रविवार, 27 अप्रैल 2014

सभी सुलभ शब्द अपनाने योग्य नहीं होते / बलराम अग्रवाल

सभी सुलभ शब्द अपनाने योग्य नहीं होते
डॉ॰ रामकुमार घोटड़ हिन्दी व राजस्थानी भाषा की लघुकथा के वरिष्ठ हस्ताक्षर हैं। अभी तक उनके 7 एकल लघुकथा संग्रह हिन्दी में, 2 राजस्थानी में, 10 संपादित लघुकथा आलोचना व रचना के संकलन, 2 कहानी संग्रह, व्यंग्य संग्रह आदि बहुत-सी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मुख्यत: लघुकथा संपादन के क्षेत्र में उन्होंने काफी काम किया है जिसमें ‘दलित समाज की लघुकथाएँ’ (2008); ‘भारतीय हिन्दी लघुकथाएँ’ (2010); ‘देश-विदेश की लघुकथाएँ’ (2010); ‘भारत का हिन्दी लघुकथा संसार’ (2011) आदि प्रमुख हैं। उनके द्वारा संपादित ‘गुलाम भारत की लघुकथाएँ’ में 53 पूर्ववर्ती कथाकारों की 73 लघुकथाएँ संकलित हैं। इस पुस्तक को तैयार करते समय उन्हें जिनका सहयोग मिला उन अपने 23 लघुकथाकार साथियों के नाम उन्होंने ‘गुलाम भारत की लघुकथाओं का सफरनामा’ शीर्षक अपनी भूमिका के अंत में लिखे हैं। मुझ अकिंचन का नाम भी उनमें से एक है, इसके लिए मैं उनकी सदाशयता का आभारी हूँ; लेकिन मुझे याद नहीं आ रहा कि इस बारे में मैंने उनकी कोई मदद की होगी या उन्होंने मुझसे कभी इसकी चर्चा भी की होगी।
लघुकथा पर शोध सम्बन्धी संदर्भ-पुस्तक के तौर पर यह एक महत्वपूर्ण कृति बाज़ार में आई है; लेकिन इसका नामकरण जिन पलों में हुआ, वे पल निश्चित ही अशुभ थे। डाक द्वारा मिले पैकेट को खोलने के बाद पुस्तक का नाम पढ़ते ही मुझे अपनी औक़ात पता लगने जैसा आभास हुआ। लगा कि किसी ने ऐसी गाली दे दी है, यथार्थत: सच होते हुए भी जिसे सुनने के हम अभ्यस्त नहीं हैं और जिसका वाचन सभ्य समाज में नहीं किया जाता है। डॉ॰ घोटड़ को भी यह शब्द चुभा जरूर होगा और इसका प्रयोग करते हुए वे आशंकित रहे होंगे कि इसके प्रयोग पर उन्हें विरोध का सामना करना पड़ सकता है। आशंकित न रहे होते तो वे इसकी सफाई में न उतरते। अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए डॉ॰ घोटड़ लिखते हैं—“पुस्तक का शीर्षक ‘गुलाम भारत की लघुकथाएँ’ में ‘गुलाम’ शब्द का उपयोग मैंने सकारात्मक मानसिकता से किया है। स्वतन्त्रता-पूर्व भारत, पराधीन भारत, इसके पर्याय शब्द हैं। लेकिन ‘गुलाम’ शब्द सहज सुलभ होने के कारण शीर्षक के साथ ले लिया। इससे पूर्व 2012 में मैंने ‘आज़ाद भारत की लघुकथाएँ’ शीर्षक से पुस्तक प्रकाशित की है। अत: इस श्रृंखला को पूर्ण करने के लिए यह शीर्षक देना निहायत ज़रूरी हो गया और मैं विद्वान साथियों से आशा करता हूँ कि इसे धनात्मक नजरिये से लेंगे।”
मुझे लगता है कि ‘आज़ाद भारत की लघुकथाएँ’ शीर्षक से संपादित अपनी पुस्तक के नाम में ‘आज़ाद’ का विलोम उन्हें ‘गुलाम’ ही समझ आया और इसी को उन्हें चुनना पड़ा। उन्होंने लिखा है कि ‘गुलाम शब्द सहज सुलभ है’। ‘सहज सुलभ’ से उनका तात्पर्य संभवत: सामान्यत: प्रचलित होने से है; क्योंकि ‘सहज’ के अर्थ और तात्पर्य को जानना उनके लिए अभी बाकी है; और सभी सुलभ शब्द अपनाने योग्य नहीं होते हैं। डॉ॰ घोटड़ स्त्री रोग एवं प्रसूति विशेषज्ञ हैं। वे राजस्थान के जिस इलाके में कार्यरत हैं, वहाँ उनका वास्ता मैं समझता हूँ कि लगभग अनपढ़ स्त्रियों या उनके अनपढ़/अधपढ़ पतियों-बेटों-भाइयों से ही अधिक पड़ता होगा। सभी तो ‘वैजाइना’ शब्द से परिचित नहीं रहते होंगे। इसके लिए हिन्दी के किसी शुद्ध शब्द से भी वे शायद अपरिचित ही रहते हों। ऐसी हालत में डॉ॰ घोटड़ क्या उन्हें ‘वैजाइना’ के लिए ‘सहज सुलभ’ शब्द के माध्यम से अपनी बातें समझाते हैं? क्या वे नहीं जानते कि प्रत्येक शब्द का अपना चरित्र, मर्यादा और गरिमा होती है। ‘माँ’ को बाप की लुगाई या ‘पिता’ को माँ का खसम संबोधित करना किस सभ्यता या मानसिक-चारित्रिक गिरावट का सूचक है, क्या यह भी बताना पड़ेगा? 1857 के विद्रोह को अंग्रेज और उनके हिन्दुस्तानी पिट्ठू आज तक भी ‘म्यूटिनी’ यानी राजद्रोह कहते, प्रचारित करते हैं, वे उसे ‘ग़दर’ भी कहते हैं; लेकिन हमने उसे हमेशा ही स्वाधीनता का पहला संग्राम माना और कहा है। यह अन्तर मानसिकता का तो है ही, शब्द के गतिशील चरित्र तथा उसकी गरिमा से अपरिचय और दूरी का भी है। काफी पहले डॉ॰ घोटड़ का एक प्रपत्र मिला था जिसमें उन्होंने समकालीन हिन्दी लघुकथा के वरिष्ठ लेखकों को ‘तीसमार खाँ’ शीर्षक से पुस्तक रूप में संकलित करने की योजना का जिक्र किया था। तब मैंने फोन करके उन्हें समझाने की कोशिश की थी कि भाई, ‘तीसमार खाँ’ एक नकारात्मक नाम है। तब उन्होंने उसी की टक्कर एक दूसरा नाम सुझाया था--संभवत: 'अत्ते खां'। मैंने माथा पीट लिया। समझ गया कि डॉ॰ घोटड़ मन के साफ व्यक्ति हैं और अपने द्वारा संपादित संकलनों में मित्रभाव से सभी को शामिल करते रहना चाहते हैं; लेकिन वे साहित्य के अध्येता नहीं हैं। कौन-सा शब्द कब, कहाँ कितना स्फोटक होता है, वे नहीं जानते। कौन-सा शब्द कब गाली बन जाता है, कब आक्षेप, कब व्यंग्य, कब सांत्वना और कब लोहा—इसका अध्ययन वे नहीं करना चाहते। असलियत यह है कि बहुत-से शब्दों के सही अर्थ से भी वे परिचित नहीं हैं। वे बस महत्वाकांक्षी हैं। ऐसा ही आभास मुझे दिल्ली में लोकार्पित उनके एक संकलन का नाम ‘अपठित लघुकथाएँ’ देखकर भी हुआ था। वह हमारी पहली मुलाकात थी। लेकिन तब से अब तक काफी लघुकथा संग्रह, संकलन और आलोचना पुस्तकें आ चुकी हैं। उन्हें विचार करना चाहिए था कि डॉ॰ अशोक भाटिया द्वारा संपादित ‘नींव के नायक’ का नाम ‘गुलाम भारत के लघुकथाकार’ क्यों नहीं हो सकता था।
‘गुलाम भारत की लघुकथाएँ’ की सभी लघुकथाएँ पढ़ जाने के बाद मैं यही सोच रहा हूँ कि वह कैसी गुलामी थी जिसमें जीते हुए भारतेंदु हरिश्चन्द्र, माधवराव सप्रे या प्रेमचंद सरीखे एकाध अन्य कथाकार के सिवा किसी के भी स्वर में गुलाम होने की पीड़ा नजर नहीं आती है! वे दार्शिनकता ही बघारते क्यों नजर आते हैं? अंग्रेजी राज के खिलाफ विद्रोह का दबा-ढका भारतेंदु-जैसा स्वर भी किसी के पास क्यों नहीं है? इन सभी साहित्यिकों की रचनाओं के आधार पर क्या यही सोचा जाय कि जीवन का यथार्थ साहित्य के यथार्थ से भिन्न होता है; या समाज में गुलामी की पीड़ा को उन साहित्यिकों ने अपने-अपने दार्शनिक और भावपूर्ण विचारों के जरिए शांत रखने का यत्न किया था! या साहित्य सृजन एक अलग तरह की विलासिता है और देश की आज़ादी के लिए लड़ना अलग तरह की!!  ‘जब महाप्राण बापू देश के दौरे पर निकले और मैं चन्दे को चला अपनी जन्मभूमि में…’ कहकर कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर अपने-आप को स्वाधीनता-संग्राम का सक्रिय कार्यकर्ता प्रतिष्ठित करने का ही यत्न करते अधिक प्रतीत होते हैं। अपनी रचनाओं में वे स्वाधीनता के लिए लड़ते नहीं दिखाई देते। डॉ॰ घोटड़ को इन बिन्दुओं पर भी अपने संपादकीय में दो-चार लाइनें अवश्य लिखनी चाहिए थी। इन बिन्दुओं पर अन्य आलोचकों को भी अपने विचार अवश्य प्रकट करने चाहिए। इस दृष्टि से लघुकथा का विवेचन करने के लिए पहले अकेली ‘नींव के नायक’ हमारे पास थी; अब यह पुस्तक भी उपलब्ध है।
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पुस्तक : गुलाम भारत की लघुकथाएँ; संपादक : डॉ॰ रामकुमार घोटड़; प्रकाशक : सजना प्रकाशन, 83, शिव कॉलोनी, राजगढ़ रोड, पिलानी-333031 (राज॰); संस्करण : 2014; मूल्य : रु॰ 250/- 
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  समीक्षक संपर्क : एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032

मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

पारस दासोत की लघुकथाओं में स्त्री / बलराम अग्रवाल



चित्र:साभार गूगल
मूचे प्राणिजगत में दो गुण मूल रूप से पाए जाते हैंजीवन-रक्षा और जाति-रक्षा। जहाँ तक मनुष्य की बात है, जीवन-रक्षा के लिए वह एक स्थान को छोड़कर किसी भी अन्य स्थान तक जा सकता है, भक्ष्य-अभक्ष्य कुछ भी खा सकता है, स्वयं से बलिष्ठ प्राणियों से लड़-भिड़ सकता है और स्वयं को अशक्त महसूस कर पलायन भी कर सकता है। जाति-रक्षा से तात्पर्य मनुष्य-जाति की रक्षा से है और इसका सम्बन्ध युद्धादि से न होकर सन्तानोत्पत्ति से है। यहाँ काम के विकृत रूप की चर्चा करना हमारा ध्येय नहीं है। इसलिए इस बिन्दु पर तर्क कृपया न करें। जीवित प्राणियों में नर और मादाये दो रूप प्राकृतिक रूप से पाए जाते हैं। इन दोनों में ही जननांग भी प्राकृतिक रूप विकसित होते हैं और जननांगों की संवेदनशीलता भी प्रकृति प्रदत्त गुण है जिसका सीधा सम्बन्ध स्वजाति को उत्पादित करने और बचाए रखने के मूल गुण से है। मनुष्य-जाति में इस मूल गुण का विकार ही कामी, कामान्ध आदि विशेषणों से व्यक्त होता है। अन्य प्रजातियों में यह प्रकृति द्वारा अनुशासित रहता है। अन्य प्रजाति के प्राणी कामी नहीं होते; हाँ, ॠतु-विशेष में कामान्ध अवश्य देखे जाते हैं, वह भी विपरीत लिंग के प्रति, समान लिंग के प्रति नहीं।
मुझे अक्सर महसूस होता है कि स्त्री मनोविज्ञान को आम तौर पर कमतर आँका जाता है। भक्तिकालीन समूचा हिन्दी काव्य स्त्री को हेय और त्याज्य मानकर चलता है तो रीतिकालीन हिन्दी काव्य ही नहीं, अनेक संस्कृत काव्य-ग्रन्थ उसे आकर्षक भोग्या के रूप में चित्रित करते हैं। तुलसीदास के रामचरितमानस में राम के समक्ष समुद्र नारी को ढोल, गँवार और शूद्र के समकक्ष रखता है। यह उसके अपने चरित्र की गिरावट है या उसके शब्दों में तुलसीदास का काल स्वयं बोल रहा है? जो भी हो, स्त्री और पुरुष के शारीरिक विकास और शारीरिक क्षमताओं को एक ओर करके जरा इन सवालों पर गौर करें कि
1॰ क्या पुरुष स्त्रियों की तरह सोचते हैं?
2॰ क्या स्त्रियाँ पुरुषों की तरह सोचती हैं? अथवा,
3॰ क्या हर व्यक्ति का सोचने का अन्दाज़ अलग है?

शारीरिक सुख-दु:ख बहुत-से आवेशों और आवेगों के स्रोत होते हैं और ऐसा मन को उनकी अनुभूति के कारण या मन में उनका विचार उत्पन्न होने के कारण होता है। आवेश दो तरह के होते हैंप्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष। शुभ या अशुभ तथा सुख या दु:ख से उत्पन्न आवेश प्रत्यक्ष होते हैं जैसे, इच्छा, अरुचि, उल्लास, आशा, भय, सुरक्षा का भाव आदि। अप्रत्यक्ष आवेश भी इन्हीं तत्त्वों से उत्पन्न होते हैं लेकिन कुछ अन्य गुणों का उनमें योग होता है। इनके अन्तर्गत गर्व, विनम्रता, महत्त्वाकांक्षा, मिथ्या-अभिमान, प्रेम, घृणा, ईर्ष्या, करुणा, द्वेष, उदारता आदि को रख सकते हैं। पारस दासोत की लघुकथा सोने की चेन गर्व-प्रदर्शन का ही उदाहरण प्रस्तुत करती है। यद्यपि यह असम्भव लगता है कि कोई व्यक्ति स्वयं को एक ही समय में विनम्र और गर्वित, दोनों प्रदर्शित करे; लेकिन अनेक ऐसे लोग आपको सहज ही मिल जाएँगे जिनकी विनम्रता से गर्व का भाव इतना अधिक झलकता है कि आपको खिन्न कर डालता है। यही स्थिति दीनता के सगर्व प्रदर्शन की भी है। ऐसे अगणित दीन आपको सत्ता के गलियारों में सगर्व साष्टांग लेटे मिल जाएँगे जो अपने आका के कृपापात्र बनने के लिए किसी भी हद तक गिर सकते हैं।
आजकल की महिलाओं की ज़िन्दगी में महत्वपूर्ण मुकाम तब आता है जब उन्हें कुवाँरी रहकर अपने करियर और गार्हस्थ्य धर्म के बीच किसी एक को चुनना होता है। जहाँ बच्चों से घिरी विवाहित स्त्रियाँ यह महसूस करती हैं कि उनकी क्षमता का पूरा उपयोग नहीं हो रहा, वहीं उम्रदराज़ कामकाजी अविवाहित महिलाएँ अपने असीम अकेलेपन से निपटने के लिए मनोविश्लेषकों की शरण में जाने को शापित रहती हैं। इसका मतलब है कि आज की स्त्री के लिए संतुलित जीवन एक बड़ी चुनौती है। एक कथाकार के तौर पर पारस दासोत का ध्यान स्त्री मनोविज्ञान के इस पक्ष की ओर नहीं जा पाया है।
स्त्रियाँ स्थायित्व चाहती हैं और यह चाहत उन्हें दुविधा में डाले रखती है। एक ही समय में वे दो दिशाओं की शिक्षा ग्रहण करती हैं।  एक ओर वह पुरुषों की तरह, सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ने की शिक्षा पाती है; दूसरी ओर वह विवाह करके बाल-बच्चेदार जीवन जीना चाहती है। लगभग इसी मानसिक जद्दोजहद से उस महिला को भी दो-चार होना पड़ता है जिसका लालन-पालन तो पारम्परिक विचारधारा व परिधान-शैली के बीच हुआ हो, परन्तु जीना उसे आधुनिक विचारधारा और परिधान-शैली वाले समाज में पड़ रहा हो। पारस दासोत की लघुकथा खिड़की में इसका उत्कृष्ट चित्रण हुआ है। परन्तु कुछ आधुनिकाओं में तीसरी दिशा भी देखने को मिलती हैभोग की दिशा। इस दिशा में बढ़ते हुए वह अनेक अनर्थों की कर्त्री बनती है। एक कहानी वही में ऐसी ही एक युवती का चित्रण हुआ है।
यह एक स्वीकृत तथ्य है कि लम्बे समय से आज तक स्त्री को पितृसत्तात्मक स्पष्ट कहें तोपुरुष-सत्तात्मक समाज में रहना पड़ रहा है जिसमें उसकी मानसिक क्षमताओं तक का आकलन उसकी शारीरिक बनावट के मद्देनज़र किया जाता है। सुप्रसिद्ध मनोविश्लेषक क्लारा थॉम्प्सन के अनुसार—‘पुरुष-सत्तात्मक समाज ने स्त्री पर इतनी जिम्मेदारियाँ लाद दी हैं कि उसे काम सम्बन्धी अपनी आवश्यकताओं पर अंकुश लगाए रखना पड़ता है। इस स्त्री के दो रूप हमें देखने को मिलते हैं। पहला, दिन-रात घर-परिवार के कामकाज में खटती स्त्री (उदाहरणार्थ, इस संग्रह की लघुकथा प्याज की सब्जी में वर्णित माताजी) और दूसरा, पुरुष-सत्तात्मक समाज से विद्रोह के क्रम में घर-परिवार की जिम्मेदारियों से मुक्त पुरुष के समांतर चलती स्त्री। इनमें पहली स्त्री की दयनीय दशा नि:सन्देह शोचनीय है। उससे उसे मुक्ति मिलनी चाहिए। लेकिन दूसरी स्त्री! इसका सुन्दर चित्रण पारस दासोत की वह फौलादी लड़की में हुआ है। पुरुष-सत्तात्मक समाज से लोहा लेती स्त्री अपने प्राकृतिक लावण्य और सुमधुर संवेदनशीलता से वंचित रह जाती है और अवसर पाते ही वह अपने समक्ष खड़े समय से कहती है—‘मुझे आपसे कुछ जरूरी बात करना है, मैं आपसे कल मिलूँगी। यह पुरुष-सत्तात्मक समाज से विद्रोह के परिणामस्वरूप स्वयं पुरुष बन चुकी आज की स्त्री का सत्य है। वह चाहती है, पुन: स्त्री हो जाना; लेकिन इस काम के लिए समय से वह आज नहीं मिलना चाहती, कल पर टालती है। 
मानसिक-चरित्र की दृष्टि से आज की स्त्री को आसपास के समाज द्वारा मुख्यत: दो डरों से ग्रस्त पाते हैं1॰ त्यागे जाने से डरी हुई और 2॰ अवहेलित होने से डरी हुई।  प्रत्येक स्त्री में कम या ज्यादा इनमें से कोई एक भय अवश्य बना रहता है। इस प्रकार उनके चार प्रकार निश्चित कर सकते हैंआश्वस्त, जरूरतमंद, निर्भीक और भयभीत। इन सब की अलग-अलग व्याख्या भी की जा सकती है, लेकिन यहाँ उसकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि स्त्री के इन सभी चरित्रों पदार्पण इन लघुकथाओं में नहीं हो पाया है।
फिर भी, किसी ज़रूररतमंद औरत के मनोविज्ञान को समझना ज़रूरी है। क्यों? इसलिए कि अगर आप उससे परिचित हैं तो अवश्य ही अपने साथ उसके बर्ताव को आसानी से झेल सकते हैं, अन्यथा नहीं।  कुछ महिलाएँ सबसे अधिक स्वयं को नकारे जाने की चिन्ता से ग्रस्त रहती  है। अपने विचार और मनोभावों को जाहिर करने में उन्हें लज्जा का अनुभव होता है। बावजूद इसके, वह भावनात्मक रिश्ता बनाए रखने को अपने दिल की गहराई से चाहती है। वे दूसरे लोगों के साथ अविश्वसनीय बनी रह सकती हैं लेकिन इस बात से भयभीत रहती हैं कि उन्होंने अगर किसी पर विश्वास किया तो वह उनके साथ विश्वासघात न कर दे, उनका हृदय न तोड़ दे। इन स्त्रियों में शर्मीलापन होता है लेकिन शर्मीलेपन की उस परत के नीचे संदेह छिपा होता है। ऐसी स्त्रियों का विश्वास जीतना बड़ी टेड़ी खीर साबित होता है। इस पाण्डुलिपि की नाइट गाउन, शयनकक्ष की कुंडी, घर में अकेली वह, बिस्तर, सृष्टि अपनी अनेक लघुकथाओं में पारस दासोत जरूरतमंद स्त्री का चित्रण तो करते हैं, लेकिन काम-कुण्ठा से आगे की उसकी चेतना को छू नहीं पाते। यह एक विचारणीय तथ्य है कि स्त्री सिर्फ काम-कुण्ठित प्राणी नहीं है। उसकी भावनाओं को शरीर से अलग भी समझने की जरूरत है जिससे ये लघुकथाएँ वंचित हैं। इस पांडुलिपि की लघुकथाओं को पढ़ते हुए मुझे पारस दासोत जी में मानववादी दृष्टि की बजाय पुरुषवादी दृष्टि का अधिक दर्शन होता है। इसमें संग्रहीत लघुकथा पुत्रवधू का शीर्षक मेरी इस धारणा की पुष्टि करता है क्योंकि भूखी माँ को भोजन की बजाय नींद की गोली देने की अनैतिकता में पुत्र भी तो शामिल है!
भारतीय दर्शन मनुष्य के जीवन में चार पुरुषार्थ निर्धारित करता हैकाम, अर्थ, धर्म और मोक्ष। इनमें काम को पहले स्थान पर रखा गया है, परन्तु यह काम सेक्स के अर्थ तक सीमित नहीं है, व्यापक है। जहाँ तक सेक्स का सवाल है, बेशक जीवन की सुचारुता का वह विशिष्ट अवयव है। स्त्री हो या पुरुष, सेक्स-तुष्टि उसे अनेक मानसिक विचलनों से बचाने वाला, मनुष्य होने के हेतु से सकारात्मकत: जोड़े रखने वाला, उसकी रचनात्मकता को बनाए रखने वाला महत्वपूर्ण अवयव है। पारस दासोत की एक सत्य इस तथ्य की पुष्टिस्वरूप प्रस्तुत की जा सकती है। जागृति का शीर्षक कथ्य के अनुरूप नहीं प्रतीत होता। घटना पितृसत्ता से विद्रोह की है, जागरण की नहीं।
शरीर का गुणधर्म मन:स्थिति से संचालित होता है, इस तथ्य की पुष्टि दर्शन भी करता है और मनोविज्ञान भी। अपने देश में हिजड़ा समुदाय आम तौर पर स्त्री भाव के साथ रहता है। अत: उनमें स्वयं के स्त्री होने सम्बन्धी मानसिक विकार पैदा हो जाना सामान्य समझा जाना चाहिए। आँचल की भूख इस विकार की यथार्थ प्रस्तुति है। छूट की छीनी हुई छूट एक बेहतरीन लघुकथा है लेकिन इसके शीर्षक में पुरुषवादिता नज़र आती है। संयुक्त परिवारों में परस्पर संवाद का एक रूप परस्पर विवाद भी है। घर के सदस्य लड़-झगड़कर मन का मैल साफ कर लेते हैं और सामान्य दिनचर्या में लौट आते हैं। लाड़ली बहू में इस स्थिति का जीवन्त चित्रण देखने को मिलता है।
अपने रूप-सौंदर्य की ही नहीं, अपने परिधान आदि की प्रशंसा सुनना भी महिलाओं की आम मनोवैज्ञानिक कमजोरी माना जाता रहा है; लेकिन अपने करियर के प्रति सचेत आज की नारी ने कुछेक पारम्परिक मनोवैज्ञानिक धारणाओं को झुठलाकर रख दिया है। पारस दासोत की लघुकथा उसका ब्लाउज़ की पत्नी को पारम्परिक चेतना की स्त्री कहा जा सकता है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि आत्मश्लाघा पाने को लालायित रहने जैसी कुछेक मानसिक परम्पराएँ व्यक्ति में हमेशा जीवित रहती हैं। तथापि यह भी एक उल्लेखनीय तथ्य है कि इस पांडुलिपि में संग्रहीत लगभग सभी रचनाओं में ब्लाउज, चोली, कुरता-समीज़, आइना, बाथरूम, सुहागरात, भूख आदि के काम-कुण्ठित चित्र ही अधिक दृष्टिगोचर होते हैं, प्रगतिशील मानसिकता के चित्र नहीं। झुबझुबी जैसी कुछेक रचनाएँ तो हास्यास्पद हो गई हैं। एक अन्य मनोवैज्ञानिक तथ्य यह भी है कि प्रत्येक व्यक्ति किसी अन्य को नहीं सबसे अधिक स्वयं को ही प्यार करता है। यह अलग बात है कि स्वयं को प्यार करने का प्रतिशत पुरुषों की तुलना में स्त्रियों में अधिक पाया जाता है। यह भी देखा जाता है कि स्वयं को प्यार करने के क्रम में स्त्रियाँ कभी-कभी अत्याधिक स्वार्थी और हिंसक भी हो उठती हैं। प्यारे का प्यार तथा आइ लव यू स्वयं पर ही मोहित रहने के तथ्य का उद्घाटन करती है।
तिजोरी की चाबी और गहनों पर कब्जाये दो भी महिलाओं की आम मानसिक कमजोरियों में शामिल हैं। इन बिन्दुओं पर पारस जी ने सत्ता की कोख में छिपा डर, उसकी ताकत तथा गहना लघुकथाएँ रची हैं।
प्राकृतिक रूप से लड़कियों के शरीर में आयु-विशेष के आगमन पर कुछ ऐसे परिवर्तन होते हैं जो लड़कों के शरीर से भिन्न होते हैं। यह भी ठीक है कि लड़कियों के स्तनो में आने वाला उभार स्वयं उन्हें भी रोमांचित करता है। लेकिन यह ठीक नहीं प्रतीत होता कि यह रोमांच जीवन में आगे बढ़ने के उनके इरादों में बाधा बनता है और वे बस्ता टेबिल पर पटककर सबसे पहले इस रोमांच की ओर अग्रसर होती हों, जैसा कि पारस जी ने लघुकथा पहला मिलन में दिखाया है। उनकी परतों के नीचे दबी चाह भी स्त्री के उस पारम्परिक मनोविज्ञान को ही दर्शाती है जिसे आज की स्त्री ने काफी पीछे छोड़ दिया है।
रंग-रूप, चाल-ढाल, नाजो-अदा और उम्र आदि के मद्देनज़र अनाकर्षक महिलाएँ पुरुषों के द्वारा बहिनजी सम्बोधित होती हैं, यह बात वे अच्छी तरह जानती हैं। यही कारण रहा कि बस यात्रा कर रही दिक्भ्रम की काली कलूटी यौवना अपने युवा सहयात्री से बहिनजी सम्बोधन पाकर हँस पड़ती है; लेकिन जब वह पाती है कि युवा सहयात्री ने सद्भाववश उसे बहिनजी कहा था तब शर्मिंदा भी होती है और उससे क्षमा भी माँगती है। उलाहना स्त्री के अपने अस्तित्व को पाने की व्यथा कहती है।
पारस दासोत की इस पांडुलिपि/पुस्तक में चित्रित महिलाओं/युवतियों को क्षुद्र मानसिकता वाली काम-विक्षिप्त स्त्रियाँ भी माना जा सकता है और यह भी माना जा सकता है कि काम की यह विक्षिप्तता इन चरित्रों को गढ़ने वाले कथाकार के मनो-मस्तिष्क में भी समाई हुई है अन्यथा वह इनसे इतर भी स्त्री मानसिकता के चित्र अवश्य उभारता। गहरी चाहना में युवतियों के स्तनों की तुलना प्रकारान्तर से मन्दिर के गुम्बदों से की गई है। दो सहेलियाँ, दाँव, एक चाल, नाइट गाउन और दिशा की ताकत में कथाकर ने भूख को पात्र बनाया है लेकिन उसकी बिम्बात्मक शक्ति का भरपूर उपयोग वे इन लघुकथाओं में नहीं कर पाए। कुछ लेट चलें की नायिका भी भोग की जीती-जागती तस्वीर है। वासना की अंधी भूख को यद्यपि फ्रायड के एक सिद्धांत-विशेष पर आधारित करने का यत्न किया है तथापि यह भी सत्य है कि फ्रायड का उक्त सिद्धांत सर्वमान्य सत्य नहीं है। उसे मातृत्व की भावना पर कलंक के रूप में जाना जाता है। भोगवादी और बाज़ारवादी महिला-चरित्र को बिल्ली की रणनीति में कुशलतापूर्वक दर्शाया गया है। पारस जी की कुछ लघुकथाएँ प्रेमी-प्रेमिका अथवा पति-पत्नी के बीच शरीर-भोग से पूर्व और पश्चात की यथार्थ मानसिकता पर केन्द्रित हैं। इनमें अपराध को उत्कृष्ट माना जा सकता है तो शुभागमन, बात ही तो है को सामान्य और गुल्लक, ठेंगा को नि:कृष्ट।
नि:संदेह, इस पांडुलिपि/पुस्तक की अनेक लघुकथाएँ इस लेख की चर्चा में आने से वंचित रह गई हैं, लेकिन उनमें व्यक्त वस्तु इस लेख में अवश्य समाहित है। मैं समझता हूँ कि इस संग्रह की लघुकथाओं और इस लेख में व्यक्त कुछ विचार समकालीन हिन्दी लघुकथा में स्त्री मानसिकता के कुछ अनकहे तथ्यों व कथ्यों को रचने व रेखांकित करने में सहायक सिद्ध होंगे।
अंत में, यह लेख इस पांडुलिपि/पुस्तक में संग्रहीत लघुकथाओं में विशेष तौर पर स्त्री मनोविज्ञान को रेखांकित करते हुए लिखा गया है अत: पारस जी के लघुकथा लेखन की भाषा, शैली, शिल्प आदि पर विचार प्रकट करने से स्वयं को अलग रखा है। अस्तु।

रविवार, 13 अप्रैल 2014

लघुकथा के सफ़र में वसंत निरगुणे / बलराम अग्रवाल



                                                                     चित्र:बलराम अग्रवाल

मकालीन लघुकथा का सफर 1970 के बाद से स्वीकार किया जाता है। 1950 के आसपास यद्यपि हरिशंकर परसाई ने अनेक लघुकथाएँ लिखीं और उनका समय आजादी के बाद सपनों के टूटने का शुरुआती समय था; तथापि आजादी की लड़ाई से जुड़े अपने राजनेताओं के चरित्र पर संदेह करने का दूरदर्शी साहस उस समय के कथाकार समग्रता में नहीं जुटा पाये। शायद इसीलिए कथाकारों की एक बड़ी जमात परसाई-जैसी वक्र लघुकथाएँ साहित्य व समाज को देने में प्रवृत्त नहीं हो पाई। उनके समकालीन विष्णु प्रभाकर आदि जो अन्य कथाकार लघुकथा लेखन में प्रवृत्त हुए, उनकी भंगिमा में परसाई-जैसी तीक्ष्णता नहीं थी। अपनी लघुकथाओं में विष्णु जी बुद्ध, महावीर और गाँधी की पंक्ति के विचारक सिद्ध होते हैं। अश्क आदि के पास लघुकथा के लिए कहानी से अलग कोई अन्य कलेवर नहीं था। वे लोग अपने समय के कड़ुवे सच को कम से कम लघुकथा में तो अभिव्यक्त नहीं ही कर पा रहे थे। शायद यही कारण रहा कि उनमें से अनेक की लघुकथाओं के संग्रह तो प्रकाशित होते रहे; लेकिन वे प्रतिमान नहीं बन सके। बावजूद इस सब के, यह तो स्वीकारना ही पड़ेगा कि उस काल के कुछ कथाकारों ने कथा-कथन के पारम्परिक लघुकथापरक शिल्प को बचाए-बनाए रखा।
जहाँ तक लघुकथात्मक अभिव्यक्ति का सवाल है, भारतीय जनमानस में अपने राजनेताओं, समाजसेवियों और धर्मगुरुओं के चरित्र से मोहभंग गत सदी के सातवें दशक के मध्य से स्पष्ट, साहसपूर्ण और सघन अभिव्यक्ति पाने लगता है। ये दोमुँहे नेता राजनीति, धर्म और समाज—सभी में समान रूप से सक्रिय थे। नेतृत्व इनके लिए जनसेवा नहीं, व्यवसाय मात्र था। यही वह समय है जहाँ से पारम्परिक लघुकथा का समकालीन लघुकथा में रूपान्तरण अपनी सघनता और बहुलता में प्रारम्भ होना दिखाई देने लगता है। यह रूपान्तरण अनायास शुरू नहीं हुआ। यह कुछेक दिनों, हफ्तों या महीनों में भी सम्पन्न नहीं हुआ है। पकने में इसे वर्षों तथा निज स्वरूप में स्थित होने में दशकों लगे। आज की स्थिति तक पहुँचने के लिए इसने कथ्य, भाषा, शिल्प आदि के स्तर पर अनगिनत प्रयोग किये। नये कथाकारों की एक बड़ी जमात द्वारा लघुकथा लेखन से आ जुड़ने के कारण यद्यपि 1970-71 को समकालीन लघुकथा का प्रस्थान बिंदु मान लिया जाता है; तथापि रूपान्तरण की प्रक्रिया से जूझते, अवहेलना तथा संक्रमण झेलते और किसी एक रूप पर न टिक पाने पर झल्लाते ‘समकालीन लघुकथा’ को आठवें दशक के मध्य तक आसानी से देखा-परखा जा सकता है। यों नवें दशक के अंत तक इसका स्वरूप कुछ-कुछ स्पष्टता पा गया; लेकिन, अंतिम दशक तक भी कायान्तरण की इसकी प्रक्रिया जारी रही। इस प्रकार, समकालीन लघुकथा का आज का स्वरूप एक संयुक्त प्रयास है। इसको सँवारने में सातवें दशक के मध्य से लेकर दशवें दशक के अंत तक अनेक लघुकथाकारों तथा लघुकथा-विचारकों का विशिष्ट योगदान स्वीकार करने में संकोच नहीं करना चाहिए।
वसंत निरगुणे आठवें-नवें दशक के विशिष्ट लघुकथाकार रहे हैं। वे निमाड़ी-मालवी के चर्चित कवि, लोक-अध्येता तथा प्रतिष्ठित भित्ति-चित्रकार भी हैं। यों तो पूरा देश ही उनके अध्ययन का क्षेत्र है; लेकिन मध्यप्रदेश की आदिवासी जातियों की पारम्परिक कलाओं, कथाओं और रीति-रिवाजों पर शोध करते हुए उन्होंने ‘लोक प्रतीक’, ‘कथावार्ता’, ‘निमाड़ी लोककथाएँ’ आदि अनेक पुस्तकें साहित्य व संस्कृति से जुड़े अध्येताओं व पाठकों को दी हैं। मुख्यत: आठवें दशक के बाद से ही वे अपनी पूरी शक्ति और सामर्थ्य के साथ आदिवासी बहुल क्षेत्र की लोक-परम्पराओं के अध्ययन में लगे हुए हैं। उस दिशा में उनका वह कार्य अनेक दृष्टि से आवश्यक और उल्लेखनीय है।
सम्भवत: 2010 की बात है। किसी कार्यवश मैं आलेख प्रकाशन के कार्यालय में गया। एक सज्जन पहले से ही वहाँ बैठे थे।
“आइए भाईसाहब, इनसे मिलिए…वसंत निरगुणे जी…” मेरे पहुँचते ही उमेश अग्रवाल जी ने उनके नाम से परिचित कराते हुए मुझसे कहा। हम दोनों एक-दूसरे को ‘भाईसाहब’ सम्बोधित करते हैं; हालाँकि उम्र में बड़े अग्रवाल जी हैं।
“अरे भाई रे!” यह सुनते ही अपनी दोनों बाँहें पंखों की तरह फैलाकर मैं निरगुणे जी की ओर बढ़ा तो अग्रवाल जी ने चौंककर पूछा, “आप जानते हैं इन्हें?”
“आप मेरा नाम इन्हें बताइये, फिर देखिए।” मैंने कहा।
निरगुणे जी इस बीच मेरे आह्वान पर अपनी कुर्सी से उठकर खड़े हो चुके थे और सीने से भी आ मिले थे। मेरा वाक्य सुनकर उन्होंने उत्सुकतापूर्वक अग्रवाल जी की ओर देखा।
“ये बलराम अग्रवाल हैं।” उन्होंने निरगुणे जी को बताया।
यह सुनते ही निरगुणे जी के आलिंगन में कसाव आ गया। उस कसाव को भाँपकर अग्रवाल जी समझ गये कि दोनों व्यक्ति एक-दूसरे के नाम से पूर्व परिचित हैं। वस्तुत: एक-दूसरे के लेखन के माध्यम से परिचित दो व्यक्ति लगभग तीन दशक बाद पहली बार रू-ब-रू थे। अभिवादन-आलिंगन के बाद हम कुर्सियों में धँस गये और लेखन व जीवन से जुड़ी बातों पर चर्चा चल निकली।
“मैंने तो अपने-आप को पूरी तरह आदिवासी लोक-परम्परा के अन्वेषण, रख-रखाव और बचाव के काम में झोंक दिया है।” उन्होंने बताया; फिर पूछा, “आप क्या कर रहे हैं?”
“लघुकथा लिखना बिल्कुल ही छोड़ दिया?” उनके सवाल को नजरअन्दाज करते हुए मैंने पूछा।
“बिल्कुल नहीं, करीब-करीब…।” वे बोले, “दरअसल, लोक-कलाओं के जिस काम में रुचि जाग गई है, वह किसी दूसरी विधा में काम करने के लिए अवकाश देता नहीं है।”
“कोई बात नहीं,” मैंने कहा, “आप आठवें दशक के चर्चित लघुकथाकार रहे हैं। अपनी उन रचनाओं का संग्रह प्रकाशित कराने का समय तो निकाल ही लीजिए।”
उन्होंने मेरा अनुरोध स्वीकार कर लिया; परिणामत: ‘बिके हुए लोग’ की पांडुलिपि अग्रज कथाकार आदरणीय डॉ॰ सतीश दुबे द्वारा समकालीन लघुकथा के कुछ स्वयं से तो कुछ इतिहास से सम्बद्ध पन्नों को खोलती महत्वपूर्ण भूमिका ‘अतीत के गवाक्ष से…’ के साथ मेरे हाथों में है।
इस संग्रह की लघुकथाएँ आठवें दशक और उसके समीपवर्ती कालखंड में विशेषत: ग्रामीण अंचल के जनजीवन के यथार्थ चित्र प्रस्तुत करती हैं। उस दौर का आदमी आर्थिक त्रासदी के जिस दावानल में  घिरा झुलस रहा था, उसे जानने-समझने को इस संग्रह की ‘सहानुभूति’ बहुत ही मारक और उत्कृष्ट लघुकथा है। इसके साथ ही ‘भूख’, ‘कथा’, ‘हमदर्द’, ‘एक प्याली चाय का दर्द’ और ‘चाकरी’ का नाम भी लिया जा सकता है।
अपने समय के राजनीतिक दोगलेपन और सिद्धांतहीनता को दर्शाने में निरगुणे जी विशेष रूप से सिद्ध हैं। उनकी ‘संयोग और समाजवाद’, ‘पुनर्जन्म’, ‘बिके हुए लोग’, ‘उदारता’, ‘गणित’, ‘एडाप्टेशन’, ‘पहचान’, ‘अवमूल्यन’, ‘पोल’, ‘दृष्टिकोण’, ‘पानदान’, ‘समय’, ‘थप्पड़’, ‘कुर्सी’, ‘रामभक्त हनुमान’, ‘बहुरूपिया’, ‘दूध और पानी’, ‘अंधा और लँगड़ा’, ‘गायें और ग्वाले’, सूखा पत्ता आदि लघुकथाओं में तत्कालीन राजनीतिक यथार्थ के लगभग दहला देने वाले चित्र देखने को मिलते हैं; कभी गम्भीर मुद्रा में तो कभी व्यंग्य की चुटकी के साथ। ये लघुकथाएँ वसंत निरगुणे को तत्कालीन राजनीतिक धरातल की लघुकथा का अग्रणी हस्ताक्षर सिद्ध करती हैं।
राजनीतिक गिरावट मानवीयता और नैतिक चरित्र से विहीन समाज का निर्माण करती है और ईमानदार व कर्मठ सामाजिक में हताशा और निराशा का वातावरण पैदा करती है। इस संग्रह की ‘तस्वीर’, ‘कोल्हू का बैल’, ‘चिलमची’, ‘अशोक’, ‘कसाई’ उस वातावरण के मार्मिक चित्र पाठक के सम्मुख रखती हैं। समाज व्यक्ति से बनता है; लेकिन व्यक्ति के बाद परिवार समाज की आवश्यक इकाई है। स्वातंत्र्योत्तर भारत में सातवें दशक के उत्तरार्द्ध तक नये शासन तंत्र में विकसित हो चुके वैयक्तिक भौतिकवाद और नैतिकताविहीन नयी शिक्षा पद्धति ने विशिष्ट ही नहीं, आम भारतीय को भी संयुक्त पारिवारिक बंधनों से मुक्त हो जाने की ओर उन्मुख कर दिया था। संग्रह की ‘दर्द का मर्ज़’, ‘खिलौना’ और ‘परिवारनामा’ पारिवारिक विघटन को छूती हैं; लेकिन ‘सह-अस्तित्व’, ‘माता-पिता और लड़का’ जैसे परिवार को जोड़े रखने की भावना वाले सकारात्मक कथानक भी आशा की किरण के रूप में प्रस्तुत हैं।
संग्रह की ‘लोकप्रिय’, ‘संध्या और सूरज’, ‘दूध और पानी’, ‘अंधकार’, ‘आदमी और दीमक’, ‘जाने के बाद’ शीर्षक लघुकथाएँ दृष्टांत शैली में लिखी गयी हैं तो ‘परवेशी संस्कार’, ‘अनुकंपा’, ‘बदनीयत’, ‘अच्छा आदमी’ ग्राम्य-जीवन अथवा ग्राम्य-संस्कार के कथाविहीन उदात्त चित्र हमारे सामने रखती हैं। ‘कफन का कपड़ा’, ‘जिसने क्रम तोड़ा था’, ‘दो आँखें’, ‘शिकायत’, ‘अच्छा आदमी’, ‘भिखारी’, ‘समय’ शीर्षक लघुकथाएँ सदियों से दबे-कुचले दीन और विवश मनुष्य के चेतनशील हो उठने के कारण ध्यानाकर्षित करती हैं। ‘पेट-पूजा’, ‘आचरण’ और ‘पुरुषार्थ’ में परस्पर विश्वास और प्रेम से परिपूर्ण मानवीय रिश्तों पर अमानवीय भोग-लिप्सा के हावी हो जाने का चित्रण हुआ है। ‘आकाश’ और ‘पीढ़ियाँ’ में जेनेरेशन गेप को देखा जा सकता है।
‘बिके हुए लोग’ की लघुकथाएँ आठवें दशक के ग्राम्य समाज के, उसको त्रस्त करने वाली आर्थिक बदहालियों के, राजनीतिक और सामाजिक दोगलेपन तथा राजनीतिज्ञों व नौकरशाहों की निर्लज्ज गिरावट को झेलते सीधे-सादे जन की असहाय स्थिति के कटु यथार्थ के साथ हमारे सामने उपस्थित हैं। ये लघुकथाएँ अपने समय का सच तो हैं ही, समकालीन लघुकथा के आठवें-नवें दशक का जीवन्त दस्तावेज़ भी हैं।