भाग-4
-->(अन्तिम किश्त)
बुजुर्गों के प्रति दायित्व-बोध शारीरिक स्तर पर ही नहीं, भावनात्मक स्तर पर भी अति-आवश्यक है—इस सत्य को हमारे सामने सतीश दुबे की लघुकथा ‘बर्थ-डे गिफ्ट’ की पाँच वर्षीय पोती प्रस्तुत करती है जिसे ‘कल दो टॉफियाँ दिलाई गई थीं। उसे याद था कि कल दादाजी का बर्थ-डे है, इसलिए उसने एक टॉफी जतन से अपने स्टडी टेबल के ड्राअर में छुपाकर रखदी थी।’ स्वयं दादाजी के जीवन में तो आपाधापी इतनी बढ़ गई है कि स्वाभाविक रूप से अपना जन्मदिन याद रख पाना उनके लिए असम्भव-सा हो गया है—‘उन्होंने हिसाब लगाया, आज उनकी उम्र के सत्तावन साल पूरे हो गए हैं।’ ऐसे लोगों को यह विश्वास दिलाए रखना कि आने वाली पीढ़ी उनके श्रम और संवेदनाओं का कम आदर नहीं करती है—नितान्त आवश्यक है। परिपूर्णा त्रिवेदी की लघुकथा ‘पिताजी का लेटर बॉक्स’ के पिताजी बेटे की इतनी सूचनाभर से स्वयं को स्वस्थ महसूस करने लगते हैं कि वह जल्दी ही उनसे मिलने को आने वाला है। कुमार नरेन्द्र की लघुकथा ‘अमृतपर्व’ के पिताजी अपने उस पुत्र से, जो उनकी सम्पत्ति पा जाने की आशा में लम्बे समय से उनके मरने का इन्तजार कर रहा है, सहानुभूति का हल्का-सा स्पर्श पाते ही यह निवेदन कर बैठते हैं—“इधर आ…मेरी छाती से लग जा।” स्पष्ट है कि अक्षम हो चुके शरीर के लिए इससे बड़ी कोई नियामत नहीं है। ऊषा दीप्ति की ‘औलाद’ तथा योगेन्द्र नाथ शुक्ल की ‘दीया’ भी सकारात्मक पक्ष की लघुकथाएँ हैं।
‘चूल्हा-चौका, बरतन-कपड़े करते-करते कमर कमान-सी हो गई है, मगर इस उमर में आराम से एक कप चाय भी नसीब नहीं। जवानी बच्चों को जनने, उनके हगने-मूतने को साफ करते बीत गई। हारी-बीमारी में उनके पैताने बैठी रही। न दिन देखा न रात। खटती रही कि ये मेरे अपने हैं; आज इनका ध्यान रख रही हूँ तो कल ये मेरा ध्यान रखेंगे।” भगीरथ परिहार की लघुकथा ‘तीर्थ यात्रा’ के इस संवाद में सन्तानोत्पत्ति और उसके लालन-पालन के पीछे छिपी भारतीय उपमहाद्वीप के समस्त माता-पिताओं की हार्दिक इच्छाएँ, उनका जीवन-दर्शन व्यक्त है। श्रीमद्भगवद्गीता हालाँकि ‘कर्मण्येवाऽधिकारस्ते मा फलेषु कदाचिन:’ का उपदेश देती है, लेकिन…दिल है कि मानता नहीं। इस उपमहाद्वीप के बूढ़ों और बुजुर्गों के मनस्ताप का एक बहुत बड़ा कारण अपने प्रति सन्तान के दायित्व का निर्धारण उसके पैदा होने से पहले ही कर लेना है। पृथ्वीराज अरोड़ा की लघुकथा ‘कथा नहीं’ के वृद्ध माता-पिता इसीलिए संतापग्रस्त हैं कि उनका पुत्र अपेक्षाओं के अनुरूप उनकी देखभाल क्यों नहीं करता है? स्वयं उनके पुत्र की आर्थिक, शारीरिक और मानसिक स्थिति कैसी है—इस यथार्थ से वे नहीं टकराना चाहते।
अनुशासन के नाम पर परिवार में अथवा समाज में कम उम्र के बच्चों पर हिटलरशाही थोपने वाले बड़ी उम्र के लोग आम तौर पर दमित बच्चों के द्वारा ही उपेक्षित कर दिए जाते हैं। एन उन्नी की लघुकथा ‘शेर’ के मिश्राजी और उनके बच्चे इस तथ्य को पुष्ट करते हैं। दूसरी ओर ऐसे भी बुजुर्ग हैं जो बच्चों के साथ मिलकर अपने बचपन में लौट जाते हैं और उसका भरपूर आनन्द उठाते हैं। मनोज सेवलकर की लघुकथा ‘बचपन’ और सुकेश साहनी की लघुकथा ‘विजेता’ के दादाजी ऐसे ही बुजुर्ग हैं। कहा भी गया है कि बुढ़ापा दूसरा बचपन है। यों भी, स्वयं से छोटों के प्रति अच्छा व्यवहार करने की लोकनीति का हर व्यक्ति को अनुकरण करना चाहिए, क्योंकि छोटे ही होंगे जो बड़े होकर अपनों से बड़ों के बारे लिखेंगे। लेकिन यह तो निश्चित है कि आने वाली हर पीढ़ी का मनुष्य पिछली पीढ़ी के मनुष्य की तुलना में अधिक तर्कशील और व्यावहारिक बुद्धिचातुर्य वाला होता है यानी कि ‘चाइल्ड इज़ फादर ऑव मैन’। भूत में भी यह होता आया है, भविष्य में भी यही होगा। यह एक अलग बात है कि भविष्य के तर्कशील और व्यावहारिक बुद्धिचातुर्य से युक्त बच्चे कितने प्रतिशत विशुद्ध भौतिकवादी विचारधारा वाले बनेंगे और कितने प्रतिशत मानवतावादी। बहरहाल, वे तर्कशील अवश्य होंगे। अशोक भाटिया की लघुकथा ‘अंतिम कथा’ के बच्चे इस तथ्य की पुष्टि करते हैं।
दैवी आपदाओं पर किसी का जोर नहीं चल सकता। वे कब व्यक्ति के मानस को झकझोर कर रख देंगी, कब उसकी रीढ़ को मरोड़ देंगी—कहा नहीं जा सकता। प्रभु त्रिवेदी की लघुकथा ‘तीन विंध्याचल’ के बाबूजी दैवी आपदाओं के मारे ऐसे ही पात्र हैं जिनकी मानसिक समस्याओं का समाधान बेटे द्वारा दिया गया यह आश्वासन भी नहीं कर पाता है कि—“मैं बड़ा भाई हूँ। मेरी भी जवाबदारियाँ हैं। आप अनमने मत रहा करो।” अन्तत: मृत्यु ही उनके मनस्ताप को समाप्त कर पाती है।
वृद्ध लोगों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया उनको सम्मान देने से कम हैसियत नहीं रखता है। यह हर युवा और सक्षम व्यक्ति का पारिवारिक ही नहीं सामाजिक दायित्व भी है। श्यामसुन्दर दीप्ति की लघुकथा ‘बूढ़ा रिक्शेवाला’ का ‘वह’ बूढ़े रिक्शेवाले को यह सम्मान कॉलेज के लिए अपने घर से पन्द्रह मिनट पहले निकलकर प्रदान करता है तो श्याम सुन्दर अग्रवाल की लघुकथा ‘बेटी का हिस्सा’ की विधवा बेटी भाइयों द्वारा बोझ समझ लिए गए माता-पिता को उनके पास से अपने साथ लेजाकर।
इस प्रकार समकालीन लघुकथा में वृद्धों और बुजुर्गों—दोनों की पीड़ाओं, व्यथाओं, निरीहताओं और आवश्यकताओं का ही नहीं उनकी जीवन्तताओं, जुझारुताओं और जीवन व समाज के प्रति उनकी सकारात्मक सोचों का भी सफल चित्रण हुआ है। लघुकथाकारों ने उनके जीवन ही नहीं जीवन-दर्शन को भी अपनी रचनाशीलता का विषय बनाया है। वृद्ध हो चुकी पीढ़ी को उन्होंने नई पीढ़ी, विशेषकर बेटे-बहू द्वारा आहत दिखाकर पाठकीय सहानुभूति बटोरने का प्रपंच ही नहीं रचा है, बल्कि वृद्धों के प्रति तीसरी पीढ़ी तक में दायित्व-बोध को दर्शाती सकारात्मक यथार्थ की लघुकथाएँ भी समाज को दी हैं।
नई धारा(वृद्ध विमर्श विशेषांक, अप्रैल-मई 2010/पृष्ठ 65-66