चित्र:साभार गूगल |
समूचे प्राणिजगत में दो गुण मूल रूप से पाए जाते हैं—जीवन-रक्षा और जाति-रक्षा। जहाँ तक
मनुष्य की बात है, जीवन-रक्षा के लिए वह एक स्थान को छोड़कर किसी भी अन्य स्थान तक
जा सकता है, भक्ष्य-अभक्ष्य कुछ भी खा सकता है, स्वयं से बलिष्ठ प्राणियों से
लड़-भिड़ सकता है और स्वयं को अशक्त महसूस कर पलायन भी कर सकता है। जाति-रक्षा से
तात्पर्य मनुष्य-जाति की रक्षा से है और इसका सम्बन्ध युद्धादि से न होकर
सन्तानोत्पत्ति से है। यहाँ काम के विकृत रूप की चर्चा करना हमारा ध्येय नहीं है।
इसलिए इस बिन्दु पर तर्क कृपया न करें। जीवित प्राणियों में नर और मादा—ये दो रूप प्राकृतिक रूप से पाए जाते
हैं। इन दोनों में ही जननांग भी प्राकृतिक रूप विकसित होते हैं और जननांगों की
संवेदनशीलता भी प्रकृति प्रदत्त गुण है जिसका सीधा सम्बन्ध स्वजाति को उत्पादित
करने और बचाए रखने के मूल गुण से है। मनुष्य-जाति में इस मूल गुण का विकार ही ‘कामी’, ‘कामान्ध’ आदि विशेषणों से व्यक्त होता है। अन्य
प्रजातियों में यह प्रकृति द्वारा अनुशासित रहता है। अन्य प्रजाति के प्राणी ‘कामी’ नहीं होते; हाँ, ॠतु-विशेष में ‘कामान्ध’ अवश्य देखे जाते हैं, वह भी विपरीत
लिंग के प्रति, समान लिंग के प्रति नहीं।
मुझे अक्सर महसूस होता है कि स्त्री
मनोविज्ञान को आम तौर पर कमतर आँका जाता है। भक्तिकालीन समूचा हिन्दी काव्य स्त्री
को ‘हेय’ और ‘त्याज्य’ मानकर चलता है तो रीतिकालीन हिन्दी
काव्य ही नहीं, अनेक संस्कृत काव्य-ग्रन्थ उसे आकर्षक ‘भोग्या’ के रूप में चित्रित करते हैं। तुलसीदास
के ‘रामचरितमानस’ में राम के समक्ष समुद्र नारी को ढोल,
गँवार और शूद्र के समकक्ष रखता है। यह उसके अपने चरित्र की गिरावट है या उसके
शब्दों में तुलसीदास का काल स्वयं बोल रहा है? जो भी हो, स्त्री और पुरुष के
शारीरिक विकास और शारीरिक क्षमताओं को एक ओर करके जरा इन सवालों पर गौर करें कि—
1॰ क्या पुरुष स्त्रियों की तरह सोचते
हैं?
2॰ क्या स्त्रियाँ पुरुषों की तरह सोचती
हैं? अथवा,
3॰ क्या हर व्यक्ति का सोचने का अन्दाज़
अलग है?
शारीरिक सुख-दु:ख बहुत-से
आवेशों और आवेगों के स्रोत होते हैं और ऐसा मन को उनकी अनुभूति के कारण या मन में
उनका विचार उत्पन्न होने के कारण होता है। आवेश दो तरह के होते हैं—प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष। शुभ या अशुभ तथा सुख या दु:ख से उत्पन्न
आवेश प्रत्यक्ष होते हैं जैसे, इच्छा, अरुचि, उल्लास, आशा, भय, सुरक्षा का भाव
आदि। अप्रत्यक्ष आवेश भी इन्हीं तत्त्वों से उत्पन्न होते हैं लेकिन कुछ अन्य
गुणों का उनमें योग होता है। इनके अन्तर्गत गर्व, विनम्रता, महत्त्वाकांक्षा,
मिथ्या-अभिमान, प्रेम, घृणा, ईर्ष्या, करुणा, द्वेष, उदारता आदि को रख सकते हैं।
पारस दासोत की लघुकथा ‘सोने की चेन’ गर्व-प्रदर्शन का ही उदाहरण प्रस्तुत करती है। यद्यपि यह असम्भव
लगता है कि कोई व्यक्ति स्वयं को एक ही समय में विनम्र और गर्वित, दोनों प्रदर्शित
करे; लेकिन अनेक ऐसे लोग आपको सहज ही मिल जाएँगे जिनकी ‘विनम्रता’ से ‘गर्व’ का भाव इतना अधिक झलकता है
कि आपको खिन्न कर डालता है। यही स्थिति ‘दीनता’ के ‘सगर्व’ प्रदर्शन की भी है। ऐसे अगणित ‘दीन’ आपको सत्ता के गलियारों में ‘सगर्व’ साष्टांग लेटे मिल जाएँगे जो अपने आका के कृपापात्र बनने के लिए
किसी भी हद तक गिर सकते हैं।
आजकल की महिलाओं
की ज़िन्दगी में महत्वपूर्ण मुकाम तब आता है जब उन्हें कुवाँरी रहकर अपने करियर और
गार्हस्थ्य धर्म के बीच किसी एक को चुनना होता है। जहाँ बच्चों से घिरी विवाहित
स्त्रियाँ यह महसूस करती हैं कि उनकी क्षमता का पूरा उपयोग नहीं हो रहा, वहीं उम्रदराज़
कामकाजी अविवाहित महिलाएँ अपने असीम अकेलेपन से निपटने के लिए मनोविश्लेषकों की
शरण में जाने को शापित रहती हैं। इसका मतलब है कि आज की स्त्री के लिए संतुलित
जीवन एक बड़ी चुनौती है। एक कथाकार के तौर पर पारस दासोत का ध्यान स्त्री
मनोविज्ञान के इस पक्ष की ओर नहीं जा पाया है।
स्त्रियाँ
स्थायित्व चाहती हैं और यह चाहत उन्हें दुविधा में डाले रखती है। एक ही समय में वे
दो दिशाओं की शिक्षा ग्रहण करती हैं। एक ओर वह पुरुषों की तरह, सफलता की
सीढ़ियाँ चढ़ने की शिक्षा पाती है; दूसरी ओर वह विवाह करके बाल-बच्चेदार जीवन जीना
चाहती है। लगभग इसी मानसिक जद्दोजहद से उस महिला को भी दो-चार होना पड़ता है जिसका
लालन-पालन तो पारम्परिक विचारधारा व परिधान-शैली के बीच हुआ हो, परन्तु जीना उसे
आधुनिक विचारधारा और परिधान-शैली वाले समाज में पड़ रहा हो। पारस दासोत की लघुकथा ‘खिड़की’ में इसका उत्कृष्ट चित्रण हुआ है। परन्तु कुछ आधुनिकाओं
में तीसरी दिशा भी देखने को मिलती है—भोग की दिशा। इस दिशा में बढ़ते हुए वह अनेक अनर्थों की कर्त्री बनती है। ‘एक कहानी वही’ में ऐसी ही एक युवती का चित्रण हुआ है।
यह एक स्वीकृत
तथ्य है कि लम्बे समय से आज तक स्त्री को पितृसत्तात्मक स्पष्ट कहें तो—पुरुष-सत्तात्मक समाज में रहना पड़ रहा है
जिसमें उसकी मानसिक क्षमताओं तक का आकलन उसकी शारीरिक बनावट के मद्देनज़र किया जाता
है। सुप्रसिद्ध मनोविश्लेषक क्लारा थॉम्प्सन के अनुसार—‘पुरुष-सत्तात्मक समाज ने स्त्री पर इतनी जिम्मेदारियाँ लाद
दी हैं कि उसे काम सम्बन्धी अपनी आवश्यकताओं पर अंकुश लगाए रखना पड़ता है। इस
स्त्री के दो रूप हमें देखने को मिलते हैं। पहला, दिन-रात घर-परिवार के कामकाज में
खटती स्त्री (उदाहरणार्थ, इस संग्रह की लघुकथा ‘प्याज की सब्जी’ में वर्णित माताजी) और दूसरा, पुरुष-सत्तात्मक समाज से विद्रोह के क्रम में
घर-परिवार की जिम्मेदारियों से मुक्त पुरुष के समांतर चलती स्त्री। इनमें पहली
स्त्री की दयनीय दशा नि:सन्देह शोचनीय है। उससे उसे मुक्ति मिलनी चाहिए। लेकिन
दूसरी स्त्री! इसका सुन्दर चित्रण पारस दासोत की ‘वह फौलादी लड़की’ में हुआ है। पुरुष-सत्तात्मक समाज से लोहा लेती स्त्री अपने प्राकृतिक लावण्य
और सुमधुर संवेदनशीलता से वंचित रह जाती है और अवसर पाते ही वह अपने समक्ष खड़े समय
से कहती है—‘मुझे आपसे कुछ
जरूरी बात करना है, मैं आपसे कल मिलूँगी।’ यह पुरुष-सत्तात्मक समाज से विद्रोह के परिणामस्वरूप स्वयं ‘पुरुष’ बन चुकी आज की स्त्री का सत्य है। वह चाहती है, पुन: ‘स्त्री’ हो जाना; लेकिन इस काम के लिए ‘समय’ से वह आज नहीं
मिलना चाहती, कल पर टालती है।
मानसिक-चरित्र की दृष्टि से
आज की स्त्री को आसपास के समाज द्वारा मुख्यत: दो डरों से ग्रस्त पाते हैं—1॰ त्यागे जाने से डरी हुई और 2॰ अवहेलित होने से डरी हुई। प्रत्येक स्त्री में कम या ज्यादा इनमें से कोई
एक भय अवश्य बना रहता है। इस प्रकार उनके चार प्रकार निश्चित कर सकते हैं—आश्वस्त, जरूरतमंद, निर्भीक और भयभीत। इन सब की अलग-अलग व्याख्या भी
की जा सकती है, लेकिन यहाँ उसकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि स्त्री के इन सभी
चरित्रों पदार्पण इन लघुकथाओं में नहीं हो पाया है।
फिर भी, किसी ‘ज़रूररतमंद’ औरत के मनोविज्ञान को समझना ज़रूरी है।
क्यों? इसलिए कि अगर आप उससे परिचित हैं तो अवश्य ही अपने साथ उसके बर्ताव को
आसानी से झेल सकते हैं, अन्यथा नहीं। कुछ
महिलाएँ सबसे अधिक स्वयं को नकारे जाने की चिन्ता से
ग्रस्त रहती है। अपने विचार और मनोभावों
को जाहिर करने में उन्हें लज्जा का अनुभव होता है। बावजूद इसके, वह भावनात्मक
रिश्ता बनाए रखने को अपने दिल की गहराई से चाहती है। वे दूसरे लोगों के साथ
अविश्वसनीय बनी रह सकती हैं लेकिन इस बात से भयभीत रहती हैं कि उन्होंने अगर किसी
पर विश्वास किया तो वह उनके साथ विश्वासघात न कर दे, उनका हृदय न तोड़ दे। इन
स्त्रियों में शर्मीलापन होता है लेकिन शर्मीलेपन की उस परत के नीचे संदेह छिपा होता
है। ऐसी स्त्रियों का विश्वास जीतना बड़ी टेड़ी खीर साबित होता है। इस पाण्डुलिपि की
‘नाइट गाउन’, ‘शयनकक्ष की कुंडी’, ‘घर में अकेली वह’, ‘बिस्तर’, ‘सृष्टि’ अपनी अनेक लघुकथाओं में
पारस दासोत ‘जरूरतमंद’ स्त्री का चित्रण तो करते हैं, लेकिन काम-कुण्ठा से आगे की उसकी
चेतना को छू नहीं पाते। यह एक विचारणीय तथ्य है कि स्त्री सिर्फ काम-कुण्ठित
प्राणी नहीं है। उसकी भावनाओं को शरीर से अलग भी समझने की जरूरत है जिससे ये
लघुकथाएँ वंचित हैं। इस पांडुलिपि की लघुकथाओं को पढ़ते हुए मुझे पारस दासोत जी में
मानववादी दृष्टि की बजाय पुरुषवादी दृष्टि का अधिक दर्शन होता है। इसमें संग्रहीत
लघुकथा ‘पुत्रवधू’ का शीर्षक मेरी इस धारणा
की पुष्टि करता है क्योंकि भूखी माँ को भोजन की बजाय नींद की गोली देने की
अनैतिकता में पुत्र भी तो शामिल है!
भारतीय दर्शन मनुष्य के
जीवन में चार पुरुषार्थ निर्धारित करता है—काम, अर्थ, धर्म और मोक्ष।
इनमें काम को पहले स्थान पर रखा गया है, परन्तु यह काम सेक्स के अर्थ तक सीमित
नहीं है, व्यापक है। जहाँ तक सेक्स का सवाल है, बेशक जीवन की सुचारुता का वह
विशिष्ट अवयव है। स्त्री हो या पुरुष, सेक्स-तुष्टि उसे अनेक मानसिक विचलनों से बचाने
वाला, मनुष्य होने के हेतु से सकारात्मकत: जोड़े रखने वाला, उसकी रचनात्मकता को
बनाए रखने वाला महत्वपूर्ण अवयव है। पारस दासोत की ‘एक सत्य’ इस तथ्य की पुष्टिस्वरूप प्रस्तुत की जा सकती है। ‘जागृति’ का शीर्षक कथ्य के अनुरूप
नहीं प्रतीत होता। घटना पितृसत्ता से विद्रोह की है, जागरण की नहीं।
शरीर का गुणधर्म मन:स्थिति
से संचालित होता है, इस तथ्य की पुष्टि दर्शन भी करता है और मनोविज्ञान भी। अपने
देश में हिजड़ा समुदाय आम तौर पर ‘स्त्री’ भाव के साथ रहता है। अत: उनमें स्वयं के स्त्री होने सम्बन्धी
मानसिक विकार पैदा हो जाना सामान्य समझा जाना चाहिए। ‘आँचल की भूख’ इस विकार की यथार्थ
प्रस्तुति है। ‘छूट की छीनी हुई छूट’ एक बेहतरीन लघुकथा है लेकिन इसके शीर्षक में पुरुषवादिता नज़र आती
है। संयुक्त परिवारों में परस्पर संवाद का एक रूप परस्पर विवाद भी है। घर के सदस्य
लड़-झगड़कर मन का मैल साफ कर लेते हैं और सामान्य दिनचर्या में लौट आते हैं। ‘लाड़ली बहू’ में इस स्थिति का जीवन्त
चित्रण देखने को मिलता है।
अपने रूप-सौंदर्य की ही
नहीं, अपने परिधान आदि की प्रशंसा सुनना भी महिलाओं की आम मनोवैज्ञानिक कमजोरी
माना जाता रहा है; लेकिन अपने करियर के प्रति सचेत आज की नारी ने कुछेक पारम्परिक
मनोवैज्ञानिक धारणाओं को झुठलाकर रख दिया है। पारस दासोत की लघुकथा ‘उसका ब्लाउज़’ की पत्नी को पारम्परिक
चेतना की स्त्री कहा जा सकता है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि आत्मश्लाघा पाने को
लालायित रहने जैसी कुछेक मानसिक परम्पराएँ व्यक्ति में हमेशा जीवित रहती हैं।
तथापि यह भी एक उल्लेखनीय तथ्य है कि इस पांडुलिपि में संग्रहीत लगभग सभी रचनाओं
में ब्लाउज, चोली, कुरता-समीज़, आइना, बाथरूम, सुहागरात, भूख आदि के काम-कुण्ठित
चित्र ही अधिक दृष्टिगोचर होते हैं, प्रगतिशील मानसिकता के चित्र नहीं। ‘झुबझुबी’ जैसी कुछेक रचनाएँ तो
हास्यास्पद हो गई हैं। एक अन्य मनोवैज्ञानिक तथ्य यह भी है कि प्रत्येक व्यक्ति
किसी अन्य को नहीं सबसे अधिक स्वयं को ही प्यार करता है। यह अलग बात है कि स्वयं
को प्यार करने का प्रतिशत पुरुषों की तुलना में स्त्रियों में अधिक पाया जाता है।
यह भी देखा जाता है कि स्वयं को प्यार करने के क्रम में स्त्रियाँ कभी-कभी
अत्याधिक स्वार्थी और हिंसक भी हो उठती हैं। ‘प्यारे का प्यार’ तथा ‘आइ लव यू’ स्वयं पर ही मोहित रहने के तथ्य का उद्घाटन करती है।
तिजोरी की चाबी और गहनों पर
कब्जा—ये दो भी महिलाओं की आम मानसिक कमजोरियों में
शामिल हैं। इन बिन्दुओं पर पारस जी ने ‘सत्ता की कोख में छिपा डर’, ‘उसकी ताकत’ तथा ‘गहना’ लघुकथाएँ रची हैं।
प्राकृतिक रूप से लड़कियों
के शरीर में आयु-विशेष के आगमन पर कुछ ऐसे परिवर्तन होते हैं जो लड़कों के शरीर से
भिन्न होते हैं। यह भी ठीक है कि लड़कियों के स्तनो में आने वाला उभार स्वयं उन्हें
भी रोमांचित करता है। लेकिन यह ठीक नहीं प्रतीत होता कि यह रोमांच जीवन में आगे
बढ़ने के उनके इरादों में बाधा बनता है और वे बस्ता टेबिल पर पटककर सबसे पहले इस
रोमांच की ओर अग्रसर होती हों, जैसा कि पारस जी ने लघुकथा ‘पहला मिलन’ में दिखाया है। उनकी ‘परतों के नीचे दबी चाह’ भी स्त्री के उस पारम्परिक
मनोविज्ञान को ही दर्शाती है जिसे आज की स्त्री ने काफी पीछे छोड़ दिया है।
रंग-रूप, चाल-ढाल, नाजो-अदा
और उम्र आदि के मद्देनज़र अनाकर्षक महिलाएँ पुरुषों के द्वारा ‘बहिनजी’ सम्बोधित होती हैं, यह बात
वे अच्छी तरह जानती हैं। यही कारण रहा कि बस यात्रा कर रही ‘दिक्भ्रम’ की काली कलूटी यौवना अपने
युवा सहयात्री से ‘बहिनजी’ सम्बोधन पाकर हँस पड़ती है; लेकिन जब वह पाती है कि युवा सहयात्री ने
सद्भाववश उसे ‘बहिनजी’ कहा था तब शर्मिंदा भी होती है और उससे क्षमा भी माँगती है। ‘उलाहना’ स्त्री के अपने अस्तित्व
को पाने की व्यथा कहती है।
पारस दासोत की इस पांडुलिपि/पुस्तक
में चित्रित महिलाओं/युवतियों को क्षुद्र मानसिकता वाली काम-विक्षिप्त स्त्रियाँ
भी माना जा सकता है और यह भी माना जा सकता है कि काम की यह विक्षिप्तता इन
चरित्रों को गढ़ने वाले कथाकार के मनो-मस्तिष्क में भी समाई हुई है अन्यथा वह इनसे
इतर भी स्त्री मानसिकता के चित्र अवश्य उभारता। ‘गहरी चाहना’ में युवतियों के स्तनों की तुलना प्रकारान्तर से मन्दिर के गुम्बदों
से की गई है। ‘दो सहेलियाँ’, ‘दाँव’, ‘एक चाल’, ‘नाइट गाउन’ और ‘दिशा की ताकत’ में कथाकर ने भूख को पात्र बनाया है लेकिन उसकी बिम्बात्मक शक्ति का
भरपूर उपयोग वे इन लघुकथाओं में नहीं कर पाए। ‘कुछ लेट चलें’ की नायिका भी भोग की जीती-जागती तस्वीर है। ‘वासना की अंधी भूख’ को यद्यपि फ्रायड के एक
सिद्धांत-विशेष पर आधारित करने का यत्न किया है तथापि यह भी सत्य है कि फ्रायड का
उक्त सिद्धांत सर्वमान्य सत्य नहीं है। उसे मातृत्व की भावना पर कलंक के रूप में
जाना जाता है। भोगवादी और बाज़ारवादी महिला-चरित्र को ‘बिल्ली की रणनीति’ में कुशलतापूर्वक दर्शाया
गया है। पारस जी की कुछ लघुकथाएँ प्रेमी-प्रेमिका अथवा पति-पत्नी के बीच शरीर-भोग
से पूर्व और पश्चात की यथार्थ मानसिकता पर केन्द्रित हैं। इनमें ‘अपराध’ को उत्कृष्ट माना जा सकता
है तो ‘शुभागमन’, ‘बात ही तो है’ को सामान्य और ‘गुल्लक’, ‘ठेंगा’ को नि:कृष्ट।
नि:संदेह, इस पांडुलिपि/पुस्तक की
अनेक लघुकथाएँ इस लेख की चर्चा में आने से वंचित रह गई हैं, लेकिन उनमें व्यक्त ‘वस्तु’ इस लेख में अवश्य समाहित
है। मैं समझता हूँ कि इस संग्रह की लघुकथाओं और इस लेख में व्यक्त कुछ विचार
समकालीन हिन्दी लघुकथा में स्त्री मानसिकता के कुछ अनकहे तथ्यों व कथ्यों को रचने
व रेखांकित करने में सहायक सिद्ध होंगे।
अंत में, यह लेख इस
पांडुलिपि/पुस्तक में संग्रहीत लघुकथाओं में विशेष तौर पर स्त्री मनोविज्ञान को रेखांकित
करते हुए लिखा गया है अत: पारस जी के लघुकथा लेखन की भाषा, शैली, शिल्प आदि पर
विचार प्रकट करने से स्वयं को अलग रखा है। अस्तु।
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