गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

लघुकथा : परम्परा और विकास-9 / बलराम अग्रवाल



नौवीं किस्त

दिनांक 09-12-2016 से आगे…

डॉ॰ शकुन्तला किरण इस समूचे काल की लघुकथाओं के अध्ययन के आधार पर निष्कर्ष प्रस्तुत करती हैंयद्यपि माधवराव सप्रे (1901), माखनलाल चतुर्वेदी (1911), पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी (1916), आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र (1920), शिवपूजन सहाय (1924), जयशंकर प्रसाद (1926), तिलकसिंह परमार, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, उपेन्द्रनाथ अश्क (1929), भृंग तुपकरी (1940), रामनारायण उपाध्याय (1944), डाॅ. श्याम सुन्दर व्यास, माहेश्वर (1945), रावी (1947) सुदर्शन (1948), रामवृक्ष बेनीपुरी (1950) आदि द्वारा लिखी गई छिटपुट लघुकथाएँ एवं बाद में प्रकाशित इनके संग्रह उपलब्ध होते हैं, किन्तु इनमें, अपवादस्वरूप कुछ लघुकथाओं को छोड़कर आमजन के त्रास को व्यक्त करते एवं समकालीन तेवर का अभाव मिलता है। साथ ही, कथ्य एवं शिल्प की दृष्टि से ये आधुनिक हिन्दी लघुकथाओं से नितान्त दूर हैं, तथा ये बोध-नीति-आदर्श-उपदेशपरक ही अधिक हैं। आनन्द मोहन अवस्थी (1950), अयोध्याप्रसाद गोयलीय (1951), शरद कुमार मिश्र ‘शरद’ (1957), डाॅ. ब्रजभूषण सिंह ‘आदर्श’ (1961), श्यामनन्दन शास्त्री (1962), बैकुण्ठनाथ मेहरोत्रा आदि के लघुकथा संग्रहों की लघुकथाओं में, आधुनिक हिन्दी लघुकथाओं की भावभूमि को स्पर्श करती कई लघुकथाएँ मिल जाती हैं; किन्तु वे सामाजिक परिवर्तन में क्रान्तिकारी भूमिका निभाने में असमर्थ लगती हैं। न ही उनके महत्त्व एवं उपयोगिता से प्रभावित होकर वे लिखी गई प्रतीत होती हैं। उनमें भावात्मक, दार्शनिक, बोधपरक, मनोरंजनात्मक आदर्शपरक आदि लघुकथाएँ भी दृष्टिगत होती हैं।
       डॉ॰ शमीम शर्मा ने समकालीन लघुकथा का प्रारम्भ सन् 1950 से माना है। उनके अनुसार—‘आधुनिक लघुकथाओं का प्रारम्भ सन् 1950 से माना जाना चाहिए। सन् 1950 के आसपास लघुकथा में अपने स्वरूप को पिछले स्वरूप से अलगाने का साग्रह प्रयत्न दिखाई देता है।’
        लेकिन उपर्युक्त वक्तव्य के साथ ही उनका यह भी मानना है कि—‘प्राचीन काल से लेकर प्रायः छठे, सातवें दशक तक प्रत्येक लघु-आकारीय कथा/प्रसंगादि के लिए ‘लघुकथा’ शब्द ही प्रयुक्त होता रहा। उदाहरणार्थअब तक ‘लघुकथा’ शीर्षान्तर्गत ही लोकोक्तियाँ, सूक्तियाँ, चुटकुले, पौराणिक सन्दर्भ, नीतिकथाएँ, बोधकथाएँ, संस्मरण, परीकथाएँ, किस्सागोई, लघु-कहानी, प्रेरक प्रसंग, व्यंग्य आदि प्रकाशित होते रहे हैं; जैसे ‘श्रेष्ठ लघुकथाएँ’ में श्याम बिल्लौरे की ‘वक्तव्य : हारे हुए खरगोश का’ (पृष्ठ 40), ‘प्रतिनिधि लघुकथाएँ’ में रामनारायण उपाध्याय की ‘पुराणपंथी कछुआ और प्रगतिशील खरगोश’ (पृष्ठ 11) आदि लघुकथाओं को नीतिकथाओं पर राजनीतिक अथवा सामाजिक सन्दर्भों का मुलम्मा चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया है। चुटकुलानुमा लघुकथाओं के तो अनेक उदाहरण लभ्य हैं; जैसे अप्रैल 72 की ‘सारिका’ के पृष्ठ 71 पर ‘आलस का घर’, ‘सारिका’ में ही (अप्रैल 73, पृष्ठ 5567) घनश्याम अग्रवाल की ‘मजबूती का रहस्य’ तथा श्रीकांत चौधरी की ‘भिक्षादान’ एवं ‘पहुँच’ पत्रिका के लघुकथा-विशेषांक में संकलित ब्रजबिहारी राम की लघुकथा ‘पाँच रुपये और...’ आदि चुटकुलों से अधिक कुछ नहीं हैं। चुटकुलों पर लघुकथा की मोहर-मात्रा लगा देने से वे लघुकथा तो नहीं बन जाते।
        सन् 1950 से लघुकथा लेखन की धारा क्योंकि स्वयं उनके अनुसार ही अनवरत नहीं रही, इसलिए वहाँ से आधुनिक काल को स्वीकार करना तर्क-सम्मत नहीं है।
आधुनिक काल (सन् 1970 के बाद) की लघुकथाएँ
आचार्य रामचंद शुक्ल ने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में काल-विभाजन की अपनी नीति को स्पष्ट करने की दृष्टि से लिखा है—‘जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है।’
        ‘समकालीन लघुकथा’ वस्तुतः समय और समाज की वृत्ति में राजनीतिक, सामाजिक, साम्प्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थिति के अनुरूप स्वाभाविक रूप से आने वाले परिवर्तनों का कथात्मक प्रतिरूप है।
       लघुकथा के स्वरूप में यह परिवर्तन मुख्यतः सन् 1970 के बाद ही दृष्टिगोचर होता है। सन् 1974-75 तक लघुकथा का रूप और वृत्ति भावपरकता, बोधपरकता एवं दृष्टान्तपरकता से आगे बढ़कर गलित रूढ़ियों, अंधविश्वासों, अतिविश्वासों और छद्म नैतिकता आदि पर कटाक्ष प्रस्तुत करती पैरोडीपरक लघ्वाकारीय रचना में बदल जाती हैं। तत्पश्चात् 1975-76 से उसमें परिवर्तन के उद्वेलनकारी गम्भीर चिंतन बिन्दु दिखाई देने लगते हैं जो शनैः शनैः विकसित होकर अपने समय और समाज की समकालीन प्रगतिशील आकांक्षाओं का यथार्थ प्रतिनिधित्व करने लगते हैं। अतः हिन्दी में ‘समकालीन लघुकथा’ का उदय उसके परिवर्तन की ओर अग्रसर होने के प्रस्थान बिन्दु अर्थात् आठवें दशक के सन् 1971 से ही माना जाता है जो अनेक विद्वानों की सम्मति व सहमति के आधार पर उचित भी है और तर्कसंगत भी।
        लघुकथा के अलग-अलग समय में अलग-अलग रूप रहे हैं; किन्तु इनका वर्तमान स्वरूप, इस आठवें दशक की देन है और अपने कथ्य एवं तथ्यगत परिवेश से यह प्राचीन स्वरूप से सर्वथा भिन्न है। बलराम अग्रवाल का यह कथन दृष्टव्य है कि—‘लघुकथा-साहित्य के अभ्युदय ने इस विचार को कि वैज्ञानिक विकास के आगामी युग में हर आदमी अपना इतिहास स्वयं लिखेगा, सत्य कर दिया है। सूक्ष्म जीवनानुभवों को तीक्ष्ण, संप्रेषणीय और प्रभावकारी ढंग से प्रस्तुत करने की आकारगत लघु कथा-शैली नयी न सही, प्रासंगिक एवं सामयिक अवश्य है। लघ्वाकारीय कथा-रचनाएँ अब से पूर्व विशेष-नीतिपरक, विशेष-उद्देश्यपरक अथवा विशेष-विचारपरक ही हुआ करती थीं अतः कथा की समग्र आधुनिक-प्रवृत्ति के पैमाने पर वे अक्सर खरी नहीं उतरती थीं। आठवें दशक और उसके बाद की पीढ़ी के लघुकथा-लेखकों ने उन्हें समग्रता, व्यापकता और गहन अर्थवत्ता प्रदान करने के प्रयास किए हैं।’
        परिवर्तित युगीन परिस्थितियों के प्रभावों में न केवल इसका स्वरूप ही बदला, बल्कि इसकी भूमिका भी बदल गई और इस बदलाव ने इसे एक नवीन रूप में प्रस्तुत किया और नवीन रूप इसे बीसवीं सदी के सातवें दशक के उत्तरार्द्ध में मिलना प्रारम्भ हुआ तथापि उक्त नवीनता का स्पष्ट रूप हमें सन् 1970 के बाद ही देखने को मिलता है।
        नवम्बर 1977 में नर्मदाप्रसाद उपाध्याय और नरेन्द्र मौर्य के संयुक्त सम्पादन में ‘समान्तर लघुकथाएँ’ नाम से एक लघुकथा संकलन आया जिसकी भूमिका ‘प्रस्तुतिकरण’ शीर्षक से कमलेश्वर ने लिखी थी। यद्यपि इस भूमिका से कहानी के ‘समान्तर’ आन्दोलन की पैरवी करने का आभास मिलता है; तथापि उक्त ‘काल’ की तीक्ष्णता को समझने, आम आदमी की उक्त काल की उहा-पोह से उसके समूचेपन में परिचित होने के लिए इसका ज्यों का त्यों पढ़ा जाना आवश्यक है। कमलेश्वर के  अनुसार—‘नई कहानी के तत्काल बाद की कहानी मध्यमवर्गीय चेतना के ह्रास और उस मरणासन्न वर्ग की आखरी चीख है। इसे ही यदि सौन्दर्यशास्त्राीय मुहावरे में रखा जाए तो ‘नई कहानी’ ‘यथार्थ की अभिव्यक्ति’ के माध्यम खोज रही थी और नई कहानी के तत्काल बाद की कहानी ‘अभिव्यक्ति के यथार्थ’ को ही सब-कुछ मान रही थी। इसमें लेखकों का उतना दोष नहीं जितना उन भयानक स्थितियों का, जो भारतीय मध्यम वर्ग को चेहरा बदलने के लिए पीस रही थीं। अर्थात् 1960 के आसपास का वह समय था, जब मध्यम वर्ग बेशर्मी से अपना चेहरा बदल रहा था। यह मध्यम वर्ग इतिहास के उस यथार्थ चक्र के प्रति सजग नहीं था, जो उसकी नियति का निर्णय कर रहा था।
        बाद में यह मध्यम वर्ग सामाजिक स्तर-भेद के आधार पर बँट गया और उसे साफ-साफ दो रूपों में देखा गयाऔसत जीवन-स्तर के ऊपर वाला भाग और औसत जीवन-स्तर के नीचे वाला भाग। औसत-रेखा पर जीने वाले लोग या तो औसत से ऊपर वाले तबके में समाहित होते जा रहे थे या विकट संघर्ष के दौरान हारकर औसत के नीचे वाले हिस्से में आते जा रहे थे। आर्थिक और सामाजिक रूप से ही नहीं, मानसिक रूप से भी यह विभाजन हो रहा था। और अब ये विभाजन बिल्कुल साफ है। सामाजिक संतुलन और आर्थिक प्रतिस्पर्द्धा के इस संकुल दौर से गुजरते हुए भारतीय मानस ने जो अनुभव प्राप्त किया है, वह बहुत ही कड़ुवा और तीखा है। कारण भी थे इसकेविभाजन के बाद संघर्ष एक अनिवार्य प्रक्रिया थी। सन् 67 के बाद यह संघर्ष खुलकर सामने आया।
        नई कहानी के कुछ लेखकों को छोड़कर, जो नई कहानी को निरन्तर परिवर्तित होती प्रक्रिया के रूप में नहीं स्वीकार कर सके, सभी परिवर्तनकामी लेखकों ने मध्यम वर्ग की इस आखरी चीख को महसूसा। बाद में, उसके विभाजन और संघर्ष को नजदीक से देखा और उसे अभिव्यक्ति दी। इस संघर्ष की कहानी अपनी समयगत सच्चाइयों से जुड़ी हुई थी। इसमें आम आदमी के संघर्ष, महत्वाकांक्षा और ‘वर्तमान’ के विकल्प की बात उठाई गयी थी। स्थितियों का ईमानदारी से पोस्टमार्टम हुआ था। आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक भ्रष्टाचार को सामने रखकर तथाकथित सुधारवादियों के मुखौटे उतारे गये थे। आम आदमी की नियति और सोच की वर्षों पुरानी परिभाषा का विरोध कर नये प्रतिमानों का निर्धारण किया गया था।
            सन् 70 तक स्थितियाँ और बदलीं। आम आदमी का संघर्ष और जीवन की शर्तें अधिक कठोर हो गयीं। लेखकीय दायित्व में संघर्षोन्मुख मानसिकता, परिवर्तन की इच्छुक पीढ़ी के दिशा-बोध भी जुड़े और इस संधिकाल में निष्ठावान लेखकों ने समय की साँसों को अभिव्यक्ति दी और इन्हें अपनी कहानियों में ज्यों का त्यों उतारा। इसलिए इन कहानियों ने आम आदमी की कहानी के रूप में अपनी अलग पहचान बनाई और इसी पहचान को कायम रखने के लिए एक नाम चुनना अनिवार्य जान पड़ा। समयगत सच्चाइयों के समान्तर चलने वाली इन कहानियों ने अपने लिए ‘समान्तर’ नाम चुना जो आज के सम्पूर्ण प्रतिबद्ध भारतीय साहित्य को इंगित करने का सबसे संक्षिप्त एवं सुविधापूर्ण ढंग है।
        किन्तु स्थितियाँ और बदतर होती चली गयीं। लेखकीय दायित्व बढ़ते चले गये, और अब केवल आम आदमी के प्रति प्रतिबद्धता ही नहीं, वरन् उसकी स्थितियों के साथ सम्बद्धता भी अनिवार्य हो गयी।’
        परिवर्तित युगीन परिस्थितियों से सामंजस्य स्थापित न रख पाना भी एक कारण है कि कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, मोहनलाल काक, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, रमेशचन्द्र श्रीवास्तव, शिवपूजन सहाय, जगदीश चन्द्र मिश्र, सुदर्शन, विनोद शंकर व्यास, माखनलाल चतुर्वेदी, ‘रावी’, जगदीश पाण्डेय, राधाकृष्ण, भवभूति मिश्र, रामेश्वरनाथ तिवारी, भृंग तुपकरी, कालीचरण चटर्जी एम. ए., रामवृक्ष बेनीपुरी, आनन्द मोहन अवस्थी, शान्ति मेहरोत्रा, बैकुण्ठनाथ महरोत्रा, अयोध्या प्रसाद गोयलीय, श्यामनन्दन शास्त्राी, कामता प्रसाद सिंह ‘काम’, शिवनारायण उपाध्याय, महेश शरण जौहरी ‘ललित’, रामनिवास शर्मा ‘मयंक’, रामनारायण उपाध्याय, महेन्द्र भटनागर, डाॅ. त्रिलोकी नाथ ब्रजवाल, मधुकर गंगाधर, रामेश्वर प्रसाद वर्मा, आचार्य शशिकर, नन्द किशोर तिवारी, प्रफुल्लचन्द्र ओझा ‘मुक्त’, नागेन्द्र वर्मा यहाँ तक कि महेश चन्द्र सोती, हिमांशु श्रीवास्तव, तनसुखराम गुप्त, प्रभाकर माचवे, जहूरबख्श, दिवाकर प्रसाद विद्यार्थी, सुबोध कुमार जैन, तिलक सिंह परमार, ब्रजलाल बियाणी, ब्रजभूषण सिंह आदर्श, डा. शशांक आदर्श, शरद कुमार मिश्र ‘शरद’, नारायण प्रसाद जैन, राकेश भारती, अवधेश, निमेष शुक्ल, इन्द्र व्यास, ठाकुर दत्त शर्मा ‘पथिक’, मोहन राजेन्द्र सिंह, रामेश्वर नाथ तिवारी, मधुकर गंगाधर, श्यामनन्दन शास्त्राी सरीखे सन् 1975 या उसके बाद तक भी लेखनरत ऐसे अधिकतर कथाकारों का लघुकथा-लेखन समकालीन चिंतन से जुड़े पाठकों द्वारा नकार दिया गया।
        सन् 1970 के बाद से ही देश की पतनशील राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक स्थितियों ने जन-मानस को प्रभावित किया। प्रतिक्रियास्वरूप उनके सोच की दिशा बदली, जीवन-मूल्य बदले और उनका दृष्टिकोण ‘त्यागवादी’ से बदलता हुआ ‘भोगवादी’ व ‘उपयोगितावादी’ होता चला गया। शासकों के छल-छद्म व शोषणकारी नीतियों, सामाजिक बाह्य आडम्बरों, विघटित परिवारों एवं खोखले सम्बन्धों, आर्थिक दमन-चक्र के अन्दर पिसती भावनाओं-महत्त्वकांक्षाओं, टूटते विश्वासों आदि संघर्षों में जन-सामान्य उलझता चला गया। उसका जीवन खण्ड-खण्ड हो टुकड़ों में बँट गया। निरुपमा सेवती के शब्दों में—‘...खण्डित होते-होते आज जीवन के इतने खण्ड हो चुके हैं कि किसी खण्ड-अनुभूति को पूरी तेजी से व्यक्त करने के लिए लघुकथा अच्छा माध्यम है।’
        लगभग चार दशकों तक हिन्दी कहानी बुरी तरह आन्दोलनों और खेमाबंदियों में उलझी रही। नई कहानी से लेकर अकहानी, सचेतन कहानी, आम आदमी की कहानी, समान्तर कहानी, जनवादी कहानी, सक्रिय कहानी आदि न जाने कितने भेद कहानी के किए गए। होता यह रहा कि किसी लेखक ने अपने दो-चार मित्रों के सहयोग से किसी पत्रिका के माध्यम से एक नया आन्दोलन खड़ा किया और उसके द्वारा स्वयं को स्थापित करने या लेखकों में अग्रणी बनने का प्रयास किया।
        हिन्दी कहानी में लंबे समय तक छायी रही इस अराजक स्थिति और अनेक बाहरी संकटों ने तत्कालीन युवा कथाकारों को लघुकथा की विधा को अपनाने को प्रेरित किया।
        डाॅ. नामवर सिंह ने ‘कथा भारती’ के पृष्ठ 14 में ‘हिन्दी कहानी का विकास’ शीर्षक आलेख में स्वीकार किया है कि ‘सातवें दशक में कहानी ने एक और मोड़ लिया है। वह नया मोड़ अन्य गुणों के अतिरिक्त प्रयत्न-लाघव का था। इस प्रयत्न-लाघव को लघुकथा को पहले स्थापित करने की प्रयत्नावस्था में लघुकथा के गर्भाधान का प्रयत्न कहना ही ठीक होगा।’
          ‘लघुकथा के गर्भाधान का प्रयत्न’! यह एक दूरदर्शी विचार है जो गहन चिंतन-जनित अनुभव की देन है। अपरिपक्व लघुकथा-अभिव्यक्ति के उस दौर को कुछ-और कहा भी क्या जा सकता था। इसमें वस्तुतः विधा के प्रति उपेक्षा का नहीं, उसके प्रति पीड़ा का भाव सन्निहित है। यह कहकर आशा व्यक्त की जा रही है कि गर्भ में आ चुका यह भ्रूण भविष्य में पनपेगा और जन्म लेकर लोक-कल्याण का दायित्व निर्वाह भी अवश्य करेगा।
आगामी अंक में जारी………

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