'लघुकथा विश्वकोश' पटल पर कथाकार सुरेश बरनवाल ने 'तात्पर्य' शीर्षक निम्न रचना को लघुकथा कहकर एक प्रश्न के रूप में दिया है।
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'पुरुष ने चुम्बन लिया और स्त्री ने चुम्बन दिया। इससे क्या तात्पर्य निकलता है?'
'जी...इसका अर्थ है कि पुरुष प्रेम में है और स्त्री बदचलन है।'
'लघुकथा' होने के लिए ऐसे (अति लघ्वाकारीय) शिल्प और शैली (संवाद शैली) की कथाओं में दो चीजों में से किसी एक (मुख्यतः समापन वाक्य का) अथवा दोनों का होना आवश्यक है। पहली चीज है, कथा-प्रसंग जिसे कि संवादों के माध्यम से ही सहज स्पष्ट होना होता है और दूसरी पूर्णता। समापन वाक्य में अगर सर्वमान्य सत्य की अभिव्यक्ति न होकर एकपक्षीय हुई है, तो रचना अपूर्णता का आभास देती रहेगी। ऐसी दशा में, उसमें उपयुक्त कथा-प्रसंग और यथायोग्य समापन, दोनों आवश्यक हो जाते हैं। लेखक के मन्तव्य अथवा उसके आभास तक पहुँचने का मार्ग पाठक को अवश्य मिलना चाहिए। उदाहरण के लिए उपर्युक्त रचना में समापन वाक्य को पुरुष सत्तात्मक मानसिकता का द्योतक बताकर बचाव की कोशिश की जा सकती है; लेकिन रचना में समापन वाक्य निर्णय की मुद्रा में आया प्रतीत होने से अधिकतर पाठकों के चिन्तन का एक ही दिशा में चले जाना स्वाभाविक माना जायेगा। जबकि लेखक का मन्तव्य अवश्य ही वैसा नहीं रहा होगा।
लघ्वाकारीय शिल्प में संवाद शैली की आदर्श लघुकथा खलील जिब्रान की 'आजादी' है :
"किसी गुलाम को सोते देखो, तो उसे जगाओ और आजादी के बारे में उसे बताओ।" मैंने कहा।
चाहें तो, इस रचना में पूर्व कथा-प्रसंग कुछ भी जोड़ सकते हैं जिसकी पहले वाक्य से संगति हो, लेकिन वह अनावश्यक ही सिद्ध होगा क्योंकि इस कलेवर में ही यह एक पूर्ण कथा है।
एक अन्य लघुकथा रमेश बतरा की 'कहूँ कहानी' है। देखिए :
-ए रफीक भाई। सुनो... उत्पादन के सुख से भरपूर थकान की खुमारी लिए, रात मैं घर पहुंचा तो मेरी बेटी ने एककहानी कही--‘एक लाजा है, वो बोत गलीब है।’
सिर्फ एक वाक्य। इसमें न पूर्व प्रसंग ही अनबूझ है न समापन संदेहास्पद। परन्तु प्रस्तुत रचना 'तात्पर्य' का समापन वाक्य सार्वभौमिक अथवा सर्व-स्वीकृत सत्य को प्रकट नहीं करता। वह एकपक्षीय पुरुष सत्तात्मक विचार की प्रस्तुति है, स्त्री का पक्ष इसमें ध्वनित ही नहीं है, इसलिए इसमें अधूरापन लगेगा ही। लघुकथा संकेत की विधा है, पहेली की विधा नहीं है।
दो पंक्तियों की, यहाँ तक कि एक पंक्ति की भी रचना में पूर्णता का जो गुण खलील जिब्रान, मंटो, जोगिन्दर पाल, काफ्का, इब्ने इंशा आदि में मिलता है, वह असम्भव न सही, आसान नहीं है। उसे गहन अध्ययन और लम्बे अभ्यास से ही साधा जा सकता है। इसे अपनाने की जल्दबाजी कथाकार के वर्तमान मौलिक कथा-कौशल को भी ले डूब सकती है।
आइए, पढ़ते हैं, मंटो की लघुकथा 'रिआयत' :
“चलो, इसी की मान लो… कपड़े उतारकर हाँक दो एक तरफ़…”
ये दो संवाद पूरा प्रसंग पाठक के समक्ष रखने में सक्षम हैं। पूर्व प्रसंग मात्र इतना है कि यह भारत-विभाजन के दौरान घटित है। इसके समापन में सर्व-स्वीकृत पूर्णता है, इसीलिए यह रचना अपूर्ण नहीं है, पूर्ण है।
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