डॉ दीप्ति—आप लघुकथा के अलावा अन्य विधाओं में भी लिखते हो। वह कौन-सा केन्द्र-बिन्दु है जो आपको किसी घटना के लिए लघुकथा लिखने को प्रेरित करता है?
बलराम अग्रवाल—लघुकथा लिखने के लिए किसी घटना का घटित होना आवश्यक है, ऐसा मैं नहीं मानता। कोई रचनाशील व्यक्ति जब विचार और चिन्तन के दौर से गुजर रहा होता है, तब क्या चीज उसे लिखने या रचने के लिए प्रेरित कर देगी, कहा नहीं जा सकता। आप स्वयं रचनाकार हैं, मेरी बात को आसानी से समझ सकते हैं कि धरती पर कोई ऐसा चेतनशील मनुष्य नहीं, जिसमें विचार न उत्पन्न होता हो और जिसका अन्तर अभिव्यक्त होने के लिए उसे लगातार उकसाता न हो। परन्तु बहुत कम लोग हैं जो अपने अन्तर की इस प्रेरणा के अनुरूप कार्यरत हो पाते हैं। लेखक होने के नाते आप यह भी समझ सकते हैं कि लिखने के लिए प्रेरित करने वाला हर विचार कागज पर नहीं उतर पाता, कभी किसी कारण से तो कभी किसी कारण से। जब ‘लेखक’ कहलाने वाले लोगों का यह हाल है तो उन आमजनों के हाल का अन्दाजा आसानी से लगाया जा सकता है जो लेखक नहीं हैं। जहाँ तक केन्द्र बिन्दु का सवाल है, मेरी अपनी बात यह है कि आदमी को आदमीयत से दूर ले जाने वाले कृत्य और विचार मुझे तकलीफ देते हैं और आदमीयत से जोड़ने वाले विचार और कृत्य शक्ति। इस ओर किसी भी प्रकार के संघर्ष को मैं बनाए रखना चाहता हूँ। मैं भावुक और आँसू-टपकाऊ कथानकों को पसन्द नहीं करता। बचाव के प्रति जागरूक रहना हर व्यक्ति का पहला कर्तव्य है। मैं ‘काँस’ की जड़ें खोदने की बजाय उनमें मठा डालने और डालते रहने की चाणक्य-नीति का समर्थक हूँ।
डॉ दीप्ति—आप अपनी पहली लघुकथा के बारे में लिखो कि इसे लिखने का विचार आपको कैसे आया?
बलराम अग्रवाल—मेरी पहली लघुकथा ‘लौकी की बेल’ है। यह लघुकथा 1972 में लखनऊ से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका ‘कात्यायनी’ के जून अंक में प्रकाशित हुई थी। इस रचना को पढ़कर आप आसानी से जान सकते हैं कि यह लगभग दृष्टांत-शैली की लघुकथा है। अपने शुरुआती दौर में लघुकथा-आंदोलन खलील जिब्रान के भाववादी कथ्यों और भारतीय पुरातन साहित्य के दृष्टान्तवादी कथ्यों से बेहद प्रभावित था। हालत यह थी कि उन दिनों लघुकथात्मक व्यंग्य तक पौराणिक पात्रों और घटनाओं की पैरोडी-रचना के रूप में लिखे जा रहे थे। मैं ग्रामीण-संस्कार का व्यक्ति हूँ। अपनी जमीन से कटकर ऊँचा उठने की अन्धाकांक्षा मुझमें प्रारंभ से ही नहीं रही। अपनी इसी भावना को मैंने ‘लौकी की बेल’ में व्यक्त किया था। हालाँकि इसी कथ्य की यों भी व्याख्या की जा सकती है कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने जातीय-अस्तित्व को बचाए व बनाए रखने के लिए हममें से किसी को भी एक विशेष प्रकार का बलिदान आवश्यक हो जाता है; बिल्कुल उसी तरह जिस तरह कि अगली फसल हेतु बीज बनने-बनाने वाले लौकी आदि के फलों को करना पड़ता है।
डॉ दीप्ति—लघुकथा लिखते हुए आप विचारों को किस तरह नियोजित करते हैं? कितनी बार रचना का सुधार करते हैं या उसे लिखते हैं?
बलराम अग्रवाल—मेरे कथा-लेखन की बुनियाद ‘विचार’ है। वह मस्तिष्क में कहीं पक जाता है, तभी कथा का कलेवर पाता है। इसे अलग से नियोजित करने की जरूरत अक्सर नहीं पड़ती। हाँ, रचना को लिख लेने के बाद सुधारना अवश्य पड़ता है। एक ही बार में उसे अन्तिम रूप से लिख डालूँ—इतना कुशल मैं नहीं हूँ। इतना जरूर है कि रचना को मैं तुरन्त नहीं सुधारता, कुछ समय रख देने के उपरान्त एक पाठक की हैसियत से पढ़ते हुए उसमें सुधार करता हूँ।
डॉ दीप्ति—लघुकथा को लिखते हुए आप सबसे अधिक महत्व किस बात को देते हो—शीर्षक को, शुरुआत को, अंत को, वार्तालाप को या पेश किए जा रहे विचार को?
बलराम अग्रवाल—मेरे अन्दर विचार ही पहले आता है। यों अलग-अलग मानसिक-अवस्था में अलग-अलग तरह से इसे सुनिश्चित किया जा सकता है। ‘विचार’ किसी वार्तालाप को सुनकर भी उत्पन्न हो सकता है, कहीं पर कुछ लिखा देखकर भी उत्पन्न हो सकता है और कहीं पर कुछ घटित होता देखकर भी। शीर्षक, शुरुआत, अंत अथवा समापन—ये सब मैं रचना को लिख लेने के दौरान या उसके बाद ही तय करता हूँ।
डॉ दीप्ति—लघुकथा की कितनी पुसतकें आपने पढ़ी हैं? कौन-सी पुस्तक ने आपको प्रभावित किया है? कोई खास रचना सुनाएँ/लिखें जो आज तक आपको याद हो और आपको ‘मापदंड’ लगती हो।
बलराम अग्रवाल—यह बता पाना कि कितनी पुस्तकें पढ़ी हैं, बहुत मुश्किल है। बहुत-सी गैर-जरूरी पुस्तकें पढ़ डाली हैं और बहुत-सी जरूरी पुस्तकें अभी पढ़नी बाकी हैं। अनेक रचनाएँ हैं जो अलग-अलग कारणों से याद रहती हैं या प्रभावित करती हैं। कुछ अपने कथ्य के कारण, कुछ शैली और शिल्प के कारण तो कुछ किन्हीं-और कारणों से। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की लघुकथा ‘अंगहीन धनी’ मुझे बहुत प्रभावित करती है। उनकी इसी रचना को मैं हिन्दी की पहली लघुकथा मानता हूँ। यह रचना यद्यपि उनके काल में प्रकाशित उनकी किसी पत्रिका में अवश्य छपी होगी, और उसके पश्चात 1876 में उन्होंने इसे ‘परिहासिनी’ नामक अपनी पुस्तक में संग्रहीत किया। अब, चूँकि पत्रिका का कोई अंक उपलब्ध नहीं है, अधिक विस्तृत होना है। किसी लघुकथा के अच्छा होने का मापदण्ड भी यही होना चाहिए कि पाठक को वह अपने भीतर कितना गहरा उतार पाती है, बमुकाबले इसके कि पाठक के भीतर वह कितना उतर पाती है। आठवें दशक से लेकर अब तक जो रचनाएँ मुझे मुख्यत: याद हैं, उनमें—सुशीलेन्दु की ‘पेट का माप’, कैलाश जायसवाल की ‘पुल बोलते है’, श्यामसुन्दर दीप्ति की ‘सीमा’ व ‘गुब्बारे’, श्यामसुन्दर अग्रवाल की सन्तू, अशोक भाटिया की ‘रंग’, ‘रिश्ता’, ‘कपों की कहानी’, भगीरथ की ‘तुम्हारे लिए’, ‘दाल-रोटी’, सुकेश साहनी की ‘गोश्त की गंध’, ‘बैल’, ‘ठंडी रजाई’, बलराम की ‘बहू का सवाल’, अशोक मिश्र की ‘आँखें’, पृथ्वीराज अरोड़ा की ‘कथा नहीं’, सुभाष नीरव की ‘मकड़ी’, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की ‘ऊँचाई’, विष्णु प्रभाकर की ‘शैशव’, कमल चोपड़ा की ‘मैं सोनू’, असगर वजाहत की ‘आलमशाह कैंप की रूहें’, राजेन्द्र यादव की ‘अपने पार’, प्रेमपाल शर्मा की ‘वैदिक धर्म’, सुशान्त सुप्रिय की ‘बदबू’ आदि सैकड़ों नाम गिनाए जा सकते हैं। जहाँ तक ‘मापदण्ड’ का सवाल है—यह किसी एक रचना के लिए नहीं होता, इसलिए किसी एक रचना को मापदण्ड नहीं कहा जा सकता। लघुकथाएँ ‘रची’ जाती हैं, ‘गढ़ी’ नहीं जातीं। तात्पर्य यह कि इसका कोई साँचा तय नहीं किया जा सकता।
डॉ दीप्ति—दूसरी भाषाओं में लिखी जा रही लघुकथाओं से आप किस तरह का अनुभव करते हैं?
बलराम अग्रवाल—दूसरी भाषा से आपका तात्पर्य नि:संदेह हिन्दीतर अन्य भारतीय भाषाओं से (तथा विदेशी भाषा की लघुकथाओं से) है। भारतीय भाषाओं में मुख्यत: तीन भाषाओं—पंजाबी, मलयालम और तेलुगु—की लघुकथाओं से मेरा सामना गहराई के साथ हुआ है। पजाबी और मलयालम लघुकथा के मैंने अपनी पत्रिका ‘वर्तमान जनगाथा’ के विशेषांक भी संपादित/प्रकाशित किए थे और तेलुगु लघुकथाओं पर कार्यरत हूँ। तेलुगु में ये 'नेटि कथा' अर्थात् आज की कथा के नाम से लोकप्रिय है और तेलुगु-भाषी दैनिक पत्रों में नियमित कॉलम के रूप में स्थान पा रही है। परन्तु मैंने वस्तु के स्तर पर इसे हिन्दी, पंजाबी, उर्दू या मलयालम जितना समृद्ध नहीं पाया। इसका कारण यह भी हो सकता है कि मेरे प्रयास ही उस समृद्धि तक पहुँच पाने में असफल रहे हों।
पंजाबी में, उर्दू की तर्ज़ पर, इसे 'मिन्नी कहानी' नाम से पुकारा जाता है। उर्दू में यद्यपि इसके लिए 'अफसांचा' शब्द भी है; लेकिन इस अर्थ में कि अन्य भाषाओं की तुलना में उर्दू दूसरी भाषा के शब्दों को बड़ी सहजता से अपनाती और आत्मसात् करती है, मैं एक महान भाषा के रूप उसका सम्मान करता हूँ। मेरा मानना है कि हर भाषा में यह लचीलापन या कि विशाल-हृदयता होनी ही चाहिए कि अभिव्यक्ति के अधिक-से-अधिक निकट पहुँच पाने वाले शब्द वह बेहिचक दूसरी भाषा से ले ले। इस बात को मैं यहाँ पंजाबी-परिप्रेक्ष्य के उदाहरण द्वारा ही स्पष्ट करने का प्रयास करूँगा। 'भंगड़ा' और 'गिद्दा' विशुद्ध पंजाबी शब्द हैं। शब्दकोश में इनके अर्थ क्या होंगे, यह बताने की आवश्यकता नहीं है; और न ही यह कि सिर्फ 'पंजाबी मर्दाना नाच' और 'पंजाबी जनाना नाच' कह देने भर से इन नृत्यों के उल्लास, उमंग और संस्कार को किसी भी तरह सम्प्रेषित नहीं किया जा सकता। अत: भंगड़ा और गिद्दा को ज्यों का त्यों ही प्रयोग करना श्रेयस्कर होगा। क्षेत्रीय शब्दों का अपना अलग ही वज़न, तेवर और लोच होता है। कोई अन्य शब्द आसानी से उनका स्थान नहीं ले पाता। बात मिन्नी कहानी की चल रही थी। मिन्नी कहानी में वह सब-कुछ पूरी शिद्दत के साथ है, जो उर्दू और पंजाबी की किसी भी अन्य कथा-विधा में है। पंजाब की मिट्टी और यहाँ की हवा जिस साहस, बलिदान-वृत्ति, मौजमस्ती और खिलंदड़ेपन के लिए दुनियाभर में विख्यात है, यहाँ के कथाकारों ने उस सब को पूरी गहराई के साथ मिन्नी कहानी में उतार पाने में सफलता पायी है। इसलिए, जब मैं यह कहता हूँ कि पंजाब में श्याम सुन्दर दीप्त, श्याम सुन्दर अग्रवाल और उनकी टीम ने 'लघुकथा' को नहीं, 'मिन्नी कहानी' को आगे बढ़ाया है तो इसका यही विशिष्ट तात्पर्य होता है। मलयालम में लघुकथा को 'पाम स्टोरी' के रूप में जाना जाता है। केरल में इसकी स्पष्ट और गहरी परम्परा है। वहाँ पर यद्यपि पंजाबी अथवा हिन्दी की तरह एक आन्दोलन के तहत इसे नहीं लिखा जा रहा; तथापि कुछ उल्लेखनीय लघुकथा-संग्रह मलयालम में अवश्य प्रकाशित और चर्चित हुए हैं। इससे भी अधिक गर्व की बात यह है कि मलयालम के विशिष्ट से लेकर लगभग अपरिचित तक हर कथाकार ने लघुकथाएँ लिखी हैं। मेरे द्वारा सम्पादित 'मलयालम की चर्चित लघुकथाएँ' पढ़कर केरल में हो रहे समृद्ध लघुकथा-लेखन को आसानी से रेखांकित किया जा सकता है।
इनके अतिरिक्त चीनी-लघुकथाओं से भी मेरा परिचय हुआ है। यह जानकर अतीव प्रसन्न्ता और आश्चर्य होता है कि चीन में भी नई पीढ़ी के कथाकारों ने लघुकथा को गई सदी के नवें दशक से एक आन्दोलन के रूप में अपनाया है। चीनी-भाषा में लघुकथाओं के अनेक महत्वपूर्ण संकलन प्रकाशित हो चुके हैं जिन्होंने राष्ट्रीय ही नहीं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की है। अनुवाद की दृष्टि से देखा जाए तो मेरा वास्ता अमरीकी, कनाडाई, अरबी, रूसी, जर्मनी, पाकिस्तानी आदि विभिन्न देशों की लघुकथाओं से पड़ा है, लेकिन उन सबके मैंने अंग्रेजी अनुवाद ही पढ़े हैं, मूल नहीं। हर देश की लघुकथा में एक चीज लगभग कॉमन है; वो ये कि दुनियाभर के लघुकथाकारों के चिन्तन का केन्द्र-बिन्दु मानवीयता है…सिर्फ मानवीयता।
पंजाबी में, उर्दू की तर्ज़ पर, इसे 'मिन्नी कहानी' नाम से पुकारा जाता है। उर्दू में यद्यपि इसके लिए 'अफसांचा' शब्द भी है; लेकिन इस अर्थ में कि अन्य भाषाओं की तुलना में उर्दू दूसरी भाषा के शब्दों को बड़ी सहजता से अपनाती और आत्मसात् करती है, मैं एक महान भाषा के रूप उसका सम्मान करता हूँ। मेरा मानना है कि हर भाषा में यह लचीलापन या कि विशाल-हृदयता होनी ही चाहिए कि अभिव्यक्ति के अधिक-से-अधिक निकट पहुँच पाने वाले शब्द वह बेहिचक दूसरी भाषा से ले ले। इस बात को मैं यहाँ पंजाबी-परिप्रेक्ष्य के उदाहरण द्वारा ही स्पष्ट करने का प्रयास करूँगा। 'भंगड़ा' और 'गिद्दा' विशुद्ध पंजाबी शब्द हैं। शब्दकोश में इनके अर्थ क्या होंगे, यह बताने की आवश्यकता नहीं है; और न ही यह कि सिर्फ 'पंजाबी मर्दाना नाच' और 'पंजाबी जनाना नाच' कह देने भर से इन नृत्यों के उल्लास, उमंग और संस्कार को किसी भी तरह सम्प्रेषित नहीं किया जा सकता। अत: भंगड़ा और गिद्दा को ज्यों का त्यों ही प्रयोग करना श्रेयस्कर होगा। क्षेत्रीय शब्दों का अपना अलग ही वज़न, तेवर और लोच होता है। कोई अन्य शब्द आसानी से उनका स्थान नहीं ले पाता। बात मिन्नी कहानी की चल रही थी। मिन्नी कहानी में वह सब-कुछ पूरी शिद्दत के साथ है, जो उर्दू और पंजाबी की किसी भी अन्य कथा-विधा में है। पंजाब की मिट्टी और यहाँ की हवा जिस साहस, बलिदान-वृत्ति, मौजमस्ती और खिलंदड़ेपन के लिए दुनियाभर में विख्यात है, यहाँ के कथाकारों ने उस सब को पूरी गहराई के साथ मिन्नी कहानी में उतार पाने में सफलता पायी है। इसलिए, जब मैं यह कहता हूँ कि पंजाब में श्याम सुन्दर दीप्त, श्याम सुन्दर अग्रवाल और उनकी टीम ने 'लघुकथा' को नहीं, 'मिन्नी कहानी' को आगे बढ़ाया है तो इसका यही विशिष्ट तात्पर्य होता है। मलयालम में लघुकथा को 'पाम स्टोरी' के रूप में जाना जाता है। केरल में इसकी स्पष्ट और गहरी परम्परा है। वहाँ पर यद्यपि पंजाबी अथवा हिन्दी की तरह एक आन्दोलन के तहत इसे नहीं लिखा जा रहा; तथापि कुछ उल्लेखनीय लघुकथा-संग्रह मलयालम में अवश्य प्रकाशित और चर्चित हुए हैं। इससे भी अधिक गर्व की बात यह है कि मलयालम के विशिष्ट से लेकर लगभग अपरिचित तक हर कथाकार ने लघुकथाएँ लिखी हैं। मेरे द्वारा सम्पादित 'मलयालम की चर्चित लघुकथाएँ' पढ़कर केरल में हो रहे समृद्ध लघुकथा-लेखन को आसानी से रेखांकित किया जा सकता है।
इनके अतिरिक्त चीनी-लघुकथाओं से भी मेरा परिचय हुआ है। यह जानकर अतीव प्रसन्न्ता और आश्चर्य होता है कि चीन में भी नई पीढ़ी के कथाकारों ने लघुकथा को गई सदी के नवें दशक से एक आन्दोलन के रूप में अपनाया है। चीनी-भाषा में लघुकथाओं के अनेक महत्वपूर्ण संकलन प्रकाशित हो चुके हैं जिन्होंने राष्ट्रीय ही नहीं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की है। अनुवाद की दृष्टि से देखा जाए तो मेरा वास्ता अमरीकी, कनाडाई, अरबी, रूसी, जर्मनी, पाकिस्तानी आदि विभिन्न देशों की लघुकथाओं से पड़ा है, लेकिन उन सबके मैंने अंग्रेजी अनुवाद ही पढ़े हैं, मूल नहीं। हर देश की लघुकथा में एक चीज लगभग कॉमन है; वो ये कि दुनियाभर के लघुकथाकारों के चिन्तन का केन्द्र-बिन्दु मानवीयता है…सिर्फ मानवीयता।
संदर्भ: ‘मिन्नी’ द्वारा अक्टूबर 1997 में रेल कोच फैक्ट्री, कपूरथला(पंजाब) में आयोजित लघुकथा सम्मेलन व ‘माता शरबती देवी लघुकथा सम्मान’ से पूर्व सम्भवत: सितम्बर 1997 में डॉ दीप्ति द्वारा प्रेषित सवालों के जवाब
2 टिप्पणियां:
ज्ञानवर्धक बातचीत...
बहुत सार्थक वार्ता
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