दोस्तो, प्रस्तुत लेख का किंचित संक्षिप्त
रूप 15 जुलाई, 2013 को आकाशवाणी, दिल्ली के साहित्य वार्ता कार्यक्रम हेतु रिकॉर्ड
कराया था। आप भी देखें:
चित्र:बलराम अग्रवाल |
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो संस्कृत,
पालि, प्राकृत और अपभ्रंश कथा-साहित्य लघुकथापरक रचनाओं का महासागर है। इस आधार पर
हम कह सकते हैं कि लघुकथा विश्व कथा-साहित्य की प्राचीनतम विधा है; तथापि
हिंदी में समकालीन रचना-विधा के रूप में इसका अस्तित्व गत सदी के सातवें दशक के उत्तरार्द्ध अथवा आठवें दशक के
प्रारम्भ से ही माना जाता है। भारत में यह काल राजनीतिक व उससे
जुड़ी धार्मिक सोच में अपकर्ष का तथा आम सामाजिक की सोच में तज्जनित आंदोलनों का काल
रहा है। इसलिए समकालीन लघुकथा में विभिन्न
सामाजिक व राजनीतिक दबावों, मूल्यहीनताओं और विसंगतियों को
आसानी से रेखांकित किया जा सका है। यह दो मान्यताओं के टकराव
का भी दौर था, इसलिए समकालीन लघुकथा का रवैया और इसके मुख्य सरोकार द्वंद्वात्मक भी रहे हैं। राजनीतिक
व धार्मिक चरित्रों के इस द्वैत को सर्वग्राह्य बनाने की दृष्टि से पूर्ववर्ती
लघुकथाकार समकालीन स्थितियों, दबावों, संबंधों और दशाओं को उजागर करने के लिए अधिकांशत:
पौराणिक कथ्यों, पात्रों, कथाओं, संकेतों आदि को व्यवहार में लाए। इसीलिए लघुकथा
उन्नयन के उक्त प्रारम्भिक दौर में कथा-रचना व कथा-चिंतन
की केंद्रीय पत्रिका ‘सारिका’ में प्रकाशित लघुकथाओं में ऐसे रुझान
बहुतायत में देखने को मिलते हैं। लेकिन लघुकथा के प्रति
गम्भीर व जुझारू रचनाकारों ने लघुकथा के
प्रारम्भिक स्वरूप में ऊर्ध्व परिवर्तन को स्थान देते हुए विचार-वैभिन्न्य,
कथ्य, भाषा, शिल्प,
शैली आदि का कालानुरूप सम्मिश्रण किया। उनके साहसपूर्ण प्रयासों
के चलते यह अपने युग के रस्मो-रिवाजों को साहित्यिक अभिरुचियों के
अनुरूप चित्रित कर पाने में सफल रही
है। आम जीवन के सुपरिचित रोषों का, वेदनाओं और व्यथाओं का,
जीवन को नरक बना डालने वाली रीतियों और रिवाजों का इसमें ईमानदार
चित्रण हुआ है। उदाहरण के लिए देखें स्व॰ श्यामसुन्दर व्यास की
लघुकथा ‘संस्कार’ :
चित्र:बलराम अग्रवाल |
सार्वजनिक नल पर पानी भरने वालों की
भीड़ जमा हो गई थी। हंडा भर जाने के बाद बूढ़ी अम्मा से हंडा उठाया नहीं जा रहा था।
लोगों का अधैर्य बड़बड़ाहट में बदलने
लगा। मनकू ने हंडा हटाकर अपनी बाल्टी लगाते हुए बूढ़ी से कहा, “बहू
को मेंहदी लगी है क्या, जो तू आ गई?”
कातर स्वर में बूढ़ी के बोल फूटे—“उसका पाँव भारी है।”
मनकू को लगा जैसे किसी ने उस पर घड़ों
पानी डाल दिया हो।
उसने हंडा उठाया और बूढ़ी अम्मा के
द्वार पर रख आया।
चित्र:बलराम अग्रवाल |
उसका बाप सुबह-सुबह तैयार होकर काम पर चला गया। माँ उसे रोटी देकर,
ढेर-सारे कपड़े लेकर नहर पर चली गई।
वह घर से निकली थी कि उसी
तरह रूखे-उलझे बालों वाली उसकी सहेली अपना फटा और थोड़ा ऊँचा फ्राक बार-बार नीचे
खींचती आ गई। फिर एक-एक करके बस्ती के दो-चार बच्चे और आ गये।
“चलो, घर-घर खेलेंगे।”
“पहले खाना बनाएँगे। तू जाकर लकड़ियाँ बीन ला… और तू यहाँ सफाई कर दे।”
“अरे ऐसे नहीं। पहले आग तो जला!”
“मैं तो इधर बैठूँगी।”
“चल, अपन दोनों चलकर कपड़े धोयेंगे।”
“नहीं, चलो, पहले सब यहाँ बैठ जाओ। खाना खाओ, फिर बाहर जाना।”
“मैं तो इसमें लूँगा।”
“अरे, भात तो खतम हो गया? इतने सारे लोग आ गये…चलो, तुम लोग खाओ, मैं
बाद में खा लूँगी।”
“तू माँ बनी है क्या?”
कहीं
पर यह दैनन्दिन-जीवन की ऊबड़-खाबड़ धरती पर खड़ी है तो कहीं पर यह सीधी-सपाट-समतल जमीन के अनचीन्हे संघर्षों के चित्रण में मशगूल है। बस यों
समझ लीजिए कि समकालीन लघुकथा निराशा, संकट, चुनौती और संघर्षभरे जीवन में आशा, सद्भाव और सफलता
की भावना के साथ आमजन के हाथों में हाथ डाले विद्यमान है। इसमें संकट का
यथार्थ-चित्रण है, लेकिन यथार्थ-चित्रण को साहित्य का संकट
बनाकर प्रस्तुत करने की कोई जिद इसमें नहीं है। देखिए
डॉ॰ योगेन्द्रनाथ शुक्ल की लघुकथा ‘आशंका’ :
घर
के सामने कार रुकने की आवाज़ आते ही पिता छड़ी के सहारे रूम की ओर चल दिए।
“बेटा!
यात्रा में कोई कष्ट तो नहीं हुआ?”
“नहीं
पिताजी।”
“कार्यक्रम
अच्छी तरह निपट गया?”
“जी
पिताजी। चाचाजी आपको बहुत याद कर रहे थे…मैंने कह दिया कि आपकी तबियत ठीक नहीं थी,
इसलिए नहीं आ सके।”
“बेटा,
तुम्हारी चाची बहुत अच्छी महिला थी…तुम्हें तकलीफ तो हुई होगी, लेकिन उनके तेरहवें
में शामिल होना बहुत जरूरी था…उनका परिवार भले ही दूसरे शहर में रह रहा हो, पर
हमारा खून तो एक ही है…।” यह कहते हुए उनकी आँखें भर आई थीं;
किन्तु उन्हें मन ही मन सन्तोष भी था कि पुत्र और पुत्रवधू ने उनकी आज्ञा का पालन
किया था।
रात
को यश उनके कमरे में आया—“दादाजी, पापा कानपुर से मेरे लिए
ये वीडियो-गेम लाए हैं।”
“यह
तो बहुत अच्छा है! जरा मुझे भी बताओ…।” उसके सिर पर हाथ
फेरते हुए दादाजी ने कहा।
“दादाजी,
मम्मी कह रही थी कि चाचीजी की साग-पूड़ी चार हजार में पड़ी।…दादाजी, क्या साग-पूड़ी
इतनी मँहगी मिलती है?”
यश
अपने प्रश्न का जवाब चाह रहा था और दादाजी अपने भावी जीवन के प्रति आशंकित हो
मूर्तिवत खड़े थे।
नए
विषयों की चौतरफा पकड़ का जैसा गुण समकालीन लघुकथा में है, वह इसे सहज ही समकालीन कथा-साहित्य की कहानी-जैसी सर्व-स्वीकृत और सर्व-ग्राह्य विधा बनाता है। इसमें यथार्थ के वे
आयाम हैं जो अब तक लगभग अनछुए थे। इसमें ग्रामीण, कस्बाई,
नगरीय, महानगरीय हर स्तर के जीवन-रंग हैं।
जहाँ एक ओर घर की बेटी या नन्हें शिशु की माँ परिवार या
शिशु के पोषण के लिए तन बेच रही है, वहीं तन
और मन की तृप्ति को वैयक्तिक अधिकार सिद्ध करते नव-धनाढ्य भी हैं जो चंद सिक्कों के बल पर सदाशयता का नाटक खेलते रहते हैं। इस संबंध में उदाहरणार्थ प्रस्तुत है श्याम
सुन्दर अग्रवाल की लघुकथा ‘भिखारिन’ :
“बच्चा भूखा है,
कुछ दे दे सेठ!” गोद में बच्चे को उठाए एक जवान औरत हाथ फैलाकर भीख माँग रही थी।
“इस का बाप कौन है? अगर पाल नहीं सकते तो पैदा क्यों करते
हो?” सेठ झुंझलाकर बोला।
औरत चुप रही। सेठ ने उसे सिर से पाँव तक देखा। उसके
वस्त्र मैले तथा फटे हुए थे, लेकिन बदन सुंदर व आकर्षक था। वह बोला, “मेरे गोदाम
में काम करेगी? खाने को भी मिलेगा और पैसे भी।”
भिखारिन सेठ को देखती रही, मगर बोली कुछ नहीं।
“बोल, बहुत से पैसे मिलेंगे।”
“सेठ, तेरा नाम
क्या है?”
“नाम! मेरे नाम से तुझे क्या लेना-देना?”
“जब दूसरे बच्चे के लिए भीख माँगूँगी और लोग उसके बाप का नाम पूछेंगे तो क्या बताऊँगी?”
यह
कहना कि समकालीन लघुकथा ने आम-आदमी की उसके सही अर्थों में खोज की है, कोई अतिशयोक्ति न होगी। यह सामाजिक और मनोवैज्ञानिक
सच्चाई है कि व्यक्ति-जीवन से परंपरा की रंगत कभी भी धुल नहीं पाती है, उसका कुछ न कुछ अंश बना जरूर रहता है और वही रंग
व्यक्ति को उसके अतीत गौरव से जोड़े रखने व नए को अपनाने के प्रति
सचेत रहने की समझ प्रदान करता है। समकालीन लघुकथा में एक ओर हमें परम्परा के दर्शन
होते हैं तो दूसरी ओर आधुनिकता के भी दर्शन होते हैं। विषयों और कथ्यों के तौर पर इसने गाँव-गँवार से लेकर इंटरनेट चैट-रूम तक पर अपनी पकड़ बनाई है।
इसमें आधुनिकता की ओर दौड़ लगाता मध्य और निम्न-मध्य वर्ग भी है और उससे घबराकर
परंपरा की ओर लौटता या वैसा प्रयास करता तथाकथित अत्याधुनिक
वर्ग भी है।
समकालीन
लघुकथा ने परंपराजन्य एवं व्यस्थाजन्य अमानवीय नीतियों-व्यवहारों के प्रति आक्रोश
व्यक्त करने के अपने दायित्व का निर्वाह बखूबी किया है और लगातार कर रही है। यह इसलिए भी संभव बना रहा है कि अधिकांश लघुकथाकारों ने आम
व्यक्ति का जीवन जिया है। वे गर्हित राजनीति और धर्म के
त्रास से लेकर जीवन की हर मानसिक व शारीरिक कष्टप्रद स्थिति से गुजरे हैं और आज भी
गुजर रहे हैं। उन्होंने हर प्रकार का त्रास झेला है और आज भी झेल रहे हैं। उनकी
लेखनी से इसीलिए किसी हद तक भोगा हुआ यथार्थ ही चित्रित होकर सामने आ रहा है।
समकालीन लघुकथाकार सामाजिक सत्य का वह
विद्रूप चेहरा भी प्रस्तुत करने में सफल हुए
हैं जिसकी ओर परंपरावादी स्त्री-पुरुषों
की दृष्टि जाती ही नहीं है। इसके उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत है स्व॰
चन्द्रशेखर दुबे की लघुकथा ‘कामकाजी महिला’ :
टेलीफोन की घंटी
बजी तो उन्होंने चोंगा उठाकर कहा, “हलो!”
चित्र:बलराम अग्रवाल |
दूसरी ओर से उनकी
बहू घबराये-से स्वर में बोली, “बाबूजी…”
“हाँ बेटी!”
“आप किचन में जाकर
जल्दी से देखिए कि गैस का चूल्हा खुला तो नहीं रह गया है? मैंने आँच पर दूध गरम करने
को रखा था। बन्द करना शायद भूल गई।”
“देख लेता हूँ बेटी।
तुम चिन्ता मत करो। ऑफिस से ही बोल रही हो न?”
“नहीं बाबूजी, अभी
ऑफिस कहाँ पहुँच पाई! राह में ही चूल्हे का ख़्याल आया तो…। आप जल्दी जाइये बाबूजी।”
“जा रहा हूँ। तुम
निश्चिंत होकर ऑफिस जाओ।”
चोंगा रखकर बाबूजी
मन-ही-मन बुदबुदाये—देहरी से बाहर जाकर कामकाजी महिला का क्या जीवन है? घर में रहती
है तो दफ़्तर की चिंता रहती है; दफ़्तर में घर की चिंता!
इसप्रकार, हम देखते हैं कि समकालीन लघुकथा अपने समय के मुहावरे से न सिर्फ टकराने का माद्दा रखती है, बल्कि स्वयं नया मुहावरा गढ़ भी रही है। वस्तुत: तो समकालीन लघुकथा अपने समय का
मुहावरा आप है। *****
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें