रविवार, 29 अप्रैल 2012

केवल लघु-आकार ही लघुकथा की पठनीयता और जनप्रियता का कारण नहीं/बलराम अग्रवाल


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('हिन्दी लघुकथा का विकास एवं मूल्यांकन' से जुड़े प्रमुख चिंतन-बिंदुओं पर बलराम अग्रवाल से जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में शोध हेतु पंजीकृत सुश्री शोभा भारती की प्रश्न-बातचीत का प्रथम अंश।)
शोभा भारतीआपके विचार से हिन्दी की पहली लघुकथा किसे कहा जाना चाहिए और क्यों?
बलराम अग्रवालइस प्रश्न के विस्तृत उत्तर के लिए आप मेरा लेख पहली हिन्दी लघुकथा पढ़ लें। यह समांतर पत्रिका के लघुकथा विशेषांक जुलाई-सितम्बर, 2001 में प्रकाशित हुआ था और इंटरनेट पर भी उपलब्ध है। लिंक है http://wwwlaghukatha-varta.blogspot.com/ 2009/01/1.html
शोभा भारती लघुकथा के उद्भव को लेकर कुछ लोगों का मानना है कि इसका मूल पंचतंत्र, हितोपदेश और जातक कथाओं में है, जबकि कुछ लोग कहते हैं कि यह वर्तमान जीवन की विसंगतियों से उद्भूत है। आप क्या सोचते है?
बलराम अग्रवालमेरा सुझाव है कि लघुकथा से सम्बन्धित कुछ बारीकियों को आसानी से समझ लेने के लिए सभी को नहीं तो कम-से-कम लघुकथा विषयक शोधों से जुड़े लोगों को बारीक-सी एक विभाजन अवश्य स्वीकार कर लेना चाहिए। यह कि सन् 1970 तक की सभी लघ्वाकारीय कथा-रचनाएँ, वे चाहे दृष्टांत परम्परा की हों चाहे भाव परम्परा की हों, गम्भीर कथ्य परम्परा की हों या व्यंग्यात्मक पैरोडी परम्परा की, लघुकथा हैं; और सन् 1971 से अब तक की लघुकथाएँ समकालीन लघुकथा हैं। यह बात लघुकथा के शनै: शनै: परिवर्तित व परिवर्द्धित स्वरूप के मद्देनज़र कही जा रही है। लघुकथा में यह परिवर्तन व परिवर्द्धन यद्यपि सन् 1965 के आसपास से दिखाई देना प्रारम्भ हो जाता है तथापि बहुलता के साथ यह सन् 1971 के बाद ही प्रकट होता है। इसलिए जिस लघु-आकारीय कथा-रचना का मूल पंचतंत्र, हितोपदेश, जातक कथाएँ अथवा अन्य पुरातन कथा-स्रोत बताए जाते हैं वह (इने-गिने अपवादों को छोड़कर, घनीभूतता के साथ सन् 1970 तक तथा विरलता के साथ 1975-76 तक भी) लघुकथा है और जिसका उद्भव वर्तमान जीवन की विसंगतियों से बताया जा रहा हैवह पूर्व-कथित उसी लघुकथा का विकसित स्वरूप समकालीन लघुकथा है जिसका प्रादुर्भाव लगभग सभी लघुकथा-आलोचक 1971 से स्वीकार करते हैं।
शोभा भारती कथाकुल में जन्मी लघुकथा को आप उपविधा मानते हैं या विधा?
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बलराम अग्रवालरचनात्मक साहित्य में मैं उपविधा जैसे किसी भी प्रकार को प्रारम्भ से ही नहीं मानता। डॉ॰ उमेश महादोषी के इसी सवाल के जवाब में सन् 1988 में मैंने कहा था—“यह लघुकथा में लेखन के स्तर पर चुक गए कुण्ठित लोगों द्वारा छोड़ा गया शिगूफा है…(देखें:लघुकथा विशेषांक सम्बोधन:सं॰ क़मर मेवाड़ी:पृष्ठ99)।

शोभा भारती आरम्भिक लघुकथाओं और आज की लघुकथाओं में आप क्या अन्तर पाते हैं?
बलराम अग्रवालआरम्भिक लघुकथाएँ आम तौर पर उपदेश और उद्बोधन की मुद्रा में नजर आती हैं या फिर व्यंग्य व कटाक्षपरक पैरोडी कथा के रूप में, जबकि समकालीन लघुकथा मानवीय संवेदना को प्रभावित करने वाली बाह्य भौतिक स्थिति अथवा आन्तरिक मन:स्थिति के चित्रण मात्र से पाठक मन में आकुलता उत्पन्न करने का, मस्तिष्क में द्वंद्व उत्पन्न करने का दायित्व-निर्वाह करती है। अध्ययन से सिद्ध होता है कि समकालीन लघुकथा पाठक के समक्ष सिर्फ निदान प्रस्तुत करती है, समाधान नहीं।
शोभा भारती लघुकथा के उत्कर्ष के लिए लघुकथाकारों, संपादकों और प्रकाशकों द्वारा किए गये प्रयास क्या आपको पर्याप्त लगते हैं?
बलराम अग्रवाललघुकथा के उत्कर्ष के लिए मात्र लघुकथाकारों ने ही नहीं अन्य साहित्यकारों ने भी खासे प्रयास किए हैं। कथाकारों-कवियों में असगर वजाहत, विष्णु नागर, प्रेमपाल शर्मा, चित्रा मुद्गल, महेश दर्पण, प्रेमकुमार मणि आदि, आलोचकों में डॉ॰ कमल किशोर गोयनका, डॉ॰ ब्रजकिशोर पाठक, डॉ॰ सुरेश गुप्त, डॉ॰ रत्नलाल शर्मा, कृष्णानन्द कृष्ण आदि तथा संपादकों में कमलेश्वर, अवध नारायण मुद्गल, राजेन्द्र यादव, रमेश बतरा, प्रभाकर श्रोत्रिय, हसन जमाल, क़मर मेवाड़ी, अवध प्रताप सिंह, महाराज कृष्ण जैन व उर्मि कृष्ण, प्रकाश जैन व मोहिनी जैन, शैलेन्द्र सागर, बलराम, अशोक भाटिया, सुकेश साहनी, सतीशराज पुष्करणा, कमल चोपड़ा, डॉ॰ रामकुमार घोटड़ आदि के अवदान को नकारना असम्भव है। प्रिंट क्षेत्र के प्रकाशकों में अयन प्रकाशन के स्वामी श्रीयुत भूपाल सूद ने काफी लघुकथा संग्रह व संकलन प्रकाशित किए हैं। दिशा प्रकाशन, किताबघर व भावना प्रकाशन ने भी लघुकथा के संग्रह व संकलन वरीयता से प्रकाशित किए हैं। बावजूद इस सबके लघुकथा के उन्नयन का भाव किसी प्रकाशक के मन में रहा हो, ऐसा मुझे नहीं लगता। बलराम द्वारा संपादित विश्व लघुकथा कोश सन्मार्ग प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था, लेकिन वह विशुद्ध व्यापारिक एप्रोच का मामला प्रतीत होता है। लघुकथा के उन्नयन का अत्यन्त महत्वपूर्ण और साफ-सुथरा काम रामेश्वर काम्बोज हिमांशु व सुकेश साहनी की टीम ने लघुकथा डॉट कॉम नाम से वेबसाइट संपादित करके किया है। इस कार्य में वे धन और बल दोनों खपा रहे हैं।
शोभा भारती कहानी और लघुकथा में आकार के अलावा क्या अंतर आप देखते हैं?
बलराम अग्रवालसबसे पहले तो यह जान लेना आवश्यक है कि अनेक कथा-रचनाएँ छोटे आकार की होते हुए भी कहानी ही होती हैं, लघुकथा नहीं। इसलिए आकार में छोटी होने-मात्र के कारण ही किसी कथा-रचना को लघुकथा मान लेना न्यायसंगत नहीं है और न ही यह कि केवल लघु-आकार ही लघुकथा की पठनीयता और जनप्रियता का कारण है। कहानी सामाजिक विसंगतियों, असंगत मानवीय क्रिया-कलापों व मानसिक व्यापारों के कारणों और कारकों की पड़ताल तथा उनका खुलासा करती हुई पाठकीय संवेदना को छूने-जगाने का प्रयास करती है जबकि लघुकथा सामाजिक विसंगतियों, असंगत मानवीय क्रिया-कलापों व मानसिक व्यापारों को पाठक के सामने सीधे प्रस्तुत कर देती है तथा कथा-संप्रेषण में वांछनीय कारणों व कारकों का आभास कराती हुई उन्हें कथा के नेपथ्य में बनाए भी रखती है। कहानी को केन्द्रीय कथ्य के आजू-बाजू भी अनेक स्थितियों के दर्शन कराने, चित्रण करने की छूट प्राप्त है जबकि लघुकथा में यह अवांछित है क्योंकि ऐसा करने से लघुकथा के शैल्पिक-गठन में छितराव आ जाने का खतरा बराबर बना रहता है।
शोभा भारती लघुकथा अक्सर समाज की विसंगतियों की ओर ही इशारा करती है। क्या आपको लगता है कि इसमें मनुष्य की सकारात्मक भावनाओं का अंकन भी उतनी ही तीव्रता से सम्भव है?
बलराम अग्रवालअलग-अलग कालखण्ड में सामाजिक आवश्यकताएँ, मानवीय प्राथमिकताएँ और साहित्यिक अपेक्षाएँ अलग-अलग ही हुआ करती हैं। नि:संदेह समकालीन लघुकथा का प्रारम्भिक काल समाज की विसंगतियों की ओर इशारा करने को वरीयता देने वाला ही रहा होगा। इस तथ्य को उस समय की अनेक सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं-दुर्घटनाओं के अध्ययन के द्वारा आसानी से जाना-समझा जा सकता है। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि लघुकथाकारों का ध्यान मनुष्य की सकारात्मक भावनाओं की ओर अथवा मानवीय संवेदनशीलता के उत्कृष्ट पक्ष की ओर कभी गया ही नहीं। रामेश्वर काम्बोज हिमांशु की ऊँचाई, रूप देवगुण की जगमगाहट, सुकेश साहनी की ठडी रजाई, पृथ्वीराज अरोड़ा की बेटी तो बेटी होती है, स्वयं मेरी(यानी बलराम अग्रवाल की) गोभोजन कथा, श्यामसुंदर अग्रवाल की संतू, श्यामसुंदर दीप्ति की हद, अशोक भाटिया की कपों की कहानी, सुभाष नीरव की अपने घर जाओ न अंकल, विपिन जैन की कंधा आदि अनगिनत लघुकथाएँ हैं जिनमें मनुष्य की सकारात्मक भावनाओं का, मानवीय संवेदनशीलता का अंकन सफलतापूर्वक हुआ है।
शोभा भारती कब कोई लघुकथा मात्र चुटकुला बनकर रह जाती है?
बलराम अग्रवाललघुकथा ही नहीं, कोई कहानी भी चुटकुला बनकर रह जा सकती है, अगर कथ्य-संप्रेषण की ओर कथाकार गंभीरता से अपने कदम न बढ़ाए और रचना-समापन में यथेष्ट सावधानी न बरते। अन्तर केवल यह है कि आकारगत लघुता वाली रचना को चुटकुला कह देना आसान होता है जबकि लम्बी रचना को चुटकुला न कहकर हास-परिहास की रचना कह दिया जाता है।
(शेष आगामी अंक में)