(दिनांक 02-01-2021 से आगे, समापन किश्त)
(ॠग्वेद प्रथम मंडल के सूक्तों पर केंद्रित)
त्रित का आख्यान—शौनक के बृहद्देवता (3-132-36) में लिखा है—
गौओं के पीछे चल रहे त्रित को कुएँ में फेंककर सालावृकों के क्रूर पुत्र सारी गौओं को वहां से अपहृत करके ले गये।
शाट्यायन ब्राह्मण के आधार पर सायण ने अपने भाष्य में इसे यों लिखा है—
पुरा काल में एकत, द्वित और त्रित—इन तीन ॠषियों ने कभी मरुभूमि में एक कूप को प्राप्त किया। उनमें से त्रित जल पीने के लिए कूप में उतरा। स्वयं पीकर, अन्य दोनों के लिए पानी लाकर उसने दिया। उन दोनों ने जल पीकर त्रित को कूप में धकेल दिया और कूप को रथ-चक्र से ढाँपकर, त्रित का धन लेकर भाग गये।
इसी सूक्त पर स्कन्द स्वामी ने अपने ॠग्वेद भाष्य में निम्न इतिहास दिया है—
आप्त्य ॠषि के एकत, द्वित और त्रित तीन पुत्र थे। उन्होंने यज्ञ की इच्छा से गौएँ माँगीं। उन गौओं को लेकर जब वे सरस्वती नदी के किनारे-किनारे जा रहे थे तो उनको नदी के परले तट पर बैठे हुए भेड़िये ने देखा। वह नदी में तैरता हुआ उनके सामने आया और उन्हें डराया। वे तीनों भागे और त्रित एक घास तृण आदि से ढँके हुए अंधकूप में गिर पड़ा। एकत और द्वित गौएँ लेकर घर को चले गये। कूप में गिरे त्रित ने सोचा, कि ‘सोमयाग किये बिना मरना अच्छा नहीं। तो किस उपाय से सोमपान करूँ?’
वैद्य रामगोपाल शास्त्री के अनुसार, ॠग्वेद (मंडल 1, सूक्त 105, मंत्र 9) में त्रित का आख्यान मानवीय इतिहास नहीं, अपितु त्रित के माध्यम से आध्यात्मिक भाव का वर्णन है। उनके अनुसार, उपर्युक्त तीनों आख्यान भिन्न-भिन्न ग्रंथों के वर्णन हैं जो एक-दूसरे के विपरीत हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि त्रित की कथा ऐतिहासिक नहीं। शाट्यायन ब्राह्मण में एकत, द्वित और त्रित तीनों ॠषि कहे गये हैं। एक तो त्रित ने दोनों ॠषियों को लाकर पानी पिलाया; बदले में उन्होंने उसे कूप में धकेल दिया। ऐसा लगता है कि ॠषियों के चरित्र पर लांछन लगाने के लिए किसी ने ऐसी कथा घड़ी है।
आख्यान का वास्तविक रहस्य प्रस्तुत करते हुए वह लिखते हैं—निरुक्त (4-6) में ‘त्रित’ का निर्वचन ‘बुद्धि में सबसे अधिक बढ़ा हुआ’ किया है। इसका मतलब हुआ कि मोह-माया के अंधकूप में फँसे हुए एक महान् विद्वान ने जीवन के रहस्य को समझकर मोह-माया के कूप से निकलने के लिए इस सूक्त द्वारा ईश-प्रार्थना की।
आरम्भ में उसने चन्द्र, अग्नि, वरुण, अर्यमन्, इन्द्र, सविता आदि दिव्य शक्तियों से प्रार्थना की कि आप संसार का इतना उपकार करते हो, मेरा भी कल्याण करो और मुझे इस मोह-माया रूपी अंधकूप से बाहर निकालो। अंत में उसने इन सब शक्तियों के स्वामी वृहस्पति से प्रार्थना की जिसे सुनकर वृहस्पति ने उसे सच्चा ज्ञान देकर उसका कल्याण किया।
आचार्य यास्क ने निरुक्त (5-20) में इस आख्यान को ज्योति-मंडल पक्ष में लगाया है, मानवीय इतिहास पक्ष में नहीं। इस पर पं॰ भगवद्दत्त जी का अनुवाद—‘अरुण अर्थात् प्रकाशक मासों का बनाने वाला चन्द्रमा पथ पर चलते हुए (नक्षत्र गण) को (उनसे नीचा होने से) देखता है। ऊर्ध्व जाता है (प्रत्येक नक्षत्र के योग से) (उनको) देखकर बढ़ई के समान, जो पीठ से रोगी है, (अर्थात् झुककर काम करने से थकी हुई पीठवाला है और विश्राम के लिए उठता है वैसे चन्द्रमा उठता है)।’
त्रित के आख्यान को निरुक्त (4-6) पर स्कंद स्वामी ने अपनी टीका में त्रित को क्षेत्रज्ञ अर्थात् जीव माना है, जो कि पुण्य और पाप कर्मपाशों से बँधा हुआ माता के गर्भ-रूपी नरक-समान कूप में पड़ा हुआ उस बीभत्स अवस्था से निकलने के लिए वृहस्पति परमात्मा से प्रार्थना करता है।
इस सूक्त की 18वीं ॠचा में ‘वृक’ पद आया है। इसी शब्द के आधार पर कह दिया गया कि त्रित और उसके दोनों भाइयों को भेड़िये ने देखा। देखकर वह तैरता हुआ उनकी ओर आया। दो भाई तो भाग गये, किंतु त्रित डरकर कुएँ में गिर गया। यह सर्वथा मन-घड़ंत कथा है। वास्तव में ‘वृक’ का अर्थ यहाँ चन्द्रमा है। खुली हुई ज्योति वाला अथवा विकृत अर्थात् उष्ण से विकृत यानी शीत ज्योति वाला अथवा (तारागण से) प्रबल ज्योति वाला, विक्रांत होता है।8
ॠषि दधीचि का आख्यान—ॠग्वेद प्रथम मंडल के 84वें सूक्त के मंत्र 13 पर सायण-भाष्य में शाट्यायन ब्राह्मण का आख्यान उद्धृत है—
अथर्वन् का पुत्र दध्यंग जब जीवित था, तब उसके देखने से ही असुर पराजित हो गये थे। जब उसकी मृत्यु हो गयी तो पृथिवी असुरों से भर गयी। इंद्र उन असुरों के साथ युद्ध करने में असमर्थ था। वह इसलिए स्वर्ग में जाकर पूछ्ने लगा कि क्या उस दध्यंग का कोई अंग शेष है? देव बोले—हाँ, एक अश्व का सिर है, जिसके द्वारा उसने अश्विनों को मधुविद्या सिखायी थी। पर हमें नहीं पता कि वह अब कहाँ है? फिर इंद्र ने कहा, कि उसे ढूँढो। तब उन्होंने ढूँढकर बताया कि वह शर्यणावत् सरस् में पड़ा है। इंद्र ने उस सिर की अस्थियों से वज्र बनाकर असुरों का वध किया।
इसी मंत्र पर स्कंद स्वामी ने अपने भाष्य में यह आख्यान किया है—
कालंजय नाम के असुर थे। उनसे पीड़ित होकर देवता रक्षा का उपाय जानने ब्रह्मा के पास गये। ब्रह्मा ने उन्हें दध्यंग ॠषि के पास भेज दिया। देवता उनके पास गये। ॠषि ने उनके आने का प्रयोजन जानकर अपने प्राणों को त्याग दिया। उसकी अस्थियों से इंद्र ने असुरों का वध किया।
इसी सूक्त के 14वें मंत्र पर स्कंद स्वामी ने एक अन्य आख्यान दिया है—
इंद्र ने अथर्वन् के पुत्र दध्यंग को ‘मधु’ नामक परब्रह्म विद्या का प्रवचन किया और उस ॠषि से कहा कि अदि किसी अन्य को यह विद्या बताओगे तो तुम्हारा सिर गिर जाएगा। ॠषि के पास मधुविद्या जानने को अश्विद्वय पहुँचे। उन्होंने कहा, हमारे लिए परब्रह्म का प्रवचन करो। ॠषि ने सिर गिर जाने की बात बताई और मना कर दिया। तब अश्विनों ने कहा, हम तुम्हें अन्य सिर लगा देंगे। दध्यंग मान गये। अश्विनों ने उनका सिर काटकर अश्व का सिर लगा दिया। उस सिर से तब ॠषि ने उन्हें मधुविद्या का अध्यापन किया।
शौनक ने बृहद्देवता अध्याय 3, श्लोक 17-24 में यह आख्यान यों है—
इंद्र ने प्रसन्न होकर अथर्वन् के पुत्र को मधुविद्या दी और उसे किसी अन्य को बताने का मना करते हुए कहा कि यदि बताओगे तो तुम्हें जीवित नहीं छोड़ूँगा। तब अश्विनी द्वय एकांत में जाकर उस ॠषि से मधुविद्या का ज्ञान मांगने लगे। ॠषि ने इंद्र की धमकी उन्हें बता दी। उन भाइयों ने उससे कहा कि अश्व के सिर द्वारा वह विद्या हमें सिखा दो, तो इंद्र तुम्हें नहीं मारेगा। ॠषि ने अश्वशिर द्वारा विद्या उन्हें बता दी। इंद्र ने उसका वह अश्वशिर काट दिया। बाद में, अश्विनद्वय ने उसका वास्तविक सिर लगा दिया। इंद्र ने उस अश्वशिर को वज्र से काटकर टुकड़े-टुकड़े कर दिया। वह सिर शर्यणावत् पर्वत पर एक तालाब में जा गिरा। वहाँ वह सिर जल से उठकर प्राणियों को वर देता है और युग-पर्यंत वहीं पड़ा रहता है।
ॠग्वेद प्रथम मंडल सूक्त 84 मंत्र 13 व 14 पर भिन्न-भिन्न प्रकार के आख्यान हैं। एक आख्यान में तो इंद्र ने दध्यंग ॠषि की अस्थियों से असुरों का वध किया; और 14वीं ॠचा के आख्यान में कहा है कि दध्यंग ॠषि ने अश्व के सिर द्वारा अश्वियों को मधु परब्रह्म विद्या का प्रवचन किया। मधुविद्या को अश्विनों को देने का वर्णन ॠग्वेद में अन्यत्र प्रथम मंडल के सूक्त116 मंत्र 12 भी है और प्रथम मंडल के सूक्त 117 मंत्र 22 में भी है।
इन दो भिन्न-भिन्न आख्यानों पर भी भिन्न-भिन्न ग्रंथों में भिन्न-भिन्न प्रकार से वर्णन किया गया है। कथानकों का भेद सिद्ध करता है कि यह मानवीय इतिहास नहीं। होता तो इस प्रकार के विरोधी कथानक न बनते। इन दो आख्यानों का वास्तविक रहस्य यह है—
दध्यंग आदित्य की अवस्था-विशेष का नाम है। ॠग्वेद प्रथम मंडल, सूक्त 80 मंत्र 16 में स्कंद स्वामी ने भी अथर्वा, मनु और दध्यंग को आदित्य तेज की विशेष अवस्थाएँ बताया है। इस दध्यंग की सोम छोड़ने वाली रश्मियाँ ही उसकी अस्थियाँ हैं। उन्हीं अस्थियों से इंद्र विद्युत बल प्राप्त करके वृत्रों मेघों का हनन करता है।
यास्क ने निरुक्त 12-34 में दध्यंग के दो निर्वचन किये हैं। पहला—जो ध्यान की ओर अभिमुख है अर्थात् जो ध्यानमग्न है। यह आध्यात्मिक पक्ष का निर्वचन है। दूसरा—जिसकी ओर ध्यान जाता है; यह सूर्य है जिसकी ओर सबका ध्यान जाता है।
इसपर सायण अपने भाष्य में लिखते हैं—यह पवित्र सोम सूर्य द्वारा अंतरिक्ष में छोड़ा जाता है। सोम एक प्रकार की ऊर्जा है जो सूर्य रश्मियों द्वारा अंतरिक्ष में विद्युत् इंद्र को प्राप्त होती है। इससे इंद्र मेघों का हनन करता है, अर्थात् वर्षा करता है।
बृहदारण्यक 2-5-5 के अनुसार इंद्र परमात्मा का वाचक है और दध्यंग ईश्वर के ध्यान में मग्न व्यक्ति का वाचक है। ॠग्वेद प्रथम मंडल के सूक्त 164 मंत्र 46 में इंद्र, अग्नि, मित्र, वरुण, यम, मतरिश्वा आदि सभी परमात्मा के नाम कहे गए हैं।
इंद्र ने अपनी शक्ति से द्यौ और पृथिवी का विस्तार किया। शक्तिशाली इंद्र ने सूर्य को प्रकाशित किया। इंद्र ने ही सारे भुवनों को वश में कर रखा है। सोम भी इंद्र के आधीन है।
अथर्वा का पुत्र आथर्वण ही दध्यंग अथवा दधीचि है। अथर्वा इंद्र का पर्यायवाची है— ‘निश्चल अथवा अटल परमात्मा’। ध्यान में मग्न दध्यंग को ‘परमात्मा का पुत्र’ कहा गया है।
शतपथ ब्राह्मण (2-1-4-23) के अनुसार, अश्व का अर्थ है—वीर्य या बल।
ॠग्वेद के प्रथम मंडल में ही अनगिनत ऐसे कथा-सूत्र उपस्थित हैं जिनको पढ़कर संबंधित कथा के विस्तार को जानने की मानव-स्वाभाविक जिज्ञासा उत्पन्न होती है। उदाहरण के लिए, इसके 62वें सूक्त के तीसरे मंत्र को देखिए—
इंद्र और अंगिरा के गौ खोजते समय सरमा नाम की कुतिया ने, अपने बच्चे के लिए इंद्र से अन्न या दूध लिया था। उस समय इंद्र ने असुर का वध कर गौ का उद्धार किया था। देवों ने भी गायों के साथ आह्लादकर शब्द किया था। 9
वेदमंत्रों का अर्थ करते हुए ‘सरमा’ को ‘देवताओं की कुतिया’ बताना बेहद हास्यास्पद प्रतीत होता है। लेकिन पुराण कथाओं के कर्ताओं ने इसी शब्द को ग्रहण करके कथाएँ लिखी हैं। गूढ़ रहस्यों से युक्त वैदिक कथा-सूत्रों को सामान्य कथाओं में परिवर्तित-परिवर्द्धित करना उस समय किसी भी दृष्टि से न तो आसान रहा होगा और न ही सुरक्षित। नि:संदेह बाद के किसी दौर में कुछ कथाएँ उच्छृंखलता को प्राप्त हो गयी होंगी जोकि स्वाभाविक ही है; लेकिन प्रारम्भिक दौर में यह एक प्रकार का दुस्साहसभरा कार्य रहा होगा। जब आज का वेदानुयायी उन पात्रों को ‘मानव’ मानने को तैयार नहीं है, तो कल्पना कीजिए कि उस समय कितना विरोध उन कथाकारों को झेलना पड़ा होगा, जिन्होंने इन दैवी पात्रों को जमीन पर उतारा, उन्हें मनुष्य बनाया। कथा-पात्रों को देवता से मनुष्य बनाना और स्वर्ग से खींचकर उन्हें पृथ्वी पर ला घुमाना उस अवधारणा के प्रति खुला विद्रोह था जो देवता को सर्व-शक्तिमान मानकर उससे केवल याचना ही करती थी। और कमाल की बात देखिए कि दैवी-शक्तियों में अंधों की तरह विश्वास करने वाले उन्हें जब मानवीय बना लेने और जनता के बीच स्थापित करने में सफल हो गये, तब दैव से हमारे भीतर बैठे भय ने कहना शुरू कर दिया—‘यह लीला करने को धरा पर आए हैं।’
वेद के कथा-सूत्रों के विकास पर दोनों तरह से विचार करने की आवश्यकता है। एक ओर यह कि वेद में वर्णित कथा-सूत्रों का स्रोत निश्चित रूप से पूर्व-प्रचलित कोई कथा, कोई किस्सा रहा होगा; और दूसरी ओर यह कि वैदिक कथा-सूत्रों का पूर्ण कथा के रूप में विकास किन-किन सोपानों से गुजरा होगा।
(लेख साभार : लघुकथा कलश, जुलाई-दिसंबर 2020; आलेख महाविशेषांक-1; संपादक : योगराज प्रभाकर)
संदर्भ ग्रंथ :
6- रामगोविंद त्रिवेदी,हिन्दी ॠग्वेद, इंडियन प्रेस (पब्लिकेशन्स) लिमिटेड, प्रयाग,पृष्ठ 191
7- पं॰ हरिशंकर विद्यालंकार, ॠग्वेदभाष्यम्, भाग-2; श्री घूड़मल प्रहलादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिंडौन सिटी (राज॰); पृष्ठ 98
8- वैद्य रामगोपाल शास्त्री; वेदों के आख्यानों का यथार्थ स्वरूप; आर्यसमाज, करोलबाग, दिल्ली-5, वर्ष:29 अप्रैल 1972
9- रामगोविंद त्रिवेदी, हिंदी ॠग्वेद, इंडियन प्रेस (पब्लिकेशन), लिमिटेड, प्रयाग, वर्ष : 1954, पृष्ठ 87
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