(साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश की मासिक पत्रिका 'साक्षात्कार' का संयुक्तांक (502-503-504) अप्रैल-मई-जून 2022 लघुकथा विशेषांक के रूप में छपा है। संपादक डॉ॰ विकास दवे ने लघुकथा के पक्ष में यह उल्लेखनीय कार्य किया है, उनका आभार। इस अंक के संयोजन का श्रेय डॉ॰ विकास दवे ने श्रीमती कांता राय व सतीश राठी जी को दिया है। इन दोनों के प्रति लघुकथा से जुड़े हम सभी जन विशेष आभार प्रकट करते हैं। नि:संदेह अनेक महत्वपूर्ण नाम इस वृहद् अंक में जाने से छूट गये हैं, लेकिन प्रत्येक संयोजक व संपादक के कार्य करने की तथा पत्रिका के पृष्ठों की सीमा भी होती है, यह विचारणीय है। बहरहाल, इस अंक का चहुँदिश स्वागत किया जा रहा है।
इस अंक के पृष्ठ 33 से पृष्ठ 48 तक 16 पृष्ठ लंबे 'संस्कृत एवं अन्य भारतीय कथा साहित्य' शीर्षक मेरे लेख को स्थान देने योग्य समझने के लिए संपादक डॉ॰ विकास दवे जी का व लेख उन तक प्रेषित करने के लिए श्रीमती कांता रॉय का साधुवाद।)
विश्व साहित्य को संस्कृत कथा साहित्य की जो देन है उस पर विश्व के लगभग
अभिव्यक्ति के मुख्य रूप से तीन सोपान हैं। आदिम मनुष्य में अभिव्यक्ति सर्वप्रथम आंगिक ही रही होगी। उसके बाद उसने गुफाओं की भित्तियों पर अभिव्यक्त होना प्रारंभ किया। यह दूसरे सोपान की अभिव्यक्ति थी जो कि चित्रात्मक थी। इन्हीं चित्रों से प्रोन्नत होकर मनुष्य ने लिपि का आविष्कार किया और स्तर हैं मनुष्य की अभिव्यक्ति ने लिखित शब्दों में प्रकट होना शुरू किया जोकि शनैः शनैः ‘वाक्’ में उतरता चला गया। मैं समझता हूँ कि आदिम काल से वाचिक होने तक दुनिया में कहानी के चार चरण अवश्य रहे हैं— आंगिक, चित्रित, लिखित और वाचिक।
यहीं से प्रत्येक देश में सामान्य कौतुकवर्द्धक कथाओं का उदय भी हुआ और विकास भी। मनुष्य की अभिव्यक्त होने की स्वाभाविक प्रकृति को चरितार्थ करने का यह एक साहित्यिक प्रयास है।
कहावत है कि—वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजाहोगा गान। लेकिन ‘कथा’आह से नहीं उपजी, ऐसा विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है। आदिकालीन मानव को जब पहली बार सुदूर क्षितिज की गोद से सिर को धीरे-धीरे ऊपरलाते अरुण का दर्शन हुआ होगा, तब वह एक साथ विस्मित और आह्लादित अवश्य हुआहोगा। निश्चित रूप से पहली कथा का जन्म आह्लाद और विस्मय के इस योग से हुआहोगा जिसमें पक्षियों के कलरव और पशु-शावकों की उछल-कूद व अन्य अनेक प्राणियों की प्रणय-क्रीड़ाओं आदिका भी योगदान रहा। संध्या समय सूर्य को उसने क्षितिज की गोद में समाते औरअमृत बरसाने हेतु चंद्रमा को आकाश के भाल पर आते देखा। इस दृश्य ने उसमें कल्पना औररुचिरता का संचार किया तथा कथन की भंगिमा का विस्तार भी। यही कारण है कि आजभी कथा का रुचिर और कल्पनायुक्त होना एक आवश्यक गुण बना हुआ है। यहाँकल्पना से तात्पर्य कथारूप में भावों औरविचारों की उस प्रस्तुति से है जो मानव समाज की एकजुटता और उत्थान के लिएआवश्यक समझी जाती है।
‘समय, लघुकथा और यह सदी’ शीर्षक अपने भूमिकपरक लघु-आलेख में डॉ॰ गोयनका ने कहा है कि—‘साहित्य से अपने जुड़ाव को मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ। समाज में, वस्तुतः साहित्य ही वह चीज है जो मनुष्य को ‘मानव’ बनाए रखने के लिए सदा प्रयत्नशील रहता है। किसी काल में ‘वाणी’ ही साहित्य हुआ करती थी और समूचा साहित्य ‘स्मृति’ के रूप में पूर्व पीढ़ी से आगामी पीढ़ी तक की यात्रा करता था। कितने समय तक यह चलता रहा, कुछ कहा नहीं जा सकता; लेकिन यह सत्य है कि ‘स्मृति’ के रूप में चलते आ रहे अलिखित साहित्य ने अंततः लिखित साहित्य के रूप में प्रकट होना शुरू किया। विज्ञान की उन्नति ने अब इतने उपकरण तैयार कर दिए हैं कि मनुष्य को अपने दिमाग का इस्तेमाल करने की कम-से-कम जरूरत पड़ती है। मसलन, अब किसी को पहाड़े रटने की जरूरत नहीं पड़ती, हर तरह की गणना के लिए कैलकुलेटर उपलब्ध है। कुछ समय पहले लाइन में लगकर प्राप्त होनेवाला टेलीफोन चलन से बाहर हो गया है। मोबाइल ने भी स्वयं को एंड्रायड के रूप में विकसित कर लिया है। अब किसी अन्य की तो बात ही क्या, स्वयं अपना भी नंबर किसी को याद नहीं मिलेगा। सब-कुछ उपकरण में दर्ज है। कहने का तात्पर्य यह कि कागज पर लिखित साहित्य धीरे-धीरे इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों पर लिखा और बेचा जाने लगा है। वैज्ञानिक उन्नति के नाम पर मनुष्य को उसके दिमाग से, और इस तरह उसकी संवेदनशीलता से अनायास ही दूर करते जा रहे इस ‘समय’ पर नजर रखने की गहरी जरूरत है।
‘समय’ साहित्य की दशा और दिशा को निर्धरित करने का बड़ा महत्त्वपूर्ण घटक है। कहना चाहिए कि ‘समय’ ही साहित्य को रूपायित करता है। ‘समय’ के संबंध में एक उल्लेखनीय प्रसंग महाभारत में आया है। भीष्मजी जब शर-शैय्या पर थे, तब उनसे पूछा गया था कि ‘काल’ और ‘राजा’ में कौन किसका निर्धरण करता है? तब भीष्म पितामह ने जवाब दिया था—‘राजा’ ‘काल’ का निर्धारण करता है। लेकिन साहित्य की स्थिति, उसका क्षेत्र व दायित्व ‘राजा’ की स्थिति, उसके क्षेत्र व दायित्व से एकदम भिन्न है। ‘साहित्य’ का निर्धरण ‘राजा’ नहीं ‘काल’ अर्थात् समय करता है।
कथा की उद्गम भूमि के रूप में पहला प्रामाणिक ग्रंथ ‘ऋग्वेद’ ही सिद्धहोने के कारण संस्कृत साहित्य के साथ कथा का कुछ विशेष संबंध बनताहै।
संस्कृत साहित्य में कथाएँ केवल कौतुकमयी प्रवृत्ति को ही चरितार्थ नहीं करतीं बल्कि समाज में नैतिक चरित्र का अवगाहन भी करती हैं। डॉ. बलदेव उपाध्याय ने इसीलिए कथा के उदय को मानव की कौतुकमयी प्रकृति कीचरितार्थता कहा है।
परवर्ती साहित्यमें कथाओं का उपयोग धार्मिक संप्रदायों ने अपने-अपने सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार के लिए किया। आज बौद्ध और जैन संप्रदाय अपने-अपने सिद्धांतों केअनुरूप रची कथा-कहानियों से समृद्ध हैं। मुख्यत: संप्रदायों से जुड़े सन्यासियों के साथ ये कथाएँ विदेशों में पहुँचीं और वहाँ के साहित्य में भीअपनी पैठ इन्होंने बना ली। कथाएँ देश-काल और परिस्थिति के अनुरूप अपने चरित्र में बदलाव लाने की सामर्थ्य रखती हैं। इसलिए पश्चिम के देशों में गई भारतीय कथाओं ने पश्चिमी वातावरण के अनुकूल तथा पूरब के देशों में गई भारतीय कथाओं ने पूरब के वातावरण के अनुकूल अपने आप को ढाल लिया और वहीं जैसे कलेवर में वहाँ के नागरिकों के सामने ऐसे आईं जैसे वे वहीं की उपज हों।
संस्कृत साहित्य में धार्मिक वांग्मय के बाहर केवल अलौकिक प्रयोजन से ही रचित कथा साहित्य के स्वतंत्र ग्रंथों की रचना कब से प्रारंभ हुई होगी, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। लेकिन इतना अवश्य कहा जासकता है कि ईसा की पहली शताब्दी के बहुत पहले से ही संस्कृत में कथासाहित्य का प्रणयन प्रारंभ हो चुका था। तब से लेकर भारतीय इतिहास के मध्यकाल के प्राय: (भारतीय इतिहास का मध्यकाल 600 ई से 1200 ई तक माना गया है। लगभग सन् 1000 ई. से सन् 1310 ई. तक मुस्लिम प्रभुता और शासन की लहरें कभी कम और कभी अधिक वेग से भारत में लगातार आती रहीं। यहाँ तक कि चौदहवीं शताब्दी ईस्वी के आरम्भ यानी सन् 1310 ई. से लेकर सन् 1526 ई. तक लगभग सारा भारत मुस्लिम शासन के अधीन हो गया।)अंत तक संस्कृत में कथा साहित्य का सृजन होता रहा। इस दीर्घकालिक परंपरा में अनेक ग्रंथों का प्रणयन हुआ।
भारतीय कथा साहित्य
साहित्यके एक महत्वपूर्ण अंग कथा साहित्य का प्राचीनतम रूप ऋग्वेद के यम-यमीसंवाद, पुरुरवा-उर्वशी संवाद, सरमा और पणि संवाद जैसे लाक्षणिक संवादों, ब्राह्मणों जैसे रूपात्मक आख्यानों, उपनिषदों के सनत्कुमार नारद जैसे ब्रह्मर्षियों की भावमूलक आध्यात्मिक व्याख्याओं एवंमहाभारत के गंगावतरण, श्रृंग, नहुष, ययाति, शकुंतला, नल आदि जैसेउपाख्यानों में उपलब्ध होता है।
व्यवस्थितरूप से भारतीय कथा साहित्य की सबसे प्रसिद्ध और प्राचीन पुस्तक ‘पंचतंत्र’ है। विश्व साहित्य पर ‘पंचतंत्र’ का अत्यधिक प्रभाव पड़ा है। ‘पंचतंत्र’ केसमान ही ‘हितोपदेश’ की नीति कथाएँ प्रसिद्ध हुईं। लोककथाओं में पैशाची भाषामें लिखित ‘बृहत्कथा’ ने भारतीय साहित्य को सर्वाधिक प्रभावित किया। ‘बृहत्कथा’ के तीन संस्कृत रूपांतर उपलब्ध होते हैं—
1- बुद्धस्वामी कृत ‘बृहत्कथाश्लोकसंग्रह’
2- क्षेमेंद्र कृत ‘बृहत्कथामंजरी’, तथा
3- सोमदेव कृत ‘कथासरित्सागर’।
‘वेतालपंचविंशतिका’, ‘सिंहासनद्वात्रिंशिका’, ‘शुकसप्तति’, ‘उपमितिभव-प्रपंचकथा’, ‘त्रिषष्ठिशलाकाचरित’, ‘बृहत्कथाकोश’ इत्यादि अनेक कथा ग्रंथों ने भारतीय कथासाहित्य की श्रीवृद्धि की है।
बौद्ध काल में भी जातक कथाओं के रूप में कथा-साहित्य का अच्छा विकास हुआ।
अर्द्धमागधी आगम ग्रंथों में
छोटी-बड़ी सभी प्रकार की सहस्रों कथाएँ प्राप्त हैं। प्राकृत आगम साहित्य में
धार्मिक आचार, आध्यात्मिक तत्व चिंतन तथा नीति औरकर्तव्य का प्रणयन कथा के माध्यम
से किया गया है। गूढ़ से गूढ़ विचारों और गहनसे गहन अनुभूतियों को सरलतम रूप में
जन-जन तक पहुँचाने के लिए तीर्थंकरों, गणधरों
एवं आचार्यों ने कथाओं का आधार ग्रहण किया है। ‘ज्ञातृधर्मकथा’,
‘उवासगदसा’,
‘आचारांग’
ग्रंथों में रूपक और उपमानों के साथ घटनात्मक कथाएँ भी आई हैं जिनके महत्वपूर्ण
उपकरणों से कथाओं का निर्माण विस्तृत रूप में हुआ है।
टीका, निर्युक्ति और भाष्य ग्रंथों मेंसाहित्य का विकास बहुत-कुछ आगे बढ़ा हुआ दिखाई देता है। इनमें ऐतिहासिक, अर्द्ध ऐतिहासिक, धार्मिक, लौकिक आदि कई प्रकार की कथाएँ उपलब्ध हैं।
कथा साहित्य की उत्पत्ति मनुष्य की कौतूहल वृद्धि को संतुष्ट करने के लिए हुई होगी। पर यह कौतुक वृत्ति थोड़ा आगे बढ़ते ही मानव के भाग्य को उसके आचरण को उसके सुख-दुख के स्वरूप को पहचानने की प्रवृत्ति में परिणत हो गई होगी। उसी समय साहित्य का जन्म हुआ होगा। हो सकता है कि कथा आरंभ में कथा मात्र रही हो पर वह कथा साहित्य का युग नहीं रहा होगा वह युग रहा होगा कथा मात्र का। केवल कथा सुन-सुना कर कौतुक शांत कर देने वाला। परंतु जिस दिन अमानवीय तत्वों की स्थिति अपने यहाँ बनाए रखते हुए भी मनुष्य की दिलचस्पी मनुष्य में बढ़ने लगी होगी और यह संस्कार उगने लगा होगा कि इनका अस्तित्व मानव में सोयी शिथिल भाव या क्रिया तरंगों को जगह देता है, उसी दिन कथा साहित्य के प्रथम सुप्रभात का आविर्भाव हुआ होगा और उसी दिन कथा साहित्य ने प्रथम किरणें देखी होंगी।"
किसी भी साहित्य विधा के मध्य कभी भी स्पष्ट विभाजन रेखा नहींखींची जा सकती—यह तथ्य संस्कृत कथा साहित्य के पक्ष में भी उतना ही सत्यहै जितना किसी भी अन्य साहित्य के संबंध में।
भारतीय चिंतन साहित्य और साधना के क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण विद्वान हुए हैं। वे न केवल महान गुरु धर्माचार्य रहे बल्कि अद्भुत प्रतिभा और सर्जनक्षमता से सम्पन्न मनीषी रहे। आचार्यों ने साहित्य, दर्शन, योग, व्याकरण, छंद, काव्यशास्त्र आदि को अनेक बार कथाओं के माध्यम से भी संप्रेषित करने का कौशल दिखाया है।
संस्कृत साहित्य का इतिहास
निस्संदेह संस्कृत साहित्य का महत्व बहुत बड़ा है। इसकी बड़ी उम्र, एक बहुत-बड़े भूखंड पर इसका फैला हुआ होना, इसका परिमाण, इसकी अर्थ-संपत्ति, इसकी रचना-चारुता, संस्कृति के इतिहास की दृष्टि से इसका मूल्य इसे महान, मौलिकऔर पुरातन साहित्य सिद्ध करते हैं।
संस्कृत साहित्य का अध्ययन ऐतिहासिकों के बड़े काम का है। यह विस्तृत भारतवर्ष के निवासियों के बुद्धिजगत के 3,000 से भी अधिक वर्षों का इतिहास ही नहीं है, प्रत्युत उत्तर में तिब्बत, चीन जापान कोरिया, दक्षिण में लंका, पूर्व में मलाया प्रायद्वीप, और पश्चिम में अफगानिस्तान इत्यादि देशों के बौद्धिक जगत पर इसका बहुत बड़ा प्रभाव भी पड़ा है।
आधुनिक शताब्दियों में इसने यूरोप पर युग प्रवर्तक प्रभाव डाला है।
संस्कृत भारोपीय शाखा की सबसे पुरानी भाषा है। अतएव इसके साहित्य में इस शाखा के स्मारक उपलब्ध होते हैं। धार्मिक विचारों के क्रमिक विकास का जैसा विस्पष्ट चित्र उपस्थित करता है वैसा जगत का कोई दूसरा साहित्य के स्मारक नहीं।
साहित्य शब्द के व्यापक से व्यापक अर्थ में महाकाव्य, गीतिकाव्य, नाटक, गद्य-आख्यायिका, औपदेशिक कथा, लोकप्रिय कथा, विज्ञान ग्रंथ इत्यादि जो कुछ भी आ सकता है वह सब संस्कृत साहित्य में मौजूद है। हमें भारत में राजनीति, आयुर्वेद, फलित ज्योतिष, गणित ज्योतिष, अंकगणित और ज्यामिति का ही बहुत-सा और कुछ पुराना साहित्य मिलता हो, यह बात नहीं है; बल्कि भारत मेंसंगीत, नृत्य, नाटक, जादू, देवविद्या, यहाँ तक कि अलंकार विद्या के भी प्रथक-प्रथक ग्रंथ पाए जाते हैं जो वैज्ञानिक शैली से लिखे गए हैं।
संस्कृत साहित्य व्यापकता के लिए ही नहीं, रचना सौष्ठव के लिए भी प्रसिद्ध है। सूत्र रचना में ये लोग सब जातियों में प्रसिद्ध हैं। इनके द्वारा किए हुए पशु कथाओं, पक्षीकथाओं, अप्सरा कथाओं तथा गद्यमय आख्यायिकाओं के संग्रहण का भूमंडल केसाहित्य के इतिहास में बड़ा महत्व है। ईसा के जन्म से कई शताब्दी पूर्व भारत में व्याकरण के अध्ययन का प्रचार था और व्याकरण वह विद्या हैजिसमें पुरातन काल की कोई जाति भारतीयों की कक्षा में नहीं बैठ सकती। कोश-रचना की विद्या भी भारत में बहुत पुरानी है।
मैकडोनाल्ड ने लिखा है—भारोपीय वंश की केवल भारत निवासिनी शाखा ही ऐसी है जिसने वैदिक धर्म नामकबड़े जातीय धर्म और बौद्ध धर्म नामक एक बड़े सार्वभौम धर्म की रचना की।अन्य शाखाओं ने इस क्षेत्र में मौलिकता न दिखलाकर पहले से एक विदेशी धर्मको अपनाया। इसके अतिरिक्त भारतीयों ने स्वतंत्रता से अनेक दर्शन संप्रदायोंको विकसित किया जिनसे उनकी ऊँची चिंतन शक्ति का प्रमाण मिलता है।
संस्कृतसाहित्य की एक और विशेषता इसकी मौलिकता है। ईसा के पूर्व चतुर्थ शताब्दी में यूनानियों का आक्रमण होने से बहुत पहले आर्य सभ्यता परिपूर्ण हो चुकी थी और बाद में होने वाली विदेशियों की विजयों का इस पर सर्वथा कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
विद्यमान संस्कृत साहित्य परिमाण में यूनान और रोम दोनों के मिलाकर एक किए हुए साहित्य के बराबर है। यदि हम इसमें वे ग्रंथ जिनके नाम समसामयिक या उत्तरवर्ती ग्रंथकारों के दिए हुए उद्धरणों से मालूम होते हैं तथा वे ग्रंथ जो सदा के लिए नष्ट हो चुके हैं इसमें सम्मिलित कर लें तो संस्कृत साहित्य का परिमाण बहुत ही अधिक हो जाएगा।
यूरोप पर संस्कृत-साहित्य का प्रभाव
18 वीं शताब्दी की अंतिम दशाब्दियों में जब यूरोप निवासी संस्कृत से परिचित हुए तब उसने वहाँ एक नए युग का प्रारंभ कर दिया क्योंकि इसने भारतीय और यूरोपीय दोनों जातियों के इतिहास पूर्व के संबंधों पर आश्चर्यजनक नया प्रकाश डाला। इसने यूरोप में तुलनात्मक भाषा विज्ञान की नींव डाली। तुलनात्मक पौराणिक कथा विद्या में कई परिवर्तन करा दिए। पश्चिमीय विचारों को प्रभावित किया और भारतीय पुरातत्व के अन्वेषण में स्थिर अभिरुचि उत्पन्न की।
यूरोपीय विचारों पर प्रभाव
भारतीय लोगों के सबसे गंभीर और सबसे उत्तम विचार उपनिषदों में देखने को मिलते हैं। दारा शिकोह ने 18वीं शताब्दी के मध्य के आसपास उनका अनुवाद फारसी में करवाया था। उसके बाद 1775 ईस्वी में अंक्वैटिल डुपैरन ने फारसी अनुवाद का अनुवाद लैटिन में किया। शॉपनहावर ने इसी फारसी अनुवाद के लैटिन अनुवाद को पढ़कर उपनिषदों के तत्व तक पहुँचकर कहा था—उपनिषदों ने मुझे जीवन में सांत्वना दी। यही मुझे मृत्यु में सांत्वना देंगे। शॉपनहावर के दार्शनिक विचारों पर उपनिषदों का बड़ा प्रभाव पड़ा।
जर्मन और भारतीय विचारों में तो और भी अधिक आश्चर्यजनक समानता है। लेबोल्ड वानश्राडर का कथन है कि भारतीय लोग पुराने काल के रमणीयतावाद (रोमान्टिसिज्म) के विश्वासी हैं, जर्मन लोग आधुनिक काल के। सूक्ष्म चिंतन की ओर झुकाव, प्रकृति देवी की पूजा की ओर मन की प्रवृत्ति, जगत को दुखात्मक समझने का भाव, ऐसी बातें हैं जो जर्मनऔर भारतीयों में बहुत ही मिलती-जुलती हैं।
कालिदास का ‘अभिज्ञानशाकुंतल’ नाटक यूरोप में बड़े चाव के साथ पढ़ा गया और गेटे ने ‘फास्ट’की भूमिका उसी ढंग से लिखी।
महायान संप्रदाय के प्रामाणिक ग्रंथ संस्कृत में ही हैं। उनके यूरोपियन भाषाओं केअनुवाद ने यूरोप में बौद्धों को बहुत प्रभावित किया है।
उत्तर भारत के बौद्धों के ग्रंथ प्रायः संस्कृत में ही चले आ रहे हैं। इससे सूचित होता है कि बौद्ध लोग तक जीवित भाषा संस्कृत की उन्नति के विरोध में सफल नहीं हो सके।
व्हेनसांग स्पष्ट शब्दों में कहता है कि ईसवी सातवीं शताब्दी में बौद्ध लोग मौखिक वाद-विवाद में संस्कृत का ही व्यवहार करते थे। जैनों ने प्राकृत को बिल्कुल छोड़ तो नहीं दिया था पर वे भी संस्कृत का व्यवहार करने लगे थे। इसका व्यवहार ‘शिष्ट’ अर्थात ब्राह्मण ही नहीं, अन्य लोग भी करते थे। पतंजलि ने एक कथा लिखी है जिसमें कोई सारथि किसी वैयाकरण से ‘सूत’ शब्द की व्युत्पत्ति पर विवाद करता है। लोकवार्ता है कि राजा भोज ने एक लकड़हारे के सिर पर बोझ लदा देखकर पर-दुख कातर हो संस्कृत में पूछा, कि तुम्हें यह बोझ कष्ट तो नहीं पहुँचा रहा? और क्रियापद ‘बाधति’का प्रयोगकिया। इस पर लकड़हारे ने उत्तर दिया—महाराज! मुझे इस बोझ से उतना कष्ट नहीं हो रहा जितना ‘बाधते’ के स्थान पर आपके बोले हुए ‘बाधति’ पद से हो रहा है।
सातवीं शताब्दी में तो बौद्ध और जैन भी संस्कृत बोलने लगे थे।
संस्कृत के बारे में कहा जाता है कि मूल रूप में यह ब्राह्मण धर्म की भाषा थी। ब्राह्मण धर्म के प्रसार के साथ इसका भी प्रचार हुआ और जब भारत के अन्य दोबड़े धर्म—जैन और बौद्ध—फैलने लगे, तब कुछ समय के लिए इसका प्रचार रुकगया। कालांतर में जब भारत में उक्त दोनों धर्मों का ह्रास हुआ तब इसने निर्विघ्न फिर से उभरना प्रारंभ किया। धीरे-धीरे यह सारे भारतवर्ष में फैल गई। अंत में यह एक धर्म, राजनीति और संस्कृति की भाषा बन गई। उसके बाद यह तभी पदच्युत हुई जब मुसलमानों ने हिंदू राष्ट्रीयता को तबाह किया।
कहानियों में सुना जाता है कि भिक्षुओं ने बुद्ध के सामने विचार रखा था कि आप अपनी बोलचाल की भाषा संस्कृत को बना लें। इससे यही परिणाम निकलता है कि संस्कृत बुद्ध के समय में बोलचाल की भाषा थी।
प्रसिद्ध बौद्ध कवि अश्वघोष (ईसा की दूसरी शताब्दी) ने अपने सिद्धांतों का प्रचार करने के लिए अपने ग्रंथ संस्कृत में लिखे। इससे यह अनुमान करना सुगम है कि संस्कृत प्राकृत की अपेक्षा साधारण जनता को अपनी ओर अधिक खींचती थी तथा संस्कृत ने कुछ समय के लिए खोए हुए अपने पद को पुनः प्राप्त कर लिया था।
ईसा की दूसरी शताब्दी के बाद मिलने वाले शिलालेख क्रमशः संस्कृत में अधिक मिल रहे हैं और ईसा की छठी शताब्दी से लेकर केवल जैन शिलालेखों को छोड़कर सारे के सारे शिलालेख संस्कृत में ही मिलते हैं। यह बात तो सभी मानेंगे कि शिलालेख प्रायः उसी भाषा में लिखे जाते हैं जिसे सर्वसाधारण पढ़ और समझ सकते हैं।
कथा की उत्पत्ति : भित्ति-चित्रों से वाक् तक की यात्रा
कथा की उत्पत्ति का संबंध मानव मस्तिष्क के विकास से है। प्रारंभ में जैसा किकहा और माना जाता है—कहानी का रूप मौखिक रहा। लेकिन बहुत-सी पुरातन गुफाओं की भित्तियों पर बने चित्रों ने इस अवधारणा को चुनौती दे डाली है। दुनियाभर में कितनी ही गुफाएँ खोजी जा चुकी हैं, जिनकी भित्तियों पर आदिकालीन मानवों द्वारा बनाये गये चित्र अपने पूर्व रंग, रूप, आकार में विद्यमान हैं। इनकी आयु 40 हजार वर्ष से लेकर 60-70 हजार वर्ष भी आँकी जाती है। इससे सिद्ध यह होता है कि मनुष्य ने अभिव्यक्त होने की शुरुआत बोलकर नहीं, संकेत-चित्र बनाकर की। भित्तियों पर उसने अपने अनुभव-क्षेत्र के पशुओं, पक्षियों, पेड़-पौधों के चित्र बनाये और यथासम्भव उनमें रंग भी भरे। इन चित्रों को उसने ‘अक्षरों’ के रूप में प्रोन्नत किया। इस तरह, मानवीय अभिव्यक्ति चित्रों की बजाय शब्दों में व्यक्त होने लगी। इस दृष्टि से देखें, तो ‘अक्षर’ भी ‘संकेत चित्र’ ही हैं। उन्हें हम वाचिक परम्परा के लिखित संकेत-चिह्न भी कह सकते हैं। इन संकेत चित्रों ने भी देश-काल और परिस्थिति की अनुकूलता के अनुरूप अलग-अलग आकार ग्रहण किया है। यही कारण है कि पुराकाल की अनेक लिपियाँ आज इस खोज का विषय बन गयी हैं कि उनके तात्पर्य क्या हैं?
कथा के आधार-बिन्दु :रुचिरता और जिज्ञासा
यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि लिखित ग्रंथों से पूर्व भी लोगों के मनोरंजनार्थ कथाओं काप्रचलन हो चुका था।उस आदिम युग में, मनुष्य ने अभिव्यक्ति के लिए जब अक्षरों व शब्दों का निर्माण कर लिया, तब उसने कुछ स्वानुभूत प्रसंगों को अपने साथियों के बीच कहना भी शुरू किया और अनुभव किया कि उन प्रसगों को सुनने में लोगों की बड़ी रुचि है। इस रुचि को अपनी कहन कला का परिष्कार करके उसने जिज्ञासा में परिवर्द्धित किया। इस तरह रुचिकर होना और जिज्ञासा को बनाए रखना कथा के साथ उसकी उत्पत्ति के समय से ही जुड़े हुए हैं। इसलिए कथा की उत्पत्ति के इतिहास में स्वयं को अभिव्यक्त करने की लालसा और दूसरों की अभिव्यक्ति के प्रति सहृदय होने की नैतिकता स्वत: ही छिपी हुई है। आत्म-अभिव्यक्ति, रुचिरता और जिज्ञासा की प्रवृत्ति से संबद्ध होने के कारण कथा, साहित्य की महत्वपूर्ण विधा के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। अपनेप्रारंभिक काल में कथन और श्रवण की रुचि से संबद्ध होने के कारण यह आत्म-परितोष और मनोरंजन का माध्यम भी रही ही होगी। लेकिन परवर्ती काल मेंव्यष्टि और समष्टि की आभ्यांतरिक जीवन अनुभूतियों और वस्तुजगत के प्रामाणिक सत्य को शब्द देने के गंभीर और मौलिक दायित्व का निर्माण भी उसे करना पड़ा। बोध, नीति और उपदेश, सुधार और आत्म अन्वेषण की शिक्षा देने केक्रम में युग सत्य की एकांगी अभिव्यक्ति का माध्यम भी उसे बनना पड़ा। नि:संदेह, प्रारंभ में कथा का उद्देश्य केवल ‘कहन’ ही रहा होगा। कालांतर में ‘कहन’ के अभिप्राय से हटकर यह नैतिकता और ज्ञान प्रदान करने के क्षेत्र से संबद्ध होने लगीं। कुछ जन्तु-कथाएँ नीति और धर्म के उपदेश तथा व्यावहारिक ज्ञान देने के उद्देश्य से कालांतर में रची गईं।
संवेदनशील व्यक्तित्व स्थूल संसार के भीतर कुछ भीतरी आवाजों को सुनते हैं और रचना के रूप में प्रकट आभ्यंतर संसार की आवाजों और छायाओं को पहचानते हैं। इस प्रकार कथा-चेतना स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्म से सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतर से परमसूक्ष्म की ओर जाकर फिर से स्थूल की ओर यात्रा करती है। यह एक वृत्त बनता है जो लेखक और आलोचक की मेधा शक्ति सेपूर्ण होता है। इन दोनों की मेधा में सामंजस्य के बिना रचना में ‘रस’ अथवा ‘राग’ को पहचान पाना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य रहता है।
जिस समय कथा साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ होगा सामान्यतया उसका स्वरूप मौखिक और आंगिक ही रहा होगा।
अधिकतर कथा आलोचक यह कहते और स्थापित करते पाए जाते हैं कि वैदिक काल से लेकर बाद तक के संस्कृत साहित्य में उपदेश और शिक्षा की कथाएँ ही अधिक मिलती हैं; लेकिन ऋग्वेद आदि ग्रंथों में निहित अनेक संवादों के आधार पर कहा जा सकता है कि यह स्थापना पूरी तरह सत्य नहीं है।कथा साहित्य के संवर्धन में बौद्ध और जैन संप्रदायों का भी योगदान रहा है।कथा वांग्मय वैदिक साहित्य से लेकर अब तक संस्कृत साहित्य की प्राणात्मिका शक्ति है।
वैदिक काल से लेकर संपूर्ण वांग्मय में प्राप्त कथाओं को विद्वानों द्वारा चार भागों में विभाजित किया जाता है—
1- अद्भुत कथा (फेअरी टेल्स)
2- लोककथा (मार्चेन)
3- कल्पित कथा (मिथ्स)
4- जंतुकथा (फेबुल्स)
इसके अतिरिक्त सूक्ष्म विवेचन के आधार पर कुछ विचारक सम्पूर्ण कथा साहित्य के दो भाग भी मानते हैं—
1- नीतिकथा—इसके अंतर्गत उपदेशात्मक जंतुकथाएँ भी आ सकती हैं।
2- लोककथा—इसके अंतर्गत समस्त प्रकार की अद्भुत, कल्पित एवं काल्पनिक आदि कथाओं को संग्रहित किया जा सकता है।
लोककथाओं में इतनी बहुरूपता है कि इनका अति सूक्ष्म विभाजन करना संभव नहीं है किंतु स्थूल रूप से इनका वर्गीकरण निम्न दृष्टिकोणों से किया जा सकता है—
1- प्रयोजन की दृष्टि से, और
2- पात्रों की दृष्टि से
प्रयोजन की दृष्टि से लोककथाओं को तीन वर्गों में रखा जा सकता है—
1- नीतिकथा
2- मनोरंजन प्रधान कथा, और
3- इतिवृत्तात्मक अथवा दंतकथा।
पात्रों की दृष्टि से भी कथाओं को तीन वर्गों में रखा जा सकता है—
1- जंतु कथा
2- मानवीय कथा, तथा
3- अतिमानवीय कथा।
यद्यपि मनोरंजन का तत्व सभी कथाओं में विद्यमान रहता है तथापि जिनका प्रयोजन मात्र मनोरंजन हो वे मनोरंजन प्रधान कथाएँ कही जाती हैं।जिन कथाओं का उद्देश्य रोचक ढंग से नीति का उपदेश देना हो वे नीतिकथा तथा किसी व्यक्ति अथवा वस्तु के विषय में कोई इतिवृत्त अथवा किंवदंती प्रस्तुत करने वाली कथाओं को इतिवृत्तात्मक तथा दंतकथा कहा जाता है।
जंतु कथा के पात्र मुख्यतः पशु-पक्षी ही होते हैं और इनका प्रयोजन भी बोधपरक होता है इसलिए यह नीतिकथाओं के अंतर्गत आती हैं।
मानवीय कथा का मुख्यपात्र मनुष्य ही होता है।ऐसी कथाओं का मुख्य उद्देश्य लोक व्यवहार, नीति अथवा सदाचार का उपदेश देना होता है।
अति मानवीय कथाओं के पात्र मुख्यतः विभिन्न देवता, अप्सराएँ, यक्ष, भूत-पिशाच और बेताल आदि होते हैं।ये कथाएँ श्रोताओं या पाठकों के मन में अपने रहस्यात्मक पक्ष के कारण कुतूहल उत्पन्न करती हैं।
कथा में तथ्य की प्रधानता होती है अथवा कल्पना की? यह प्रश्न सामान्यतः उठाया ही जाता रहा है।इस संबंध में ‘दशरूपक’ के रचनाकार धनंजय की उक्ति है कि ‘उत्पाद्यकविकल्पितं’ अर्थात् कथा का इतिवृत्त उत्पाद्य होता है और उत्पाद्य वस्तु कल्पित होती है। जबकि इतिहास का अर्थ इसके विपरीत होता है। ‘इति’—ऐसा, ‘ह’—निश्चित रूप से और ‘आस’—पास हुआ।इस प्रकार इतिहास सत्य घटनाओं को ही उपस्थित करता है।कथा का अविर्भाव आदिम मानव की उस अवस्था में प्रस्फुटित हुआ, जब वह ‘शिशु’ था।
लघुकथा के आदि-चरण
इसी तारतम्य में, लघुकथा की बात भी करते हैं। दुनिया में पुस्तक रूप में लिखित पहला दस्तावेज़ ‘वेद’ को माना जाता है। ॠग्वेद में अनेक ऐसे सूक्त मिलते हैं, जिन्हें हम सीधे-सीधे ‘कथा’ कह सकते हैं। इनमें ‘यम-यमी’ संवाद तो सर्वविदित और बहुपठित है ही, उसके अलावा ‘लोपामुद्रा-अगस्त्य’ आदि अनेक पात्रों के परस्पर संवाद भी कथापरक ही हैं। ॠग्वेद में वे क्योंकि केवल ‘सूक्त’ रूप में हैं, इसलिए वेद के बाद वाले ब्राह्मण, उपनिषद और पुराण आदि ग्रंथों में इनमें कल्पना का भी पुट दिया जाकर सूक्त से प्रोन्नत कर इन्हें विस्तृत एवं रोचक कथारूप दिया गया है। कालिदास द्वारा लिखित ‘विक्रमोर्वशीयम्’ उर्वशी और पुरुरवा की प्रेमकथा का वैसा ही कथा-विस्तार है। बहुत सम्भव है कि ये तथा अन्य बहुत-सी कथाएँ वेद से पूर्व के काल में सामान्य जन के बीच प्रचलित रही हों। वेद में सूक्त रूप में आकर उनमें से कुछ सुरक्षित हो गयीं; शेष, जो दर्ज नहीं हो सकीं अथवा जो परवर्ती कथाकारों के हाथ चढ़कर विस्तार न पा सकीं, काल-कवलित हो गयीं। यह भी सम्भव है कि पूर्व-वेदकाल में ये कथाएँ उतनी विस्तृत न रही हों, जितनी बाद के समय में मिलती हैं। सामान्यत: कह सकते हैं कि जैसे शनै: शनै: लुप्त होती जन-कथाओं को ॠग्वेद में ‘सूक्त’ के रूप में सुरक्षित रखा गया था, वैसे ही उन सूक्त-कथाओं का विस्तार भी शनै: शनै: ही हुआ है। वे एकदम-से महाकाव्य नहीं बन गयीं बल्कि लम्बे कालखण्ड में धीरे-धीरे विकसित और परिवर्द्धित हुई हैं। आख्यायिका से भी पहले सूक्तों के विस्तार का कोई कथारूप अवश्य ही रहा होगा जो कालान्तर में लुप्त हो गया; लेकिन ‘पंचतंत्र’ आदि की कथाओं के रूप में उस रूप की छाया हमारे पास विद्यमान है। उस छाया की प्रतिछवियाँ संसार की लगभग सभी समृद्ध भाषाओं के कथा-साहित्य में हमें मिलती हैं। यह स्वरूप केवल ‘लघुकथा’ का नहीं, समूचे कथा-साहित्य का रहा है। प्रारम्भिक समाजवेत्ताओं की प्रथम चिन्ता और आवश्यकता क्योंकि मानव समाज को एकजुट और नैतिक बनाये रखना थी, इसलिए वही भावभूमि पूर्वकालीन लघुकथाओं की हमें मिलती है।
वैदिक कथा-सूत्रों का रचनात्मक विस्तार सरल कार्य नहीं रहा होगा। इसके अनेक कारण हैं। प्रमुख कारण यह विचार कि वेद में इतिहास कथाएँ नहीं हैं। उनमें नामधारी पात्र प्रतीक मात्र हैं, वास्तविक नहीं। ऐसे में कथा का विस्तार प्रस्तुत करने वाले कथाकारों को वेद समर्थकों का तीक्ष्ण विरोध जब आज भी सहना पड़ता है; तो उन दिनों कितना सहना पड़ा होगा इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। कुल मिलाकर हम यह कहने की स्थिति में हैं कि वेद-काल में कथा-विस्तार एक क्रांतिकारी कदम था।
भारतीय साहित्य का इतिहास दो प्रधान कालों में विभक्त हो सकता है—
1. पाणिनि सेपूर्व का अर्थात् वैदिक काल जिसमें वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद और सूत्र ग्रंथ सम्मिलित हैं; तथा
2. पाणिनि के बाद वाला अर्थात् वह काल जिसमें रामायण, महाभारत, पुराण, महाकाव्य, नाटक, गीतिकाव्य, गद्य, आख्यायिका, लोकप्रिय कहानियाँ, औपदेशिक कथाएँ, नीति, सूक्तियाँ तथा शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, राजनीति, ज्योतिष और गणितइत्यादि केन्द्रित वैज्ञानिक साहित्य सम्मिलित है।
विद्वानों के अनुसार, संपूर्ण ऋग्वेद की रचना पद्य में हुई है। यजुर्वेद और ब्राह्मणों में गद्यका अच्छा विकास देखने को मिलता है। उपनिषद तक पहुँचते-पहुँचते गद्य का प्रभाव बहुत मंद पड़ गया क्योंकि उपनिषदों में गद्य अपेक्षाकृत कम देखा जाता है। श्रेण्य (क्लासिक) संस्कृत में तो गद्य प्रायः लुप्त-सा ही दिखाई देता है। संस्कृत साहित्य में गद्य का प्रयोग केवल व्याकरण और दर्शनों में ही किया गया है पर वह भी दुर्बोध और चक्करदार शैली के साथ। साहित्यिक गद्य कल्पनाढ्य आख्यायिकाओं, सर्वप्रिय कहानियों, औपदेशिक कथाओं तथा नाटकों में अवश्य पाया जाता है परन्तु यह गद्य लम्बे-लम्बे समासों से भरा हुआ है और ब्राह्मण ग्रंथों के गद्य से मेल नहीं खाता।
संस्कृत कथा साहित्य को मुख्यत: दो भागों में बाँटकर देखा जाता है—
1. निहित कथा—इसमें उपदेशात्मक जन्तु कथाएँ रखी जाती हैं।
2. लोककथा—इसके अंतर्गत अद्भुत कथा और कल्पित कथा आ जाती है।
ऋग्वेद में संवाद सूक्तों के रूप में कथा के मूल तत्व सूक्त अवस्था में अवश्य पाए जाते हैं। कुछ सूक्तों में मानवेतर जीवों को मानव का प्रतिनिधि बनाया गया है और उनसे वैयक्तिक संपर्क एवं संवाद स्थापित किया गया है। उदाहरणार्थ, ऋग्वेद के मंडल 7 के 103वें सूक्त में वर्षाकालीन मेंढकों की ध्वनि की तुलना ब्राह्मणों के वेदपाठ से की गई है। इतना ही नहीं, मेंढकों को वर्षभर तपस्या करने वाले ब्रसी ब्राह्मण कहा गया है। ऋग्वेद मंडल 10 के 108वें सूक्त में सरमा नामक देवताओं की कुतिया का वार्तालाप पणिगण से कराया गया है। वह उन्हें उपदेश करती है कि वे इन्द्र के आगे समर्पण कर दें। पणि सरमा को मित्र और बहन कहकर पुकारते हैं। इस प्रसंग से अनेक तथ्यों का खुलासा होता है। पहला यह कि दूत-कार्य के लिए वेद-काल में स्त्री की नियुक्ति का चलन देवताओं द्वारा किया जा चुका था। दूसरा यह कि जीव-जन्तुओं के साथ मनुष्यों की आत्मीयता का बीज तब तक पनप चुका था। ‘आत्मीयता’ का यह बीज ही ‘कथा’ का मूल बीज है। सम्पूर्ण कथा इसी से पनपती है।
यास्क ने ‘इत्येतिहासका:’ कहकर इंद्र-वृत्र युद्ध आदि को कथा का रूप माना है।
ऋग्वेद मंडल 1 के 164वें सूक्त के 20वें छंद में आत्मा और परमात्मा को सुंदर पंखों वाले साथ-साथ रहने वाले दो मित्रपक्षी बताया गया है जो संसार रूपी इस एक ही वृक्ष पर रहते हैं।
कथा, आख्यान, आख्यायिका, इतिहास और पुराण
कथा और आख्यायिका के मध्य भेद और इनके अर्थ-बोध की उचित संज्ञा का निर्धारण वस्तुत: आज भी नहीं हो पाया है। यद्यपि कथा के विभिन्न वंशजों और जातियों के विभाजन किए गए हैं किंतु उनमें भी वे सफल नहीं हुए हैं।
इनके बीच जितना भी भेद निरूपित किया गया है, वह अपूर्ण, अव्यापक और संकुचित है। प्राय: ‘आख्यायिका’ शब्द का प्रयोग वर्णनात्मक कथा के अर्थ में तथा ‘कथा’ का प्रयोग वार्तालाप, कहानी आदि के अर्थ में किया जाता है; फिर भी इनके बीच विभाजन रेखा खींचना आसान नहीं है।
क्षेमेंद्र के अनुसार, लंबी कहानी को ‘कथा’ और छोटी कहानी को ‘आख्यायिका’ कहते हैं; तथापि संस्कृत में ‘आख्यायिका’ सामान्यत: अंग्रेजी के एनेक्डॉट (किसी बात के बीच में कही गई घटना, किंवदंती, उपकथा) को कहते हैं। वस्तुत: यह स्वतंत्र रचना नहीं होती है। इस प्रकार विचार करें तो ‘आख्यायिका’ को सीधे-सीधे समकालीन लघुकथा के अर्थ में ग्रहण नहीं किया जा सकता क्योंकि समकालीन लघुकथा स्वतंत्र कथा रचना भी है और कथा साहित्य की स्वतंत्र विधा भी। समकालीन लघुकथा अपनी अन्त:प्रकृति में आख्यायिका से सर्वथा भिन्न कथा-रचना है।
‘आख्यान’ शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख ऐतरेय ब्राह्मण (18-10) में शुन:शेप के आख्यान के रूप में मिलता है, जिसे राजसूय यज्ञ में होता सुनाता है। ऐतरेय में आख्यानविदों (3-5-21) का भी उल्लेख है। ये लोग आख्यान सुनाने में दक्ष होते थे। ये लोग प्राय: सौपर्ण आख्यान सुनाते थे, जिसे ‘शतपथ ब्राह्मण’ में ‘व्याख्यान’ कहा गया है। ‘आख्यायिका’ शब्द का प्रथम उल्लेख तैत्तिरीय आरण्यक में प्राप्त होता है। इतिहास का उल्लेख पुराण के साथ ही उत्तर-वैदिक साहित्य में होता है। पतंजलि आख्यान, आख्यायिका, इतिहास और पुराण इन चारों को पृथक-पृथक मानते हैं। यास्क के मत से इतिहास साहित्य का ही एक भाग है। उनके मत से ऐतिहासिक वे लोग हैं जो वेदों में पुराण-कथाओं का ज्ञान रखते हैं। इस कथन का सीधा-सीधा तात्पर्य यही है कि वेदों में पुराण-कथाएँ गुम्फित रही हैं। ओल्डनवर्ग के मत में, आख्यान गद्य-पद्य का मिश्रण है। जातक-कथाएँ भी इस समय प्रचलित हो चुकी थीं।
संस्कृत कथा के अंतर्गत कल्पितकथाएँ, ऐतिहासिक कथाएँ, पौराणिक कथाएँ, नीति कथाएँ तथा उपाख्यान आदि अंतर्भूत हैं। इन कथाओं को निम्न भागों में विभक्त करके देखा गया है—
1. जैन कथाएँ : इन कथाओं का उद्देश्य जैन धर्म का प्रचार एवं उत्थान है। जैन कथा ग्रंथों के अतिरिक्त जातक कथाएँ, बोध कथाएँ भी इनमें सम्मिलित हैं।
2. नीति कथाएँ : ये कथाएँ नैतिक अथवा धार्मिक उत्थान के उद्देश्य से कही गई हैं। ये मुख्यत: मौखिक ही प्रचलित थीं। इनका प्रसार केवल संस्कृत में ही नहीं बल्कि सभी लोकप्रिय भाषाओं और बोलियों में है।
3. मनोरंजनात्मक कथाएँ : इन कथाओं का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन था। ये कथाएँ पहले प्राकृत में लिखी जाती थीं, कालांतर में संस्कृत में लिखी जाने लगीं। वृहत्कथा, वैतालपंचविंशति:, वृहत्कथामंजरी तथा कथासरित्सागर आदि इनके उदाहरण हैं।
संस्कृत कथा साहित्य की विवेचनार्थ ऋग्वेद के संवाद सूक्तों, ब्राह्मण ग्रंथों के अंतर्गत विभिन्न कथाओं, पौराणिक आख्यानों-उपाख्यानों, उपनिषदों के आख्यानों, महाभारत के आख्यानों-उपाख्यानों, जातक कथाओं से लेकर स्वतंत्र रचनाओं के रूप में उपलब्ध पंचतंत्र, हितोपदेश, कथासरित्सागर, वैतालपंचविंशति:, शुकसप्तति:, सिंहासनद्वात्रिंशिका को अध्ययन का विषय बनाया गया है। संस्कृत कथा साहित्य अत्यंत विस्तृत एवं समृद्ध है। इसने विश्व के समस्त देशों के साहित्य को प्रभावित किया है। साहित्यिक विधा के रूप में कथा की स्थापना कब से मानी जाए, यह कभी निश्चित किया जा सकेगा, इसमें संदेह है; परंतु कथा साहित्य का उद्गम ‘ऋग्वेद’ को माना जाता है, यह निर्विवाद है।
ब्राह्मण एवं उपनिषद ग्रंथों में कथाएँ
ब्राह्मणग्रंथों में ये कथाएँ अपने विस्तृत रूप में प्राप्त होती हैं। ऐतरेय ब्राह्मण (7-13) में कथा के साथ उपदेशात्मक पद्यों का भी समावेश है।
उपनिषदों में जन्तु कथाएँ और भी विकसित रूप में हैं। छांदोग्य उपनिषद में एक व्यंग्य कथा में भोजन के लिए कुत्ते अपना एक नेता चुनते हैं (छान्दोग्य 1-12-2)। उसी में दो हंसों के वार्तालाप से रैक्त का ध्यान आकृष्ट होता है (छान्दोग्य 4-1)। छान्दोग्य में ही ज्वाला के पुत्र सत्यकाम को बैल, हंस और मृदग्र (एक जलचर पक्षी) ब्रह्मविद्या का उपदेश देते हैं (छान्दोग्य 4-5,7,8)। महाभारत में जन्तु-कथाएँ और भी विकसित रूप में मिलती हैं। इसके शांतिपर्व तथा अन्य पर्वों में भी पंचतंत्र के लिए उपयोगी प्रचुर सामग्री मिलती है। इसमें सोने के अंडे देने वाली चिड़िया की कथा, धार्मिक बिल्ली की कथा, चतुर शृगाल आदि की कथाएँ हैं।
लेखन में काव्य का बाहुल्य
चिंतामणि विनायक वैद्य ने ‘भागवत पुराण’ का काल निश्चित करते हुए कहा है कि यह शंकर (9वीं शताब्दी) के पश्चात और 'गीत गोविंद' के रचयिता जयदेव (1164 ई.) से पहले की रचना है; अर्थात बहुत करके 10वीं शताब्दी में लिखा गया है। इसका अनुवाद भारत की प्रायः सभी भाषाओं में हो चुका है।
भास ईसा की दूसरी शताब्दी से पहले ही जीवित रहे होंगे। पंडित गणपति शास्त्री ने भास को ईसा पूर्व चौथी शताब्दी का माना है। उनके 13 नाटक मिलते हैं। इनमें दो (प्रतिज्ञायौगंधरायण व स्वप्नवासवदत्तम्) उदयन की कथा वाले; उरुभंगम्, बालचरित, दूतघटोत्कच, दूतवाक्यम्, कर्णभारम्, मध्यमव्यायोग तथा पंचरात्र महाभारत की कथाओं पर आश्रित हैं। यज्ञफलम् (अथवा यज्ञनाटकम्), अभिषेक नाटक तथा प्रतिमा नाटक रामायण पर अवलंबित एवं अविमारक और चारुदत्त कल्पनामूलक हैं।
संस्कृत के बहुत बड़े कवि अश्वघोष बौद्ध भिक्षु और महायान मत को मानने वाले थे। वह कनिष्क (ईसा की प्रथम शताब्दी) के समसामयिक अथवा गुरु थे। उन्होंने बौद्ध धर्म के कई पालि ग्रंथों पर संस्कृत टीकाएँ लिखी हैं। उन्हें साकेत का निवासी बताया गया है। इनके महाकाव्य ‘बुद्धचरित’ का (414-421 ई. में) अनुवाद हो चुका था। ‘बुद्धचरित’ में प्रेमकथा के दृश्य, नीतिशास्त्र सिद्धांत और सांग्रामिक घटनाओं का वर्णन भी है। कमनीय कामिनीयों की केलियाँ, पुरोहित का सिद्धार्थ को उपदेश, सिद्धार्थ का मकरध्वज के साथ संग्राम—ये सब दृश्य रमणीय शैली में अंकित किए गए हैं। इसमें उपनिषदों, भगवत् गीता, महाभारत और रामायण के उल्लेख भी देखने को मिलते हैं।
‘वज्रसूचि’ अश्वघोष का अनुपम ग्रंथ है। इस ग्रंथ में ब्राह्मणों के चातुर्वर्ण्य सिद्धांत का खंडन किया गया है। यह एक पठनीय एवं संग्रहणीय कृति है।
लगभग 550 ई. के आसपास हुए भारवि की रचना ‘किरातार्जुनीय’ का विषय महाभारत के वनपर्व से लिया गया है। लेकिन उसमें अपनी ओर से कुछ नवीनताएँ भी पैदा कर दी हैं।
लगभग 600 ई. में भट्टि हुए हैं जिनका ‘रावण वध’महाकाव्य सुप्रसिद्ध है। 650 से 700 ई. के मध्य माघ लिखित ‘शिशुपाल वध’ प्रसिद्ध है। महाभारत की इस कहानीमें माघ ने अनेक सुंदर सुधार किए हैं। सन् 850 ई. के लगभग रत्नाकर ने ‘हरविजय’ लिखा। 1150 से 1200 ई. के मध्य श्रीहर्ष का ‘नैषधीय चरित’ महाकाव्य की परंपरा में अंतिम कहा जाता है। इसमें दमयंती के साथ नल के विवाह की कथा है। जनश्रुति है कि श्रीहर्ष मम्मट का भान्जा अथवा रिश्ते में भाई था।
लघुकथा और प्रबन्ध काव्य
समयानुरूप लघुकथा ने अपने आप को किस प्रकार प्रबन्ध-काव्यों में भी जीवित रखा इस तथ्य के अनेक उदाहरण हैं। उदाहरण के लिए, हाल अथवा सातवाहन द्वारा लिखित ‘सतसई’ महाराष्ट्री प्राकृत का प्रबंध-काव्य है। इसमें विभिन्न श्रेणियों के स्त्री पुरुषों के मनोरंजक तथा विस्मयोत्पादक वर्णन हैं। मसलन, एक प्रोषितपतिका चन्द्रमा से प्रार्थना करती है कि तूने जिन किरणों से मेरे जीवन-वल्लभ का स्पर्श किया है उन्हीं से मेरा भी कर। एक प्रवत्स्यद्भर्तृका चाहती है कि सदा रात ही बनी रहे, दिन कभी न निकले क्योंकि प्रभात काल में उसका जीवन-नाथ विदेश जाने को तैयार है। कोई तृषातुर पथिक किसी उद्यतयौवना कन्या को पानी भरती हुई देखकर उससे पानी पिलाने को कहता है और उसके सुंदर वदन को देर तक देखते रहने का अवसर पाने के लिए अपने चुल्लू में से पानी गिरने लगता है। जो इच्छा पति के मन में थी, उसी इच्छा से पानी पिलाने वाली भी उसके चुल्लू में पतली धार से पानी ढालना शुरु करती है। नीति संबंधी उक्तियों के उदाहरण भी इसमें हैं। कृपण को अपनाधन उतना ही उपयोगी है जितना पथिक को अपनी छाया। जगत में बहरे और अंधे ही धन्य हैं क्योंकि बहरे कटु शब्द सुनने से और अंधे कुरूप को देखने से बचे हुए हैं। कहीं-कहीं नाटकीय परिस्थितियाँ भी मिलती हैं… एक कुशलमति स्त्री बहाना करती है कि मुझे बिच्छू ने काट लिया है। इस बहाने का कारण केवल यह है कि इसके द्वारा उसे उस वैद्य के घर जाने का अवसर मिल जाएगा जिसके साथ उसका प्रेम है।
ईसा की सातवीं शताब्दी में अमरु नामक कवि का ‘अमरु-शतक’ मिलता है जिसमें 90 से लेकर 115 तक श्लोक हैं। इसके टीकाकार रविचंद्र ने पदों की वेदांत पर व्याख्या की है। आमोद-प्रमोद ही इनका विषय हैं। छोटी-सी कली के पश्चात् मुस्कुराते हुए प्रणयियों को देखकर वह बड़ा प्रसन्न होता है। देखिए, प्राणों को गुदगुदा देने वाली एक कथा को कवि ने किस कौशल से संक्षेप में एक ही श्लोक में व्यक्त कर दिया है, जिसका हिन्दी अनुवाद निम्न प्रकार है—
प्रिये!
स्वामिन्!
मानिनि!
मान छोड़ दे।
मान करके मैंने आपकी क्या हानि की है?
हृदय में खेद उत्पन्न कर दिया है।
हाँ, आप तो कभी मेरा कोई अपराध करते ही नहीं! सारे अपराध मुझमें ही है।
तब फिर गदगद कंठ से रोती क्यों हो?
किसके सामने रोती हूँ?
यह मेरे सामने रो रही हो या नहीं?
तुम्हारी क्या लगती हूँ?
प्यारी।
प्यारी
नहीं हूँ, इसीलिए
तो रोना आ रहा है।
यह एक अद्भुत लघुकथा है। परस्पर प्रेम और उलाहने-मनाने का ऐसा कथात्मक संयोग आज भी दुर्लभ है। संस्कृत साहित्य में औपदेशिक काव्य के अनेक होने के प्रमाण मिलते हैं। इसके प्राचीनतम चिह्न ऋग्वेद में पाए जाते हैं। उसके पश्चात् ऐतरेय ब्राह्मण में शुनःशेप के उपाख्यान में इसके अनेक उदाहरण उपलब्ध होते हैं। उपनिषदों में सूत्रग्रंथों में मनुस्मृति आदि राजधर्म शास्त्रों में और महाभारत में नीति के अनेक वचन मिलते हैं। पंचतंत्र और हितोपदेश तो ऐसे नीति वचनों से भरे हुए हैं। बिल्ली, चूहे, गधे, शेर आदि मानवेतर जन्तुओं के मुँह से कहे जाने के बावजूद वे बड़े स्वाभाविक प्रतीत होते हैं।
ईसा की 11वीं शताब्दी (1088 ई) में विल्हण का ‘विक्रमांकदेव चरित’ सामने आता है और 12वीं शताब्दी (1149-50 ई.) में कल्हण का ‘राजतरंगिणी’। हर अवसर पर उपमाओं का प्रयोग करने में कल्हण सिद्धहस्त हैं। इसके लिए उन्होंने पर्वत, नदी, सूर्य और चंद्रमा से अधिक काम लिया है। इनकी भाषा में एक असामान्य चमत्कार है।राज्य के चाटुकारों के संबंध में लिखते हुए कहते हैं—‘जो शठता और मूर्खता के निधान हैं, वही राजाओं को खुश रखने वाले हैं।’ ‘राज तरंगिणी’ को पूरा करने का काम उनके जिन शिष्यों ने जारी रखा उनमें जोगराज (निधन 1456 ई) का, जोगराज के एक शिष्य शिवर का और शिवर के शिष्य शुक का नाम लिया जाता है। इन्होंने ‘राजतरंगिणी’ की कथा को कश्मीर को अकबर द्वारा अपने राज्य में मिलाए जाने तक आगे बढ़ाया।
1163 ई. के आसपास जैन मुनि हेमचंद्र द्वारा लिखित ‘कुमारपालचरित’ में 20 सर्ग संस्कृत में और कुल 28 सर्ग प्राकृत में हैं।
आख्यायिका, कथा और चरित काव्य
दण्डी गद्य के दो भेद करते हैं—आख्यायिका और कथा।
आख्यायिका—उनके अनुसार, आख्यायिका वह है जो नायक द्वारा कही जाये। कथा वह है जो नायक या अन्य द्वारा कही जाये। इस नियम का भी सर्वत्र पालन नहीं होता और अन्य भी आख्यायिका कह सकता है।
भामह ने प्रकृत अनुकूल अन्य शब्दार्थ वाले पदों से युक्त गद्य में लिखी गयी कथा को आख्यायिका कहा है, पर उसमें अपना वृत्तनायक स्वयं कहे। उसमें कवि का अभिप्रायकृत कथानक भी हो, कन्यापहरण, संग्राम, विप्रलम्भ और अभ्युदय से सहित हो।
कथा—कथा का लक्षण भामह के अनुसार यह है कि उसमें संस्कृत हो, सुसंस्कृत चेष्टाएँ हों, गौण रूप से अपभ्रंश कथा हो।
आख्यान की अन्य जातियाँ भी इसी के अन्तर्गत हैं। कन्यापहरण आदि इसमें भी होते हैं। रुद्रट के अनुसार कथा की परिभाषा यह होगी—श्लोकों में पहले इष्टदेव गुरु को नमस्कार करके, संक्षेप में कुल परिचय कहकर सरल गद्य में कथावस्तु की रचना करे। वर्णन भी हो, फिर उसमें कथोत्तर भी हो। यह संस्कृत में करें या अगद्य (पद्य) में भी करें। इन तीन कथनों से कथाकी परिभाषा के सम्बन्ध में निम्नलिखित तथ्य प्रकट होते हैं—
1- भामह दण्डी का मत एक है। भेद केवल इतना है कि दण्डी आख्यायिका का विधान कथा में भी लगाना चाहते हैं ।
2- भामह अपभ्रंश में कथा मानते हैं पर गद्य में लिखी अपभ्रंश कथा एक भी नहीं मिली।
3- उद्भट ने यही बात ध्यान में रखकर दूसरी भाषाओं में गद्य का नियम हटा दिया।
4- रुद्रट की परिभाषा संस्कृत और प्राकृत अपभ्रंश कथाओं को ध्यान में रखकर बनायी गयी है ।
5- चरित-काव्य के लक्षण के विषय मे सभी मौन हैं लेकिन बाण ‘हर्पचरित’ को आख्यायिका कहते हैं और कादम्बरी को कथा। इसलिए चरित और आख्यायिका में स्वरूप और विधान की दृष्टि से भेद नहीं जान पड़ता है ।
6- हर्षचरित में समकालीन ऐतिहासिक राजा हर्ष का जीवन "कथावस्तु" बनता है। अपभ्रंश चरित्र काव्यों में ऐसा एक भी उदाहरण अभी तक देखने में नहीं आया। सबकी कथावस्तु पौराणिक है; अत: पौराणिक कथावस्तु पर आधारित कथा भी चरित्र कहला सकती है। सम्भव है इन्हीं से बाण को ‘हर्षचरित्र’ नाम सूझा हो।
अपभ्रंश लेखक चरित और कथा में भेद नहीं करते। वास्तविक भेद है भी नही। दण्डी का ‘दशकुमारचरित’ भी इसका प्रमाण है। तुलसीदास अपनी रचना को ‘रामचरित’ भी कहते हैं और ‘रामकथा’ भी। कालिदास का "रघुवंश" भी चरित-काव्य ही है। वंश उसकी पौराणिकता को साफ बता रहा है। इतनी विवेचना का निष्कर्ष यही है कि कथा, आख्यायिका और चरित के बीच स्थायी भेदक रेखा खींचना असम्भव है।थोड़ा-बहुत अन्तर होते हुए भी वह कथा-साहित्य ही है। विषय को लेकर कथा साहित्य के भेद किये जाते हैं। जैसे धर्मकथा, काव्यकथा, लोककथा आदि।
हेमचन्द्र की दृष्टि में कथाकाव्य एवं रासकहेमचन्द्र ने काव्यानुशासन में काव्य के पाँच भेद किये हैं—
1- महाकाव्य,
2- आख्यायिका,
3- कथा,
4- चम्पू, और
5- अनिबद्ध ।
वह गद्य और पद्य के आधार पर काव्य का विभाजन नहीं करते। वह संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश महाकाव्य के अतिरिक्त, ग्राम्य भाषा के महाकाव्यों का भी उल्लेख करते हैं। ऐसे एक ‘भीमकाव्य’ का नाम भी उन्होंने दिया है। इस ग्राम्य भापा को उन्होंने ‘ग्राम्य अपभ्रंश’ कहा है। निश्चय ही यह अपभ्रंशेतर नयी भाषा का काव्य रहा होगा।
कथा और आख्यायिका : मत-मतान्तर
बाणभट्ट की तरह, हेमचन्द्र भी कथा और आख्यायिका में भेद स्वीकार करते हैं। परन्तु उनकी मान्यता में अन्तर है। बाणभट्ट के मत में कल्पित कहानी कथा है और ऐतिहासिक आधार पर चलने वाली कथा आख्यायिका है। जैसे 'कादम्बरी' और 'हर्षचरित'। हेमचन्द्र के अनुसार, आख्यायिका वह है जो संस्कृत गद्य में हो, यात्रावृत्त हो, नायक स्वयं वक्ता हो, और उच्छ्वासों में लिखी हो। कथा वह है जो किसी भी भाषा में लिखी जा सकती है, उसके लिए गद्य-पद्य का बन्धन नहीं है । इस प्रकार हेमचन्द्र ने बाणभट्ट के गद्य-बन्धन को हटाकर कथा को इतनी व्यापकता दे दी कि उसमें सभी कथा-काव्य रूप समा गये। गद्य कथा का उदाहरण कादम्बरी है और पद्य कथा का ‘लीलावई कहा’। अपभ्रंश ‘चरिउ’ काव्य भी इसी के अन्तर्गत आते हैं । हेमचन्द्र को ‘गद्य’ का नियम इसलिए हटाना पड़ा, क्योंकि अपभ्रंश में गद्य का अभाव था । कथा के सिवाय, उन्होंने और भी उपभेद किये हैं, जैसे—
1- आख्यान—आख्यान प्रबन्ध काव्य के बीच आने वाला वह भाग है जो गेय और अभिनेय होता है। दूसरे पात्र के बोध के लिए इसका प्रयोग होता है, जैसे नलोपाख्थान।
2- निदर्शन—पशु-पक्षियों के माध्यम से अच्छे-बुरे का बोध देने वाली कथा का निदर्शन है—पंचतन्त्र।
3- प्रवल्लिका—प्रवल्लिका में एक विषय पर विवाद होता है।
4- मतल्लिका—पैशाची और महाराष्ट्री भाषा में लिखी गयी लघुकथा मतल्लिका है। इसमे पुरोहित, ममात्य और तापस का मजाक उड़ाया जाता है।
5- मणिकुल्या—मणिकुल्या वस्तुका उद्घाटन करती है।
6- परिकथा—पुरुषार्थसिद्धि के लिए कही गयी वर्णनात्मक कथा परिकथा है।
7- खण्डकथा—इतिवृत्त के खण्डपर आधारित कथा खण्डकथा है ।
8- सकलकथा—समस्त फलवाली कथा सकलकथा है। और,
9- उपकथा—एक कथा पर चलने वाली कथा उपकथा कहलाती है ।
‘रासक’ के उन्होने तीन भेद किये हैं—कोमल, उद्धत और मिश्र। इस पर से आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का अनुमान है कि पृथ्वीराज रासो चरित-काव्य तो है ही, वह रासो या रासक काव्य भी है। वह सन्देश रासक को भी गेय मानते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि रासक काव्य गेय थे। पर छन्दों की विविधता के कारण इन्हें गेय मानने में थोड़ी अड़चन है । उपदेश रसायन रास में यह बात नहीं है।
सन्दर्भित ग्रंथ :
1- हंसराज अग्रवाल, संस्कृत साहित्य का इतिहास, प्रकाशक: राजहंस प्रकाशन, सदर बाजार, दिल्ली; तीसरा संस्करण:1950
2- (देवराज उपाध्याय, कथा साहित्य में मेरी मान्यताएँ, पृष्ठ 17-18); हिमांशु द्विवेदी (श्रीमती), शुकसप्तति: एक आलोचनात्मक अध्ययन (डी. फिल. उपाधि हेतु शोध प्रबंध), संस्कृत विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, 2003
3- विंटरनिट्स कृत भारतीय साहित्य का इतिहास (इंग्लिश) प्रथम भाग से
4- डा. ए. बी. कीथ; संस्कृत साहित्य का इतिहास, डा. मंलदेव शास्त्री (अनुवादक); प्रकाशक: मोतीलाल बनारसीदास मुख्य कार्यालय बंगलो रोड, जवाहर नगर, दिल्ली–7, द्वितीय संस्करण 1967
5- हिमांशु द्विवेदी (श्रीमती), शुकसप्तति: एक आलोचनात्मक अध्ययन (डी. फिल. उपाधि हेतु शोध प्रबंध), संस्कृत विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, 2003
6- एस. के. डे, बुलेटिन ऑफ द स्कूल ऑफ ओरिएन्ट्ल स्टडीज़। स्रोत: डॉ. मोहम्मद शरीफ : संस्कृत कथा-साहित्य:एक अध्ययन
7- डॉ. मोहम्मद शरीफ; संस्कृत कथा साहित्य : एक अध्ययन; इलाहाबाद विश्वविद्यालय की डी. लिट्. उपाधि हेतु प्रस्तुत शोध प्रबंध, सन् 1993
8- अल्लामा अब्दुल्ला युसुफ अली, मध्यकालीन भारत की सामाजिक और आर्थिक अवस्था, हिन्दुस्तानी एकेडेमी, संयुक्त प्रदेश, प्रयाग, 1929
9- डॉ. कमल किशोर गोयनका, लघुकथा का समय, दिशा प्रकाशन, दिल्ली-35; वर्ष 2016
10- डॉ. नेमिचंद्र शास्त्री: प्राकृत भाषा और साहित्य काआलोचनात्मक इतिहास,तारा पब्लिकेशंस, कमच्छा, वाराणसी, 1966
11- डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन, अपभ्रंश भाषा और साहित्य, भारतीय
ज्ञानपीठ प्रकाशन, कलकत्ता-27, प्र सं 1966, प्रकीर्णक।