गतांक से आगे…
हिन्दी लघुकथा को प्रारम्भ में आठवें दशक के कथाकारों ने कथा-संक्षेप, कथा-सार, चलते-चलते, आसपास बिखरी कहानियाँ, चुटकुलों और पौराणिक पैरोडियों से उसी तरह बाहर निकाला जिस तरह प्रेमचंद ने कहानी को चन्द्रकान्ता और उसकी सन्तति के तिलिस्म से बाहर निकालकर सामान्य जन से जोड़ा था। तत्पश्चात् नौवें-दसवें दशक के कथाकारों ने उसको वास्तविक जीवंतता प्रदान की और अब के यानी इस सदी में उभरे युवतर कथाकार कथ्यों में नवीनता भर रहे हैं। एक अद्भुत सत्य यह है कि वर्तमान में लघुकथा का समय स्त्री रचनाशीलता का समय है। संध्या तिवारी, सीमा व्यास, चेतना भाटी, अंतरा करवड़े, सविता इन्द्र गुप्ता, अनिता रश्मि, ॠचा शर्मा, कांता राय, उपमा शर्मा, कनक हरलालका, कमल कपूर, मधु जैन, प्रेरणा गुप्ता, मिन्नी मिश्रा, वन्दना गुप्ता, शील कौशिक, आशा शर्मा, आशा खत्री ‘लता’, सुधा भार्गव, पवित्रा अग्रवाल, अनिता सैनी, अनघा जोगलेकर, नीरज सुधांशु, उषा लाल, नीना छिब्बर, दिव्या शर्मा, अंजु खरबंदा, यशोधरा भटनागर, वसुधा गाडगिल आदि कितने ही नाम हैं जो नयी सदी के मुख्यत: दूसरे दशक में उभरे हैं और लघुकथा की अनेक कथ्यगत वर्जनाओं को और भाषागत सीमाओं को तोड़ रहे हैं। यह वर्तमानता लघुकथा की दमदार सम्भावना है।
सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक बदहालियों और जीवन-यथार्थ को ये युवतर नई मजबूती और भाषा-शैली में प्रस्तुत कर रहे हैं। नि:सन्देह कह सकते हैं कि वर्तमान दौर की धड़कन आज की लघुकथाओं में है। जो तेवर कमलेश भारतीय की ‘सात ताले और चाबी’, चित्रा मुद्गल की ‘दूध’, अशोक भाटिया की ‘कपों की कहानी’ और महेन्द्र ठाकुर की ‘अफसर’, में हैं वैसे ही तेवर रानू मुखर्जी की ‘अस्मिता’, रश्मि बजाज की ‘गुड़िया की शादी’, उमेश महादोषी की ‘वो दहलीज’, कान्ता राय की ‘सावन की झड़ी’, ॠचा शर्मा की ‘उजली किरण’ में भी हैं। वर्तमान में उपजे कुछ सवालों से मुठभेड़ में ये लघुकथाएँ खरी उतरती हैं। अनघा जोगलेकर की ‘अलमारी’ और सत्या शर्मा ‘कीर्ति’ की ‘यात्रा’ स्त्री के जीवन में नयी खिड़कियाँ खोलने की पैरवी करती हैं। ऐसे साहसिक प्रयासों की हिन्दी लघुकथा को अतीव आवश्यकता है। सुरेश सौरभ की लघुकथा है—‘हिजाब’ जो बताती है कि शोहदे सिर्फ तभी तक लड़कियों को छेड़ते-तंग करते हैं जब तक वे हिजाब की कैद में रहती हैं। उससे मुक्त होकर जैसे ही वे आक्रामक होती हैं, शोहदे फुर्र हो जाते हैं। तात्पर्य यह कि आज का लघुकथाकार औरत की देह और आत्मा से हर उस आवरण को उतार फेंकने की पैरवी करता है जो उसे दब्बू और पंगु बनाता है। लड़कियों को शारीरिक और मानसिक रूप से सक्षम बनाने की दिशा में जो रास्ता मधुदीप अपनी लघुकथा ‘नमिता सिंह’ में दिखाते हैं, वही रास्ता शोभना श्याम की लघुकथा ‘ताजीब’ और लता अग्रवाल की ‘मैं ही कृष्ण हूँ’ भी दिखाती हैं। वर्तमान हिन्दी लघुकथा के विशाल सागर से उदाहरण स्वरूप ये मात्र कुछ बूँदें हैं। इनमें अपने समय का खारापन है, तिक्तता है क्योंकि इनका जन्म तिक्त और खारे समाज से ही हुआ है। यही खारापन और तिक्तता मजदूर के पसीने में होती है, यही छले-ठगे व दबाये गये दुखियारों के आँसू में भी होती है। इस तीखेपन, इस खारेपन, इस दमन को आने वाली सन्तति के लिए आज का लघुकथाकार मीठे झरने में, जूझने की ताकत में तब्दील करने की ओर प्रयत्नशील है।
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