किसी भी व्यक्ति के जीवन में अनुभव और अनुभूति दो भिन्न स्थितियाँ हैं। अनुभव हमें जगत से जोड़ते हैं और अनुभूतियाँ जीवन की विराटता से। अनुभूतिहीनता की स्थिति में ‘सिर्फ अनुभव’ मनुष्य को ठेठ व्यवहारवादी और किसी हद तक अमानवीय रवैये वाला तक बना सकते हैं। कहा जा सकता है कि अनुभूतिपरकता अनुभवपरकता की दिशावाहक है। अनुभूतिहीन अनुभवी व्यक्ति व्यष्टिपरक चिंतन का और अनुभूतिपूर्ण अनुभवी व्यक्ति समष्टिपरक चिंतन का पोषक होता है। यही वजह है कि लेखन में प्रवृत्त किसी व्यक्ति का विपुल अनुभवी होना जितना आवश्यक है, उससे कहीं अधिक आवश्यक उसका अनुभूतिपूर्ण होना है। इस आधार पर लेखन को दो अलग-अलग स्तरों पर देखा-परखा जा सकता है—अनुभवपूर्ण लेकिन अनुभूतिहीन लेखन तथा अनुभवपूर्ण अनुभूत लेखन। अनुभवहीन लेखन की व्याख्या करना यहाँ हमारा हेतु नहीं है।
हमारे अनुभव जब अनुभूतियों की गहराई को छुए बिना ही रचना का रूप ले लेते हैं, तब जाहिर है कि तत्संबंधी विषय के अनुभूत शब्दों का प्रयोग भी उक्त रचना में नहीं हो पाता होगा। आज पूर्व पीढ़ी के लेखकों और आलोचकों-समीक्षकों पर जब हम यह आरोप लगाते हैं कि वे लघुकथा का यथोचित नोटिस नहीं ले रहे हैं, तब निश्चित ही यह भूल गए होते हैं कि मूल्यांकन के लिए हमने भाषा, शब्द-प्रयोग, शिल्प और शैली के स्तर पर उनके समक्ष आखिर कितनी उत्कृष्ट रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। अनुभवपूर्ण लेकिन अनुभूतिहीन लेखन किया है या अनुभवपूर्ण अनुभूत लेखन। कोई भी रचना जिसमें अनुभूत और सटीक शब्द-प्रयोग न हुआ हो उथली समझ वाले या चारण किस्म के लोगों से वाह-वाही भले ही लूट ले, किसी स्वस्थ समालोचक के मस्तिष्क में अपना स्थान नहीं बना सकती। हर शब्द का अपना आकार, स्वरूप, सौन्दर्य, स्वर और वजन होता है और यह सब अलग-अलग स्थिति-परिस्थिति में अलग-अलग होता है। तात्पर्य यह कि पानी का अर्थ हर जगह जल और जल का अर्थ हर जगह पानी नहीं होता। शब्द स्वयं अपनी रेंज बताता है, लेखक के पास तो उसकी आवाज को सुनने वाले कान होने चाहिएँ। बिल्कुल उस तरह, जिस तरह उसके पास शब्द के सौन्दर्य को परखने वाली दृष्टि और वजन को तौल सकने वाली मेधा होनी चाहिए। लघुकथाओं में ऐसे शब्द-प्रयोग अक्सर देखने को मिल जाते हैं जिन्हें अनुभूत तो कहा ही नहीं जा सकता, बल्कि जो व्याकरण और भाषा-विज्ञान की दृष्टि से भी गलत होते हैं। ऐसी गलतियों पर जब भी उँगली रखी जाती है, लोग कहते हैं कि आपकी इन्हीं हरकतों की वजह से लघुकथा का सही नोटिस नहीं लिया जाता है। जब आप खुद ही लघुकथा में प्रयुक्त गलतियों को उजागर कर रहे होते हैं तो आलोचक उसके बारे में भला क्या बोले? आपको तो लघुकथा के सबल पक्ष को ही उजागर करना चाहिए। ऐसे लोगों की सोच से इतर मेरा सोचना है कि किसी स्वस्थ और सुन्दर दीख रहे व्यक्ति को अगर कोई आन्तरिक रोग हो तो उस रोग को दूर करने के प्रयास पहले होने चहिएँ और दूसरे अन्य कोई भी प्रयास उसके रोगमुक्त हो जाने के बाद; और रोग अगर ‘छूत’ का हो तो जाहिर है कि दूसरे लोगों को उससे बचाए रखने की खातिर उसका खुलासा कर देना ठीक ही है।
अब मैं विषय को कुछ उद्धरणों के माध्यम से आगे बढ़ाऊँगा:
बेसुरे स्वर में गुनगुनाते हुए
शब्दों पर ध्यान दें—‘गाना’ और गुनगुनाना’। ‘गाना’ एक मुखर क्रिया है और ‘गुन्गुनाना’ अन्तर्मुखी। गुनगुनाते हुए व्यक्ति की स्थिति किसी ध्यानस्थ-व्यक्ति जितनी शांत होती है। गुनगुनाना अहंकारविहीन निर्विकार क्रिया है। गुनगुनाना स्वान्त: सुखाय होता है। अत: उसके बेसुरे होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। आदमी गाना ‘गाते वक्त’ मुखर होता है और तब ‘बेसुरा’ हो सकता है। दूसरे, ‘सुर’ में ‘स्वर’ स्वत: ही विद्यमान है। बिना स्वर के सुर की कल्पना ही नहीं की जा सकती। अत: ‘बेसुरे’ के साथ ‘स्वर’ शब्द का प्रयोग वाक्य पर अतिरिक्त बोझ लादने जैसा तो है ही, उसके लयात्मक सौन्दर्य को नष्ट करने वाला भी है। इस अतिरिक्त बोझ लादने को ही लघुकथा में ‘लफ्फाजी’ कहा जाता है।
एक सभ्य किंतु साहसी एवं फुर्तीला युवक
इस वाक्य का क्या मतलब निकलता है? क्या साहस और फुर्ती सिर्फ असभ्य समाज का ही गुण हैं? इस वाक्य में ‘किंतु’ के स्थान पर कॉमा(,) लगाने मात्र से यह अर्थपूर्ण बन जाता है।
स्वाभिमानी स्वभाव
स्वाभिमान स्वयं में एक भाव है न कि स्वभाव। इसमें ‘स्व’ स्वत: ही प्रत्यक्ष है, एक और ‘स्व’(स्वभाव) का प्रयोग शब्द के स्वरूप के प्रति न सिर्फ लापरवाही बल्कि उससे अनभिज्ञता भी प्रकट करता है।
आशानुकूल अधिकारी भड़क उठा
परिस्थितियों के अनुरूप पूर्वानुभूति को प्रकट करने के लिए हमारे पास प्रमुखत: दो शब्द हैं—आशा और आशंका। अपनी इच्छा के अनुरूप, सकारात्मक परिणाम की पूर्वानुभूति को ‘आशा’ तथा इच्छा के प्रतिकूल नकारात्मक परिणाम की पूर्वानुभूति को ‘आशंका’ शब्द से प्रकट करते हैं। जिस लघुकथा से उपरोक्त उद्धहरण लिया गया है उसमें वर्णित घटनाक्रम से स्पष्ट है कि अधिकारी का भड़कना ‘आशानुकूल’ नहीं ‘आशंकानुकूल’ था।
थूक का लौंदा खिड़की से बाहर पिच्च से फेंका
‘लौंदा’ लुगदी-जैसे किसी पदार्थ से ही बन सकता है, द्रव पदार्थ से नहीं। उद्धृत वाक्य के संदर्भ में लौंदा ‘कफ’ का तो हो सकता है, थूक का नहीं। दूसरे, ‘पिच्च’ से तात्पर्य होता है—दाँतों और जीभ के जरिए ‘जेट’(बारीक छेद) बनाकर मुँह में एकत्र द्रव (थूक या पीक) को पिचकारी से निकली धार की तरह बाहर फेंकना। ‘लौंदा’ लुगदी के आभास वाला शब्द है, अत: इसे ‘थक्क’ से तो फेंका जा सकता है, ‘पिच्च’ से नहीं।
विवशता की बैसाखी
किसी व्यक्ति के जीवन में बैसाखी एक विवशता या अवलंब कुछ भी हो सकती है, परन्तु विवशता स्वयं में कभी बैसाखी नहीं बन सकती।
सोच की तन्द्रा
‘तन्द्रा’ किसे कहते हैं—इसकी व्याख्या के लिए पर्याप्त स्थान और समय यहाँ नहीं है। संक्षेप में, खुली आँखों अपनी आवश्यकता और क्षमता से अधिक सुख-सुविधाओं आदि की प्राप्ति के लिए देखे जाने वाले प्रयासहीन सपने ‘तन्द्रा’ की श्रेणी में आते हैं। ‘सोच की तन्द्रा’ मानव-जीवन में कोई स्थिति नहीं है।
शब्दों के प्रयोग भाषा को हमेशा ही सुन्दर नहीं बनाते और सुन्दर लगने वाली भाषा भी हमेशा ही अर्थवान नहीं होती। मेरे एक कवि-मित्र मंचीय कवि-सम्मेलनों में बड़ी ऊँची आवाज में निम्न पंक्तियाँ गा-गाकर व्यापक जन-समूह की प्रशंसा पाते रहे हैं:
मैं मानव को इंसान बना डालूँगा
मैं ईश्वर को भगवान बना डालूँगा
कीच पर कीचड़ उछालने वालो सुन लो
मैं पत्थर को पाषाण बना डालूँगा
वस्तुत:दुरूह शब्द-प्रयोग और वक्र वाक्य रचना कभी-कभी सिर्फ वक्रता या दुरूहता के कारण ही प्रशंसित होते हैं, निरर्थक होते हुए भी। लघुकथा में भी ऐसे उदाहरण अक्सर देखने को मिल जाते हैं। देखिए—‘मैं अपने देश के विषय में फैल रहे सत्य के असत्य और असत्य के सत्य के विषय में सोचकर सिहर-सा उठा।’ इस वाक्य में अनर्थ का अर्थ और अर्थ का अनर्थ खोजने के लिए आप लाख सिर पटकिए, कुछ नहीं मिलेगा।
बिम्ब या प्रतीक के अतिरिक्त एक और आरोपण लघुकथाओं में देखने को मिल जाता है, जनवाद का आरोपण। मेरी दृष्टि में ‘जनवाद’ एक सहज और स्वाभाविक विचारधारा है। किसी भी रचना में यह विषय-स्फूर्त हो तो रचना प्रभावशाली बनती है; लेकिन इसका थोपा जाना रचना को यथार्थ के धरातल पर उथली नाटकीयता से ही भर पाता है, प्रभाव से नहीं। लघुकथाओं में आरोपित जनवाद को स्पष्ट करने की दृष्टि से कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं:
‘अभी वह भागा ही था कि भीड़ ने बगैर पुलिस की परवाह किए ड्राइवर को पकड़कर ट्रक पर ला पटका। भीड़ में से कुछ लोग चिल्लाए—‘लगा दो आग इस खूनी ट्रक को!’
धीरे-धीरे आक्रोशमयी भीड़ ट्रक की ओर बढ़ने लगी।’
आइए इस पर विचार करते हैं—
अन्तिम वाक्य के माध्यम से ‘जनवादी’ बिम्ब उभारने का यत्न किया गया है, लेकिन अगर हम ध्यान दें तो भीड़ ने ड्राइवर को पकड़कर पहले ही ट्रक पर ‘ला पटका’ है, दूर से ‘फेंका’ नहीं है। स्पष्ट है कि ‘पटकने’ के लिए भीड़ पहले ही ट्रक तक पहुँच चुकी होगी। ऐसी हालत में वह ‘धीरे-धीरे’ ट्रक की ओर कहाँ से बढ़ने लगी? इसे ही आरोपित बिम्ब-विधान कहते हैं।
‘इस चीख के साथ ही वह एकाएक उठकर बैठ गया था और उसकी मुट्ठियाँ स्वत: भिंच गई थीं। इस समय वह अपने को एकदम हल्का महसूस कर रहा था—बिल्कुल तनावमुक्त।’
किसी व्यक्ति का चीखकर उठ-बैठना और मुट्ठियाँ भींच लेना उसका तनावयुक्त होना दर्शाता है न कि तनावमुक्त हो जाना। किसी निर्णय पर पहुँचने के उपरांत व्यक्ति मस्तिष्क और शरीर के सारे तनावों को त्यागकर खड़ा होगा तो उसकी खिंची हुई नसें ढीली पड़ेंगीं, भिंची हुई मुट्ठियाँ खुलेंगी, विस्तार पायेंगी। दरअसल, सहजता को त्यागकर लेखक अगर किसी ‘वाद’ विशेष को अपने सिर पर लाद लेता है तो ऐसी बेसिर-पैर की भाषा बोलने ही लगता है। उसकी कथा में घटना, पात्र की स्थिति और शब्द-चयन के बीच सारा सामंजस्य गड़बड़ा जाता है। यहाँ ‘चीख’ के स्थान पर ‘निश्चय’ या ‘संकल्प’ का प्रयोग किया जाता तो ‘भिंची हुई मुट्ठियाँ’ स्वयं बोलती नजर आतीं, कथाकार को अपनी तरफ से कुछ भी कहने की जहमत न उठानी पड़ती। ‘चीख’ को सिर्फ चीख जानने-समझने वाले लेखक को मालूम होना चाहिए कि कुछ चीखें ‘पुकारात्मक’, कुछ ‘संकल्पात्मक’, कुछ ‘निश्चयात्मक’, कुछ ‘रुदनात्मक’, कुछ ‘धमकी देने वाली’ तो कुछ अन्य अनेक प्रकार की हो सकती हैं।
अन्य बहुत-से उदाहरण हैं जिनको भाषा की कुरूपता, लयहीनता और गतिहीनता के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। फिलहाल सिर्फ इतना कि अपने अनुभवों को ही नहीं अपितु अध्ययन और अनुभूतियों को भी आयाम दें। अनुभूत शब्दों का प्रयोग न हो तो कोई भी प्रतीक, कोई भी बिम्ब या कोई भी ‘वाद’ रचना में संप्रेषणीयता और प्रभावपूर्णता नहीं भर सकता है।