैचारिक और व्यावहारिक-दोनों स्वतंत्रताएँ शामिल हैं।

प्रभा-आप कथा और लघुकथा में क्या अंतर करेंगे?
बलराम अग्रवाल-दोनों एक ही हैं। कथा, साहित्य का एक अंग है और लघुकथा उसकी एक धारा। विषय की प्रकृति और कथानक-विस्तार की संभावना पर निर्भर करता है कि वह लघुकथा के लिए उपयुक्त है, कहानी के लिए या उपन्यास के लिए।

प्रभा - लघुकथाऔर अंग्रेजी शॉर्ट स्टोरी’-आम आदमी को यही लगता है कि लघुकथा कहानी का ही रूपांतरण है। आप इस बारे में क्या सोचते हैं?
बलराम अग्रवाल-समाज का हर व्यक्ति साहित्यिक नहीं है। स्टोरीशब्द प्रारम्भ में उस कथा के लिए इस्तेमाल होता था जिसे नावेलकहा गया और जो सात-सौ आठ-सौ पृष्ठों से कम विस्तृत तो होता ही नहीं था। बाद के कथाकारों ने जब उसका आकार छोटा करके प्रस्तुत करना प्रारम्भ किया तो उसका नाम पड़ा शॉर्ट स्टोरी। आप देखेंगी कि प्रारम्भिक दौर की अंग्रेजी कहानी आज के दौर के छोटे-मोटे हिन्दी उपन्यास जितने आकार वाली होती है। कहने का मतलब यह कि अंग्रेजी के शॉर्ट स्टोरीशब्द को हिन्दी में स्वतंत्रतः कहानीशब्द दिया गया; ‘छोटी कहानीया छोटी कथाया लघु कथाके तौर पर उसका शब्दानुवाद ग्रहण नहीं किया गया। इसलिए वर्तमान लघुकथाएक स्वतंत्र कथाःप है, यह शॉर्ट स्टोरीका शब्दानुवाद नहीं है।

प्रभा - कहानी और लघुकथा के विषयमें आप क्या अंतर करेंगे?
बलराम अग्रवाल-विषय तो एक ही हो सकता हैएक ही विषय पर लघुकथा भी लिखी जा सकती है, कहानी भी और उपन्यास भी।

प्रभा - लघुकथा का वास्तविक पर्याय क्या है? क्या वह कहानी का छोटा रूप है?
बलराम अग्रवाल-नहीं। लघुकथा कहानी का छोटा रूप नहीं है, वह अपने आप में सम्पूर्ण कहानी है। कहानी में अनेक मनोवैज्ञानिक स्थितियाँ होती हैं, भाव होते हैं, संवेदनाएँ होती हैं। अलग-अलग संवेदना पर कथा को केन्द्रित करने, आम पाठक का ध्यान उस ओर आकर्षित करने का काम लघुकथाकार करता है।

प्रभा-एक ही कहानी से कई लघुकथाएँ बन सकती हैं?
बलराम अग्रवाल-एक कहानी में कई लघुकथाएँ समाहित रह सकती हैं क्योंकि उसमें अनेक वस्तुसमाहित रह सकती हैं। जैसे एक उपन्यास में अनेक कहानियों की वस्तुनिहित हो सकती है। उन अनेक वस्तुओं को उपन्यास से हटा देने पर उपन्यास की तथा कहानी से हटा देने पर कहानी की हत्या हो सकती है। दैनिक जीवन की संवेदनाओं को पाठक के सामने लाने का काम हर लेखक करता है; लेकिन अनदेखी रह जाने वाली संवेदना को उसकी सम्पूर्ण महत्ता के साथ प्रस्तुत करने का काम लघुकथाकार करता है।

प्रभा - आपका लेखक किन विषयों का चुनाव करता है और उसके चयन के दायरे क्या हैं?
बलराम अग्रवाल-दायरा नहीं है। दायरा तय करेंगे तो लेखन के साथ न्याय नहीं कर पायेंगे। विषय के बारे में भी कभी सोचा ही नहीं। पारम्परिक रिवाज़; धार्मिक रिवाज़ में कुछ असंगत दिखाई देता है तो लिखने की प्रेरणा मिलती है।

प्रभा - क्या आपकी लघुकथा में आलोचना और व्यंग्य का समावेश होता है; या कुछ और भी?
बलराम अग्रवाल-आलोचना करना या उपदेश देना अपना काम नहीं है। समकालीन लघुकथा का भी यह काम नहीं है। स्थिति-विशेष को पाठक के सामने रखने के लिए अभिव्यक्ति की तीक्ष्णता की आवश्यकता महसूस होती है। उस स्थिति में कथाकार का स्वर व्यंग्यात्मक भी हो सकता है और आक्रोशपरक भी। इन दोनों में मैं व्यंग्यपरक होने को प्राथमिकता देता हूँ।

प्रभा - नई पीढ़ी के किन कवियों और लेखकों में आप विशेष संभावना देखते हैं? उनके लिए क्या संदेश देना चाहेंगे?
बलराम अग्रवाल-प्रत्येक नई पीढ़ी स्वभाव से ही अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी की तुलना में अधिक तार्किक और स्पष्ट रहना पसंद करती है। यह गुण आज की पीढ़ी में भी है। आज के या वर्तमान समय के कवि और लेखक अलग मुहावरे और अलग भाषा उपस्थित नजर आते हैं, यह संतोष की बात है।
संपर्क: बलराम अग्रवाल,
एम-70, नवीन शाहदरा,
दिल्ली-110032
मो॰:+918826499115