शनिवार, 21 जून 2014

साहित्य को दलित व स्त्री विमर्श में संकुचित कर दिया गया है--बलराम अग्रवाल


चित्र:बलराम अग्रवाल
उमेश महादोषी:  किसी विधा के आरम्भिक और विकास काल में नियोजित लेखन को
क्या आप ठीक मानते हैं? यदि हाँ, तो उस तरह के सन्दर्भ में नियोजित लेखन
के प्रमुख चरण क्या होने चाहिए?
बलराम अग्रवाल : हिन्दी हानी प्रेमचंद से पहले भी थी लेकिन उसके सरोकार रोमांच और रंजन से अधिक नहीं थे। प्रेमचंद ने उसको जनमानस की तत्कालीन पीड़ाओं से जोड़ा। इसलिए कहानी का विकास यदि हम प्रेमचंद से मानें तो मुझे नहीं लगता कि उन्होंने या उनकी पीढ़ी के किसी अन्य कथाकार (प्रमुखत: प्रसादजी आदि) ने कभी नियोजित लेखन के बारे में सोचा भी होगा। विधा का विकास दृष्टि की नवीनता और कालानुरूप दिशाबोध पर निर्भर करता है, नियोजित लेखन उसके बाद की चीज़ है। प्रेमचंद के बाद, नई कहानी के दौर में जिस तरह कहानी-लेखन हुआ या किया गया; और उसके जो सरोकार बताए-गिनाए गये, उसे आप नियोजित लेखन मान सकते हैं। लेकिन समाज और साहित्य के बीच जो जगह नई कहानी ने बनाई उसकी वजह यही थी कि उस दौर के कथाकारों ने कहानी के कथ्य और उसकी प्रस्तुति को प्रेमचंद के काल से आगे पहुँचाने की जरूरत महसूस की। उन्होंने प्रेमचंद की अवहेलना नहीं की; लेकिन उनके कथ्यों का अनुसरण भी नहीं किया। यह भी कह सकते हैं कि बदली हुई परिस्थितियों में वे वहाँ भी पहुँचे जहाँ प्रेमचंद की पहुँच नहीं बन पाई थी। इस कार्य के लिए उनमें यथार्थ ललक और अपने काल की प्रवृत्तियों और मनोवृत्तियों को पहचानने व अभिव्यक्ति देने की अद्भुत कथा क्षमता थी।
उमेश महदोषी: 1970 के बाद 15-20 वर्षों तक समकालीन लघुकथा को एक फोकस
के तहत लिखा गया और उस पर विमर्श की मुहिम को चलाया गया। क्या इस तरह के
तमाम प्रयासों को एक नवीन विधा के सन्दर्भ में लघुकथा में नियोजित लेखन
मानना उचित होगा?
बलराम अग्रवाल : नहीं। 1970 के बाद ‘लघुकथा’ को फोकस का मिलना उस काल की महती आवश्यकता थी। 1980 में प्रकाशित अपने संग्रह ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ की भूमिका में अपने समय का, प्रमुखत: 1970 के बाद का जिक्र परसाईजी ने जिस तरह किया था, उसे मैं ज्यों का त्यों उद्धृत करना चाहूँगा—“इस दौर में चरित्रहीन भी बहुत हुआ। वास्तव में यह दौर राजनीति में मूल्यों की गिरावट का था। इतना झूठ, फरेब, छल पहले कभी नहीं देखा था।  दग़ाबाजी संस्कृति हो गई थी। दोमुँहापन नीति। बहुत बड़े-बड़े व्यक्तित्व बौने हो गए। श्रद्धा सब कहीं से टूट गई। इन सब स्थितियों पर मैंने जहाँ-तहाँ लिखा। इनके संदर्भ भी कई रचनाओं में प्रसंगवश आ गए हैं।
आत्म-पवित्रता के दंभ के इस राजनीतिक दौर में देश के सामयिक जीवन में सबकुछ टूट-सा गया। भ्रष्ट राजनीतिक संस्कृति ने अपना असर सब कहीं डाला। किसी का किसी पर विश्वास नहीं रह गया था-न व्यक्ति पर न संस्था पर। कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका का नंगापन प्रकट हो गया। श्रद्धा कहीं नहीं रह गई। यह विकलांग श्रद्धा का भी दौर था। अभी भी सरकार बदलने के बाद स्थितियाँ सुधरी नहीं। गिरावट बढ़ रही है। किसी दल का बहुत अधिक सीटें जीतना और सरकार बना लेना, लोकतंत्र की कोई गारंटी नहीं है। लोकतांत्रिक स्परिट गिरावट पर है।
  ये सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियाँ थीं जो 1967 के आसपास से ही उभरकर सामने आने लगी थीं। ऐसे में अनेक कथाकार कहानी कहने की उस शैली को जो उक्त काल में बोझिल-सी हो चुकी थी, त्यागकर कथाभिव्यक्ति की छापामार शैली की ओर उन्मुख हुए। आप देखेंगे की उस काल की अधिकतर लघुकथाएँ अपने शिल्प और शैलीगत अधकचरेपन के बावजूद सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक दोगलेपन के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलन्द करती हैं। इस कथा-शैली को ‘तारिका’, ‘कात्यायनी’ जैसी तब की अनेक लघु-पत्रिकाओं ने अपने पन्नों पर जगह देनी शुरू की। कुछ नई पत्रिकाएँ भी शुरू हुईं जिनमें ‘अतिरिक्त’, ‘मिनियुग’, ‘अन्तर्यात्रा’, ‘दीपशिखा’ आदि का नाम आसानी से लिया जा सकता है। इन लघु-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली लघुकथाओं का नोटिस कथाकार-संपादक कमलेश्वर ने लिया और उन्होंने ‘सारिका’ में लघुकथाओं को जगह देनी शुरू की। ‘सारिका’ के जुलाई 1973 अंक को उन्होंने ‘लघुकथा बहुल अंक’ बनाकर प्रकाशित किया। किसी व्यावसायिक कथा-पत्रिका का द्वारा लघुकथा को स्वीकारने की यह महत्वपूर्ण पहल थी। हमें नहीं भूलना चाहिए कि अपने संपादन में लघुकथा को बढ़ावा देने की शुरुआत करने वाले कमलेश्वर नयी कहानी आंदोलन के स्तम्भ कथाकार थे। आखिर कोई तो बात उन्होंने ‘लघुकथा’ में देखी ही होगी कि वे इस विधा को प्रमुखता देने की ओर उन्मुख हुए। …तो जिस नियोजन की बात आप कर रहे हैं, उसका निर्धारण समय और परिस्थितियाँ करते हैं, कोई व्यक्ति या व्यक्ति-समूह नहीं। समय और परिस्थितियों से विलग हर नियोजन व्यर्थ जायेगा।
 उमेश महादोषी: क्या आपको लगता है कि पिछली शताब्दी के आठवें और नौवें
दशक में लघुकथा लेखन के लिए किए गये नियोजित प्रयास पूर्ण थे? या फिर अब
इतने वर्षों बाद पीछे मुड़कर देखने पर आपको कोई गैपनजर आता है?
अथवा-
क्या आपको लगता है कि पिछली शताब्दी के आठवें और नौवें दशक में लघुकथा को
प्रतिष्ठित करने के लिए किए गए प्रयास अपने आप में पूर्ण थे? या कुछ ऐसी
चीजें दिखाई देती हैं, जिन्हें किया जा सकता था, लेकिन नहीं किया गया?
बलराम अग्रवाल : अगर समुचित अध्ययन के द्वारा आपने विवेकशील होने के गुण को साधा है। अगर समाज को देखने-परखने की आपकी दृष्टि में पारदर्शिता है। अगर आप अपने उद्देश्य के निर्धारण में किसी भ्रम या उहापोह के शिकार नहीं हैं। अगर आप ईमानदारी, निष्ठा और सम्पूर्ण शारीरिक-मानसिक क्षमता के साथ अपने उद्देश्य की ओर बढ़ने का दायित्व निभा रहे हैं तो इतर कारणों से अनचीन्हे भले ही रह जाएँ, मेरी नजर में आपके प्रयास में ‘पूर्णता’ है। उमेश जी, व्यक्ति के सम्बन्ध में भी और विधा के सम्बन्ध में भी, मुझे लगता है कि ‘प्रतिष्ठा’ एक सापेक्षिक शब्द है। काल-विशेष या स्थान-विशेष में जैसी प्रतिष्ठा इन्हें मिली हो, वैसी प्रत्येक काल या प्रत्येक स्थान में मिलती रहेगी, आवश्यक नहीं है। वे चीजें, जिन्हें किया जा सकता था और नहीं किया गया के साथ-साथ एक सवाल यह भी बनता है कि क्या कुछ ऐसी चीजें दिखाई देती हैं जिन्हें किया गया लेकिन नहीं करना चाहिए था। खैर, जिन्हें किया जा सकता था और नहीं किया गया के बारे में मैं यही कह सकता हूँ कि लघुकथा-संकलनों के संपादन-प्रकाशन का जैसा काम बलराम ने किया वैसा व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े अन्य लघुकथा-हितैषियों को भी करना चाहिए था। दूसरी ओर, बलराम को कोशों के संपादन के साथ-साथ लघुकथा-लेखन पर भी बने रहना चाहिए था। महेश दर्पण अपने लेखन की शुरुआत में लघुकथा से जुड़े थे। ‘मिट्टी की औलाद’ नाम से उनका लघुकथा-संग्रह भी आया था। उन्होंने कहानी पर बहुत बड़ा काम कर दिखाया; लेकिन लघुकथा पर काम के लिए किसी प्रकाशक को तैयार न कर सके। रमेश बतरा तो लघुकथा के हित-चिंतक, विचारक और लेखक सभी कुछ थे। वे ‘सारिका’, ‘नवभारत टाइम्स’ या ‘सण्डे मेल’ जहाँ भी रहे, लघुकथा को जगह देते रहे। जब तक जिये, लघुकथा पर संवाद में बने रहे। उनके दो कहानी संग्रह तो आये; लेकिन अपनी लघुकथाओं का संग्रह प्रकाशित करने की ओर वे क्यों नीरस रहे समझ में नहीं आता है। ये मैं लघुकथा की उन सशक्त संभावनाओं के नाम गिना रहा हूँ जो संयोग से व्यावसायिक प्रकाशन संस्थाओं की साहित्यिक पत्रिकाओं से जुड़ी थीं। लघुकथा के चयन और उसकी आलोचना के एक काम को 2013 से मधुदीप ने ‘पड़ाव और पड़ताल’ के रूप में आगे बढ़ाने की शुरुआत की है। उम्मीद है कि उसके माध्यम से स्थिति कुछ साफ अवश्य होगी।
चित्र:बलराम अग्रवाल

 
उमेश महादोषी: आठवां और नौवां दशक समकालीन लघुकथा के लिए सबसे उर्वर
समय रहा। क्या उसके बाद के समय में वह लय किसी सीमा तक बनी रह पाई है? या
किसी बिन्दु पर जाकर लघुकथा का समय ठहर गया-सा लगता है?
बलराम अग्रवाल : मेरा मानना है कि लघुकथा लेखन के लिए समय की उर्वरता सातवें दशक के उत्तरार्द्ध में शुरू हो चुकी थी। अनेक लोगों ने उस दौर में कथाभिव्यक्ति की इस शैली को अपनाने की ओर ध्यान देना शुरू कर दिया था। उस जमीन को पकने में करीब एक दशक लगा और आठवें दशक के मध्य तक आते-आते यह पूरी तरह तैयार हो चुकी थी। हमें स्वीकार कर लेना चाहिए कि भारतवासियों के जीवन में वह राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक—सभी मोर्चों पर नये-नये शोषक झंडाबरदारों के पैदा हो जाने और उनके द्वारा निर्द्वंद्व ठगे जाने के कड़ुवे और त्रासद अनुभवों का काल था। शोषण और अत्याचार के खिलाफ नीचे से ऊपर तक कहीं कोई सुनवाई नहीं। सभी प्रकार के नेतृत्व के खिलाफ जितना उग्र स्वर उस काल के भारतीय साहित्य में मिलता है, उतना उसके बाद वाले काल में नहीं। इसलिए लघुकथा में भी विरोध की वह लय नवें दशक के बाद टूटती-सी नजर आती है। यहाँ एक और बात की ओर भी ध्यान दिलाना अप्रासंगिक नहीं होगा। नवें दशक के बाद समूचे साहित्य को दलित-विमर्श और स्त्री-विमर्श में संकुचित कर दिया गया। इससे जनसंघर्ष के अनेक मुहानों पर सूनापन छा गया, लूटखोरों के लिए वे निर्द्वंद्व हो गये। माना, कि ये दोनों विमर्श भारतीय समाज की बड़ी आवश्यकताएँ थीं; लेकिन इनके जरिए समूचे असंतोष को संकुचित कर देने की अभिजात्य चालाकी पर किसी का ध्यान नहीं गया। अशिक्षा, बेरोजगारी, किसान-उत्पीड़न और भुखमरी से आज का भारत सातवें-आठवें-नवें दशक के भारत से कम त्रस्त नहीं है, लेकिन उस ओर आज के साहित्य का रुझान बेमानी बना दिया गया है। यही वह बिन्दु है जहाँ लघुकथाकार भी भ्रमित है, कहानीकार भी और कवि भी। शाश्वत संघर्ष की धार को पूँजी और सत्ता किस चालाकी से कुंद करती हैं, यह उसका सजीव उदाहरण है।
(‘अविराम साहित्यिकी’, अप्रैल-जून 2014 अंक से साभार)
आगामी अंक में जारी…

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