भाग-२
नई और शहरी पीढ़ी को घर-परिवार और गाँव से जोड़े रखने का यह दायित्व ‘गले की चैन’ देकर ही पूरा होता हो ऐसा नहीं है। हर बुजुर्ग इसे अपनी आर्थिक क्षमता तथा बौद्धिक-स्तर के अनुरूप पूरा करता है। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथा ‘ऊँचाई’ के पिताजी बेटे-बहू की समस्त शंकाओं के पार जाकर उन्हें अचम्भित ही नहीं उस समय लज्जित भी कर देते हैं जब खाना खा चुकने के बाद वे बेटे के हाथ में सौ-सौ के दस नोट पकड़ाकर कहते हैं कि उन्हें रात की गाड़ी से वापस लौट जाना है। कमल चोपड़ा की लघुकथा ‘संतान’ की ग्रामीण माँ तो मात्र दो स्वेटर ही भेजकर दायित्वहीन बहू को अपना बना लेती है। सवाल यह पैदा होता है कि वे बुजुर्ग जो स्वेटर भी दे सकने की स्थिति में नहीं रह गए हैं, बिखरते जा रहे परिवार को कैसे बचाएँ? इसका एक समाधान सुभाष नीरव की लघुकथा ‘तिड़के घड़े’ प्रस्तुत करती है जिसमें बहू-बेटे के रोज-रोज के तानों-उलाहनों से परेशान बाऊजी सोते समय अम्माजी को यों समझाते हैं—“तुम दिल पर क्यों लगाती हो। कहने दिया करो जो कहते हैं। हम तो अब तिड़के घड़े का पानी ठहरे। फेंकने दो कंकर-पत्थर। जो दिन कट जायँ, अच्छा है।” माँ-बाप अगर चुप रहने की आवश्यकता पर स्वयं अमल नहीं करेंगे तो स्पष्ट है कि विचार और व्यवहार दोनों स्तरों पर निर्लज्ज हो चुके बेटे-बहू के द्वारा उन्हें यह आवश्यकता समझाई भी जा सकती है(‘मौन’, राजेन्द्र नागर ‘निरन्तर’)। भारतीय परिवारों में अपनी वर्तमान स्थिति का आकलन वृद्ध किस रूप में प्रस्तुत करते हैं, मीरा जैन की ‘हम और हमारे पूर्वज’ उसे मात्र एक वाक्य में समेट देने में सक्षम है—“उस वक्त परिवार में हमारे पूर्वजों की स्थिति ‘नाथ’ की-सी होती थी, हमारी स्थिति ‘अनाथ’ जैसी है।”
बढ़ी-उम्र के लोगों में परिवार को जोड़े रखने की कवायद से अलग, आने वाली पीढ़ी को शारीरिक, सामाजिक व सांस्कारिक प्रत्येक प्रकार की सुरक्षापरक चेतना देने सम्बन्धी प्रयासों के रूप में भी देखने को मिलती है। कुँवर प्रेमिल की लघुकथा ‘मंगलसूत्र’ तथा मणि खेड़ेकर की लघुकथा ‘हार में जीत’ की सास पात्राएँ दायित्व-निर्वाह के इस मुकाम से भली-भाँति परिचित हैं। और सबसे बड़ी बात तो संतोष सुपेकर की लघुकथा ‘लक्ष्मण रेखा’ में व्यक्त हुई है—“घर के बुजुर्ग का जूता भी बाहर पड़ा हो तो मुसीबत आने से हिचकती है।” मुसीबतों से बचे रहने के लिए ही नहीं बल्कि दैनिक जीवन में विलासिताओं का उपभोग करने हेतु भी कुछेक युवा घर के बुजुर्ग माता-पिता के नाम का उपयोग करने से नहीं चूकते हैं। उनके प्रति अपने दायित्व-निर्वाह से वे कितने ही दूर रहें, उनके होने से लिए जा सकने वाले सांसारिक लाभ से वे कभी दूर नहीं रहते। रामयतन यादव की लघुकथा ‘चिट्ठी’ तथा रामकुमार आत्रेय की लघुकथा ‘पिताजी सीरियस हैं’ तथा सुरेश शर्मा की लघुकथा ‘पितृ प्रेम’ के वृद्ध पात्र युवाओं की ऐसी ही स्वार्थपरकता से आहत हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि जैसे-जैसे आदमी की उम्र बढ़ती है, खुद से लड़ने की उसकी ताकत में गिरावट आने लगती है। अगर कोई शारीरिक रोग उसको नहीं है तो ताकत में आने वाली इस गिरावट का पता अक्सर उसे नहीं लगता; उम्र क्योंकि एकाएक नहीं, बल्कि धीरे-धीरे आदमी पर हावी होती है। उम्र पर हावी होने के लिए आवश्यक है कि आदमी जीवन को जिए और उम्र को भूल जाए; लेकिन यह भूलना भी उसकी प्रकृति पर निर्भर करता है। हर आदमी उम्र को नहीं भूल सकता। सच तो यह भी है कि भारतीय समाज में उम्र को पकड़कर बैठ जाने वाले लोगों की संख्या ही अधिक है, भूल सकने वालों की नगण्य। यों भी, ‘भूलने’ को अपने चरित्र में सभी विकसित नहीं कर पाते। ‘न भूल पाने’ वाले व्यक्तियों को देर-सबेर मन:ताप अवश्य ही घेर लेता है—यह याद रखना चाहिए। हरभजन खेमकरनी की लघुकथा ‘कबाड़वाला कमरा’ के बुजुर्ग पात्र परिवार में अपनी भावी तथा मनोज सेवलकर की लघुकथा ‘कचरा’ का बुजुर्ग अपनी वर्तमान स्थिति को समझते हुए वैसा ही आचरण भी करते हैं और जीने का एक सार्थक ढंग तलाश करने का प्रयत्न करते हैं।
आम कहावत है कि सिर्फ बुढ़ापा ही वह चीज है जो बिना प्रयास ही मनुष्य की झोली में आ पड़ती है। और एक बार आ पड़ने के बाद? कहा जाता है कि—जाके न आए वो जवानी देखी, आके न जाए वो बुढ़ापा देखा। बुढ़ापा जब आ जाता है और व्यक्ति को असहाय और निरीह स्थिति में पहुँचा देता है, तब वह अपने गत जीवन पर दृष्टि डालता है और अपनी अनेक गलतियों का अहसास करता है। वे गलतियाँ यद्यपि अलग-अलग स्तर की हो सकती हैं तथापि उनमें से एक बड़ी भयंकर वह भी नजर आती है जिसका खुलासा सूर्यकांत नागर की लघुकथा ‘रोशनी’ की गंगा चाची करती हैं—‘अम्मा, तुमने बड़ी भूल की। जो कुछ था, सब बेटों पर लुटा दिया। उनको रास्ते लगाया। उनकी गृहस्थी जमाई, पर तुम्हें क्या मिला? आज अंधी होकर बैठी हो।’ अंधा होने से बचाने की दृष्टि से ही संतोष सुपेकर की लघुकथा ‘एक बेटा’ का फ्रांसिस दो सप्ताह बाद रिटायर होने को तैयार अपने सहकर्मी देवीसिंह को सलाह देता है कि वह अपने तीन बेटों को नहीं बल्कि मिले हुए फण्ड को ही अपना एकमात्र बेटा समझे और उसे सम्हालकर रखे। साबिर हुसैन की ‘श्रवण कुमार’, अंजना अनिल की ‘दर्द’, जसबीर ढंड की ‘छमाहियाँ’, डॉ बलदेव सिंह खहिरा की ‘जिम्मेवारी’, दर्शन जोगा की ‘निर्मूल’, हरजीत कौर कंग की ‘कलयुगी श्रवण’, बलराम अग्रवाल की ‘कसाईघाट’ और ‘झिलंगा’, गफूर ‘स्नेही’ की ‘और जीवित रहती माँ’, सुरेन्द्र कुमार ‘अंशुल’ की ‘जरूरत’, शील कौशिक की ‘हिसाब-किताब’, कालीचरण प्रेमी की ‘विकल्प’, श्याम सुन्दर अग्रवाल की ‘पुण्यकर्म’, प्रताप सिंह सोढ़ी की ‘तस्वीर बदल गई’, ‘जलन’ व ‘स्वाभिमान’, योगेन्द्रनाथ शुक्ल की ‘ईर्ष्या’ आदि अनगिनत लघुकथाएँ परिवार में बूढ़े माता-पिता के प्रति बेटे-बहू के दायित्वहीन व्यवहार को केन्द्र में रखकर लिखी गई हैं। यद्यपि इन सभी लघुकथाओं की भाषा, शैली और शिल्प—सभी एक-दूसरे से भिन्न हैं तथापि केन्द्रीय कथ्य एक ही है।
नई धारा(वृद्ध विमर्श विशेषांक, अप्रैल-मई 2010/पृष्ठ 63-64
7 टिप्पणियां:
...बेहतरीन!!!!
भाई बलराम, तुम्हारा आलेख "समकालीन लघुकथा और बुजुर्गों की दुनिया" अच्छा है और गौर करने लायक है, वह इसलिए कि कथा साहित्य विशेशकर कहानी में वृद्धों पर बहुत कुछ लिखा गया और लिखा जा रहा है और उस पर उसी अनुपात में बात भी होती रही है। कुछ वर्ष पूर्व 'वागार्थ' का 'वृद्ध विशेषांक' छपा था और बेहद सराहा गया था। लेकिन ऐसा नहीं है कि कथा विधा की ही सहचर विधा "लघुकथा" में "वृद्ध जीवन" पर नहीं लिखा गया। लिखा गया और बहुत लिखा गया, बेहतरीन भी, पर उसे रेखांकित करने का काम न के बराबर हुआ। जिस उपेक्षा, तिरस्कार और असहायपन को लोग वृद्धावस्था में बेजुबान होकर जीते हैं, उसकी गहरी संवेदना से भरा पूरा साहित्य विश्व के तमाम भाषाओं के साहित्य में हमें मिलता है। हिंदी लघुकथा में भी इसके भरपूर दर्शन होते हैं। इस पर गम्भीर रूप से कोई काम नहीं हुआ। तुमने प्रयास किया तो अच्छा लगा लेकिन तुम्हार आलेख अभी विस्तार मांगता है। फिर भी तुम बधाई के पात्र हो कि तुमने इस तरफ ध्यान दिया।
भाई बलराम,
लघुकथाओं पर तुम बहुत महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हो. पिछला आलेख भी पढ़ा था और यह भी. इस शोधपूर्ण आलेख के लिए बधाई.
लघुकथा विधा के प्रति तुम्हारी चिन्ता और गैर व्यावसायिक स्तर पर उसके प्रति तुम्हारा समर्पण प्रेरणादायी है----खासकर ऎसे समय में जब लोग लघुकथाओं को उलटफेर कर अनेकानेक संकलन सम्पादित करते हुए पैसा कमा रहे हैं. यही नहीं, वे अपने निजी हितों के कारण गैर लघुकथाकारों को लघुकथा विधा में बलात थोपने का प्रयास भी कर रहे हैं तब तुम्हारा कार्य सोचने के लिए विवश करता है.
चन्देल
कुल दोनों भाग मिलकर लेख बहुत महत्वपूर्ण बन गया है। ऐसे चिंतनपूर्ण लेख कई-कई जगह प्रकाशित हों, तभी अधिकाधिक लोगों तक पहुंचकर अपने उद्देश्य में सफल हो सकते हैं।
संतोष सुपेकर की लघुकथा‘लक्ष्मण रेखा में आया यह कथन-—“घर के बुजुर्ग का जूता भी बाहर पड़ा हो तो मुसीबत आने से हिचकती है।” किसी वेद वाक्य से कम नहीं । लेख का विषय तो गम्भीर है ही , बलराम अग्रवाल जी ने अपनी मँजी हुई शैली में इसे प्रस्तुतकरके नायाब बना दिया है ।
AAPKAA LEKH SANGRAHNIY HAI.AAP JAESE SAHITYAKAR DHOONDH- DHOONDH
KAR LAGHU KATHAA PAR BAHUT KUCHH
LIKH RAHE HAIN,YAH BADEE UPLABDHI
KEE BAAT AI.
अच्छा आलेख है ।
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