अब जबकि इक्कीसवीं सदी भी सात पायदान पारकर आठवें पायदान
पर पाँव रखने को तैयार खड़ी है, हम देखते हैं कि हिन्दी लघुकथा ने कथ्य के, भाषा
के, शैली के, शिल्प के नये आकाश में अपने पंख पसार लिये हैं। सन् 2000 के बाद नया
ज्ञानोदय, हंस, वागर्थ, कथाबिंब, समरलोक, शेष, कथादेश, अक्षरपर्व, नई धारा आदि
कितनी ही पत्रिकाओं के साथ-साथ उल्लास, ठंडी रजाई, विषबीज, मैं हिन्दू हूँ, और अंत
में प्रार्थना, अजगर करै न चाकरी आदि संग्रहों में प्रकाशित अधिकांश लघुकथाएँ इसके
प्रमाणस्वरूप प्रस्तुत की जा सकती हैं। हाँ, इतना जरूर है कि नये कलेवर की
लघुकथाओं में हताशाजनक स्थितियों के खिलाफ मानवीय संघर्ष की जमीन उतनी पुख्ता नजर
नहीं आती जितनी कि 1971 से लेकर 2000 तक की अधिकांश लघुकथाओं में आम तौर पर नजर
आती है। बेरोजगारी के दंश से आज का लघुकथाकार पूरी तरह अछूता नजर आता है। अब वह
नौकरी पा गया है, घर में प्रवेश को आतुर है। बदकिस्मती यह है कि इस बदली हुई हालत
में भी खड़ा वह अन्धकार के बीच ही है। घर के दरवाजे पर लटका ताला खोलने की कवायद
में चाबी उसके हाथ से गिर गयी है और यहीं से नौकरी पा गयी इस नौजवान पीढ़ी के नये
सरोकारों का पन्ना खुलता है—कभी वह पत्नी की ख्वाहिशें पूरी न कर पाने का जहर पीता
है तो कभी अपनी बच्ची की ख्वाहिशें पूरी न कर पाने का। माता-पिता की ख्वाहिशें इस
दौर में अतीत की बात हो गयी लगती हैं। परिवार की परिभाषा से वे जैसे बाहर हो चुके
हैं। जीवन पूरी तरह वैयक्तिक होकर रह गया है। ससुराल में पनीर की सब्जी खाते उसमें
अब ‘गोश्त की गंध’ शायद ही आती हो।
सन् 2000 तक की लघुकथा में संघर्ष और विद्रोह का स्वर
खुले शब्द में हो या अण्डर करेंट, या बैलेंस्ड, जैसा भी हो, है जरूर। ‘जूते की जात’
(विक्रम सोनी), अब नहीं चलेगा (कमल चोपड़ा), अस्तित्वहीन नहीं, एलान-ए-बगावत (मधुदीप),
नया नारा, और जैक मर गया आदि जैसे कुछेक प्रयासों को छोड़ दें तो बाहरी और भीतरी
संघर्ष के जैसे चित्र भगीरथ की रचनाओं में आम हैं, एक ही कथाकार की लघुकथाओं में
वैसे चित्र अन्यत्र कम ही उपलब्ध हैं। सन् 2001 के बाद की लघुकथाओं में संघर्ष का
वैसा मुखर रूप अक्सर नहीं है, और अगर है भी तो उसके सरोकार अक्सर वैयक्तिक ही अधिक
हैं, सार्वजनिक कम। जाहिर है कि समय बदल चुका है और उसके शायद सरोकार भी।
चिंता की बात समय का बदल जाना नहीं है। अगर पुरातन
भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो प्रत्येक 25 वर्ष के अन्तराल में उसका बदलना
स्वाभाविक है ही। सम्भवत; उसी के मद्देनजर भारतीय मनीषियों ने मनुष्य के 100 वर्ष
के जीवन को 25-25 वर्षों के 4 अन्तरालों में विभक्त किया। आज अगर उसकी औसत आयु 80
वर्ष है तो यह अन्तराल 20-20 वर्ष का रह जाता है। लेकिन भौतिक विचारधारापरक इस काल
में किसी भी व्यक्ति से 40 वर्ष की उम्र में वानप्रस्थ और 60 वर्ष की उम्र में
संन्यास ग्रहण कर लेने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। यह सब लिखने का उद्देश्य मात्र
यह बताना है कि आज का समय असन्तुलन का समय है। यही कारण है कि व्यक्ति के सरोकार
समय के प्रतिकूल नजर आते हैं।
आज के हालात पर नजर डालें तो कल-कारखानों, स्थानीय
बाजारों और लघु-उद्योगों पर होते लगातार होते सरकारी हमलों से आम-जनजीवन को
तहस-नहस पाते हैं। हृदयहीन, स्वार्थी और धूर्त किस्म के लोग ही आज अच्छे और
बुद्धिमान व्यवसायी माने जाते हैं। यह व्यवसाय बौद्धिक, राजनीतिक और धार्मिक
क्षेत्रों में भी समानरूप से कार्यरत है। ‘कथादेश’ के माध्यम से सुकेश साहनी
द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता में पुरस्कार प्राप्त एक-दो लघुकथाओं में इस
तथ्य के छुआ गया है। परन्तु हैरान करने वाली बात यह है कि इस दौर के अधिकांश
कथाकार पत्नी, प्रेमिका, परिवार जैसे चालू ढर्रे के कथानकों से बहुत-कम बाहर निकल पा
रहे हैं। ज्यादातर कथाकारों को समय चुनौती देता नजर नहीं आ रहा है।
आजादी के बाद जिस तरह महानगर नगरों को, नगर कस्बों को और
कस्बे गाँवों को खा गये हैं; जिस तरह पूँजी-केन्द्रित व्यवसायी छोटे व्यापारियों
को और बाहुबली राजनीतिज्ञ राजनीतिक हलकों से नैतिकता और आदर्श को चाट गये हैं; उसी
तरह मल्टीप्लैक्स मॉल अब छोटे दुकानदारों को और मल्टीस्टोरी अपार्टमेंट
गली-मोहल्लों को डकार जाने की तैयारी कर चुके हैं। समूचे मेहनतकश समाज को पैरों
तले रौंदते चले आ रहे इस ड्रेक्युला के विध्वंसक कदमों की आहट को सुनना, समझना और
बचाव के तरीकों पर समय रहते विचार करना हर जागरूक नागरिक का कर्त्तव्य है। कथाकार
होने के नाते यह कर्त्तव्य कुछ-और बढ़ जाता है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता।
इधर, तकनीक के विकास के साथ-साथ लघुकथा लेखन में
अन्तरराष्ट्रीय व्यापकता आई है। पूरी दुनिया के कथा लेखक इंटरनेट पर अपनी प्रतिभा
और लघुकथा सम्बन्धी अपनी मान्यता का खुलासा कर रहे हैं। यह देखकर लेशमात्र भी
आश्चर्य नहीं होता है कि कहानी लेखन महाविद्यालय की तर्ज पर इन दिनों इंटरनेट पर
कुछेक विदेशी संस्थाएँ लघुकथा लेखन महाविद्यालय हिन्दी को छोड़कर अंग्रेजी सहित
दुनिया की अनेक भाषाओं में लोगों को 4 शब्दों से लेकर 2000, 3000, 5000 शब्दों तक
की लघुकथाएँ / कहानियाँ लिखना धड़ल्ले से सिखा रही हैं। स्पष्ट है कि मसीहा सिर्फ
हिन्दी में नहीं बल्कि पूरी दुनिया में अपना वर्चस्व रखते हैं। इंटरनेट पर लघुकथा
को ‘शॉर्ट शॉर्ट स्टोरी’, ‘फ्लैश स्टोरी’ आदि नामों वाली कुछ वेब साइट्स पर
देखा-पढ़ा जा सकता है। दुनियाभर के महत्वाकांक्षी लेखक मुख्यत; अंग्रेजी में इन
साइट्स पर अपनी कथा-प्रतिभा को चेप रहे हैं। हिन्दी क्षेत्र में डॉ॰ सतीशराज
पुष्करणा और चित्रा मुद्गल आदि कुछ कथाकार लघुकथा को ‘कौंध’ की संज्ञा से विभूषित
करते हैं। वस्तुत; ‘कौंध’ के रूप में ‘वस्तु’ तो आ सकती है, पूरी रचना नहीं। रचना
एक प्रक्रिया की देन होती है और प्रक्रिया हमेशा ही ‘कौंध’ से कहीं आगे की चीज हुआ
करती है।
अन्तरराष्ट्रीय बाजार में लघुकथा सिर्फ लघुकथा नहीं है।
उसके कुछ और भी नाम हैं; जैसे—आशुकथा (सडन फिक्शन), अणुकथा(माइक्रो* फिक्शन या
माइक्रो स्टोरी), पोस्टकार्ड कथा (पोस्टकार्ड फिक्शन), हथेली कथा या पाम स्टोरी,
छोटी कहानी अथवा लघु कहानी (शॉर्ट शॉर्ट स्टोरी) तथा कौंध कथा (फ्लैश फिक्शन)। इनमें
कौंध कथा की शुरुआत 1992 में प्रकाशित अंग्रेजी लेखकों जेम्स थॉमस, डेनिस थॉमस और
टॉम हजूका के कथा संग्रहों से मानी जाती है। इन लेखकों के अनुसार, 750 शब्दों के
लगभग अथवा आमने-सामने के 2 पृष्ठों में आ जाने वाली कथाकृति को ‘कौंध कथा’ कहा जा
सकता है। इस दृष्टि से देखें तो अंग्रेजी में 1992 में शुरू होने वाली ‘कौंध कथा’
कुछेक आन्तरिक असमानताओं के बावजूद 1971 में शुरू होने वाली ‘हिन्दी लघुकथा’ की
अनुगामी ही है, बिल्कुल उसी तरह जिस तरह 1982 में शुरू होने वाली ‘चीनी लघु कहानी’
कुछेक असमानताओं के बावजूद इसकी अनुगामी सिद्ध होती है।
अंग्रेजी में प्रचलित कौध कथा के मुख्यत; 3 प्रकार
प्रचलित हैं—
1- निमिष कथा या 55
वाली (नैनो** फिक्शन या फिफ्टी फाइवर) : यह ठीक 55 शब्दों में कम से कम एक पात्र व
तत्सम्बन्धी कथानक वाली पूर्ण कथा है।
2- झीनी कथा या 100 वाली (ड्रेबल
या हण्ड्रेडर) : शीर्षक के अतिरिक्त ठीक 100 शब्दों की कथा।
3- 69 वाली (सिक्स्टी
नाइनर) : जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है इसमें शीर्षक के अलावा ठीक 69 शब्द होते हैं।
कनाडा की एक साहित्यिक पत्रिका का यह नियमित स्तम्भ रही है। कथाकार ब्रूस हॉलैंड
रॉजर्स ने एक ही शीर्षक तले 365 व सिक्स्टी नाइनर लिखी हैं और विषयवस्तु की समानता
वाली 3 अलग-अलग शीर्षकों की सिक्स्टी नाइनर भी उन्होंने लिखी हैं। अगर शब्द संख्या
का बन्धन त्याग दें तो हिन्दी में ‘ईश्वर की कहानियाँ’ (विष्णु नागर) तथा ‘शाह आलम
कैंप की रूहें’ (असगर वजाहत), शिवराम की मृत्यु (अशोक भाटिया) जैसी एक ही शीर्षक
तले लिखी गयी लघुकथाएँ हिन्दी में भी उपलब्ध हैं।
कौंध कथा के पैरोकार अपने समर्थन में
अर्नेस्ट हेमिंग्वे की मात्र 6 शब्दों वाली इस रचना को आदर्श मानकर प्रस्तुत करते
हैं : “बिकाऊ हैं, बेबी शूज, अन-पहने।”
‘लघुकथा’ प्रक्रियायुक्त कथा-रचना है, ‘कौंध’
मात्र नहीं। इंटरनेट पर ‘कौंध’ (फ्लैश) के सैकड़ों, सामान्य और अश्लील, दोनों
प्रकार के उदाहरण मिल जाते हैं। बानगी के तौर पर उनमें से दो के हिन्दी अनुवाद शीर्षक समेत यहाँ प्रस्तुत हैं :
1- क्लेशमुक्ति पुस्तिका
निराशाजनक है।
2- ‘ना’ में उत्तर
कैसे लें
वा…ऽ…व ! प्रिग्नेंट हो?
इन दोनों रचनाओं के लेखक एम स्टेनले बबीन हैं और इन्हें
इंटरनेट पत्रिका ‘स्टोरी बाइट्स’ के अप्रैल-मई 2004 व जनवरी-फरवरी 2004 अंकों से
लिया गया है।
अपने सीमित अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि कम से
कम हिन्दी और पंजाबी, दो क्षेत्रों के कथाकार तो उपर्युक्त स्तर की रचनाओं को कभी
भी ‘लघुकथा’ स्वीकार नहीं करेंगे। हिन्दी व पंजाबी के प्रतिष्ठित कथाकार श्री
श्याम सुन्दर अग्रवाल के अनुसार—‘इस तरह की 2-3-4 शब्दों की या 4 पंक्तियों की
कथ्य, शिल्प और कथा आदि से विहीन रचनाओं को सबसे छोटी लघुकथा ही क्यों प्रचारित
किया जाता है?उन्हें विश्व का सबसे छोटा उपन्यास क्यों नहीं कहा जाता?’ इन्हें
यहाँ उद्धृत करने का मेरा उद्देश्य यह भी है कि भारतीय लघुकथा लेखकों को लघुकथा पर
होने वाले इस तरह के अन्तरराष्ट्रीय हमलों से भी सचेत रहना होगा। न सिर्फ सचेत
रहना होगा, बल्कि ऐसे प्रयासों को स्तरीय लघुकथा लेखन के द्वारा ध्वस्त भी करना
होगा।
संरचना-1 (2008) में प्रकाशित
* माइक्रो----पदार्थ की सबसे छोटी इकाई के दस लाखवें हिस्से को कहते हैं। ** नैनो---- पदार्थ की सबसे छोटी इकाई के एक अरबवें हिस्से को कहते हैं।