ड्राइडन
के अनुसार—'स्टोरी इज़ द लास्ट पार्ट'। यानी कथा में पात्र ही अधिक महत्वपूर्ण है,
इतना महत्वपूर्ण कि कथानक उसके बाद की ही चीज़ है। न सिर्फ ड्राइडन, बल्कि ए॰ बैने
के अनुसार भी—‘द फाउण्डेशन ऑफ अ गुड फिक्शन इज़ कैरेक्टर क्रिएटिंग एंड नथिंग
एल्स।’ यानी अच्छी कथा में एक उल्लेखनीय पात्र की प्रस्तुति से अधिक कुछ भी महत्वपूर्ण
नहीं है।
यदि
कथा की समीक्षा के शास्त्रीय, या कहें कि परम्परागत ढंग के बारे में सोचें तो पाश्चात्य
विद्वानों ने ‘कथा’ के छ: प्रमुख तत्व निर्धारित किए हैं—वस्तु, चरित्र, संवाद, वातावरण,
शैली और उद्देश्य। पाश्चात्य विद्वानों से अलग भारतीय आलोचकों ने नाटक के तत्वों
का अनुसरण करते हुए 'कथा' के भी तीन ही तत्व माने हैं—वस्तु, नायक और रस। पाश्चात्य
और भारतीय, दोनों अवधारणाओं का मिलान करने
पर हम पाते हैं कि लघुकथा में ‘वस्तु’ और ‘चरित्र’, इन दो का होना अति आवश्यक है।
तथापि लघुकथा के समीक्षात्मक मापदंडों को निर्धारित करते हुए शास्त्रीय समीक्षा के कुछ विद्वानों के
द्वारा उपर्युक्त छ: तत्वों को यों गिनाया जाता रहा है— वस्तु, चरित्र, संवाद,
वातावरण, शैली और सम्प्रेषणीयता। इनमें से वातावरण और शैली को यदि गौण मान लिया जाए तो लघुकथा के
प्रमुख तत्व वस्तु, संवाद, चरित्र और सम्प्रेषणीयता ही उचित प्रतीत होते हैं। इससे कोई यह अर्थ न लगाएँ कि
लघुकथा में वातावरण अथवा शैली की उपयोगिता को नकारा जा रहा है या उन्हें कम उपयोगी
आँका जा रहा है। गौण मानने से मन्तव्य सिर्फ यह है कि ये दो अवयव कथा-विकास में
साधन मात्र हैं। यद्यपि इसका यह भी अर्थ नहीं है कि साध्य की प्राप्ति के लिए
मात्र एक को ही साधन बनाकर बढ़ा जा सकता है। अगर ऐसा हो सकता होता तो इन चारों के माध्यम से ही साध्य की
प्राप्ति क्यों अनिवार्य है ? अनिवार्य है भी या नहीं ? बेशक, कोई लंगड़ा व्यक्ति समय पड़ने पर बिना
बैसाखियों के भी दूरी तय कर सकता है; तथापि यदि दोनों बैसाखियाँ मौजूद हों तो उसे
बिना उनके क्यों चलना चाहिए ? अवसर विशेष पर वह एक को बगल में लगाकर और दूसरी को कन्धे
पर लादकर चले तो अल्प समय के लिए तो इसे सहा भी जा सकता और प्रशंसनीय भी माना जा
सकता है; लेकिन इसे यदि वह अपना ब्रांड ही बना ले तो हास्यास्पद भी कहा जाएगा। इस
सब के बावजूद, उसके द्वारा चली जा चुकी दूरी को तय किया जा चुका तो मानना ही
पड़ेगा।
विभिन्न लघुकथाओं के अध्ययन के आधार पर हम यह कह सकने की स्थिति में है कि पात्र के चरित्र-विकास को चार प्रकार से
अंकित किया जा सकता है—वर्णन यानी नैरेशन के द्वारा, संकेत के द्वारा, पात्रों के परस्पर
वार्तालाप के द्वारा और लघुकथा में घटित घटनाओं के द्वारा। इनमें, मैं कहूँगा कि नैरेशन की अधिकता से जितना बचा जा सके, लघुकथाकार को बचना चाहिए।
लघुकथा में कथा
और पात्र एक-दूसरे के पूरक हैं। यदि हम पात्र (के नाम को) को गौण रखते हैं तो या कथानक को ‘मैं’ पात्र के सहारे व्यक्त करना होगा या ‘वह’ पात्र के सहारे। इधर, कुछ विद्वान आलोचक लघुकथा में ‘मैं’ पात्र की
प्रस्तुति को लेखक का स्वयं उपस्थित होना घोषित करने लगे हैं। यह सिद्धांत सिरे से
ही गलत है और लघुकथा में ‘लेखक की उपस्थिति’ को न समझने जैसा है। कमजोर लेखक पात्र
का कोई नाम (मोहन, राम, आरिफ आदि) रखकर भी स्वयं उपस्थित हो जाने की गलती
कर सकता है। समकालीन लघुकथा के शुरुआती दौर में मान्य कथाकारों की भी अनेक लघुकथाएँ अनजाने ही 'लेखक की
उपस्थिति' दर्ज करती रही हैं। लेकिन ‘मैं’ पात्र की सर्जना के सहारे वस्तु-प्रेषण 'लेखक की
उपस्थिति' से अलग स्थिति है। संक्षेप में, कथा लेखन में ‘आत्मकथात्मक’ भी एक शैली है जिसे ‘लेखक के
उपस्थित हो जाने’ से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। यदि कथानक को गौण रखते हैं तो हो सकता
है कि रचना लघुकथा की मर्यादाओं, सीमाओं, अनुशासनों से बाहर दर्शन, निबंध, कथात्मक
गद्य आदि की श्रेणी में चली जाए। वस्तुत: लघुकथा के मुख्य तत्व तीन हैं—(कथा)
वस्तु, (कथा) नायक और सम्प्रेषण। ‘पंच लाइन’ कहकर लघुकथा के प्रभाव को उसके अन्त
में समेट देना स्पष्टत: सम्प्रेषण नहीं है । सम्प्रेषण किसी एक शब्द या वाक्य में संकुचित
नहीं रहता, लघुकथा की पूरी काया में समाया होता है, मानव शरीर में मन की तरह। अकेली
‘पंच लाइन’ में ही लघुकथा की सम्प्रेषणीयता को देखने की वृत्ति लघुकथा-समीक्षा में
जिस व्याधि को जन्म दे रही है वह असाध्य हो जाएगी, इसमें सन्देह नहीं है। अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए मैं
एक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत करना चाहूँगा—पसीना शारीरिक-श्रम कर रहे व्यक्ति को भी
आता है और बैठे-बिठाये व्यक्ति को भी। शारीरिक-श्रम करके आए पसीने की संज्ञा ‘श्रमबिन्दु’
है। इसके आने की एक प्रक्रिया है। लेकिन बैठे-बिठाए आ जाने वाला पसीना 'श्रमबिन्दु' नहीं कहलाता। वह हृदयाघात जैसे जानलेवा रोग का पूर्व-सूचक
हो सकता है। लघुकथा चाहे चरित्र-प्रधान हो चाहे घटना-प्रधान; उसमें सम्प्रेषणीयता के गुण का होना आवश्यक है, उसकी समूची काया में कथापन का होना आवश्यक है। आयुर्वेद में कहा जाता है कि जिस व्यक्ति की पाचन-क्रिया में क्लेश हो, उसे अमृत पिलाकर भी नहीं बचाया जा सकता। इसीप्रकार लघुकथा की समूची काया में अगर सम्प्रेषणीय विश्वसनीयता का गुण नहीं है, वह अगर अपने समय के सरोकार से विलग है तो 'पंच लाइन' अकेली पड़कर उसे 'विट' अथवा 'चुटकुला' बनाकर छोड़ दे सकती है। कहानी
और उपन्यास की समीक्षा के लिए निर्धारित ‘उद्देश्य’ की तुलना में लघुकथा में 'सम्प्रेषण'
के गुण का होना कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। दरअसल, कथा-साहित्य में ‘उद्देश्य’
पाश्चात्य मत की देन है जो हिन्दी कहानी पर भी यथा-प्रयास लागू होता रहा है, होता है; परन्तु
लघुकथा की परम्परा कहानी और उपन्यास की परम्परा से बहुत पहले की है और आदिकाल से
ही ‘सम्प्रेषण’ उसका मूलतत्व रहा है। जहाँ तक ‘उद्देश्य’ की बात है, लघुकथा का मूल
उद्देश्य ‘उद्वेलन’ अथवा ‘उद्बोधन’ रहा है। शायद इसी कारण अधिकतर प्राचीन लघुकथाएँ
दृष्टान्तों, नीतिकथाओं अथवा बोधकथाओं के रूप में ही प्राप्त होती हैं।
कथानक और पात्र के चरित्र-विकास का उचित
सामन्जस्य ही लघुकथाकार का कौशल है। फिर भी, जहाँ तक लघुकथा की सफलता का सवाल है,
कथानक से अधिक चरित्र के उन्नयन पर ध्यान दिया जाना चाहिए। लघुकथा में यथार्थ की
सम्पुष्टि के लिए तनिक भी आवश्यक नहीं है कि उसके पात्र समाज के वास्तविक चरित्र
हों । आवश्यक यह है कि वे वास्तविक प्रतीत अवश्य हों । इसके लिए लघुकथाकार
द्वारा प्रयुक्त पात्रोचित भाषा-प्रयोग कथानकोचित वातावरण की सर्जना और उसका
शिल्प-विधानादि प्रमुख भूमिका निभाते हैं । समाज के वास्तविक चरित्र को भी
लघुकथाकार उसके वास्तविक जीवन से कहीं अधिक सम्प्रेषक बनाकर प्रस्तुत करता है। यही
कौशल उसके और किसी समाचार-लेखक के बीच अन्तर को रेखांकित करता है। परस्पर बातचीत
के दौरान, सम्भवत: 1976-77 में, कहानीकार सोमेश्वर ने लघुकथा के अस्तित्व पर उँगली
उठाते हुए पूछा था—समाचार और लघुकथा में क्या अन्तर है? मैंने उनकी शंका का समुचित
समाधान प्रस्तुत करने की भरसक कोशिश की लेकिन उन्हें उनके दुराग्रह से डिगा नहीं
पाया था। मेरी ओर से आज भी, उनकी शंका का यही उत्तर है कि ‘लघुकथा वास्तविक जीवन
की सृजनात्मक कला है जबकि समाचार मात्र सूचनात्मक।’ यह बात कथाकार, समीक्षक और आलोचक…सभी
की समझ में आनी चाहिए कि लघुकथा का उद्देश्य ‘वस्तु को सम्प्रेषित करना’ होता है
और समाचार का उद्देश्य मात्र सूचित करना। ‘समाचार’ तटस्थ चरित्र अपना सकता है
लेकिन लघुकथा को न्यायिक मार्ग से गुजरकर अपना प्रभाव और अस्मिता अक्षुण्ण रखने के
प्रति सचेत रहना होता है। इस अर्थ में, समाचार-लेखक कतिपय अ-मर्यादित, अशोभनीय रवैया अपना
सकता है, लघुकथा-लेखक नहीं।
‘चरित्र’ के बारे में अरस्तु ने लिखा है—‘किसी व्यक्ति की रुचि-विरुचि का प्रदर्शन करते हुए जो नैतिक
प्रयोजन को व्यक्त करे, वही चरित्र है।’ उनका मानना है कि चरित्र को जीवन के
अनुरूप होना चाहिए अर्थात् पात्र को सामाजिक यथार्थ एवं विश्वसनीयता से युक्त होना
चाहिए। परन्तु, जैसाकि सभी मानते हैं, लघुकथा की कुछ विशेष मर्यादाएँ हैं इसलिए
लघुकथा के पात्र पर जीवन के अनुरूप रहने की अरस्तु की अवधारणा भी अंशत: ही लागू
होती है। आम व्यक्ति का जीवन परिवर्तनशील होता है और इस अर्थ में चरित्र भी
परिवर्तनशील ही होगा। स्पष्ट है, इस परिवर्तनशीलता को पूरी तरह दिखाना लघुकथा के
अनुशासन से अलग का विषय है, इसलिए यह इसकी मर्यादा से परे भी है। ‘पात्र को सामाजिक
यथार्थ और विश्वसनीयता से युक्त होना चाहिए’—अरस्तु के इस कथन का प्रयोजन समाचार
लेखन से कतई नहीं है। अमृतराय ने भी लिखा है—‘जीवन का मात्र अनुसरण या प्रतिच्छवि
प्रस्तुत करना यथार्थवादी साहित्य का लक्ष्य नहीं हो सकता।’ कार्ल मार्क्स और एंगिल्स ने अपनी
पुस्तक ‘लिटरेचर एंड आर्ट’ में एक स्थान (पृष्ठ 36) पर लिखा है—‘जो वास्तविक चरित्र हैं, वही
यथार्थ चरित्र नहीं होते।’ इस कथन को उद्धृत करने का एकमात्र उद्देश्य ‘वास्तविक’
और ‘यथार्थ’ के बीच अन्तर को स्पष्ट करना है। कथाकार द्वारा प्रत्यारोपित किये
जाने वाले उसके सत्य से विहीन चरित्र ‘नैचुरलिस्टिक’ तो हो सकते हैं, यथार्थ नहीं। यथार्थ चित्रण के साथ
ही अरस्तु ने विशिष्ट अतिरंजित चरित्रों का भी अनेक स्थानों पर उल्लेख किया है। उन्होंने स्वीकार
किया है कि विशिष्ट चरित्र चौंकाते हैं और साहित्य में अतिरंजित चरित्र को उत्पन्न
करते हैं। ऐसे चरित्र कलाकार के सत्य के वाहक होते हैं। हम विश्वासपूर्वक यह कहने की स्थिति में हैं कि समकालीन हिन्दी लघुकथा में
ऐसे अनेक चरित्र उपलब्ध हैं।
भारतीय आचार्यों और अरस्तु के मतों में
उल्लेखनीय भेद यह है कि अरस्तु मात्र नायक में विशिष्ट गुणों की स्थापना पर जोर
देते हैं जबकि भारतीय चिंतक अन्यान्य पात्रों में भी विशिष्ट गुणों की स्थापना के
समर्थक हैं। लेकिन लघुकथा क्योंकि एकांतिक कथ्य की रचना है, इसलिए इसमें पात्रों की भीड़ जुटाने का अवकाश नहीं होता है। इसमें प्रमुख पात्र का
विशिष्ट गुण भी उसके कृत्य अथवा कथन के द्वारा प्रकट होता है, विस्तार के द्वारा
नहीं।
अब जरा ‘ऑस्पेक्ट ऑफ द नॉवेल’ के लेखक
और आधुनिक साहित्य के सुप्रसिद्ध समीक्षक ई एम फोर्स्टर की बातों का भी जायजा लें।
उक्त पुस्तक के ‘पीपुल’ नामक अध्याय (पृष्ठ 65) में वे चरित्रों को दो वर्गों में बाँटते हैं—फ्लैट कैरेक्टर यानी सपाट चरित्र
और राउण्ड कैरेक्टर यानी गूढ़ अथवा परिवर्तनशील चरित्र। सपाट चरित्र एक ही विचार के वाहक, प्रतिक्रियाविहीन
और भावशून्य होते हैं तथा इसी कारण वे याद रखे जा सकते हैं। रावी की लघुकथाओं में
अक्सर यही पात्र मिलते हैं। गम्भीर एवं अपरिवर्तनशील होने के कारण ये ‘बोर’ भी हो
सकते हैं। परिवर्तनशील पात्र पाठक में संवेदना उत्पन्न करने की अधिक क्षमता रखते
हैं। ये पाठक को जिज्ञासु भी बनाए रखने में सक्षम होते हैं: क्योंकि ये ‘वचस्य
अन्यत् मनस्य अन्यत्’ के समर्थक रहते हैं। ये जैसे दीखते हैं, वैसे होते नहीं हैं
इसलिए कथानक पर छाए रह सकते हैं। फोर्स्टर
के अनुसार, ‘परिवर्तनशील पात्रों के भी क्रियाकलाप विश्वसनीय अवश्य होने चाहिए।’
(द टेस्ट ऑफ ए राउंड कैरेक्टर इज़ व्हेदर इट इज़ कैपेबुल ऑफ सरप्राइजिंग इन ए
कन्विंसिंग मैनर; पृष्ठ 75)
वाल्टर एलेन के अनुसार, ‘कथा के पात्र
स्वयं अपनी संवेदनाओं के सहारे नहीं चलते। वे कथाकार की संवेदनाओं के वाहक बनकर
सामान्य चरित्रों से भिन्न प्रतिक्रियाएँ करते रहते है।’ लेकिन इस कथन का यह अर्थ
कदापि नहीं लगा लेना चाहिए कि उनके बहाने कथाकार अपने मन्तव्यों को पाठक पर थोपने
के लिए उन्मुक्त रहता है।
(सन्1986-88
के बीच लिखित लेख का सम्पादित रूप। 1989 से 1991 के बीच 'उत्तर प्रदेश' मासिक अथवा 'अवध पुष्पांजलि' के किसी अंक में प्रकाशित। प्रकाशन की जानकारी सुनिश्चित नहीं है।)