शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

समकालीन लघुकथा और बुजुर्गों की दुनिया/बलराम अग्रवाल

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भाग-4
-->(अन्तिम किश्त)
बुजुर्गों के प्रति दायित्व-बोध शारीरिक स्तर पर ही नहीं, भावनात्मक स्तर पर भी अति-आवश्यक हैइस सत्य को हमारे सामने सतीश दुबे की लघुकथा बर्थ-डे गिफ्ट की पाँच वर्षीय पोती प्रस्तुत करती है जिसे कल दो टॉफियाँ दिलाई गई थीं। उसे याद था कि कल दादाजी का बर्थ-डे है, इसलिए उसने एक टॉफी जतन से अपने स्टडी टेबल के ड्राअर में छुपाकर रखदी थी। स्वयं दादाजी के जीवन में तो आपाधापी इतनी बढ़ गई है कि स्वाभाविक रूप से अपना जन्मदिन याद रख पाना उनके लिए असम्भव-सा हो गया है—‘उन्होंने हिसाब लगाया, आज उनकी उम्र के सत्तावन साल पूरे हो गए हैं। ऐसे लोगों को यह विश्वास दिलाए रखना कि आने वाली पीढ़ी उनके श्रम और संवेदनाओं का कम आदर नहीं करती हैनितान्त आवश्यक है। परिपूर्णा त्रिवेदी की लघुकथा पिताजी का लेटर बॉक्स के पिताजी बेटे की इतनी सूचनाभर से स्वयं को स्वस्थ महसूस करने लगते हैं कि वह जल्दी ही उनसे मिलने को आने वाला है। कुमार नरेन्द्र की लघुकथा अमृतपर्व के पिताजी अपने उस पुत्र से, जो उनकी सम्पत्ति पा जाने की आशा में लम्बे समय से उनके मरने का इन्तजार कर रहा है, सहानुभूति का हल्का-सा स्पर्श पाते ही यह निवेदन कर बैठते हैं—“इधर आ…मेरी छाती से लग जा। स्पष्ट है कि अक्षम हो चुके शरीर के लिए इससे बड़ी कोई नियामत नहीं है। ऊषा दीप्ति की औलाद तथा योगेन्द्र नाथ शुक्ल की दीया भी सकारात्मक पक्ष की लघुकथाएँ हैं।
चूल्हा-चौका, बरतन-कपड़े करते-करते कमर कमान-सी हो गई है, मगर इस उमर में आराम से एक कप चाय भी नसीब नहीं। जवानी बच्चों को जनने, उनके हगने-मूतने को साफ करते बीत गई। हारी-बीमारी में उनके पैताने बैठी रही। न दिन देखा न रात। खटती रही कि ये मेरे अपने हैं; आज इनका ध्यान रख रही हूँ तो कल ये मेरा ध्यान रखेंगे। भगीरथ परिहार की लघुकथा तीर्थ यात्रा के इस संवाद में सन्तानोत्पत्ति और उसके लालन-पालन के पीछे छिपी भारतीय उपमहाद्वीप के समस्त माता-पिताओं की हार्दिक इच्छाएँ, उनका जीवन-दर्शन व्यक्त है। श्रीमद्भगवद्गीता हालाँकि कर्मण्येवाऽधिकारस्ते मा फलेषु कदाचिन: का उपदेश देती है, लेकिन…दिल है कि मानता नहीं। इस उपमहाद्वीप के बूढ़ों और बुजुर्गों के मनस्ताप का एक बहुत बड़ा कारण अपने प्रति सन्तान के दायित्व का निर्धारण उसके पैदा होने से पहले ही कर लेना है। पृथ्वीराज अरोड़ा की लघुकथा कथा नहीं के वृद्ध माता-पिता इसीलिए संतापग्रस्त हैं कि उनका पुत्र अपेक्षाओं के अनुरूप उनकी देखभाल क्यों नहीं करता है? स्वयं उनके पुत्र की आर्थिक, शारीरिक और मानसिक स्थिति कैसी हैइस यथार्थ से वे नहीं टकराना चाहते।
अनुशासन के नाम पर परिवार में अथवा समाज में कम उम्र के बच्चों पर हिटलरशाही थोपने वाले बड़ी उम्र के लोग आम तौर पर दमित बच्चों के द्वारा ही उपेक्षित कर दिए जाते हैं। एन उन्नी की लघुकथा शेर के मिश्राजी और उनके बच्चे इस तथ्य को पुष्ट करते हैं। दूसरी ओर ऐसे भी बुजुर्ग हैं जो बच्चों के साथ मिलकर अपने बचपन में लौट जाते हैं और उसका भरपूर आनन्द उठाते हैं। मनोज सेवलकर की लघुकथा बचपन और सुकेश साहनी की लघुकथा विजेता के दादाजी ऐसे ही बुजुर्ग हैं। कहा भी गया है कि बुढ़ापा दूसरा बचपन है। यों भी, स्वयं से छोटों के प्रति अच्छा व्यवहार करने की लोकनीति का हर व्यक्ति को अनुकरण करना चाहिए, क्योंकि छोटे ही होंगे जो बड़े होकर अपनों से बड़ों के बारे लिखेंगे। लेकिन यह तो निश्चित है कि आने वाली हर पीढ़ी का मनुष्य पिछली पीढ़ी के मनुष्य की तुलना में अधिक तर्कशील और व्यावहारिक बुद्धिचातुर्य वाला होता है यानी कि चाइल्ड इज़ फादर ऑव मैन। भूत में भी यह होता आया है, भविष्य में भी यही होगा। यह एक अलग बात है कि भविष्य के तर्कशील और व्यावहारिक बुद्धिचातुर्य से युक्त बच्चे कितने प्रतिशत विशुद्ध भौतिकवादी विचारधारा वाले बनेंगे और कितने प्रतिशत मानवतावादी। बहरहाल, वे तर्कशील अवश्य होंगे। अशोक भाटिया की लघुकथा अंतिम कथा के बच्चे इस तथ्य की पुष्टि करते हैं।
दैवी आपदाओं पर किसी का जोर नहीं चल सकता। वे कब व्यक्ति के मानस को झकझोर कर रख देंगी, कब उसकी रीढ़ को मरोड़ देंगीकहा नहीं जा सकता। प्रभु त्रिवेदी की लघुकथा तीन विंध्याचल के बाबूजी दैवी आपदाओं के मारे ऐसे ही पात्र हैं जिनकी मानसिक समस्याओं का समाधान बेटे द्वारा दिया गया यह आश्वासन भी नहीं कर पाता है कि—“मैं बड़ा भाई हूँ। मेरी भी जवाबदारियाँ हैं। आप अनमने मत रहा करो। अन्तत: मृत्यु ही उनके मनस्ताप को समाप्त कर पाती है।
वृद्ध लोगों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया उनको सम्मान देने से कम हैसियत नहीं रखता है। यह हर युवा और सक्षम व्यक्ति का पारिवारिक ही नहीं सामाजिक दायित्व भी है। श्यामसुन्दर दीप्ति की लघुकथा बूढ़ा रिक्शेवाला का वह बूढ़े रिक्शेवाले को यह सम्मान कॉलेज के लिए अपने घर से पन्द्रह मिनट पहले निकलकर प्रदान करता है तो श्याम सुन्दर अग्रवाल की लघुकथा बेटी का हिस्सा की विधवा बेटी भाइयों द्वारा बोझ समझ लिए गए माता-पिता को उनके पास से अपने साथ लेजाकर।
इस प्रकार समकालीन लघुकथा में वृद्धों और बुजुर्गोंदोनों की पीड़ाओं, व्यथाओं, निरीहताओं और आवश्यकताओं का ही नहीं उनकी जीवन्तताओं, जुझारुताओं और जीवन व समाज के प्रति उनकी सकारात्मक सोचों का भी सफल चित्रण हुआ है। लघुकथाकारों ने उनके जीवन ही नहीं जीवन-दर्शन को भी अपनी रचनाशीलता का विषय बनाया है। वृद्ध हो चुकी पीढ़ी को उन्होंने नई पीढ़ी, विशेषकर बेटे-बहू द्वारा आहत दिखाकर पाठकीय सहानुभूति बटोरने का प्रपंच ही नहीं रचा है, बल्कि वृद्धों के प्रति तीसरी पीढ़ी तक में दायित्व-बोध को दर्शाती सकारात्मक यथार्थ की लघुकथाएँ भी समाज को दी हैं।
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नई धारा(वृद्ध विमर्श विशेषांक, अप्रैल-मई 2010/पृष्ठ 65-66

शनिवार, 3 जुलाई 2010

समकालीन लघुकथा और बुजुर्गों की दुनिया/बलराम अग्रवाल

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भाग-
माज का यह एक बना-बनाया दृष्टिकोण प्रतीत होता है, जिससे कथाकार भी अछूते नहीं रह पाए हैं; लेकिन बूढ़े माँ-बाप के प्रति समूची नई पीढ़ी दायित्वहीन नहीं है और न ही लघुकथाकार वृद्धों व युवाओं से जुड़ी अन्यान्य संवेदनाओं को चित्रित करने से चूके हैं। कृष्ण मनु की लघुकथा धारणा के विसेसर बाबू समाज में व्याप्त इस दुराग्रह को यों व्यक्त करते हैं—“गलत धारणा पालकर पता नहीं क्यों बहू-बेटे के प्रति दुराग्रह से पीड़ित रहते हैं लोग। नियति सप्रे की निरुत्तर, सीमा पांडे सुशी की कीमत, शील कौशिक की सामंजस्य, नन्दलाल भारती की नसीब आदि लघुकथाओं को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। श्याम सुन्दर अग्रवाल की माँ का कमरा तथा सत्यवीर मानव की दर्द-बोध भी इस प्रचलित धारणा को तोड़ती बेहद सशक्त लघुकथाएँ है। ऐसी लघुकथाएँ नयी पीढ़ी से मिलने वाली सहानुभूति और सहायता की ओर से हताश हो चुकी वृद्ध पीढ़ी(उड़ान, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु तथा अज्ञात गमनकसाईघाट, बलराम अग्रवाल तथा स्वाभिमान प्रताप सिंह सोढ़ी) को आशा की किरण दिखाती हैं, मृतप्राय: उनके सपनों को साँसें प्रदान करती हैं।
सतिपाल खुल्लर की बदला हुआ स्वर, निरंजन बोहा की रिश्तों के अर्थ और हरनाम शर्मा की अब नाहीं बुजुर्गों द्वारा दबंग तरीके से अपना अधिकार पाने को प्रतिष्ठित करती हैं, लेकिन यह तरीका दो ही स्थितियों में सम्भव हैपहली यह कि व्यक्ति शारीरिक व आर्थिक रूप से सक्षम हो तथा दूसरी यह कि बेटे-बहू के आचरण में थोड़ी-बहुत सांस्कारिकता, समाज के प्रति जवाबदेही की सेंस बाकी बची हो। शारीरिक, आर्थिक और मानसिकसभी ओर से आहत वृद्धजन अपनी संतान तक के विरुद्ध आक्रामक कार्यवाही का कदम भी उठा सकते हैं; लेकिन माँ आखिर माँ ही होती है, बहुत जल्द द्रवित हो जाती है। संतान उसकी दृष्टि में अबोध ही रहती है, माँ उसको कष्ट में नहीं देख सकती(मातृत्व, नरेन्द्र नाथ लाहा)।
अनुभव क्या हैं? अपनी गलतियों का पुलिन्दा। गलतियाँ करने के जोखिम से दूर भागते रहने वाला व्यक्ति अनुभव-प्राप्ति से भी दूर ही रह जाता है। चेखव के नाटक तीन बहनेंका एक पात्र कहता है—“कितना अच्छा होता कि ये जो जिंदगी हमने जी है, वो एक रफ ड्राफ्ट होती, उसे एक बार संशोधित करने का मौका हमें मिलता।.वाकई व्यक्ति को अगर दोबारा जवान उम्र में लौटने की सुविधा मिल जाए और उसके बाद वह दोबारा ही बुढ़ापे में भी कदम रख सकने का वर प्रकृति से पा सके तो जीवन की बहुत-सी गलतियों को सुधारने की कोशिश कर सकता है। हालाँकि कुछ मामलों में यह भी हो सकता है कि दूसरी पारी में वह चूक गई गलतियों को नए सिरे से करने की पहल करे।
कुछ लोगों के लिए यथार्थ यह है कि बुढ़ापा बुरे वक्त की देन है; और उस समय, जब बच्चों की पढ़ाई के लिए पिताजी से खाली कराया गया कमरा(कमरा, सुभाष नीरव) उनकी उपेक्षा कर किराए पर उठा दिया जाय, अथवा बरामदे के बराबरवाली अँधेरी कोठरी से भी बिस्तर हटाकर उन्हें दो-तीन दिन के लिए पडोसी के यहाँ सोने को कह दिया जाए(तंग होती जगह, कृष्ण मनु), तब तो यह बात पूरी तरह सिद्ध ही हो जाती है। सुरेश शर्मा की बन्द दरवाजे तथा पारस दासोत की एक मूवी का द एण्ड अपने मनोरंजन में डूबे युवा परिवारजनों की वृद्धों के प्रति उपेक्षा की चरम-स्थिति का वर्णन करती हैं।
व्यक्ति पहले जवान होता है, फिर प्रौढ़, फिर बूढ़ा और अन्त में अनुकरणीय बन जाता है। लेकिन अनुकरणीय बन जाना उतना आसान नहीं है। उम्र कुछ लोगों को पका देती है और कुछ को थका देती है; कुछ को उम्र सुगन्धि दे जाती है तो कुछ उसे पाकर सड़-गल जाते हैं। इसलिए बहुत कम लोग होते हैं जिन्हें बुजुर्ग कहा जा सकता है तथापि सम्मान हमें बूढ़ों का भी करना ही चाहिए। क्यों करना चाहिए? इसके उत्तर-स्वरूप रामनिवास मानव की बाप का दर्द, सुकेश साहनी की संस्कार, रमेश चन्द्र की बड़े बूढ़े, राजेन्द्र वामन काटदरे की इन्वेस्टमेंट को पढ़ा जा सकता है।
शारीरिक रूप से थक चुके अथवा कारण-विशेषवश अक्षम चल रहे लोगों को सहानुभूति और सहायता प्रदान करना स्वस्थ लोगों का दायित्व हैयह बात सभी स्वस्थ लोगों के मानसिक-संस्कार में पैठी होनी चाहिए। श्यामसुन्दर व्यास की लघुकथा संस्कार में बहू का पाँव भारी होने के कारण बाहर से पानी ढोने के दायित्व को बूढ़ी अम्मा निभाती है तो अम्मा के बुढ़ापे को देखते हुए उसकी मदद करने के दायित्व को मनकू निभाता है। इसी दायित्व को सतीश दुबे की लघुकथा बंदगी का दमड़ीलाल पूर्णत: अशक्त बूढ़े बाबा के प्रति, सुभाष नीरव की लघुकथा सहयात्री का पुरुष बूढ़ी माताजी के प्रति और पूजा-फंड का शिक्षक धीर माता-पिता के प्रति निभाता है। वर्तमान समाज को इस दायित्व-बोध की महती आवश्यकता है जिसकी ओर ये लघुकथाएँ बड़ा सटीक और सुखद संकेत करती हैं। अन्तत: तो सभी के शरीर को एक न एक दिन अशक्त हो ही जाना है। यह एक प्राकृतिक क्रिया है जो हमेशा ही विज्ञान के समक्ष चुनौतीपूर्ण ढंग से उपस्थित रहेगी क्योंकि इसका समाधान सेवा है, तर्क नहीं।
नई धारा(वृद्ध विमर्श विशेषांक, अप्रैल-मई 2010/पृष्ठ 64-65