शनिवार, 3 जुलाई 2010

समकालीन लघुकथा और बुजुर्गों की दुनिया/बलराम अग्रवाल

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भाग-
माज का यह एक बना-बनाया दृष्टिकोण प्रतीत होता है, जिससे कथाकार भी अछूते नहीं रह पाए हैं; लेकिन बूढ़े माँ-बाप के प्रति समूची नई पीढ़ी दायित्वहीन नहीं है और न ही लघुकथाकार वृद्धों व युवाओं से जुड़ी अन्यान्य संवेदनाओं को चित्रित करने से चूके हैं। कृष्ण मनु की लघुकथा धारणा के विसेसर बाबू समाज में व्याप्त इस दुराग्रह को यों व्यक्त करते हैं—“गलत धारणा पालकर पता नहीं क्यों बहू-बेटे के प्रति दुराग्रह से पीड़ित रहते हैं लोग। नियति सप्रे की निरुत्तर, सीमा पांडे सुशी की कीमत, शील कौशिक की सामंजस्य, नन्दलाल भारती की नसीब आदि लघुकथाओं को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। श्याम सुन्दर अग्रवाल की माँ का कमरा तथा सत्यवीर मानव की दर्द-बोध भी इस प्रचलित धारणा को तोड़ती बेहद सशक्त लघुकथाएँ है। ऐसी लघुकथाएँ नयी पीढ़ी से मिलने वाली सहानुभूति और सहायता की ओर से हताश हो चुकी वृद्ध पीढ़ी(उड़ान, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु तथा अज्ञात गमनकसाईघाट, बलराम अग्रवाल तथा स्वाभिमान प्रताप सिंह सोढ़ी) को आशा की किरण दिखाती हैं, मृतप्राय: उनके सपनों को साँसें प्रदान करती हैं।
सतिपाल खुल्लर की बदला हुआ स्वर, निरंजन बोहा की रिश्तों के अर्थ और हरनाम शर्मा की अब नाहीं बुजुर्गों द्वारा दबंग तरीके से अपना अधिकार पाने को प्रतिष्ठित करती हैं, लेकिन यह तरीका दो ही स्थितियों में सम्भव हैपहली यह कि व्यक्ति शारीरिक व आर्थिक रूप से सक्षम हो तथा दूसरी यह कि बेटे-बहू के आचरण में थोड़ी-बहुत सांस्कारिकता, समाज के प्रति जवाबदेही की सेंस बाकी बची हो। शारीरिक, आर्थिक और मानसिकसभी ओर से आहत वृद्धजन अपनी संतान तक के विरुद्ध आक्रामक कार्यवाही का कदम भी उठा सकते हैं; लेकिन माँ आखिर माँ ही होती है, बहुत जल्द द्रवित हो जाती है। संतान उसकी दृष्टि में अबोध ही रहती है, माँ उसको कष्ट में नहीं देख सकती(मातृत्व, नरेन्द्र नाथ लाहा)।
अनुभव क्या हैं? अपनी गलतियों का पुलिन्दा। गलतियाँ करने के जोखिम से दूर भागते रहने वाला व्यक्ति अनुभव-प्राप्ति से भी दूर ही रह जाता है। चेखव के नाटक तीन बहनेंका एक पात्र कहता है—“कितना अच्छा होता कि ये जो जिंदगी हमने जी है, वो एक रफ ड्राफ्ट होती, उसे एक बार संशोधित करने का मौका हमें मिलता।.वाकई व्यक्ति को अगर दोबारा जवान उम्र में लौटने की सुविधा मिल जाए और उसके बाद वह दोबारा ही बुढ़ापे में भी कदम रख सकने का वर प्रकृति से पा सके तो जीवन की बहुत-सी गलतियों को सुधारने की कोशिश कर सकता है। हालाँकि कुछ मामलों में यह भी हो सकता है कि दूसरी पारी में वह चूक गई गलतियों को नए सिरे से करने की पहल करे।
कुछ लोगों के लिए यथार्थ यह है कि बुढ़ापा बुरे वक्त की देन है; और उस समय, जब बच्चों की पढ़ाई के लिए पिताजी से खाली कराया गया कमरा(कमरा, सुभाष नीरव) उनकी उपेक्षा कर किराए पर उठा दिया जाय, अथवा बरामदे के बराबरवाली अँधेरी कोठरी से भी बिस्तर हटाकर उन्हें दो-तीन दिन के लिए पडोसी के यहाँ सोने को कह दिया जाए(तंग होती जगह, कृष्ण मनु), तब तो यह बात पूरी तरह सिद्ध ही हो जाती है। सुरेश शर्मा की बन्द दरवाजे तथा पारस दासोत की एक मूवी का द एण्ड अपने मनोरंजन में डूबे युवा परिवारजनों की वृद्धों के प्रति उपेक्षा की चरम-स्थिति का वर्णन करती हैं।
व्यक्ति पहले जवान होता है, फिर प्रौढ़, फिर बूढ़ा और अन्त में अनुकरणीय बन जाता है। लेकिन अनुकरणीय बन जाना उतना आसान नहीं है। उम्र कुछ लोगों को पका देती है और कुछ को थका देती है; कुछ को उम्र सुगन्धि दे जाती है तो कुछ उसे पाकर सड़-गल जाते हैं। इसलिए बहुत कम लोग होते हैं जिन्हें बुजुर्ग कहा जा सकता है तथापि सम्मान हमें बूढ़ों का भी करना ही चाहिए। क्यों करना चाहिए? इसके उत्तर-स्वरूप रामनिवास मानव की बाप का दर्द, सुकेश साहनी की संस्कार, रमेश चन्द्र की बड़े बूढ़े, राजेन्द्र वामन काटदरे की इन्वेस्टमेंट को पढ़ा जा सकता है।
शारीरिक रूप से थक चुके अथवा कारण-विशेषवश अक्षम चल रहे लोगों को सहानुभूति और सहायता प्रदान करना स्वस्थ लोगों का दायित्व हैयह बात सभी स्वस्थ लोगों के मानसिक-संस्कार में पैठी होनी चाहिए। श्यामसुन्दर व्यास की लघुकथा संस्कार में बहू का पाँव भारी होने के कारण बाहर से पानी ढोने के दायित्व को बूढ़ी अम्मा निभाती है तो अम्मा के बुढ़ापे को देखते हुए उसकी मदद करने के दायित्व को मनकू निभाता है। इसी दायित्व को सतीश दुबे की लघुकथा बंदगी का दमड़ीलाल पूर्णत: अशक्त बूढ़े बाबा के प्रति, सुभाष नीरव की लघुकथा सहयात्री का पुरुष बूढ़ी माताजी के प्रति और पूजा-फंड का शिक्षक धीर माता-पिता के प्रति निभाता है। वर्तमान समाज को इस दायित्व-बोध की महती आवश्यकता है जिसकी ओर ये लघुकथाएँ बड़ा सटीक और सुखद संकेत करती हैं। अन्तत: तो सभी के शरीर को एक न एक दिन अशक्त हो ही जाना है। यह एक प्राकृतिक क्रिया है जो हमेशा ही विज्ञान के समक्ष चुनौतीपूर्ण ढंग से उपस्थित रहेगी क्योंकि इसका समाधान सेवा है, तर्क नहीं।
नई धारा(वृद्ध विमर्श विशेषांक, अप्रैल-मई 2010/पृष्ठ 64-65

7 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

बहुत अच्छा विवरण । धन्यवाद।

PRAN SHARMA ने कहा…

Aapke ye lekh sanjone waale hain.
Jeewan kee dher saaree vyasttayon
mein aap itna padh kaese lete hai?
Bujurgon kee duniya par likhee
jaa rahee laghu kathaaon par aapkaa
dharavaahik vishleshan achchha lag
rahaa hai.

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

तुमने बुजुर्गों पर लिखित लघुकथाओं का बहुत अच्छी प्रकार से विश्लेषण किया है.

वैसे तुम्हारे अंदर एक सशक्त आलोचक मौजूद है.....उसका उपयोग करो.

चन्देल

उमेश महादोषी ने कहा…

'अन्तत: तो सभी के शरीर को एक न एक दिन अशक्त हो ही जाना है।' कोई समझे-न-समझे, पर आपने यह दायित्वबोध बखूबी कराने का प्रयास किया है।

सहज साहित्य ने कहा…

बुज़ुर्गों को केन्द्र में रखकर लिखी गई लघुकथाओं का तात्त्विकविश्लेषण सराहनीय है ।

प्रदीप कांत ने कहा…

एक बहुत गम्भीर विषय को लेकर लिखी जा रही लघुकथाओं पर एक गम्भीर आलेख है।

Devi Nangrani ने कहा…

Man abhibhoot ho gaya padhte padhte. Jahan kal hamare bade the vahin aaj hum hai aur itihaas khud ko dohrata rahega silsilewaar.jazabton ka aaina hai yeh alekh. aapke prayasoon ke liye aapka ko sadhuwaad