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सितम्बर 2017 को डॉ॰ रूपसिंह चन्देल ने अपनी फेसबुक वॉल पर लिखा था—
बलराम
अग्रवाल हिन्दी लघुकथा साहित्य के लिए समर्पित शीर्षस्थ लघुकथाकार हैं। उन्होंने
अनेक अच्छी कहानियाँ भी लिखी हैं। मैंने 2014 में अपने द्वारा सम्पादित ’कथाबिंब’ के कहानी विशेषांक में
उनकी कहानी प्रकाशित की थी और उनके दो कहानी संग्रह भी हैं। लेकिन इस लेखक की
विनम्रता और विशेषता यह है कि वह अपने को लघुकथाकार ही मानते हैं। 2015 के
विश्वपुस्तक मेला में मेरे द्वारा उनके नवीनतम लघुकथा संग्रह ’पीली पंखों वाली तितलियां’ का लोकार्पण संग्रह के प्रकाशक राही प्रकाशन के स्टॉल
में हुआ था। यह पुस्तक लंबे समय से समीक्षा के लिए मुझे उकसा रही है, लेकिन तमाम
कारणों से लिख नहीं पाया। आज संकल्प के साथ इसे सामने रख लिया कि जल्दी ही समीक्षा
लिखना है।
बलराम
अग्रवाल को लोकार्पण के समय बधाई दी ही थी अब पुनः बधाई.
और अब
प्रस्तुत है डॉ॰ रूपसिंह चन्देल द्वारा लिखित ‘पीले पंखोंवाली तितलियाँ’ की
समीक्षा…
बलराम
अग्रवाल बहु-आयामी प्रतिभा के धनी साहित्यकार हैं. कहानी,लघुकथा साहित्य, बाल साहित्य, यात्रा
संस्मरण के साथ उन्होंने अनेक विदेशी रचनाओं के अनुवाद किए हैं. लघुकथा साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने उल्लेखनीय कार्य किए हैं. एक विशेष बात यह कि उन्हें इस विधा से इतना प्रेम है कि अपनी पी-एच. डी.
के लिए उन्होंने लघुकथा साहित्य का ही चुनाव किया. वह एक प्रयोगधर्मी लघुकथाकार हैं और उनकी एक विशेषता यह भी है कि वह अहिर्निश हिन्दी लघुकथा के विकास के लिए चिन्तित रहते हैं. कहानी की दुनिया में कई महत्वपूर्ण कहानियां देने वाले व्यक्ति का एक खास विधा के प्रति लगाव यह स्पष्ट करता है कि वह उस विधा को कितनी गहनता के साथ जीता है. आज जब लघुकथा के नाम पर बहुत कुछ कबाड़ प्रकट हो रहा है उस कठिन दौर में बलराम अग्रवाल के लघुकथा संग्रह ’पीले पंखों वाली तितलियां’ का प्रकाशन एक सुखद अनुभूति देता है. संग्रह में छियानबें लघुकथाएँ हैं.
बलराम
अग्रवाल की लघुकथाओं में विषय वैविध्य है. समाज की विद्रूपताओं, कुरीतियों, शोषण, दमन, आतंक आदि विभिन्न विषयों के साथ व्यवस्था,राजनीति आदि पर उन्होंने सार्थक लेखन किया है. ’कुंडली’ दहेज समस्या को बहुत ही खूबसूरती से अभिव्यक्त करती है. ‘ब्रह्म-सरोवर के कीड़े’ ब्राह्मणवाद पर करारी चोट प्रस्तुत करती है.
‘सुन्दरता’
सौन्दर्यबोध को परिभाषित करती एक उल्लेखनीय लघुकथा है. ‘आखिरी उसूल’ बलात्कार पीड़िता की पीड़ा और पुलिस की निष्क्रियता को उघाड़ती है. पीड़िता की शिकायत का संज्ञान न लेते हुए थानेदार धमकाने वाले अंदाज में लड़की का कंधा दबाते हुए कहता है, “जो हो चुका, उस पर खाक डालो—हर काम, हर धंधे का पहला और आखिरी सिर्फ एक ही उसूल है—लड़ो किसी से नहीं.” थानेदार उस लड़की को बिकाऊ सिद्ध करने पर तुला है तो कोठा चलाने वाली उसकी संरक्षक
‘मौसी’ भी उसे चुप रहने की सलाह देती है. ‘सियाही’ एक मार्मिक कथा है, जहाँ अखबार में लपेटकर रोटी न देने का अनुरोध करता बेटा माँ से कहता है कि अखबार की सियाही से वह परेशान नहीं; बल्कि उसकी ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता. जाता है—लूट,खसोट, बलात्कार,
हत्या जैसे समाचारों की ओर. यह लघुकथा समाज और व्यवस्था पर तो सटीक प्रहार है ही, आजकल के समाचार-पत्रों की दायित्वहीन भूमिका पर भी
टिप्पणी प्रस्तुत करती है.
डॉ॰ रूपसिंह चन्देल |
बलराम
अग्रवाल समाज की तमाम समस्याओं को लेकर ही अपनी चिन्ता व्यक्त नहीं करते, वह संबन्धों को भी शब्द देते हैं. मां-बेटे के प्रेम को केन्द्र में रखकर लिखी गई एक उल्लेखनीय रचना है ’तुम्हारी आंखों में बेइंतहा कशिश है’. ’आदमी और शहर’ किस्सागोई शिल्प में एक अद्भुत लघुकथा है. एक गांव के पाँच शिक्षित बेरोजगार मित्रों
को माध्यम बनाकर बुनी गयी यह लघुकथा गांव और शहर के जीवन पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी है. जंगल के रास्ते शहर जाते मित्र जंगल में शेर की दहाड़ सुन भयभीत हो गए और बिछड़ गए. जब मिले तो उनमें एक सब इंस्पेक्टर का उक्त कथन उल्लेखनीय है—“आज तक मैं समझता रहा कि उस दिन डरकर भाग गए मेरे सभी दोस्त जिन्दा होंगे. वे मुझे ढूँढ़ रहे होंगे…… काश, वे समझ पाते कि भूख के दिनों में आदमी की पहली जरूरत चौकन्ना रहना और धीरज से काम लेना है, जानवर बन जाना नहीं.” गंभीर व्यंग्य छुपाए यह लघुकथा गाँव के आदमी के शहर पहुँचकर जानवर बन जाने की प्रच्छन्न कथा है.
“गरीब-घरों में बर्तन माँजे नहीं जाते मेरे बच्चो, खनकाए जाते हैं, पड़ोसियों को यह जताने के लिए कि घर के सब लोग खा-पी चुके, अब बरतन मँज रहे हैं.” बलराम अग्रवाल की एक और अंदर तक हिला देने वाली लघुकथा है ‘मन की मथनी’. इस एक लघुकथा से ही स्पष्ट है कि गाँव और गरीबी की पीड़ा को
उन्होंने किस हद तक देखा-परखा है और वे किस हद तक अभी भी उनके मानस में जिंदा हैं।
लेखक
की रचनाओं में उत्कृष्ट भाव-प्रवणता मिलती है. ‘मां नहीं जानती फ्रायड’ इसका उदाहरण है. ‘दहशतगर्द’ आज के समय की वास्तविकता व्यक्त करती है. “ईश्वर का भी मान-अपमान होता है! यह तो पहली ही बार सुन रही हूं मैं.” ‘मान-अपमान’ की बुजुर्ग महिला का यह कथन अलग-अलग सम्प्रदायों और समुदायों में बँटे धार्मिकों के लिए
भी विचारणीय है. लेखक के पास खूबसूरत भाषा है. ‘गरीब का गाल’ से एक उदाहरण देखिए – “मोमबत्ती को जलाने के लिए कोई जैसे अंधेरे कमरे में माचिस की डिब्बी को टटोलता है, वैसे ही गत रात पढ़े शब्दों को वह अपने जेहन में टटोलने लगा.”
‘बिना
नाल का घोड़ा’ बलराम अग्रवाल की कालजयी रचना है और हिन्दी की उत्कृष्टतम लघुकथाओं में एक. बलराम अग्रवाल की अनेक रचनाओं में सरकारी तंत्र के साथ नव-पूँजीवादी वर्ग को विषयवस्तु बनाया गया है. ‘सरकारी अमला’ में एक पात्र, जिसपर सरकारी कार्य में बाधा पहुँचाने और कर्मचारी पर हमला करने का आरोप है, मजिस्ट्रेट के समक्ष कहता है—“मैं भला राजनीति क्यों करूँगा…. राजनीति में तो सड़क से संसद तक सब चोर हैं.” तो ‘पराकाष्ठा’ लघुकथा नव-धनाड्यों के अमानवीय हो चुके चेहरों को बेनकाब करती है, जहाँ किसी सोसाइटी की आर डब्ल्यू ए वहाँ के निवासियों से इस अधिकार को छीन लेती है कि वे अपने फ्लैट्स में गमले नहीं सजा सकते. सजाना ही है तो कृत्रिम फूल,पौधे या लताएं सजाएं. हम प्रायः सुनते हैं कि कई सोसाइटी में कुत्ते-बिल्ली पालने पर प्रतिबन्ध होता है—निश्चित ही समाज की इन विसंगतियों पर पाठकों का ध्यान खींच इस नवीन दुनिया के अमानवीय चेहरे को बेनकाब करने का स्तुत्य कार्य लेखक ने किया है. उसके पास न केवल दृष्टि है बल्कि अपनी बात को कहने का साहस
और कला भी है।
बलराम
अग्रवाल की लघुकथाएँ जिस सामाजिक यथार्थ को चित्रित करती हैं वह इतना क्रूर है और इतना परिचित कि हमें प्रतीत होता है कि रचनाओं में अभिव्यक्त विषयवस्तु हमारे निकट, बिल्कुल आसपास ही है. यह सच भी है और यही किसी भी कथाकार की सफलता भी है.
‘आदमी
का बच्चा’ में एक खदान मजदूर अपने नवजात बच्चे के विषय में जानने के लिए पंडित जी के पास जाता है. जेब में रुपए पहुँचते ही पंडित जी पंचांग विचारने का नाटक करते हैं. इस नाटक का लेखक ने जो वास्तवित विवरण प्रस्तुत किया वह अद्भुत है. पंडित जी की घोषणा से मजदूर आशंकित होता है और अंततः पंडित की ऊंची भविष्य वाणी से परेशान वह कह उठता है, “सुभ-सुभ बोलो पंडित जी! किसी कुत्ते का नहीं, इस आदमी का बच्चा है वो---“ और वह आदमी एक खदान मजदूर है. उसका बच्चा बड़े ओहदे का स्वामी कैसे हो सकता है. इस लघुकथा का व्यंग्य इतना धारदार है वह पाठक को विचलित कर देता है. यह रचना हमें कटु यथार्थ से परिचित करवाती है और पंडितों के छद्म को भी उजागर करती है. संग्रह में कई ऎसी रचनाएँ हैं जहाँ लेखक मनोरंजक चुटकी लेता प्रतीत होता है लेकिन उस चुटकी में कितनी विद्रूपता व्याप्त है, यह रचना को पढ़ने के बाद ही स्पष्ट होता है. ‘तिरंगे का पांचवां रंग’ में यह प्रतिभाषित है. ‘बीती सदी के चोंचले’ में लेखक धर्मान्धता पर एक इमाम के माधयम से महत्वपूर्ण संदेश देता है.
‘हाय’
पुलिस तंत्र की कर्तव्यहीनता को उजागर करती है. बाल मनोविज्ञान पर भी लेखक की गहरी पकड़ है. शायद यही कारण है कि उन्होंने बाल-एकांकी और नाटक लिखे हैं. बाल साहित्य एक कठिन विधा है, लघुकथा साहित्य से भी अधिक कठिन. ‘पीली पंखोंवाली तितलियाँ’ बाल-मनोविज्ञान की एक उल्लेखनीय लघुकथा है. बलराम अग्रवाल के स्वभाव की विनोदप्रियता से मैं परिचित हूँ: लेकिन यह बात अचम्भित
करती है कि उनकी अनेक लघुकथाओं में व्यंग्य इस विनोदप्रियता के माध्यम से ही दर्ज हुआ है। ‘गे
नहीं थे वे’ और ’गे भी थे वे’ में इसका सफल प्रयोग दिखाई देता है. ‘हवाएं बोलती हैं’ एक प्रयोगात्मक लघुकथा है. कश्मीर समस्या केन्द्र में है जिसमें लेखक ने भिन्न दृष्टिकोण से ग्यारह रचनाएँ प्रस्तुत की हैं. एक शीर्षक के अंतर्गत अलग-अलग रचनाएं, जो स्वतंत्र लघुकथाएं भी हैं और एक लघुकथा का हिस्सा भी. ऎसा अभिनव प्रयोग शायद हिन्दी लघुकथा में पहली बार हुआ है.
संग्रह
की अन्य लघुकथाएँ उतनी ही मारक और महत्वपूर्ण हैं जितनी वे, जिनकी मैंने ऊपर चर्चा की. बलराम अग्रवाल की भाषा सहज है और शिल्प आकर्षक. संग्रह की लघुकथाएँ यह सिद्ध करती हैं कि लघुकथा कथा साहित्य की एक ऎसी विधा है जो कम शब्दों में एक बड़ा संदेश दे सकने में सक्षम है.
एक सफल लेखक की उल्लेखनीय रचनाएँ—जिन्हें पढ़कर ही समझा जा सकता है.
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लघुकथा
संग्रह : ‘पीली पंखों वाली तितलियाँ’ कथाकार : बलराम अग्रवाल प्रकाशक : राही
प्रकाशन, एल-45, गली नं.5, करतार
नगर, दिल्ली-110053 संस्करण : 2014,
मूल्य : रु.300/-, पृष्ठ संख्या : 152
समीक्षक
: डॉ॰ रूपसिंह
चन्देल, फ्लैट नं.७०५,टॉवर-८, विपुल गार्डेन्स, धारूहेड़ा,
हरियाणा-123106 / मो. 8059948233