शुक्रवार, 18 मार्च 2022

बचपन की होली / बलराम अग्रवाल

बेतरतीब पन्ने-16


होली का आगमन वसंत पंचमी के दिन से मान लिया जाता था। उस दिन कुल्हाड़ी और बाँक (लकड़ियाँ फाड़ने का घरेलू औजार) लेकर हम लोग जंगल की ओर निकलते थे। बाबा राजराजेश्वर महादेव मन्दिर की सीढ़ियों के आगे वाली खुली जगह पर उन्हें ला रखते थे। बुजुर्गों की ओर से यद्यपि निर्देश यह होता था कि सिर्फ सूखे दरख्त लाए जाएँ, हरी डाल कोई न काटी जाए; बावजूद इसके हमें हरी डालें काटकर लानी पड़ती थीं। कारण यह कि सूखे पेड़ों पर या तो हमसे पहले ही पहुँच चुके दल या हमसे मजबूत दल काबिज हो चुके होते थे। भारी-भरकम हरे तनों की हैसियत हमारे सामने पराजित योद्धा जैसी होती थी और उन्हें हम ऐसे लाते थे जैसे विजयी होकर पराजितों को टाँग से पकड़कर घसीटते हुए ला रहे हों। 
 
सुबह के गये हम लोग दोपहर बाद तक लौट पाते थे। हरे तनों को लाकर परम्परा से चली आ रही, होलिका जलने वाली नियत जगह पर रख दिया जाता था। उसके बाद अपने-अपने घरों की ओर रुख। घर पर फिर यह गत होती थी कि ‘होलिका’ लाने-सजाने का सारा उत्साह समाप्त हो जाता था। 
 
और शाम को, अपने-अपने दफ्तरों, दुकानों, विद्यालयों से मुक्त पिता-लोग होलिका में सूखे तनों की बजाय जब हरे तनों को रखा देखते थे, तब किसी को भी साफ-साफ यह पता नहीं चलता था कि उन्हें लाने में किस-किस ने पसीना बहाया था। हालाँकि अनुमान तो सभी होता था; लेकिन साफ-साफ पता नहीं चल पाता था। पता चल पाता तो खून के आँसू रुलाना तय था। 
 
और उसी दिन से शुरू होता था—बच्चों द्वारा ‘होली का चंदा इकट्ठा करना’। इसके लिए मछली पकड़ने वाले कांटे की मदद ली जाती थी। 
 
चौक बाजार में पुराने कांग्रेस कार्यालय के पास थी—मुसद्दी लाला की दुकान। मांझा, हुचका, पतंग आदि के तो शहर में वह जैसे थोक-विक्रेता ही थे। मछली पकड़ने का कांटा भी उन्हीं की दुकान पर मिलता था। उस कांटे को थागे में बाँधकर एक लड़का किसी ऊँचे मकान की छत पर बैठता था। गली के आरपार गुजर रही बिजली के तारों की लाइन के ऊपर से उस काँटे को नीचे लट दिया जाता था। दो-तीन लड़के उस कांटे को पकड़कर नीचे, किसी चबूतरे पर या किसी मकान के दरवाजे की आड़ में छिपते थे।
 
उन दिनों अधिकतर लोग गांधी टोपी पहनकर चलते थे। छिपे हुए लड़कों को इंतजार रहता था, किसी टोपीधारी के गली से गुजरने का। जैसे ही कोई नजर आता, सब के सब चौकन्ने हो जाते। उस व्यक्ति के अपनी रेंज में आते ही कांटे वाला लड़का पीछे से उसकी टोपी में कांटा रख देता था और जाकर छिप जाता था। उसके छिपते ही धागा ऊपर को खींचना शुरू। इसके साथ ही उस सज्जन पुरुष की टोपी हवा में झूल जाती थी। उसका हकबका जाना तय था। फिर नीचे, गली में इधर-उधर छिपे लड़के बाहर निकलते थे—“ताऊ (या बाबा, चाचा)! बुरा न मानो होली है!”
 
वह हैरान-परेशान-क्रोधित।
 
“होली का चंदा ताऊ!” लड़के दूरी बरतते हुए हाथ पसारते। 
 
समझदार, खुश-मिजाज और बाल-बच्चों वाले, पर्व का आनंद लेने वाले लोग इसे उन विशेष दिनों की सामान्य घटना मानकर जेब से निकाल, एक पैसा चंदा पकड़ा देते थे। कुछ इसे ‘टोपी उछलने’ के अर्थ में ग्रहण कर बहुत क्रोधित हो, गाली-गलौज करते थे। गाली-गलौज करने वालों में कुछ चंदा देकर टोपी छुड़ा ले जाते थे और कुछ टोपी की चिंता छोड़, गाली-गलौज देते हुए आगे बढ़ जाते थे।ऐसे लोगों को हममें से कोई एक बहुत-आगे पहुँच जाने पर उसकी टोपी पकड़ा आता था; और डरा हुआ वह बेचारा टोपी को अपने सिर की बजाय जेब के हवाले करके आगे का रास्ता नापता था।
 
इसी शैतानी में एक खेल और होता था। आलू को दो हिस्सों में काट, उन कटे हुए हिस्सों पर फूल आदि उकेरकर ठप्पा बनाना और स्टैम्प-पैड जैसी किसी सतह पर उस ठप्पे के फूल को रंगकर लोगों की पीठ पर छापकर भाग जाना। मजे की बात यह थी कि आलू के ठप्पे बनाने में पिताजी भी हमारी मदद कर दिया करते थे। 
 
यही कारण था कि लोग उन दिनों होली के पर्व से कुछ दिन पूर्व ही कामचलाऊ ऐसे कपड़े पहनकर घर से निकलना शुरू कर देते थे, ठप्पा आदि लग जाने के कारण जिनके खराब होने की चिंता में अधिक सूखना-सोचना न पड़े। रंग वाली होली से हफ्तों पहले ही बच्चे घर की छतों पर चढ़कर राहगीरों पर रंग फेकना शुरू कर देते थे। यहाँ भी टोपी ऊपर खींचने जैसा ही माहौल बनता था। कई ऐसे लोग, जो किसी काम से कहीं जा रहे होते, रंग पड़ने पर खासे नाराज होते थे। 
 
राहगीर और बच्चों के आभिभावकों के बीच परस्पर झगड़े भी हो जाया करते थे। जैसे-जैसे लोगों को यह अहसास हुआ कि किसी काम से निकले राहगीर पर रंग डालकर उसके कपड़े खराब कर डालना सभ्य समाज की निशानी नहीं है, उन्होंने बच्चों को रोकना शुरू कर दिया। समय के साथ-साथ टोपी पहनने के चलन में कमी आयी तो मुसद्दी लाला की दुकान पर मछली पकड़ने के कांटे की बिक्री भी बंद हुई। 
 
जैसे-जैसे हम सभ्य हुए, वैसे-वैसे आलू को काटकर कशीदा बनाने की कला का भी खात्मा होता गया।
 
17-3-2022 / 16:00 (चित्र साभार)

गुरुवार, 17 मार्च 2022

पिताजी के आगे टोटका भी हुआ फेल…/बलराम अग्रवाल

बेतरतीब पन्ने-15
 

आगे, एक समस्या और थी। किसी को बिना कुछ बताए लगातार 3 घंटे तक घर से और मुहल्ले से भी गायब रहना। इसका उपाय यह किया कि… उन दिनों बहुत-से लोगों के पास इंटरवल तक ही पिक्चर देखने का समय होता था। ऐसे लोगों से 1 रुपये वाली टिकट 50 पैसे में और 70 पैसे वाली टिकट 30-35 पैसे में मिल जाया करती थी। हमने रास्ता यह अपनाया कि पिक्चर को डेढ़-डेढ़ घंटे के दो टुकड़ों में देखना शुरू किया। एक बार 35 पैसे में बेची और दूसरी बार 35 पैसे में खरीदी। लेकिन एक बार ऐसा भी हुआ कि…गोटी फँस गयी।
 
उस दिन पिताजी को किसी काम से कहीं जाना था। इसलिए सुबह ही कह दिया था—“शाम को मेरे पास आ जाना। दुकान तुझे ही ‘बढ़ानी’ है।” 
 
दीपक को ‘बुझा देना’ और दुकान को ‘बंद कर देना’ सभ्य शब्द नहीं हैं। इनके लिए ‘बढ़ा देना’ का प्रयोग चलता है। जैसे कि दिवंगत व्यक्ति के लिए ‘मर गये’ का प्रयोग असभ्य होता है। 
 
तो दुकान बढ़ाने के लिए उस दिन मुझे जाना था। लेकिन, न्यू रीगल टॉकीज में उन दिनों ‘दो बदन’ ने हल्ला बोला हुआ था। टिकट खिड़की शो शुरू होने से सिर्फ आधा घंटा पहले खुलती थी जबकि सिनेमा देखने के शौकीन एक घंटा पहले ही लाइन में आ खड़े होते थे। उस लाइन को देखकर सहज ही अंदाजा लग जाता था कि सिनेमा देखने के शौकीन लोग अनुशासन-प्रिय होते हैं। ज्यादा भीड़ होती थी तो अनुशासित करने के लिए मालिक लोग एक-दो सिपाहियों को भी चौकी से बुलवा लेते थे। वे होते थे तो अपन लाइन में लगने की जेहमत नहीं उठाते थे क्योंकि उनके रहते लाल टिकट लाल और पीली टिकट पीली ही रहनी थी, किसी भी तरह उसे ‘काला’ नहीं किया जा सकता था। 
 

फिल्म कोई भी रही हो, जबर्दस्त भीड़ बटोर रही थी। असलियत यह थी कि शुरू के 2-3 दिन सभी फिल्में जबर्दस्त भीड़ बटोरती ही थीं। नायकों में राजकपूर, राजेन्द्र कुमार, शम्मी कपूर, शशि कपूर, विश्वजीत, मनोज कुमार, धर्मेन्द्र, जॉय मुकर्जी। अशोक कुमार को कुछ फिल्मों में हालाँकि मैंने नायक के रूप में भी देखा, लेकिन हमारे समय तक वह पुरानी पीढ़ी में जा चुके थे; उस पीढ़ी पर पृथ्वीराज कपूर, सोहराब मोदी, कमल कपूर आदि काबिज थे। उन दिनों की फिल्मी कहानियों में कॉमेडियन और खलनायकों के लिए जगह अवश्य रखी जाती थी। कॉमेडियन्स में जॉनी वॉकर और महमूद प्रमुख थे। इनके अलावा तो असित सेन, जगदीप, मोहन चोटी, सुन्दर, मुकरी यहाँ तक कि ओमप्रकाश भी कॉमेडियन का रोल कर लिया करते थे। खलनायकों में प्राण, मदन पुरी, प्रेम चोपड़ा थे। फिल्मी संसार में किशोर कुमार का स्थान बहुत अलग बैठता है। वह गायक, कॉमेडियन, एक्टर, निर्माता सब-कुछ थे। 
 
मेरी जेब में 70-75 पैसे पड़े थे। सोचा—30 पैसे कमा ही लिए जाएँ। न्यूरीगल टॉकीज जा पहुँचा। ‘मामा’ यानी खाकी वर्दी वाला गायब था। मैं लाइन में जा लगा। कुछ देर बाद, जैसे ही खिड़की खोले जाने की आवाज सुनाई दी, लाइन और अनुशासन के सारे बंधन समाप्त। कूदकर जा पहुँचा आगे। छोटे कद और दुबली काया का पूरा लाभ वहीं मिलता था। धक्का-मुक्की कर एक टिकट निकाली। ललचायी नजरों से काफी देर इधर-उधर ताकता घूमता रहा। एक भी खरीदार सामने नहीं आया। झक मारकर यही सोचना पड़ा कि आधी फिल्म देख ली जाए। ‘वापसी’ बेचकर पिताजी के पास चला जाऊँगा। मरे मन से इंटरवल तक सीट पर बैठा रहा। बेशक आधी फिल्म देखी भी; लेकिन मन कहीं और था इसलिए समझ में कुछ नहीं  आया। 
 
इंटरवल हुआ। टिकट के अद्धे को दिखाता हुआ मैं बहुत देर तक बाहर घूमता रहा। लेकिन साढ़े साती थी उस दिन! ‘वापसी’ खरीदने वाला भी एक भी कम्बख्त नहीं मिला। एक बार फिर झक मारी। वापस हॉल में जा बैठा। 35 पैसे का नुकसान उठाकर पिताजी के पास चले जाना मन को गवारा न हुआ। वह लालच भारी पड़ गया। वह शायद अकेला ही ऐसा अवसर था जब अपनी पसंदीदा फिल्म देखकर भी मन खुश नहीं था। दायित्वहीनता के एहसास से सिर भारी, बदन भारी, चाल भारी…! 
 
फिल्म खत्म हुई। भीड़ ने न्यू रीगल के पिछले गेट से बाहर निकलना शुरू किया। दिमाग ने अब पिताजी की मार से बचने के उपायों के बारे में सोचना शुरू कर दिया। 
 
इत्तेफाक की बात थी कि उसी दोपहर को एक दोस्त ने एक टोटका बताया था। कहा—“बलराम, सड़क से दो खिट्टे (खिट्टा यानी कुल्हड़ आदि मिट्टी के किसी बरतन का टुकड़ा) उठाओ। उनमें से एक के ऊपर थूककर उस दूसरे वाले से थूक को ढक दो। इन दोनों को किसी पेड़ की जड़ में रखकर आगे को निकल जाओ। पीछे मुड़कर कतई मत देखो। काम हर हाल बनेगा ही बनेगा।” 
 
बचने के उपाय सोचते हुए मुझे यह टोटका याद हो आया। सड़क से दो खिट्टे उठाए। एक पर थूका और दूसरे को उस पर ढककर सड़क किनारे वाले एक नीम की जड़ में रखकर आगे, घर की ओर बढ़ गया। घूमकर पीछे देखने का तो वैसे भी कोई मतलब नहीं था। 
 
घर के अंदर दाखिल हुआ। माताजी ने पूछा—“कहाँ चला गया था?”
 
“एक दोस्त के घर गया था।” मैंने लापरवाही से उत्तर दिया।
 
“कौन-से दोस्त के घर?” यह सवाल मेरे पीछे-पीछे घर में घुस आये पिताजी ने किया था। 
 
“मुंशीपाड़े में रहता है एक।” इस बार मैं लापरवाह रवैया न अपना सका था। 
 
यह सुनना था कि पिताजी की कठोर हथेली का झन्नाटेदार एक झापड़ मेरी कनपटी पर पड़ा। 
 
“झूठ बोलता है! फिल्म देखकर नहीं आया है?” पिताजी चीखे।
 
“नहीं तो।” मैं मेमने-सा मिमियाया। सोचा—पिताजी तुक्का मारकर सच उगलवाना चाह रहे हैं।
 
‘नहीं तो’ कहते ही एक और पड़ा, फिर एक और… एक और! बहुत पिटाई हुई। चीखने की आवाज घर के आँगन से निकलकर कुएँ की जगत पर बैठकर स्वीप खेल रहे मोहल्लेदारों तक जा टकराई। मुझे पिटाई का उतना दुख नहीं था, जितना टोटके के फेल हो जाने का। पहली ही बार में फेल हो गया था कम्बख्त! कम से कम आज, एक बार तो चला होता। चलो, यह भी अच्छा ही रहा कि बानगी में ही साले की जात पहचान में आ गयी थी।
 
हुआ यों कि मेरे न पहुँचने से नाराज पिताजी को खुद ही दुकान बढ़ानी पड़ गयी। वह घर आये। मेरे बारे में पूछा कि मैं कितने बजे घर से निकला था; और अनुमान के आधार न्यू रीगल के निकास द्वार पर एक ओर को जा खड़े हुए। फिल्म समाप्ति की भीड़ के साथ मुझे वहाँ से निकलते देखा। टोटका करते देखा। रास्ते में और भी जो-कुछ किया होगा, सब देखा और शब्दश: बताते हुए हर हरकत पर एक के हिसाब से झापड़ जड़ते गये। एक हाथ से मुट्ठी मे जकड़ी कलाई को मरोड़ते और दूसरे से झापड़ जड़ते हुए डाँटते--"नजर नीचे… नजर नीचे!"
 
उस दिन पैसों का लालच छोड़कर कर्त्तव्य-निर्वाह पर ध्यान दिया होता तो टोटका न करना पड़ता, टोटका न करना पड़ता तो उसके बारे में भ्रम बना रहता, भ्रम बना रहना ही हर टोटके के अस्तित्व और उसकी सफलता का रहस्य है। टोटका फेल न होता तो पिताजी के हाथों इतना न पिटना पड़ता कि बाद में खुद उन्हें भी दुखी होना पड़ा। सन्तान की पिटाई करके कोई भी पिता (या माँ) चैन से नहीं सो पाता है, लेकिन इस सच्चाई से हर शख्स पिता (या माँ) होने के बाद ही रू-ब-रू हो पाता है, उससे पहले नहीं।
(चित्र साभार)

सिनेमा टिकटों की ब्लैक-मार्केटिंग / बलराम अग्रवाल

बेतरतीब पन्ने-14

‘दोस्ती’ का पढ़ाकू युवक पिताजी के माध्यम से कई साल तक परेशान करता रहा। उससे पहले हमारा पड़ोसी सहपाठी था, जिसकी वजह से अक्सर ही कान-खिंचाई हो जाया करती थी। 
 
उन दिनों साइकिल के रिम को लकड़ी या लोहे की एक डंडी की मदद से सड़कों पर घुमाने का खेल ही मुहल्ले से बाहर तक जाता था। अन्यथा अधिकतर खेल मुहल्ले की सीमा में ही खेले जाते थे। आपस में हम अनेक तरह के जो खेल खेला करते थे उनमें कंचे, गुल्ली-डंडा, कबड्डी, गेंद-तड़ी, सिगरेट की डिब्बियों के खाली पैकेट्स को एक गोल घेरे के बीचों-बीच रखकर दूर खींची एक रेखा पर खड़े होकर चपटे पत्थर से निशाना लगाकर उन्हें निकालना, बीड़ी-बंडलों के रैपर्स से ‘जुआ’ खेलना आदि-आदि। कंचे, गुल्ली-डंडा, गेंद, सिगरेट के पैकेट्स और बीड़ी-बंडल्स के रैपर हमारी अमूल्य संपत्ति हुआ करती थी। 
 
हम जब मगन-मन गली में खेल रहे होते थे, हमारे उस पड़ोसी सहपाठी की नजर बाजार से या मन्दिर से घर की ओर चले आ रहे हमारे पिताजी पर पता नहीं कैसे पड़ जाती थी! मैं आज भी उसकी तेज नजर का कायल हूँ और सोच नहीं पाता हूँ कि वह कैसे पिताजी के आने को भाँप जाता था। इस इंटेलिजेंस की बदौलत उसे जरूर ही ‘रॉ’ में प्रवेश मिलना चाहिए था। अपने जाने की भनक लगाए बिना वह खेल के बीच से पता नहीं कब गायब हो जाता था। घर के भीतर से बस्ता लाकर आनन-फानन में अपने चबूतरे पर ला पटकता था। सुन्दर लिखाई में लिखी अपनी तख्ती को सुखाने के बहाने दीवार पर चढ़ चुकी धूप के साये में खड़ी करता और कोई भी किताब हाथ में ले, बोल-बोलकर पढ़ना शुरू कर देता था। इतनी तेज आवाज में कि, अपने ही विचारों में मग्न पिताजी की विचार-श्रृंखला उसकी आवाज से टूट जाए। वह उसे पढ़ता देखते और घर में घुसने की बजाय मेरे इलाज के लिए आगे बढ़ आते। गली में अन्य बालकों के साथ खेल रहे मेरे कान को पकड़ते और खींचकर घर ले जाते! 
 
आगे की कहानी बताने की जरूरत नहीं है। यह किस्सा अनेक बार दोहराया जाता था लेकिन पिताजी को मैं कभी-भी यह नहीं समझा सका कि वह आपको देखकर यह ड्रामा करता है! 
 
‘दोस्ती’ के बाद फिल्में देखने का चस्का-सा लग गया। सबसे आगे वाली सीटों की टिकट उन दिनों 70 पैसे की हुआ करती थी। इन 70 पैसों के जुगाड़ के लिए 175 पेज की एक कोरी कॉपी कमीज के नीचे पाजामे में खोंसनी पड़ी थी। माताजी से कहा—“स्कूल के काम के लिए एक कॉपी लानी है।”
 
“अपने पिताजी के पास चला जा। वह दिला देंगे।” माताजी ने कहा।
 
“उतना समय नहीं है, काम करना है। अभी चाहिए।” पहली बात तो यह कि मुझे अर्जेंट कॉपी नहीं पैसे चाहिए थे! दूसरी यह कि पिताजी के पास जाने से कॉपी मिलती, पैसे नहीं। 
 
“कितने की आएगी?” माताजी ने पूछा।
 
“75 पैसे की।” मेरा मासूम जवाब।
 
माताजी ने खोज-खाजकर 75 पैसे निकाले और अपने पढ़ाकू बेटे की हथेली पर ला रखे। बेटा, सीधा सिनेमा हॉल जा पहुँचा। भीड़ बिल्कुल थी ही नहीं। ‘नेताजी सुभाषचन्द्र बोस’ जैसी रोमांसहीन रूखी फिल्म के लिए भीड़ का मतलब भी क्या था। वह तो मेरे ही मन में नेताजी के लिए अपार श्रद्धा थी। एक देशभक्त की फिल्म देखने गया था इसलिए किसी भी प्रकार का अपराध-बोध मन में होने का सवाल ही नहीं था। 
 
खिड़की पर गया। टिकट खरीदा और जा बैठा सीट पर। फिर वही, एकदम ऐसा लगा जैसे फिल्म सामने पर्दे पर नहीं, दिमाग के किसी अन्दरूनी हिस्से में चल रही है, सपने की तरह। कई फिल्में देख लेने के बाद दिमाग ने यह स्वीकारना शुरू किया कि फिल्म उसके पर्दे पर नहीं, सामने, बाहर वाले पर्दे पर चल रही होती है।
 

बहरहाल, यह चस्का जब और बढ़ा तो दूसरा रास्ता अपनाना जरूरी हो गया। माताजी से एक की बजाय दो कॉपियों के पैसे माँगने शुरू किए। पाजामें में खोंसकर कॉपी ले जाना बंद। भीड़ के छँटने का इंतजार करना बंद। फिल्म लगने के पहले-दूसरे दिन ही टिकट खिड़की पर धावा बोलना शुरू। जबर्दस्त धक्का-मुक्की के बीच 70 पैसे वाले दो टिकट निकाले। एक आदमी को दो से ज्यादा टिकट शुरू-शुरू के दिनों में देते ही नहीं थे। चार दोस्तों को देखनी होती तो दो दोस्त लाइन में लगते। 
 
दो टिकट निकाले। एक-एक रुपये में दोनों ब्लैक किए और दो रुपये लेकर घर आ गया। माताजी का डेढ़ रुपया माताजी को वापस पकड़ाया। बाकी के 50 पैसे अंटी के हवाले किए। एक-दो दिन में 20 पैसे और मिलाकर फिर जा पहुँचा। अगर अभी भी ब्लैक चल रही होती तो एक रुपये में बेचकर घर आ बैठता और भीड़ के छँटने का इंतजार करता।
(चित्र साभार)

रविवार, 13 मार्च 2022

मैं भी इन्सान हूँ, इक तुम्हारी तरह…/ बलराम अग्रवाल

 बेतरतीब पन्ने-13

‘दोस्ती’ नाम से जो फिल्म आयी थी, वह मुम्बई-दिल्ली में 1964 में रिलीज हुई थी और बुलन्दशहर पहुँची थी तीन साल बाद 1967 में

या पांच साल बाद 1969 में; ठीक-ठीक याद नहीं है। उस फिल्म को विशेषत: मुझे दिखाकर लाने की आज्ञा पिताजी ने चाचाजी को दी थी। इस बात की मुझे खुशी भी थी और आश्चर्य  भी। खुशी फिल्म देखने जाने की और आश्चर्य इस बात का कि वह आदेश निरामिष पिताजी की ओर से जारी हुआ था।


चाचाजी हमें फिल्म दिखाने ले गये। सिनेमा हॉल मेरे लिए आश्चर्य-लोक जैसा था। एक साथ बिछी इतनी सारी कुर्सियाँ पहली बार देखी थीं। एक ही जगह पर चारों ओर घूमकर पूरे हॉल पर नजर डाली। चाचाजी ने सीट पर बैठ जाने को कहा और बराबर वाली सीट पर खुद भी बैठ गये। एकाएक पूरे हॉल की सारी बत्तियाँ गुल हो गयीं। घटाटोप अंधेरा! उसी के साथ, सामने वाले सफेद पर्दे पर आकृतियाँ उभरनी शुरू हुईं। चलती-फिरती-बोलती आकृतियाँ! मुझे लगा, जैसे मैं जाग नहीं रहा, सपना देख रहा हूँ। फिल्म सामने नहीं, मेरे मानस-पटल पर चल रही थी। वह सपना हॉल से बाहर आने के बाद भी मेरे जेहन में कई दिनों तक स्थायी रहा।

फिल्म दिखाने की जो आज्ञा पिताजी ने चाचाजी को दी, उसके पीछे बाबा अल्लामेहर थे। उनके द्वारा पिताजी को सुनाई गयी उसकी वह स्टोरी थी, जिसे फिल्म देखने के अगले दिन अपनी आदत के अनुसार उन्होंने पिताजी को सुनाया था। पिताजी उससे इतना अधिक प्रभावित हुए कि फिल्में न देखने-दिखाने के अपने ख्याल को उन्होंने तिलांजलि दे दी थी। बावजूद तिलांजलि के वह स्वयं अब भी नहीं गये थे, हमें ही भेजा।

लेकिन, फिल्म देखकर आने की मेरी खुशी ज्यादा समय तक सँभल नहीं सकी। दोपहर बाद 3 से 6 वाला शो देखकर शाम 7 बजे के करीब घर में घुसे होंगे। खाना खाया और आँखों में सुखद सपने को समोए, सोने की तैयारी में ही थे कि पिताजी चिल्लाए—“क्या बजा है?”

“नौ।” ऊपर, अलमारी में टिके टाइमपीस पर नजर डालते हुए मैंने डरी-जुबान में जवाब दिया।

“अभी-अभी फिल्म देखकर आये हो, आते भी भूल गये कि वह बेचारा गली के लैम्प-पोस्ट के नीचे बैठकर रात-रातभर पढ़ा करता था! तुम्हें घर में ही लैम्प मिला हुआ है फिर भी…! नालायक कहीं का!”

‘तुझे’ की बजाय ‘तुम्हें’ कहकर वे कोई इज्जत नहीं बख्श रहे होते थे। उस ‘तुम्हें’ में दरअसल सभी भाई-बहन लपेट दिये जाते थे। उसे सुनते ही हमारी सबकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती थी। सब बिस्तर से उठकर अपने-अपने बस्ते की ओर दौड़ गये। मेरी समझ में आ गया कि क्यों पिताजी ने ‘दोस्ती’ दिखाने की कृपा हम पर की थी।

“नियम बना लो—रात को 10 बजे तक पढ़ना और सुबह 4 बजे उठकर बैठ जाना।” पिताजी ने पटाक्षेपपरक वाक्य कहा, “पढ़ने-लिखने के बारे में खुद कुछ नहीं सोच सकते थे, देखकर तो कुछ सीख लिया होता!”

यह अब रोजाना का किस्सा हो गया। ‘दोस्ती’ हमने देखी सिर्फ एक बार थी, लेकिन कोंचा उसने सालों-साल। फिल्म के एक गाने की लाइनें--'मैं भी इन्सान हूँ इक तुम्हारी तरह' बार जेहन में कौंध जातीं। सोचने लगा था, कि—प्रेरित करने वाली फिल्में इतनी भी अच्छी नहीं बना डालनी चाहिए कि बालकों की आजादी छीन लें, उनकी जान ही लेने लग जाएँ!

(चित्र साभार)

सुख है एक छांव ढलती, आती है जाती है…/बलराम अग्रवाल

बेतरतीब पन्ने-12

कौन-सी फिल्म थी, जो मैंने सिनेमा हॉल में बैठकर देखी! असलियत में तो हॉल से बाहर भी कोई फिल्म लम्बे समय तक नहीं देखी थी। 'मुगल-ए-आजम' पहली फिल्म थी जिसका मैंने नाम सुना। उन दिनों कक्षा पाँच में था। बहस होती है कि 'अनारकली' काल्पनिक पात्र है या  वास्तविक? ध्यान से देखें, उसके पोस्टर पर ऊपर ही लिखा है--"अफसाने के हकीकत बनने की कहानी"।

उन दिनों, पेन्टर्स की सहायता से, आने वाली फिल्मों के विज्ञापन शहर की विभिन्न दीवारों पर लिखवाये जाते थे, पोस्टर्स चिपकवाये जाते थे। घोड़ा-गाड़ी और रिक्शों में माइक लेकर बैठा एक आदमी फिल्म के नाम का, उसमें काम करने वाले कलाकारों का नाम बताते हुए प्रचार करता; ग्रामोफोन पर रिकार्ड चलाकर उस फिल्म के गाने बजाता। किसी-किसी फिल्म के प्रचार के लिए तो पुरुष-नर्तकियाँ भी रिक्शा-घोड़ा-गाड़ी के आगे-आगे नाचती थीं।

बुलन्दशहर में शुरू-शुरू में मात्र दो फिल्म हॉल थे—न्यू रीगल टॉकीज और जगदीश टॉकीज। आने वाली अथवा चल रही फिल्मों के प्रचार की भाषा कभी-कभी बड़ी मजेदार हो जाया करती थी—“देखिए… देखिए… देखिए… जगदीश टॉकीज में… कोहिनूर! जी हाँ, कोहिनूर! कोहिनूर!! कोहिनूर!!! दिलीप कुमार और मीनाकुमारी की शानदार-जानदार अदाकारी का शाहकार… अपार भीड़ समेट रहा है—कोहिनूर! जनता की जबर्दस्त माँग पर रोजाना पाँच शो—कोहिनूर! कोहिनूर!! कोहिनूर!!!”

पाँच शो का मतलब हम सोचते थे—रोजाना पाँच सौ लोगों की एंट्री और दरवाजे बंद! ऐसे में मुझ जैसे सीकिया को कौन घुसने देगा!

हम समझते थे, महाराजा रणजीत सिंह के मुकुट वाला कोहिनूर महारानी विक्टोरिया से ले आया गया है और आम जनता को दिखाने के लिए जगदीश टॉकीज में रखा गया है। इच्छा होती थी कि अपनी उस ऐतिहासिक धरोहर को एक बार हम भी देखकर आएँ लेकिन घर में यह इच्छा जाहिर करने से डरते थे। अकेले जाना नामुमकिन नहीं था, लेकिन जगदीश टॉकीज घर से पर्याप्त दूरी पर था।

या फिर—“लग गई, लग गई, लग गई… आपके प्यारे, आपके चहीते… न्यू रीगल टॉकीज में… आग!... आग लग गई!! आग!!!...”

यहाँ पर अभद्र भाषा में लिखना उचित नहीं है कि न्यू रीगल टॉकीज हमारे घर से कितनी दूरी पर था; बस इतना समझ लीजिए कि वह बालिश्त-भर की दूरी पर था। बालिश्त-भर मतलब—साँस रोककर भागते थे तो सीधे न्यू रीगल पर जाकर ही छोड़ते थे। यह वाक्य सिर्फ दूरी का द्योतक नहीं है, तब के हमारे स्टेमिना का भी परिचायक है। तो घोषणा सुनते ही हमने लगा दी दौड़। जा पहुँचे न्यू रीगल।

‘आग’ के बड़े-बड़े बैनर लटक रहे थे। भीतर, फ्रेम्स में फिल्म के विभिन्न दृश्यों के फोटो लगे थे। खासी चहल-पहल थी। वहाँ जाकर ही पता चला कि शहर भर में चीख-चीखकर जो आदमी बोलता है कि न्यू रीगल में ‘आग’ लग गई, उसकी असलियत क्या है, ‘बिन बादल बरसात’ वहाँ कैसे होती है, ‘चांदी की दीवार’ कैसे खड़ी होती है, ‘कोहरा’ कैसे छाता है, ‘गंगा की लहरें’ कैसे किलोल करती हैं! वह एक अलग ही दुनिया थी, लेकिन घर के वातावरण और संस्कारों की बदौलत कभी चाह पैदा नहीं हुई कि भीतर जाकर देखें, वह दुनिया दिखती है!

उन दिनों बुलन्दशहर जैसे देहात-किस्म के नगरों के सिनेमाघरों में फिल्में मुम्बई और दिल्ली आदि महानगरों में रिलीज होने के दो-तीन वर्षों के बाद तब पहुँचती थीं जब उनका पूरा रस बदबदा चुका होता था। रस बदबदा चुकने से आशय है कि जब महानगरों के सिनेमाघरों में आने वाली भीड़ की संख्या में खासी कमी हो चुकी होती थी, और छोटे शहर के दर्शक की उत्तेजना फिल्मी पत्रिकाओं में छपी गॉसिप्स को पढ़-पढ़कर पूरे तनाव की हालत में पहुँच चुकी होती थी, तब उन फिल्मों के बड़े डिस्ट्रीब्यूटर्स के बड़े ठेकेदार, बड़े ठेकेदारों के अधीनस्थ छोटे ठेकेदार और उनके कारिंदे नगरों, उपनगरों आदि की ओर रुख करते थे।

फिल्मों के रोल्स के डिब्बे, कपड़ों के बड़े-बड़े बैनर और कागज के छोटे-बड़े पोस्टरों के पैकेट्स या तो ट्रांसपोर्ट के जरिये भेज दिये जाते थे या एजेंट्स खुद अपनी कारों में भी साथ लाते थे।

खैर, वह सब तो अलग ही इतिहास है; असल इतिहास तो यह बताना है कि पहली फिल्म मैंने कौन-सी देखी थी, कैसे देखी थी और क्यों देखी थी?…

(चित्र साभार)

अपने हिस्से में… गुन:ह ही गुन:ह / बलराम अग्रवाल

बेतरतीब पन्ने-11

इन पन्नों पर एक करामात शुरू से ही शामिल रही है। वो यह कि इनमें से कुछ किस्से, जो अपने नाम से मैंने बयां
किये, जरूरी नहीं कि मेरे ही थे और बहुत-से किस्से, जिन्हें मैंने दोस्तों के बताया, जरूरी नहीं कि उनके ही रहे हों। 
 
इस रहस्य पर से पर्दा मैं क्यों उठा रहा हूँ? मजबूरी है। 
 
हुआ यों कि कयामत के दिन मेरे जैसे सीधे-सादे एक बंदे का चिट्ठा जो खोलकर पढ़ा गया, कर्मों के हिसाब से उनके लिए ‘दोजख’ का आदेश हुआ। बंदा परेशान। यह क्या हुआ? पूरी जिन्दगी तो बच्चे पैदा करने और पालने-पोसने में बिता दी, पाँचों वक्त की नमाज भी अता की। भूखों को भोजन खिलाया, प्यासों को पानी की कमी नहीं होने दी, बावजूद इसके दोजख!!! 
 
जैसे हिन्दू धर्म के अनुयायियों ने कर्मों का लेखा-जोखा रखने के लिए चित्रगुप्त को नियुक्त किया हुआ है, वैसे ही मुस्लिम धर्म में करामन और कातिबी का नाम बताया जाता है। बंदे ने कर्मों का हिसाब-किताब रखने वाले उन दोनों फरिश्तों से मुलाकात की। कहा कि देखें, नोट करने में जरूर कुछ का कुछ लिख देने की गलती आपसे हो गयी है। बोले कि—
 
मुझे घर से औ’ दफ्तर से तो फुरसत ही न मिलती थी,
गुनह फिर कब किये आखिर करामन-कातिबी मैंने?
 
दोनों देवदूतों ने उनकी दरयाफ्त सुनी और पढ़कर सुनाने की बजाय उनके कर्मों का बहीखाता ही उनके सामने कर दिया। कहा—“खुद ही देख लें।”
 
बंदे ने देखा! उस बहीखाते में उसके नाम के आगे लिखा कुछ नहीं था; अलबत्ता कागज के स्क्रीन पर स्वयं उसे ही बोलते हुए दिखाया जा रहा था। करामन और कातिबी ने कहा—“दोजख तो उसी आधार पर है जो खुद आप ही ने बयान किया था; अपनी ओर से हमने कुछ नहीं लिखा।”
 
उस मौके पर उस बंदे ने जो दलील पेश की, वह यों थी—
 
सुनाया इस कदर पुरजोर किस्सा अपनी उल्फत का,
फसाना था किसी का, अपनी बातें जोड़ दीं मैंने!
 
तात्पर्य यह कि तीर तो किसी 'और' ने चलाये थे, उन तीरों पर बंदा ‘और’ का नाम हटाकर अपना नाम जोड़ता और जिन्दगीभर वाह-वाही कमाता रहा।
 
‘बेतरतीब पन्ने’ आगे भी उस बंदे के किस्सों की तरह ही सामने आने वाले हैं। जाहिर है, कि इन पन्नों के लेखक का नाम ‘दोजख’ वाली फाइल में प्रोन्नत होता रहेगा, ऑटोमेटिकॉली। और यकीन मानिए, अपन करामन-कातिबी के सामने शिकायती खत लेकर हाजिर होने वाले बिलकुल भी नहीं हैं।
 
अफसानानिगारी का अंजाम पता है, दोजख ही मिलेगा दूसरा कुछ नहीं।
 
अफसानानिगारी के अलावा भी कई काम हैं जिनकी बदौलत दोजख के दरवाजे अपन को खुले मिलने वाले हैं। पहला काम यह कि अपन ब्रह्म-मुहूर्त में बिस्तर छोड़ने की बजाय ब्रह्म-मुहूर्त में बिस्तर जकड़ने के अभ्यासी हैं। दूसरा काम यह कि कभी भी चोरी-चकारी से पीछे नहीं हटते। आँख बची, माल यारों का। तीसरा यह कि प्याज और लहसुन से परहेज नहीं रखते। मांस-मच्छी कभी नहीं खाया लेकिन एक ही तरह की कसमें इतनी बार खायी हैं कि उन कसमों को ही लाज आने लगी होगी। 
 
अब जरा पत्नी की ओर रुख करते हैं। जब से आई हैं, वह ब्रह्म-मुहूर्त में बिस्तर छोड़कर घर के काम-काज में जुट जाने की आदी हैं। चोरी-चकारी? राम का नाम लो। प्याज-लहसुन, मांस-मच्छी? सवाल ही पैदा नहीं होता। मैं लगातार उन्हें समझाता हूँ कि ये वे गुण हैं जो परलोक में पति से दूर रहने में सहायक सिद्ध होंगे। इसलिए हे मीरा रानी! मत बनो आलसी, मत करो चोरी-चकारी, मत खाओ मांस-मच्छी; लेकिन प्याज-लहसुन तो कभी-कभार चख लिया करो। परलोक में पति के साथ बने रहने का कुछ तो जुगाड़ बनाकर चलो।
 
10-3-22/2:00(चित्र साभार)

सोमवार, 7 मार्च 2022

जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया…/ बलराम अग्रवाल

बेतरतीब पन्ने-10

गणेश से ही जुड़ा एक किस्सा यह भी। 

मामन की ओर जाने वाली सड़क पर 1970 तक बुलन्दशहर के आवासीय क्षेत्र का विस्तार भूतेश्वर मन्दिर से आगे नहीं के बराबर था। मामन रोड पर ही भूतेश्वर मन्दिर से करीब 500 मीटर आगे मिट्टी का एक ऊँचा बाँध था। यह बाँध शहर की नालियों के गन्दे पानी को काली नदी से मिलाने वाले नाले के सहारे-सहारे खड़ा किया गया था। सामान्य दिनों में नाले के पानी से शहर की किसी भी बस्ती को किसी प्रकार की हानि की गुंजाइश नहीं थी; इसका उद्देश्य बाढ़-ग्रस्त काली नदी के बैक वॉटर को नाले के रास्ते शहर में घुसने से रोकना होता था। ‘बाँध’, जिसे आम बोलचाल में हम ‘बंद’ कहते थे, से करीब एक किलोमीटर की दूरी पर ‘मोहन कुटी’ थी। मोहन कुटी में एक अखाड़ा और एक कुआँ भी था; और बैठने-बतियाने के लिए चबूतरे-चबूतरियाँ भी। मोहन कुटी के बाद खेत और बाग-बगीचे शुरू हो जाते थे। 

गणेश एक शाम खेलते-खेलते बोला—“बलराम, मोहन कुटी के पास वाले खेत में एक पोखर है न!…”

“हाँ, है।” मैंने हामी भरी।

“उसमें सिंघाड़े की बेलें बोई हुई हैं।” उसने रहस्योद्घाटन के अंदाज में बताया।

“तुझे कैसे मालूम?” मैंने पूछा।

“कल फारिग होने के बाद जब मैं उसकी तरफ बढ़ा तो वहाँ बैठे एक बुड्ढे ने मुझे डाँटा—ए लड़के, टट्टी कहीं और जाकर धो, इसमें खाने की चीज बोई हुई है।… मैने पूछा—क्या? तो बुड्ढे ने कहा—सिंघाड़ा!”

इतना बताकर गणेश चुप नहीं बैठा। बोला—“मैंने सब जासूसी कर ली है। बुड्ढा सुबह से दोपहर तक पोखर की रखवाली पर बैठता है। बारह बजे के आसपास खाना खाने को घर जाता है और एक घंटे बाद लौटता है।”

“इस बीच कोई नहीं रहता है?” मैंने पूछा।

“कोई नहीं।” गणेश बोला, “भगवान कसम।… एक काम कर, कल बारह बजे चलते हैं एक-एक झोला लेकर।”

“ठीक है।” मैंने कहा, “लेकिन कल नहीं परसों।”

“परसों क्यों?”

“कल इतवार है, ” मैंने कहा, “छुट्टी का दिन। कल पूरे दिन लोगों की आवाजाही उधर रहेगी।”

“ठीक है।…” गणेश बोला, “लेकिन परसों मुझे कुछ काम है। हम उससे अगले दिन चलेंगे।”

कार्यक्रम की योजना बनाकर हम अपने-अपने घर चले गये। नियत दिन हमने कोई बहाना बनाकर अपने-अपने स्कूल की छुट्टी की। नियत समय पर अपने-अपने घर से एक-एक झोला बगल में दबाया और बारह बजे के आसपास पोखर की ओर निकल गये। हमारे मोहन कुटी पहुँचने तक, हमने दूर से देखा—बुड्ढा घर नहीं गया था। हमें इसीलिए काफी समय मोहन कुटी की एक बेंच पर लेट-बैठकर बिताना पड़ा। 

बेंचों पर हम कभी लेटते, कभी बैठते। घड़ी तो हम पर होती नहीं थी। लेकिन अनुमान लगाया कि बैठे-बैठे हमें दो तो बज ही गये होंगे।

“आज दिन क्या है?” ऊबकर मैंने गणेश से पूछा।

“आज?” गणेश कुछ सोचता-सा बोला, “सोमवार… नहीं-नहीं, मंगल है आज।”

“मंगल ही है न!”

“हाँ, पक्का।” उसने कहा।

“तो आज बुड्ढा घर नहीं जायेगा।” मैंने कहा।

“क्यों?” गणेश ने आश्चर्य से पूछा।

“आज के दिन वह व्रत रखता होगा, ” मैं बोला, “इसीलिए अब तक नहीं टला है यहाँ से।”

“ओह!” गणेश के गले से एकाएक ठण्डी आह-सी निकली।

“चलो, घर चलते हैं।” मैंने उठकर चलते हुए कहा। इन्तजार इतना लम्बा हो चुका था कि और-अधिक बैठना सम्भव नहीं था। गणेश ने प्रतिवाद नहीं किया। उठ खड़ा हुआ। बेआबरू-से होकर थके-थके कदमों से हम खरामा-खरामा उस कूचे से बाहर आ गये।

अगले दिन बुधवार था। हमने तय किया कि हम घर से स्कूल के लिए निकलेंगे। सुबह की हाजिरी दर्ज कराएँगे और पहली रेसिस में ही अपना-अपना स्कूल छोड़कर मोहन कुटी पहुँच जाएँगे। सिंघाड़ों के लिए एक-एक अतिरिक्त झोला अपने-अपने बस्तों में रखना हम नहीं भूले थे।

क्लास से और फिर स्कूल से गायब होना हमारे लिए नई बात नहीं थी। गणेश, शर्मा इण्टर कॉलेज में पढ़ता था और मैं डीएवी में। दोनों स्कूलों के बीच अच्छी-खासी दूरी के बावजूद हम तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार बारह बजे के आसपास मोहन कुटी में जा मिले। उस दिन हमें ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। पहुँचने के 15-20 मिनट बाद ही बुड्ढा घर के लिए रवाना हो गया। हमने आव देखा न ताव, बस्ते संभालकर ताबड़-तोड़ पोखर की ओर भाग खड़े हुए। बस्तों को किनारे पर पटककर पोखर में जा कूदे और सिंघाड़ों से झोलों को भरना शुरू कर दिया। 

पहली बार सिंघाड़ों के भण्डार में घुसे थे। बहुत-कम समय में हमने अपने झोले गरदन तक भर लिए। उस आपाधापी में यह ख्याल ही नहीं रहा कि पोखर के पानी से बाहर भी निकलना है। सोचते रहे कि कुछ सिंघाड़े और तोड़ लें।

अपनी इस लापरवाही का खामियाजा हमें हाथों-हाथ भुगतना पड़ा। बुड्ढा खाना खाकर वापस लौट आया। उसे देखकर हमारी सिट्टी-पिट्टी गुम। आते ही बुड्ढे ने सबसे पहले तो किनारे पर रखे हमारे बस्ते अपने काबू में किये, फिर खासा पुचकारते हुए पोखर से बाहर आने को हमारा आह्वान किया। डरते-सहमते हम पोखर से बाहर आये। दोनों झोलों में भरे सिंघाड़ों को उसने किनारे पर रखी गहरी-सी टोकरी में उलट देने को कहा और हमें एक ओर बैठ जाने का हुक्म सुनाया। हम बैठ गये।

“अपने-अपने बाप का नाम बताओ।” बुड्ढे ने गुस्से में भरकर कहा। 

हमने रोना शुरू कर दिया। मरना मंजूर था लेकिन बाप का नाम बताना तो किसी हाल में मंजूर नहीं था। और हुआ भी यही। बुड्ढा बाप का नाम जानने की भरसक कोशिश करता रहा और हम बाप का नाम न बताने की जिद पर अड़े रहे। घंटों बीत गये। कोई भी पक्ष टस से मस नहीं हुआ, न वह न हम। रोते-रोते हमें जब काफी समय बीत गया तो पसीजकर बुड्ढे ने हमसे पूछा, “भूख लगी है?”

दहशत के मारे हालाँकि भूख-प्यास सब नदारद थी, लेकिन हमने ‘हाँ’ में गरदन हिलाई। हमारे ही द्वारा तोड़े गये सिंघाड़ों से भरी टोकरी की ओर इशारा करके उसने दयापूर्वक कहा, “खाते रहो इसी में से ले-लेकर।”

हम बेशर्मों ने टोकरी से उठाकर सिंघाड़े छीलने और खाने शुरू कर दिये। दया के वे निवाले हमें परोसकर बुड्ढे ने सोचा होगा कि हम अपने-अपने पिता का नाम उसे बता देंगे। लेकिन एक कहावत है न—जालिम आदमी पीटता कम है, घसीटता ज्यादा है। वह हमें याद थी। ईश्वर इस धृष्टता के लिए माफ करे, लेकिन सच यही है कि हमारे मन में पिता की छवि उन दिनों ‘जालिम’ की ही हुआ करती थी। बुड्ढा यदि हमें पीटता भी तो वह पिटाई हमें मंजूर थी, लेकिन घसीटे जाना बिल्कुल भी मंजूर नहीं था। आँखों ही आँखों में हमने तय किया और न तो मैंने और न महेश ने पिताजी का नाम बताया। 

शाम चार बजे के आसपास आखिर बुड्ढे का दिल पसीज गया। बोला—“आधा-आधा झोला भरकर अपने घर जाओ।… और सुनो, आगे से ऐसी गिरी हुई हरकत कभी भी, कहीं भी मत करना।”

“जी बाबा।” इस दयानतदारी पर हमने आँसू पोंछते हुए उस बुजुर्ग के पाँव छुए। दयानतदारी इसलिए कि उस समय तो हमारी जान और बस्ते बख्श दिया जाना ही बड़ी नियामत थी। बकौल साहिर लुधियानवी--जो मिल गया उसी को मुकद्दर ... मानकर खैरात में मिले मुट्ठीभर सिंघाड़ों को लेकर घर वापस पहुँचे। मुट्ठीभर इसलिए कि हमारे द्वारा तोड़े गये सिंघाड़ों की तुलना में वे कम ही थे। बेइज्जती की बात तो घर पर क्या बतानी थी, अपनी वीरता के ही किस्से सुनाए कि कैसे हम सिंघाड़े वाली पोखर के रखवाले को छकाते हुए यह सब लाये हैं। घरवालों ने भी जरूरी हिदायतें जरूर दी होंगी, जो अब याद नहीं हैं। बोध और उपदेश जैसी अच्छी बातें याद ही कब रहती हैं। याद तो सिर्फ बेइज्जतियाँ ही रहती हैं इसीलिए आज लिखी जा रही हैं। हम भाग्यवान हैं कि हमारे हिस्से में वे भरपूर आईं। उन्हीं के चलते कोई बेइज्जती हमें आज भी बेइज्जती महसूस नहीं होती है। इज्जत की जरूरत तो उनके चलते पहले भी कभी महसूस नहीं हुई।  

06-3-22/21:03

(चित्र साभार : गूगल)

आत्मग्लानि / बलराम अग्रवाल

बेतरतीब पन्ने-9

एक था गणेश। बनिया परिवार था, लेकिन गरीबी की रेखा से गजों नीचे। 1967-68 में उसका परिवार हमारे मोहल्ले में किराये पर रहता था। कुल चार प्राणियों का परिवार था—माता-पिता, बड़ी बहन और स्वयं गणेश। पिता कमर से कमान बने हुए थे और दुष्यन्त के इस शे’र को चरितार्थ करते थे, कि—

ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा,

मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा! 

वह कहीं न कहीं नौकरी अवश्य करते रहे होंगे अन्यथा किराये के मकान में गुजारा करना आसान नहीं था। बड़ी बहन शादी-शुदा थी और टी॰बी॰ की मरीज होने के कारण हमेशा चारपाई पर ही लेटी रहती थी। बीमारी के चलते ही, बहुत सम्भव है कि ससुराल वालों ने उसका त्याग कर रखा हो।

उसके एक खास डायलॉग की वजह से वह मुझे हमेशा याद रहती है। हुआ यों कि कंचे या गुल्ली-डंडा जैसा कोई खेलकर मैं और गणेश उसके घर में घुसे। गर्मी के दिन थे। उसकी माँ ने हम दोनों को हिदायत दी कि गली-मुहल्ले की मिट्टी में खेलकर आये हो, नल पर हाथ धोकर आओ।

हम दोनों गये। पहले मैंने नल चलाया और गणेश ने अपने हाथ धोये। उसके बाद गणेश ने नल चलाया। मैंने फटाफट अपने हाथ हैंडपंप के चलते पानी में भिगोये और एक हाथ के पानी को दूसरे हाथ की मुट्ठी से निचोड़ता हुआ चल दिया। खरहरी खाट पर लेटी, खुद पर बीजना झलती बड़ी बहन ने दुत्कारा, “देख, कैसा शरबत-सा टपक रहा है हाथों से! दोबारा धो, चल।”

मैंने भी अपने हाथ से टपकते 'शरबत' को देखा। गन्ने के पेरकर निकाला हुआ-सा, एकदम मैला। दोबारा हाथ धोये। उस दिन के बाद तो जब भी हाथ धोता हूँ, अन्दर से वह डाँटती-सी लगने लगती है। पहली ही बार में कसकर धोता हूँ। 

गणेश का किस्सा इतना ही नहीं है, इससे कहीं आगे तक बरकरार है। 

मैं नवीं कक्षा का छात्र था जब मुझे हॉल में जाकर सिनेमा देखने की ‘लत’ लग गयी थी। कैसे लगी, यह फिर कभी लिखूँगा, इस वक्त सिर्फ इतना कि गणेश उन दिनों सातवीं या आठवीं में पढ़ता था और गरीबी के चलते उस साल के बाद दो दुर्घटनाएँ उसके साथ हुईं। पहली यह कि पढ़ाई छोड़कर उसे पिता का हाथ बँटाने के लिए किराने की किसी दुकान पर नौकरी कर लेनी पड़ी; और दूसरी यह कि (शायद किराया समय पर न चुकाने के कारण) मालिक मकान ने उस परिवार से मकान खाली करा लिया। इस प्रकार गणेश का परिवार मोहल्ला छोड़कर कहीं और चला गया तथा हम दोनों मित्रों का मिलना भी समाप्त हो गया।

इस घटना के 7-8 साल बाद, एक शाम हमारे घर के पिछवाड़े वाले सुप्रसिद्ध शिव मन्दिर के प्रांगण में गणेश एक कीर्तन-मंडली के साथ झाँझ-मंजीरे और ढोलक की धुन पर मस्ती में झूमता-नाचता हुआ दिखाई दे गया। मैं लम्बे अरसे बाद मन्दिर की ओर गया था इसलिए वह भजन-मंडली मेरे लिए नयी थी। साथ गये अपने एक दोस्त से मालूम किया—“रोजाना चलता है यह कीर्तन?” 

“पिछले कुछ महीनों से लगातार चल रहा है।” उसने कहा।

“कितने बजे से कितने बजे तक?”

“शाम छ: बजे से आठ बजे तक।” उसने कहा। 

मैंने कलाई में बँधी घड़ी देखी, आठ बजने में 2-4 मिनट ही बाकी थे। गणेश से बात करने के लालच में दोस्त के साथ मैं दूसरी ओर जाकर रुक गया। कुछ ही देर बाद प्रसाद आदि के वितरण से निवृत्त होकर गणेश मेरे पास आ खड़ा हुआ। साथ में बहुत खूबसूरत एक महिला थी।

“राधे-राधे भाई!” वह आते ही हाथ जोड़कर बोला।

“राधे-राधे गणेश! कैसे हो?” मैंने पूछा।

“बहुत कष्ट में हूँ।” उसने पीड़ा उँड़ेलते स्वर में कहा, “उसमें थोड़ा हाथ तेरा भी है।”

“मेरा!!!” मैं बुरी तरह चौंका। इस भले आदमी के कष्ट में होने में मेरा क्या हाथ है?

“हाँ।” इस बार वह लगभग क्रोधित अन्दाज में बोला—“तेरे कहने से, सिनेमा देखने के लिए एक बार जिद करके अपनी अम्मा से पैसे माँगे थे मैंने। बस, उस दिन के बाद ऐसा चस्का लगा कि आज तक छूटा ही नहीं है।”

“मुझे तो ऐसी कोई घटना बिल्कुल भी याद नहीं है गणेश।” मैंने मासूमियत के साथ कहा क्योंकि मुझे वाकई ऐसी कोई घटना याद नहीं थी। दूसरे, यह बातचीत होने के समय तक तो बहुतायत में सिनेमा देखना भी मैं लगभग छोड़ ही चुका था। यही बात मैंने उससे कही भी।

“उस रोग से तूने तो पीछा छुड़ा लिया, मुझे फँसा दिया।” वह बोला। उसकी मुख-मुद्रा उस समय ऐसी थी कि पता नहीं किस लिहाज के कारण वह अपने आपको मेरे गाल पर झापड़ मारने से रोके हुए था। 

“यह कौन हैं?” बात को बदलने की दृष्टि से मैंने साथ खड़ी युवती के बारे में पूछा।

“वाइफ है।” उसने छोटा-सा जवाब दिया।

“अम्मा, पिताजी…बहन जी?” मैंने पूछा।

“जीजी तो मोहल्ला छोड़ने के कुछ दिन बाद ही चली गयी थीं।” उसने बताया, “उसके कुछ महीने बाद पिताजी भी चले गये थे…”

“अम्मा कैसी हैं?” 

“पिछले महीने अम्मा भी चली गयीं।” कहते हुए उसकी आँख में आँसू भर आये, “यह और मैं रह गये हैं, बस।”

मैं सांत्वना के दो बोल उससे कहता, उससे पहले ही वह बोला, “मैं अब चलूँगा।” और आँखें पोंछता हुआ चला गया। पीछे-पीछे उसकी पत्नी भी।

मैं अच्छी तरह समझ सकता हूँ कि गणेश क्यों सिनेमा की लत को छोड़ नहीं पा रहा था या क्यों वह अपनी पत्नी के साथ शाम के दो घंटे कीर्तन के नशे में बिताता था। उसकी कंगाली का कारण मैं नहीं था; लेकिन उस कंगाली में रोटी के लिए कमाई जा रही रकम में सिनेमा का टिकट खरीदने की जोंक मेरी लगायी हुई है, यह सोचकर अपराध-भाव से दब-दब जाता हूँ। 

इस घटना को भी चालीसेक साल तो बीत ही चुके हैं। गणेश अपनी कंगाली पर पार पा सका होगा या कंगाली ने ही उन पति-पत्नी को चबा डाला होगा, नहीं मालूम। इतना जरूर जानता हूँ कि उसने कभी भी मुझे माफ नहीं किया होगा।

02-3-22/03:04 (चित्र साभार : गूगल)

चिड़िया की आँख और कुतिया के पिल्ले / बलराम अग्रवाल

बेतरतीब पन्ने-8

पन्ने बेतरतीब दरअसल इसलिए हैं कि लिखना कुछ चाहता हूँ और लिखने के लिए टाँग कोई और वाकया अड़ा देता है।

एक बार हुआ यों कि पिताजी के पास उनके ठीये पर गया हुआ था। घर के लिए धुली मूँग की दाल लानी है, इस खबर के साथ माताजी ने रवाना किया था। जाकर पिताजी को बताया तो उन्होंने दाल के रेट लाने के लिए एक पंसारी की दुकान पर भेज दिया। रेट पूछकर आया तो पिताजी ने पूछा—“और, छिलके वाली मूँग का क्या रेट था?”

“आपने उसका रेट लाने को कब कहा था?”

“बेटे, जिस काम के लिए जाते हैं, उसके आसपास के कामों पर भी नजर रखते  हैं।” पिताजी ने समझाया।

पिताजी के बराबर में लाल मिर्च का ठीया लगाते थे—बाबा अल्ला मेहर। लम्बे, छरहरे। काले पत्थर को तराशकर निकाले गये थे वह बुजुर्ग। सफेद बाल, ऊपर को तनी हुई सफेद मूँछें। घुटनों से ऊपर तक धोती बाँधते थे। उसके ऊपर बिना कॉलर की, जेब वाली सफेद बंडी पहनते थे। सफेद, गांधी टोपी। सभी बच्चों की  शादी कर चुके थे। बच्चे भी सब बाल-बच्चों वाले थे और अपने-अपने घरों में रहते थे। ये अलग, अकेले। विधुर थे। खुद कमाना, खुद पकाना, खाकर सो पड़ना। सिनेमा, स्वांग आदि देखने के शौकीन थे। सिनेमा का रात को आखिरी शो देखते थे हमेशा। इतना ही नहीं; सुबह आकर पिताजी आदि सभी ठीयेदारों को देखी गयी फिल्म की स्टोरी सुनाने का आनन्द लूटना भी इनका शौक था। स्टोरी या किस्सा सुनाने का उनका अलग ही अन्दाज और मुद्रा होती थी जिन्हें लिख पाना कम से कम मेरे लिए तो आसान नहीं है। वह अन्दाज और वह मुद्रा मेरे लिए ‘गूँगे का गुड़’ है। उनके पास हर वाकये की तरफदारी या मुखालिफत में सुनाने के लिए एक किस्सा होता था। बिना छिलके वाली दाल का रेट पूछकर न आने की बात उनके कानों में पड़ी तो उठ आये अपने ठीये से। पिताजी से बोले, “लाला, यह शिफ्त हरेक में नहीं होती।”

आ गये चाबी लगाने!—मैं मन ही मन डरा कि ये कोई ऐसा किस्सा न सुनाने लगें जो पिताजी के बारूद को चिंगारी दिखा दे।

“ऐसा हुआ कि दरबार में आकर बादशाह अकबर को उनके एक मुलाजिम ने खबर दी कि उनकी पालतू कुतिया आज सुबह-सुबह ब्या गई है।” बाबा अल्ला मेहर ने सुनाना शुरू किया—

“अरे वाह!” अकबर ने खुश होकर कहा और मुलाजिम को ईनाम देकर विदा कर दिया। उसके बाद अपने एक दरबारी से कहा--"देखकर आओ, कुतिया ठीक-ठाक है कि नहीं?" वह दरबारी गया और कुछ देर बाद आकर बोला—“कुतिया एकदम सही-सलामत है जहांपनाह।”

“कितने बच्चे दिये हैं उसने?” अकबर ने पूछा तो वह मुँह लटकाकर बोला—“उन्हें तो मैंने नहीं गिना जहांपनाह!”

अकबर ने तब दूसरे दरबारी से कहा—“जाकर देखो, कितने बच्चे दिये हैं कुतिया ने!”

वह गया और आकर बोला—“चार या पाँच पिल्ले दिये हैं जहांपनाह!”

“चार या पाँच? ठीक-ठीक बताओ।"

"माफी चाहता हूँ हुजूर, कुतिया उनको दबाए लेटी थी, इसलिए ठीक-ठीक गिन नहीं सका।"

बादशाह ने तीसरे आदमी को भेजा। उसने आकर बताया, "पाँच पिल्ले दिये हैं हुजूर!"

“वाह!” अकबर खुश होकर बोला; फिर पूछा—“कुतिया जैसे रंग के है या…?”

“माफी चाहता हूँ जहांपनाह! इस बात का ख्याल तो मैंने नहीं किया।” वह सिर झुकाकर बोला।

इतने में बीरबल दरबार में दाखिल हुआ। आते ही बोला—“बहुत-बहुत मुबारक हो जहांपनाह!”

“पहले तो यह बताओ कि यह दरबार है या सराय? इतनी देर में क्यों हाजिर हो रहे हो?” अकबर ने नाराजगी के साथ कहा, “फिर यह बताओ कि मुबारकबाद किस खुशी के लिए है?” 

“देरी के लिए वाकई माफी चाहता हूँ हुजूर!” बीरबल ने कहा, “दरबार के लिए घर से तो नियत समय पर ही निकला था और दाखिल भी सही समय पर हो गया था; दाखिल होते ही पता चला कि हुजूर की बहुत प्यारी पालतू कुतिया ब्या गयी  है। बस, मैंने उसकी खैरियत देख आना बेहतर समझा। कुतिया और पिल्ले सभी सेहतमंद हैं हुजूर। कुल पाँच पिल्ले दिये हैं जिनमें तीन काले-सफेद हैं, एक भूरा-सफेद और एक काला है। इसी खुशी की मुबारकबाद है हुजूर!”

“देखा?” बीरबल की बात सुनकर अकबर ने सभी दरबारियों से कहा, “भेजे जाने के बावजूद तीन-तीन दरबारी जिस ब्यौरे को नहीं ला पाये, बीरबल ने बिना भेजे ही वह सारा ब्यौरा ला दिया! इसीलिए यह आदमी मेरे दिल में बसता है।…" अकबर-बीरबल का यह किस्सा सुनाकर बाबा अल्ला मेहर ने मुझसे कहा, “तो बेटा, जब भी जाओ, सिर्फ कुतिया को देखकर मत चले आओ। यह देखो कि उसने बच्चे कितने दिये हैं, किस-किस रंग के दिये हैं!”

इस किस्से को सुनकर हाथों-हाथ मेरे भीतर एक तर्क सूझा; लेकिन उस तर्क को मैं पेश नहीं कर सकता था। पेश करने के जवाब में यह जुमला गाल पर थप्पड़ की तरह पड़ सकता था कि—“लाला, तुम्हारा यह लड़का जिन्दगी में कभी कामयाब नहीं हो सकता।”

उपर्युक्त घटना के लगभग 57 साल बाद उस तर्क को पहली बार आज उस समय लिखने की हिम्मत कर रहा हूँ जब डाँटने के लिए न तो पूज्य पिताजी इस दुनिया में हैं और न ही उनके समर्थन में कोई किस्सा सुनाने के लिए बाबा अल्ला मेहर जिन्दा हैं।

बहुत-कम उम्र में ही हमें गुरु द्रोणाचार्य द्वारा कौरव-पांडव राजकुमारों की तीरंदाजी परीक्षा की कहानी पढ़ाई-सुनाई जाती रही है। उसमें चिड़िया की आँख के साथ-साथ इधर-उधर का भी समस्त दृश्य देखने वाले सभी राजकुमार फेल हो जाते हैं, पास होता है केवल अर्जुन, जिसने अपना ध्यान केवल उद्देश्य, गुरु द्वारा निर्धारित चिड़िया की केवल आँख पर केन्द्रित किया था। 

अब, कहाँ तो यह शिक्षा कि दिमाग को इधर-उधर मत भटकाओ, चिड़िया की केवल आँख पर ध्यान केन्द्रित करो; और कहाँ यह ज्ञान कि धुली दाल का रेट मालूम करने भेजा था तो छिलके वाली दाल के दाम भी पूछकर आने की बुद्धिमानी दिखानी थी और उसके समर्थन में कुतिया के पिल्लों वाला किस्सा भी हाथों-हाथ हाजिर था!

इसी क्रम में मुझे अपनी सहकर्मी जोगिन्दर कौर भी ससम्मान याद आती हैं। अनुकम्पा आधार पर अपने दिवंगत पति के स्थान पर नियुक्त थीं। वैधव्य ने उनके भीतर के ‘जौली’ व्यक्तित्व को दबा डाला था, फिर भी कभी-कभार वह फूट ही पड़ता था। उनके सामने ही बैठने वाला एक सहकर्मी ‘कासना’ भी था। बहुत सज्जन, सीधा-सादा आदमी। उसका अत्याधिक सीधापन जोगिन्दर कौर के जौलीपन को ओढ़ी हुई गम्भीरता की परत को तोड़कर अक्सर ही ऊपर ले आता था। मसलन, एक बार किसी दूसरी सीट पर बैठकर काम कर रही जोगिन्दर कौर ने उससे कहा—“कासना, मेरी मेज की ऊपरी दराज से स्केल निकालकर देना जरा।”

कासना ने दराज खोली और अच्छी तरह टटोलकर बोला—“मैडम, इसमें तो स्केल नहीं है!”

जवाब सुनते ही जोगिन्दर बोली—“कासना, तुझे अगर कोई बता दे कि तेरी घरवाली फलां कमरे में है, और उसमें वो तुझे दिखाई न दे तो तू दूसरे किसी भी कमरे में देखने उसे बिल्कुल नहीं जाएगा, मुझे यकीन है।”  

यह बात सुनते ही कासना खिसिया-सा गया। उसने मेज की दूसरी, फिर तीसरी दराज खखोड़ी और स्केल निकालकर मैडम को दे दिया। 


परसों, यानी 26 तारीख को आदित्य से मैंने कहा कि—“अमुक रैक के ऊपर से दूसरे खाने में परसाई समग्र रखा है। उसका भाग एक और दो उठा ला।”

वह गया और आकर बोला—“ऐसी कोई किताब वहाँ नहीं है।”

वही, ‘कासना’ वाला जवाब। वही, चिड़िया की आँख के अलावा इधर-उधर कुछ भी नहीं देखने की शिक्षा का परिणाम! 

वही, बाबा अल्ला मेहर द्वारा पेश अकबर-बीरबल के किस्से से अपरिचित रहने का परिणाम!

इस दोगली दुनिया में सफल होना है, तो ‘चिड़िया की आँख’ पर नहीं टिके रहना है। मतलब यह कि चिड़िया की आँख के तात्पर्य को समझकर अर्जुन भी बने रहना है और सूक्ष्म से विस्तार पाकर बीरबल भी बनना है।

28-2-2022/00:45

(चित्र साभार : गूगल)

फाँस / बलराम अग्रवाल

 बेतरतीब पन्ने-7


मेरी उम्र उन दिनों 18 के आसपास थी। यह वह उम्र होती है, जब बन्दा सोचता है कि दुनिया में उसकी भावनाओं को समझने वाला कोई नहीं है—न माँ, न पिता, न चाचा, न मामा… कोई नहीं। वह अकेला है, निपट अकेला। ऐसे में, अपनी झोली में वह अलादीन के जिन की तरह किसी ऐसे शख्स के आ गिरने की उम्मीद पाल बैठता है, जिससे वह अपनी समूची भावनाओं को साझा कर सके। 

मैं दावे से कह सकता हूँ कि वह जिन कल्पना नहीं, एक यथार्थ है और बहुत-से लोगों के दुख-दर्द साझा करने को उनकी झोली में आ बैठता है। कैसे? जिन लोगों के हाथ कागज, कलम और किताब लग जाते हैं, वो उन खुशनसीब लोगों में होते हैं जिनकी झोली में एक-दो नहीं, कितने ही हितैषी और सहायक जिन आ बैठते हैं। उनके साथ जितनी देर चाहो बैठे रहो। उनकी सुनो, अपनी सुनाओ। वो और आप साथ बैठे बतिया रहे हों तो सारी दीवारें बे-कान हो जाती हैं। कमरे से बाहर बात के निकल जाने का तिलभर भी डर नहीं। वैसे ही चंद खुशनसीबों में मैं भी शामिल हो गया था। किताबों के रूप में मुझे हातिमताई का गलीचा मिला हुआ था, जिस पर बैठकर, लेटकर, खड़ा होकर मैं जब भी, जहाँ भी चाहूँ चला जा सकता था। उसी गलीचे पर इस समय मैं बैठा हुआ यह सब लिख रहा हूँ। 

किशोरावस्था के उन्हीं दिनों, बुलन्दशहर जैसे थके-माँदे से शहर के पटल पर एक परी आ उतरी। नाम था प्यारी। बला की खूबसूरत। साड़ी डाले तब  खूबसूरत। सलवार-सूट डाले तब खूबसूरत। साढ़े पाँच फुटी। गोरी-चिट्टी। छरहरी। तीखे नयन-नक्श। काले घने बाल। एक चोटी बनाती थी हमेशा। चलते वक्त चोटी का चुटीला एक बार उसके दायें नितम्ब से टकराता था, दूसरी बार बायें नितम्ब से। गली-बाजार जिधर से वह मेनका निकलती बड़ी-बड़ी उम्र के विश्वामित्र काम-धाम छोड़ उसकी ओर देख उठते थे। रम्भाएँ भी उसके रूप पर रीझतीं। ढोलक की एक थाप सुनाई देते ही मुहल्लेभर के बच्चे-बूढ़े, औरत-मर्द सबके कान आवाज की दिशा में खड़े हो जाते। हाथ का काम और सामने रखी खाने की थाली को छोड़कर सब के सब उसी दिशा में दौड़ पड़ते थे। 

चार-पाँच सहेलियों की टीम थी उसकी। ढोलक बजाने वाले शख्स के अलावा सबकी सब नाचने-गाने, लहराने में माहिर। प्यारी उन सब में गजब की नृत्यांगना थी। बहुत बार उसका नाच देखने को मिला। ढोलक की हर थाप पर उसका अंग-अंग थिरकता था।

फिर एकाएक पता नहीं क्या हुआ कि वह टीम से अलग अकेली घूमती नजर आने लगी। हमारे मुहल्ले के भी आखिरी मुहाने पर आकर उदास-सी खड़ी हो जाती थी। मुझे उकसाने वाले तो आदरणीय अमृतलाल नागर सरीखे बहुत-से गणमान्य बुजुर्ग सिरहाने ही बैठे रहते थे। मन हुआ कि उससे बात करनी चाहिए। उसके विगत और वर्तमान के बारे में, इन दिनों की उदासी के बारे में विस्तार से जानना चाहिए। लेकिन यह आसान काम नहीं था। मुहल्ले के लोग उससे बतियाते देखेंगे तो पता नहीं क्या-क्या सोचेंगे! मन के ही दूसरे कोने में बैठे पथ-प्रदर्शकों ने चेताया।

बावजूद इस संकोच के, एक शाम, प्यारी जब मुहल्ले के उस मुहाने पर आकर खड़ी हुई, मैं उसके पास पहुँच गया। हाय, हलो हुई। मुद्दे से अलग इधर-उधर की एक-दो बातें हुईं। उसके बाद मेरे संकोच ने मुझे उसके निकट टिकने नहीं दिया। बातों को बीच में ही छोड़कर वापिस चला आया। लेकिन इस मुलाकात ने मुझमें अगली मुलाकात कर लेने का दम भर दिया। वह सब पूछ लेने का साहस जगा दिया, जो मैं उससे जानना चाहता था।

लेकिन अगली मुलाकात कभी हो न सकी। अगली कई शामों तक वह गली के उस मुहाने पर नहीं आयी। मैं बस इतना जानता था कि वह अमुक ‘सराय’ के आसपास वाले किसी मकान में रहती है। याद नहीं, लेकिन सम्भव है कि उसकी तलाश में उधर का एकाध चक्कर मैंने लगाया भी हो। पूछा किसी से नहीं था, यह तय है। आश्चर्य की बात यह थी कि उसके बाद आसपास के किसी गली-मुहल्ले में क्या, प्यारी बुलन्दशहर में ही कभी नजर नहीं आयी।

कहाँ चली गयी होगी? सुनने में आया था कि ‘इन लोगों’ में परस्पर शादियाँ भी करा दी जाती हैं। अच्छा-खासा दहेज लिया-दिया जाता है। यह बात कितनी सही है, कितनी गलत, नहीं मालूम; लेकिन प्यारी की उन दिनों की मन:स्थिति से यह अनुमान स्पष्ट लगा  सकता हूँ कि ‘इन लोगों’ में सुन्दर और नृत्य-निपुण ‘लड़कियों’ की खरीद-फरोख्त बड़े पैमाने पर होती होगी। प्यारी को पहला आघात ईश्वर ने दिया था—रूपवती मादा किन्नर के रूप में पैदा करके। कद-काठी, शारीरिक रख-रखाव की दृष्टि से यह निश्चित था कि वह किसी अच्छा खाते-पीते सभ्य परिवार की सन्तान थी। दूसरा आघात उसे उस सभ्य परिवार से मिला; और तीसरा आघात दिया उसकी सुन्दरता और नृत्य-निपुणता ने, आवाज की खनक ने। 

हमारे अनेक पूर्वज कथाकारों ने जिस संकोच को त्यागकर सामाजिक अन्वेषण कर ग्रंथ रचे, वैसा अन्वेषण मुझ जैसा संकोचों में बँधा कोई भी व्यक्ति कभी कर ही नहीं सकता। 

प्यारी से हुई वह पलभर की मुलाकात मुझ पर उसका कर्ज थी, जिसे इस रूप में उतारने का प्रयास आज कर रहा हूँ। वह अक्सर याद आती है। मुझे और उसे, काश, एक-दो और मुलाकातों का समय मिला होता। क्रांति को तब भी नहीं होनी थी, मैं जानता हूँ; लेकिन एक युवती (हाँ, उसे युवती कहकर ही सम्मानित करना चाहूँगा मैं) के मन की पीड़ा जो मेरे मन में 52 वर्षों से फँसी हुई है, बाहर निकल जाती। 26-2-22/00:45

(चित्र साभार : गूगल)

क्या काशी क्या ऊसर मगहर / बलराम अग्रवाल

बेतरतीब पन्ने-6

डीएवी इंटर कॉलेज यानी दयानन्द एंग्लो वैदिक इंटर कॉलेज। आर्य समाज के शिक्षा विंग ने एंग्लो वैदिक विद्यालयों की जरूरत महसूस की थी। यह उसका प्रगतिशील दृष्टिकोण था। शिक्षा के प्रति यही दृष्टिकोण भारतेंदु का भी था। 

मैंने बुलन्दशहर के डीएवी इंटर कॉलेज में शिक्षा ग्रहण की। वहाँ से बहुत-कुछ सीखा। मैंने सन् 1963 में वहाँ कक्षा छह में दाखिला लिया और बारहवीं पास करके वहाँ से निकला। उन दिनों नैतिक शिक्षा का भी एक पीरियड कक्षा आठ तक होता था जिसमें सभी धर्मों की शिक्षाओं और महान विभूतियों के बारे में बताने वाली एक पुस्तक भी पढ़ाई जाती थी। स्कूल का आधार क्योंकि ‘आर्य समाज’ था इसलिए उसके सिद्धांतों के बारे में अवश्य ही अधिक बताया जाता   था। आर्य समाजी विद्वान टीकाराम ‘सरोज जी’ वहाँ जूनियर कक्षाओं के लिए कला अध्यापक थे जो शायद उससे आगले वर्ष सेवानिवृत्त हो गये थे। विद्यालय में उनका बहुत सम्मान था। इस सम्मान का एक उदाहरण यह था कि 1966 में, विद्यालय के एक सांस्कृतिक  कार्यक्रम में धन एकत्र करने के उद्देश्य से, उनके हस्ताक्षर से युक्त एक कागज की बाकायदा बोली लगी थी और उनमें श्रद्धा रखने वाले एक छात्र ने उस कागज को 10 रुपये में खरीदा था। उन्हीं के चलते विद्यालय में शायद प्रतिमाह किसी भी रविवार को अथवा छुट्टी के दिन यज्ञ का आयोजन भी किया जाता था। उसकी घोषणा इस उद्देश्य से कि इच्छुक विद्यार्थी स्वेच्छा से आकर उसमें भागीदारी कर सकें, सार्वजनिक श्यामपट पर लिखी जाती थी। अनेक अध्यापकगण और विद्यार्थी उसमें सम्मिलित होने जाते भी थे। इसी के साथ एक चलन और था। वसंत पंचमी जैसे कुछेक विशेष पर्वों पर ‘यज्ञोपवीत’ संस्कार भी किया जाता था। इस कार्य के लिए आर्य समाज के किन्हीं संत को विद्यालय में बुलाया जाता था। 

घर के धार्मिक वातावरण के कारण मेरी रुचि ‘यज्ञोपवीत’ में जागी। क्यों जागी? इसलिए कुछ अनुशासनहीनताएँ मुझमें थीं। मसलन, पिताजी की जेब से पैसे पार कर लिया करता था; कक्षा छोड़कर पूरे-पूरे दिन इधर-उधर घूमता था और शाम को नियत समय पर घर पहुँच जाता था आदि-आदि। मुझे लगा कि यज्ञोपवीत धारण करने के बाद जीवन में स्व-अनुशासन आएगा। मुझे याद है कि जिन दिनों मैं सातवीं में था, वसंत पंचमी के दिन ‘यज्ञोपवीत’ संस्कार का नोटिस श्यामपट पर लिखा गया। मैंने घर पर तो कुछ नहीं कहा; लेकिन यज्ञोपवीत दीक्षा के लिए नियत समय पर विद्यालय जा पहुँचा। और भी कई लड़के आये हुए थे। हम सबको संत जी के सामने उपस्थित किया गया। 

यहाँ एक बात और बताता चलूँ। घर में भाई-बहनों में सबसे बड़ा मैं ही था। मुझसे बड़े मेरे छोटे चाचा जी थे। जो पैंट उनके मन से उतर जाती थी, पांयचों से घिस जाती थी, दर्जी को बुलाकर उसमें से मेरे नाप की नयीं पैंट निकलवा दी जाती थी। कोट भी इसी तरह मिलता था। मेरे जो कपड़े छोटे हो जाते थे, वे छोटे भाईयों के काम आते थे और अन्त में, जब वे किसी के भी लायक नहीं रह जाते थे, उनके बदले बर्तन खरीद लिये जाते थे। मतलब यह कि घर में जो कपड़ा आ गया, नीबू की तरह हम उसे पूरा निचोड़ते थे। यही हाल किताबों का भी था। वे बस एक ही बार खरीदी जाती थीं; फिर पुश्त-दर-पुश्त कई-कई साल तक कई-कई भाई-बहनों को अगली कक्षा में पहुँचाती रहती थीं। रद्दी में सिर्फ कापियाँ बेची जाती थीं, किताबें नहीं।

तो उस दिन जैसे ही मैं संत जी के सामने उपस्थित हुआ, उन्होंने कहा—“यह यज्ञ में हिस्सा नहीं ले सकता, इसने फुल पैंट पहना हुआ है।”

मैं हतप्रभ! अगर ऐसी बात थी तो श्यामपट पर लिखवा देना था। फुल पैंट 10-20 तो थे नहीं, जैसे-तैसे वह एक ही था। मेरे लिए तो पाजामा पहनकर आना ही अधिक सुविधाजनक और आसान था। दूसरी बात यह कि फुल पैंट का पहना जाना यज्ञोपवीत संस्कार की अयोग्यता का कारण क्यों? रहन-सहन और पहनावे को लेकर ऐसी कट्टरता कभी भी मेरे मन में नहीं रही।

हालांकि कबीर को तब तक उतना पढ़ा नहीं था, लेकिन नैसर्गिक कबीर अन्तर में धूनी रमाए बैठा था, ऐसा आज मुझे लगता है। कबीर ने कहा—क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा।

जो कासी तन तजै कबीरा, रामै कौन निहोरा॥ यानी हृदय में यदि राम होने के बावजूद काशी जाकर प्राण त्यागने पड़ें तो फिर राम का मुझ पर क्या अहसान; क्योंकि काशी में मरने वाले तो आस्तिक-नास्तिक सबको वैसे ही स्वर्ग मिलता है और मगहर में मरने वालों को नरक! इसलिए मैं मगहर में ही प्राण त्यागकर इस पाखण्ड को दुनिया से मिटाऊँगा।

उस दिन ‘संतों’ की सोच में जो जड़ता महसूस की, वह हट नहीं सकी। उस दिन के बाद यज्ञोपवीत का विचार कभी भी मन में नहीं आया। यही निश्चय किया कि मैं बिना यज्ञोपवीत के भी अपने अनुशासन में रह सकता हूँ; और मैं रहा भी।

लापरवाही : तेरा ही आसरा/बलराम अग्रवाल

 बेतरतीब पन्ने-5


इस संस्मरण को मैं किसी मर्यादा के तहत नामरहित लिख रहा हूँ।  

मेरे एक घनिष्ठ मित्र थे जो गाजियाबाद के निवासी थे और नौकरी के सिलसिले में बुलंदशहर के एक मुहल्ले में किराये पर मकान लेकर रहते थे। मित्र थे, लेकिन उम्र में इतने बड़े कि मैं जब 12वीं कक्षा का छात्र था, तब तक उनका विवाह हो चुका था और 1975-76 तक वह तीन बच्चों के पिता बन चुके थे। वह मुझे नैतिक और आध्यात्मिक बहुत-सी बातें सिखाया और समझाया करते थे, इस नाते मेरे गुरु भी थे, हितैषी भी थे और बड़े भाई भी थे। 1976 में उनकी ही सिफारिश पर एक जगह मुझे नौकरी करने का अवसर मिला था। वह एक अस्थाई पद था जोकि सिर्फ 6 माह के लिए था। 

संस्थान में सभी मेरे और उनके बीच के भाईचारे से परिचित थे। एक दिन हुआ यह कि वे काम पर नहीं आए। हमारे एक प्रौढ़ सहकर्मी ने, जो उनके ही मोहल्ले के निकट रहते थे, उनकी पत्नी के हवाले से मुझे बताया कि किसी बात पर नाराज होकर वह सुबह-सुबह घर से निकल गए हैं। 

मुझे उनकी चिंता हुई। यह भी चिंता हुई कि तीन-तीन बच्चों के साथ अकेली भाभी जी कैसे उन्हें तलाश करेंगी! 

शाम को छुट्टी होने के बाद मैं सीधा उनके घर पहुंचा। पता चला कि खुले स्वभाव की होने के कारण भाभी जी मोहल्ले के 1-2 युवकों से हँस-बोल लेती थीं। यह हँसना-बोलना मोहल्ले की परंपरावादी सोच के एकदम खिलाफ था। परिणाम यह हुआ कि मोहल्ले की औरतों के बीच भाभी जी 'चरित्रहीन' के रूप में चर्चित हो गईं। यह चर्चा भाभीजी के कानों में भी पड़ी, और प्रतिक्रिया स्वरूप उन्होंने उन औरतों की ओर देख-देख कर उन युवकों से हंसना-बतियाना शुरू कर दिया। इससे वे इतनी भड़कीं कि मोहल्ले के पुरुषों ने एकजुट होकर एक दिन भाईसाहब को समझाया कि वह 'पत्नी की लगाम को जरा  कसकर रखें'। आगे, इसी मुद्दे पर, मोहल्ले से काफी दूर रहने वाले उनके मकान मालिक द्वारा दबाव डलवाया गया कि वे मकान खाली कर दें। 

इस प्रकार, एक सीधे-सादे, चरित्रवान और इज्जतदार इंसान के सम्मान की धज्जियाँ एक तरफ की नासमझी और दूसरी तरफ की जिद के कारण मोहल्ले से लेकर दफ्तर तक उड़ गईं।

तो, बात चल रही थी भाईसाहब के नाराज होकर सुबह-सुबह घर से निकल जाने की। मिलने पर भाभी जी ने कहा--"अफसोस की बात यह है कि मोहल्ले वालों की बातों में आकर ये भी शक करने लगे हैं! तुझे नहीं मालूम, साइकिल उठाकर  किसी न किसी बहाने दोपहर को एक चक्कर घर का लगाने लगे हैं।" 

मैं चुपचाप उनकी बातें सुनता और भाईसाहब की शंकालु दृष्टि पर कुढ़ता रहा। भाभी जी ने शंका जताई कि भाईसाहब उनकी शिकायत लेकर गाजियाबाद उनके भाई के पास गए होंगे। रात धमकी दे रहे थे कि तेरे (भाभी जी के) भाई को लेकर ही लौटूँगा। बहुत मुमकिन है कि रात को न लौट पाएँ। 

मोहल्ले में उनके विरुद्ध तनावपूर्ण वातावरण था। इस डर के कारण कि मोहल्ले के लोग उन्हें अकेली जानकर झगड़ा-फसाद न करने लगें, बच्चों की और अपनी सुरक्षा के मद्देनजर उन्होंने मुझसे अनुरोध किया--"भैया, माताजी- पिताजी से कहकर रात को सोने के लिए आ जाना।" 

हमारे बीच अच्छे पारिवारिक संबंध थे, इसलिए मैंने कहा कि वे बिल्कुल ना घबराए, ट्यूशन्स से मुक्त होकर  9-10 बजे तक मैं पहुँच जाऊँगा।

और, गजब की बात यह हुई कि भाभी जी को दिया हुआ अपना आश्वासन मुझे अगली सुबह उस समय याद आया जब ऑफिस जाने के लिए मैं अपनी साइकिल बाहर  निकाल रहा था। मुझ जैसा लापरवाह व्यक्ति किसी की भी हिफाजत नहीं कर सकता--मैंने मन ही मन अपने-आप को कोसा, खूब-खूब धिक्कारा। इस धिक्कार को मनोमस्तिष्क पर लादे-लादे चेतनहीन मशीन की तरह साइकिल के पैडल नीचे-ऊपर करता मैं ऑफिस जा पहुँचा। जैसे ही सीट की ओर बढ़ा, भाईसाहब अपनी सीट पर बैठे दिखाई दे गए! मैंने सोचा कि नाराजगी के चलते गाजियाबाद से लौटकर घर जाने की बजाय सीधे ऑफिस ही न आ गए हों। लेकिन उस समय उनसे कुछ कहना-पूछना उचित नहीं था। वह और मैं अपने-अपने काम में लग गए। लंच के समय हम दोनों एकांत में बैठे। 

पूछने पर, भाईसाहब ने भी वही कहानी दोहराई जो भाभी जी ने बताई थी। अंतर यह था कि भाईसाहब मोहल्ले के मगरमच्छों से वैर मोल लेना उचित नहीं समझते थे और भाभी जी थीं कि सीता माता की तरह आग के आर-पार जाने का रास्ता अख्तियार करने पर  अड़ी थीं। 

"आप गाजियाबाद गये थे?" मैंने पूछा।

"नहीं।" उन्होंने कहा।

"कहाँ गये थे फिर?"

"घर से निकलकर कुछ देर इधर-उधर भटका," उन्होंने बताया, "फिर सिनेमा हॉल की ओर बढ़ गया। सुबह 9 से 12 वाले शो से लेकर रात के 9 से 12 वाले शो तक सभी शो देखता रहा।"

"उसके बाद?"

"रात एक बजे घर पहुँच गया।" वह बोले, "बच्चे सो चुके थे लेकिन कमला जाग रही थी।"

मैंने मन ही मन अपनी आँखें मूँदी और परमात्मा की ओर हाथ जोड़े--मुझमें आपने कूट-कूट कर लापरवाही न भरी होती तो कल रात अनजाने संदेह के घेरे में आ सकता था मैं। मददगार की बजाय विश्वासघाती मुजरिम के कठघरे में खड़े रहना पड़ता उम्रभर।

1976 के बाद, कल पहली बार यह घटना मीरा को बताई थी, नाम छिपाये बिना, यथार्थ रूप में।

साहित्य से नाता न जुड़ता तो…/ बलराम अग्रवाल

 बेतरतीब पन्ने-4


विद्यालयों में उन दिनों शैक्षिक सत्र 20 मई को परीक्षा परिणाम घोषित करने के साथ ही समाप्त होता था। उसके बाद 30 जून तक छुट्टियाँ। इस बीच हमें ननिहाल आदि अनेक जगहों पर घुमाने के लिए लेजाया, भेज दिया जाता था।  1963 में पाँचवीं कक्षा पास करके मैं छठी में प्रवेश के लिए सक्षम हुआ। बुलन्दशहर के राजकीय इण्टर कॉलिज और डीएवी इण्टर कॉलिज में प्रवेश हेतु परीक्षाएँ दीं। राजकीय इण्टर कॉलिज में नम्बर नहीं आ सका, डीएवी में आ गया। राजकीय इण्टर कॉलिज उन दिनों अनुशासन के और डीएवी इण्टर कॉलिज  गुंडई-लफंगई के लिए ख्यात- कुख्यात थे। शहर में अन्य तीन और इण्टर कॉलेज थे—मुस्लिम इण्टर कॉलेज, शिवचरण इण्टर कॉलिज और शर्मा इण्टर कॉलिज। इन तीनों का नाम न अनुशासितों में था न गैर-अनुशासितों में। जिन्हें उपर्युक्त दोनों में प्रवेश नहीं मिलता था, उन्हें इन तीनों में से किसी भी एक में अवश्य मिल जाता था। इनका हाल क्या था! उदाहरण के लिए एक वाकया सुनाता हूँ— 

विज्ञान के ही दूसरे सेक्शन में पढ़ने वाला मेरा एक मित्र कक्षा ग्यारह के परीक्षा परिणाम के बाद स्कूल में दिखाई ही देना बन्द हो गया। इतनी गहरी भी मित्रता नहीं थी कि उसके बारे में इधर-उधर पूछते, तलाश करने उसके मुहल्ले में जाते। नये सिरे से अपनी पढ़ाई और खेल-कूद में लग गये। बारहवीं बोर्ड के परीक्षा-परिणाम के बाद एक दिन अचानक बाजार में उससे मुलाकात हो गयी। उसने बड़े उत्साह से हाथ मिलाया। पूछा, “क्या हुआ बलराम, तू तो दिखाई ही देना बंद हो गया?”

ये लो!—मैंने मन में सोचा—ये साला खुद गायब है और तोहमत मुझ पर लगा रहा है!!

“तू भी दिखाई नहीं दिया पूरे साल!” मैं बोला।

“हाँ,” उसने कहा, “मैं दरअसल ग्यारहवीं में फेल हो गया था यार!”

“ओह!” मेरे मुँह से निकला।

“पिताजी ने खाल उधेड़कर रख दी।” वह बोला, “हम बाजार में खड़े हैं इसलिए दिखला नहीं सकता। घर पर होते तो दिखलाता—चूतड़ अभी तक लाल हुए पड़े हैं उस मार से।”

“फिर?” मेरे पूछने का मतलब था, उसके बाद क्या हुआ।

“पिताजी ने अपनी जान-पहचान के एक कॉलिज से ग्यारहवीं पास की टी॰सी॰ कटवाई और बारहवीं कक्षा में शर्मा इण्टर कॉलिज में दाखिल करा दिया।” उसने कहा; फिर पूछा, “तूने भी तो बारहवीं का ही एग्जाम दिया होगा इस बार?”

“हाँ।”

“क्या रहा?” 

“कम्पार्टमेंट आयी है यार।” मैंने मुँह लटकाकर कहा; हालाँकि फेल हो गया था। यह सन् 1970 की बात है।

“तू सुना, तेरा क्या रहा?” मैंने उससे पूछा।

“हिस्ट्री बना दी, इतिहास रच दिया तेरे यार ने यार!” वह प्रफुल्लित स्वर में बोला, “टॉप कर दिया शर्मा इण्टर कॉलिज को।”

“अरे वाह!” मेरे मुँह से एकाएक निकला, “कितने नम्बर आए?”

“नम्बर तो कम ही हैं यार, ” उसने कहा, “सेकेंड डिवीजन आयी है; लेकिन… पिताजी बहुत खुश हैं।”

"नम्बर कितने आए?" मैंने पुन: पूछा तो उसने प्राप्तांक बताये। वे मेरे अनुत्तीर्ण के प्राप्तांक से दो-चार कम ही थे। मैं फेल क्यों हुआ, इस पर बाद में कभी लिखूँगा।

“सिकाई नहीं की फिर पिछले साल की पिटाई वाली जगहों पर पिताजी ने?” मैंने मजाक में उससे कहा और हम दोनों हँस पड़े। 

बारहवीं पास करने के बाद उसने खुर्जा के पॉलिटेक्नीक विद्यालय में पढ़ाई की और इंजीनियर हो गया। उसके परिवार वाले शिक्षित और   दूरदर्शी थे। उन्होंने रोजगार केन्द्रित शिक्षा की ओर ध्यान दिया। हम, अशिक्षित और  दृष्टिहीन थे। बी एससी, एम एससी, बीटीसी, बी एड के अलावा कुछ जानते ही नहीं थे। ये ऐसी लुभावनी डिग्रियाँ थीं जो बहुत ऊँचे सपने दिखाती थीं। उच्च-स्तरीय रहे तो ठीक; सामान्य विद्यार्थी रहे तो रोजगार की दिशा में पेट के बल रगड़ते-घिसटते जाने को खुरदुरी सड़कें मौजूद थीं ही। अगले साल यानी 1971 में बारहवीं पास करके मैंने बी एससी में प्रवेश लिया और बेरोजगारों की लाइन में लग गया। लाइन में क्या लगा, 1972 से 1977 तक के पाँच साल हर तरह की दरिद्रता और अपमान के भोगे। जूते ही नहीं घिसे, एड़ियाँ भी फट गयीं। अवसाद के व्यूह में मन घिर गया। गनीमत यह रही कि साहित्य से नाता जुड़ गया और जुड़ा ही रहा। साहित्य से नाता न जुड़ता तो…  निश्चित ही अवसाद हावी हो गया होता। किसी भी तरह की 'गॉडफादरशिप' से अनभिज्ञ और अछूता मैं क्या कर रहा होता? बेशक, पकौड़े ही बना और बेच रहा होता।

पत्रकारिता की खुजली वाले दिन और दैनिक बरनदूत /बलराम अग्रवाल

 बेतरतीब पन्ने-3


‘बरनदूत’ में दैनिक सामान्य पाठक की रुचि के मद्देनजर ‘आज का राशिफल’ और एक व्यंग्य कॉलम की शुरुआत की ताकि समाचारों के अलावा भी उसको कुछ मिलता रहे। ‘राशिफल’ लिखना लेशमात्र भी मुश्किल काम नहीं था। सालभर पहले के किसी अखबार में छपा राशिफल कम्पोजिटर को पकड़ा दिया जाता था। उसमें कलाकारी सिर्फ इतनी करते थे कि मेष का राशिफल वृष के, वृष का राशिफल मिथुन के, मिथुन का राशिफल कर्क के… नाम से कमोज करने को कह दिया जाता था। कुछ दिन बाद ही शास्त्री जी बताते लगे—“अग्रवाल जी, बाजार में कई व्यापारियों ने मुझसे कहा है कि आपके अखबार का राशिफल बड़ा एक्यूरेट आता है, कौन-से पंडित जी से लिखवाते हैं!” यों कहकर वह जोर से हँसे और मेरी हथेली से हथेली टकराई। ‘बरनदूत’ में छपे व्यंग्य भी जब पॉपुलर होने लगे, तब शिवकुमार शास्त्री एक दिन बोले, “बलराम भाई, व्यंग्य के कॉलम को क्यों न ‘ॠतुराज’ नाम से छापा जाए!” 

वह ‘ॠतुराज’ नाम से छिटपुट कविताएँ लिखा करते थे और प्रेस चलाने की टेंशन के चलते उन दिनों कुछ भी लिख नहीं पा रहे थे। मैं समझ गया कि ऐसा प्रस्ताव रखकर दरअसल वह अपनी जान-पहचान के स्थानीय पाठकों के बीच यह प्रदर्शित करना चाहते हैं कि व्यंग्य का कॉलम उनके द्वारा लिखा जा रहा है। लेकिन समझ जाने के बावजूद मैंने मना नहीं किया, सहमति दे दी। कारण, मैं अपनी क्षमताओं को पहचानता था और मुख्यत: लघुकथा में ही आगे बढ़ना चाहता था। यही नहीं, व्यंग्य के विस्तार की समझ से मैं अपरिचित भी था। नवम्बर 1977 में केन्द्र सरकार की नौकरी में चला गया तो ‘बरनदूत’ को सक्रिय सहयोग बंद कर देना पड़ा। मेरे बाद वहाँ के॰ पी॰ सिंह आ गये जो बाद में मेरी ही तरह पोस्ट ऑफिस में नियुक्ति पा गये और ‘बरनदूत’ उनसे भी छूट गया। के॰ पी॰ सिंह के बाद प्रमोद कुमार झा बाकायदा नियुक्त होकर आए और लम्बे समय तक वहीं जमे रहे। वहीं रहते उनका विवाह हुआ। विवाह के बाद एक अलग संघर्ष में उनको उतर जाना पड़ा। दिल्ली में यातनापूर्ण दिन बिताने पड़े। कलम का धनी पत्रकार होते हुए भी समर्थ लोगों से जानकारी के अभाव में खारी बावली में पल्लेदारी करके जीविका कमानी पड़ी।

खैर, बुलन्दशहर छूट जाने के कई साल बाद गाजियाबाद के एक कार्यक्रम में शास्त्री जी मिल गये थे। बोले, “बलराम भाई, अखबार के लिए सामग्री का बड़ा अभाव रहता है, सो बात तो अलग है; मुख्य बात यह है कि आज भी अदल-बदलकर हम आपके लिखे व्यंग्यों को छाप लेते हैं।” 

मैंने इस सूचना में कोई दिलचस्पी नहीं ली। एक बार भी उनसे नहीं कहा कि ‘बरनदूत’ की प्रति भिजवा दिया करो। क्योंकि मैं ‘बरनदूत’ में लिखे-छपे अपने व्यंग्यों की कमजोर वास्तविकता से तब भी परिचित था और आज भी हूँ। वस्तुत: जिन लोगों में कुछ लिखने के जरिए नाम कमाने की जिजीविषा रहती है, और जो धनेच्छा भी नहीं छोड़ पाते हैं, आश्चर्य नहीं कि वो अन्तत: परजीवी हो जाते हों। शास्त्री जी बेशक मेरे लिखे व्यंग्यों को बार-बार छापते रहे होंगे लेकिन अपने ही छद्मनाम ‘ॠतुराज’ से। गत दिनों पता चला कि कुछ माह पूर्व उनका देहांत हो गया। ईश्वर उनकी आत्मा को सद्गति प्रदान करे।

अनेक लेखकीय नामों को अपनाते-छोड़ते अन्तत: लगा कि मूल नाम का कोई विकल्प नहीं, इससे बेहतर कोई ऑप्शन नहीं; और इसी पर ही आ टिके। 

अब 2022 में पुन: इस नाग ने फन उठाया है। उसके दबाव में कई बार मन बनाया है कि कोई लेखकीय नाम रख ही लिया जाए। क्यों? मन शायद एक बार फिर इस सचाई को मानने लगा है कि बलराम से मुक्ति का अर्थ एक दम्भ से मुक्ति का नाम है। अत: इस नाम से वह भागने-सा लगा है। मानने-सा लगा है कि मूल नाम को लेखक बने रहने का अधिकार नहीं है। मूल नाम पर बेहद लापरवाह, डरपोक और आलसी; घर-परिवार के मोह में फँसा रहने वाले आदमी के ग्रह-नक्षत्र हावी हैं। उस पर परिवार की घर-घुस्सू यानी संकुचित परम्परा का अधिकार अधिक है, मुक्त परम्परा का कम। 

अगर यह सच है तो क्या रखा जाए नया नाम? वह, जो मुक्त परम्परा का पर्याय हो और मूल नाम के अधिक निकट भी—बल्लू बलराम! नहीं। इसमें साहित्यिकता की झलक नहीं है। यह लेखक का कम, किसी पिटे हुए क्रिकेटर के नाम का आभास अधिक देता है। इससे अच्छा तो ‘चन्ना चरनदास’ था जो अब नहीं रखा जा सकता। तो फिर मकरंद रखा जाए यानी मधु! जोकि गत लगभग 15 से भी अधिक साल से मुझमें मेह-सा बरसता है, बसता है—मधुमेह! क्या रखा जाए… क्या रखा जाए… क्या रखा जाए…? मंथन नहीं, बेचैनी है जो जारी है।