लघुकथा संवेदनाओं की सटीक कथा-अभिव्यक्ति है/
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बलराम अग्रवाल
उमेश महादोषी—लघुकथा के मूलतत्व आप किसे मनते हैं, जिनके आधार पर आप इसे कहानी और उपन्यास की तरह कथा-साहित्य की पूर्ण-विधा मानते हैं?
बलराम अग्रवाल—मूलतत्वों के निर्धारण-मात्र से कोई रचना-प्रकार साहित्यिक विधा नहीं हो जाता। घनीभूत संवेदनाओं की सटीक कथा-अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण की तीव्रता ऐसे प्रमुख कारक हैं जो लघुकथा को कहानी और उपन्यास की तरह कथा-साहित्य में एक स्वतन्त्र आधार प्रदान करते हैं।
उमेश महादोषी—लघुकथा में बिम्बों/प्रतीकों के प्रयोग के बारे में आपका क्या सोचना है?
बलराम अग्रवाल—लघुकथा में बिम्बों/प्रतीकों का प्रयोग विषय को उत्कृष्ट तरीके से प्रकट करने में सहायक होता है, बशर्ते यह अनुरूपता लिए हो और क्लिष्ट न हो गया हो।
उमेश महादोषी—क्या लघुकथा में घटना का होना आवश्यक है? एक ही लघुकथा में एक से अधिक घटनाओं को समाहित करने से उसके स्तर पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
बलराम अग्रवाल—कहानी और लघुकथा, कथा के ऐसे प्रकार हैं जिनमें घटना का होना आवश्यक नहीं है। सिर्फ विषय अनिवार्यत: आवश्यक है। लघुकथा में एक से अधिक घटनाओं का समायोजन संभव नहीं है। लघु-आकारीय कहानी में भी एक से अधिक घटनाओं का निर्वाह कहानीकार नहीं कर पाता है। लघुकथा में इतना परिष्कार अवश्य आया है कि प्रारम्भ में इसे खण्डांश की अभिव्यक्ति माना जाता था, अब पूर्ण घटना को इसमें समाहित किया जा सकता है…किया जा रहा है।
उमेश महादोषी—लघुकथा की कसौटी में ‘समय और स्थान’ की आप किस प्रकार व्याख्या करेंगे?
बलराम अग्रवाल—‘समय और स्थान’ के अन्तर से यदि आपका तात्पर्य प्रस्तुत घटनाक्रम में इनके अन्तराल से है, तो लघुकथा में इसे हम ‘कालदोष’ के रूप में व्याख्यायित कर सकते हैं। समयान्तराल की प्रस्तुति लघुकथा में इस प्रकार होनी चाहिए कि आगामी घटना पूर्व घटना से ही उद्भूत होती प्रतीत हो।
उमेश महादोषी—कुछ लघुकथाओं में विभिन्न समयों या स्थानों पर समान पात्रों के स्वभाव या चरित्र का लघुकथाकार द्वारा स्वयं किया गया जिक्र मात्र होता है, जैसे—‘हम फलां वक्त वैसे थे, फिर वैसे बने और अब ऐसे हैं।’ ऐसी लघुकथाओं के बारे में आप क्या व्यवस्था देना चाहेंगे?
बलराम अग्रवाल—लघुकथा में नामधारी हों या अनामधारी, पात्र स्वयं घटना को आगे बढ़ाते हैं। इसी प्रकार वातावरण का रूपायन भी घटनाक्रम को प्रभावित करने वाला होता है। लघुकथाकार की अपनी कोई भूमिका लघुकथा में नहीं है। अत: जब भी, जैसे भी वह स्वयं उसमें प्रकट होने का यत्न करता है, लघुकथा के प्रभाव को आघात पहुँचाता है। ऐसी लघुकथाएँ, भले ही वे चर्चित हों, उनके लेखकों द्वारा पुनर्प्रेक्षित होकर इस दोष से मुक्त होनी चाहिएँ।
उमेश महादोषी—किसी भाषा की लघुकथा में दूसरी भाषा के प्रचलित अथवा अप्रचलित शब्दों का प्रयोग कहाँ तक उचित है?
बलराम अग्रवाल—दूसरी भाषा के प्रचलित यानी कि बोलचाल में प्रयुक्त हो रहे शब्दों का लघुकथा में प्रयुक्त होना कोई बुरी बात नहीं है, यदि वे प्रसंगानुरूप उचित रूप में आए हों। सरल एवं सटीक भावबोधक अप्रचलित शब्दों का प्रयोग भी ‘प्रयोग’ के तौर पर ही स्वीकार किया जा सकता है, बशर्ते ऐसे प्रयोग से लघुकथा में भाषागत अस्वाभाविकता न आ गई हो।
उमेश महादोषी—लघुकथा में वातावरण की आप क्या भूमिका मानते हैं?
बलराम अग्रवाल—प्रभावपूर्ण स्थिति के लिए आवश्यक है कि वातावरण का निष्पादन विषयानुकूल और घटना को आगे बढ़ाने में सहायक के तौर पर हो। इससे विरक्त वातावरण निष्पादन लघुकथा में शाब्दिक-लफ्फाजी ही कहा जाएगा। वस्तुत: लघुकथा में वातावरण निष्पादन हेतु तीक्ष्ण एवं वीक्ष्ण दृष्टि वांछित है।
उमेश महादोषी—संवाद-शैली में काफी लघुकथाएँ लिखी गईं। आजकल कम देखने में आती हैं, ऐसा क्यों? कहीं ऐसा तो नहीं कि संवाद-शैली में लघुकथा के ‘कथा-तत्व’ को लघुकथाकार आहत हुआ-सा महसूस करने लगे हों?
बलराम अग्रवाल—लघुकथा में संवाद-शैली को एक प्रयोग के रूप में देखना और स्वीकारना चाहिए। उद्भव-काल में और उसके बाद उत्थान-काल में किसी भी विधा में ऐसे प्रयोग उसके रचनाकारों की रचनाशील-प्रवृत्ति और विधा के प्रति उनके समर्पण को रूपायित करते हैं। दुर्भाग्य की बात यह रही कि संवाद-शैली को सहज लेखन की बजाय सुविधाजनक लेखन के तौर पर अपनाने वाले अनगिनत लेखकों ने लघुकथा की इस शैली के मर्म को आहत किया।
उमेश महादोषी—कुछ लोगों का कहना है कि जब कहानी संवाद-शैली में लिखी जा सकती है तो लघुकथा क्यों नहीं?
बलराम अग्रवाल—अंशत: तो इसका उत्तर दिया ही जा चुका है। किसी भी शैली प्रयोग-धर्मिता को रचना-धर्मिता नहीं कहा जा सकता। यह बात कहानी पर भी लागू होती है। दूसरे, क्या यह जरूरी है कि लघुकथा को कहानी की पगडंडियों पर घुटनों चलाया जाय?
उमेश महादोषी—कहानी में पत्र-शैली का प्रयोग कई कहानीकारों ने किया है। क्या लघुकथा में भी ऐसा हुआ है? और क्या लघुकथा में यह सम्भव है?
बलराम अग्रवाल—हुआ है, परन्तु बहुत कम…सीमित। अभी तक कोई प्रभावकारी लघुकथा पत्र-शैली में नहीं आई। अलबत्ता अशोक भाटिया की एक लघुकथा इस बारे में उल्लेखनीय कही जा सकती है।
उमेश महादोषी—लघुकथा-लेखन की जरूरत क्यों महसूस हुई? कुछ लोगों का यह कहना कि ‘लघुकथाकार कहानी नहीं लिख सकते, इसलिए लघुकथा लिखते हैं’ कहाँ तक उचित है?
बलराम अग्रवाल—किसी भी क्षेत्र में नये प्रयोग सम्बन्धित समाज, जाति अथवा समुदाय की विकासमान प्रवृत्ति के द्योतक हैं। साहित्य क्षेत्र में विकास की प्रक्रिया नयी विधाओं को जन्म देती है। उन पर कोप करना नवीनता की, अग्रगामी प्रवृत्ति की ओर से आँखें मूँदना है। ओमपुरी या नसीरुद्दीन शाह व्यावसायिक सिनेमा में सफल नहीं हुए, इसलिए कला-फिल्मों के नायक हैं, हरगोविंद खुराना परमाणु पर खोजकार्य नहीं कर सकते थे, इसलिए उन्होंने ‘जीन्स’ खोजा, कहानीकार उपन्यास-लेखन में अक्षम है इसलिए कहानी लिखता है—ये या इन जैसे सारे जुमले सत्य से परे हैं…निरर्थक हैं। जो व्यक्ति जिस क्षेत्र का विशेषज्ञ है, उसी में कार्य करेगा…उसी में उसे सफलता मिलेगी। पूर्वकाल से अब तक लघुकथा लिखने वाले अधिकांश लेखकों ने लम्बी रचनाएँ भी लिखी हैं। वस्तुत: साहित्य को व्यक्तिमूलक सम्पत्ति मान लेने वाले लोग ही इस वक्त लघुकथा के उद्भव से आक्रांत हैं, कोई अन्य नहीं।
संदर्भ:संबोधन(लघुकथा विशेषांक), अप्रैल-जुलाई-अक्टूबर 1988
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