तब से, जब से इस धरती पर जीवन प्रारम्भ हुआ है,
प्राणिमात्र दो वर्गों में बँटा हुआ है—शक्तिवान
और शक्तिहीन। और तब से, जब से मनुष्य ने समूह में रहना सीखा है, दो और वर्ग प्रकाश
में आए—बुध और अबुध। यह मानव-सभ्यता के
प्रारम्भिक विकास के प्रथम चरण का विभाजन है—शक्तिवान
और शक्तिहीन तथा बुध और अबुध। यहाँ तक मनुष्य अपेक्षाकृत पशुवत् ही रहा होगा। आगे,
इस विभाजन का रूप कुछ इस प्रकार हुआ कि ‘बुध’
प्रकार के लोग शक्तिशाली वर्ग में भी मान्य हुए और शक्तिहीन में भी; इसी प्रकार ‘अबुध’
प्रकार के लोग भी शक्तिशाली और शक्तिहीन दोनों वर्गों में हेय माने गए। अत: समाज
के रूप में मनुष्य चार सोपानों पर संयोजित हुआ—शक्तिशाली-बुद्धिमान,
सामान्य बुद्धि से युक्त शक्तिवान, सामान्य शक्ति से युक्त बुद्धिमान तथा शक्ति व
बुद्धि दोनों में सामान्य या दोनों से हीन। इस संयोजन में सामान्य शक्ति से युक्त बुद्धिमान
की तुलना में सामान्य बुद्धि से युक्त शक्तिवान को वरीयता दी गयी है क्योंकि शक्ति
से युक्त बुद्धिमान द्वारा अपने पक्ष में सामान्य शक्ति से युक्त बुद्धिमान की
तुलना में सामान्य बुद्धि से युक्त शक्तिवान को फुसला लेना और उससे मनचाहा कार्य
करा लेना अधिक आसान काम था। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के रूप में मनु
द्वारा स्थापित वर्ग-विभाजन, हो सकता है कि शक्ति और बुद्धि के इसी परिप्रेक्ष्य
में स्वीकार किया गया हो। तदुपरान्त जैसे-जैसे मनुष्य ने संवेदन-ज्ञान प्राप्त
किया, वैसे-वैसे उसने धूर्तता भी सीखी और इसीलिए समाज आततायी और निरीह, क्रूर और
आतंकित, दमनकारी और दमित, या शोषक और आदि अनेक रूपों में विभक्त हो गया। यद्यपि
सभी शक्तिवान क्रूर, दमनकारी और शोषक नहीं होते, उनमें से बहुत-से दयालु और नम्र
भी होते हैं। इसी प्रकार सभी शक्तिहीन निरीह, दमित और शोषित नहीं होते, उनमें से
बहुत-से प्रतिक्रियावादी और विद्रोही भी होते हैं। फिर भी, स्वभाव से क्रूर,
दमनकारी और शोषक लोग ही समाज पर हावी रहे; नम्र, दयालु और मानवीय-संवेदना से युक्त
अथवा विद्रोही स्वभाव के लोग इनसे मुक्ति पाने या दिलाने हेतु इनके साथ अक्सर संघर्षरत
ही रहे—ऐसा हमारा पुराणादि साहित्य और इतिहास
बोलता है। देवता हमेशा ही राक्षसों के साथ युद्धरत रहे। राम, कृष्ण, ईसा, बुद्ध,
नानकदेव और इस काल में अब्राहम लिंकन, महात्मा गांधी, मार्टिन लूथर किंग, भीमराव
अंबेदकर तथा नेल्सन मंडेला आदि कितने ही जुझारु लोग हुए और आज भी हैं जो निरन्तर
ही दमनकारी प्रवृत्तियों के खिलाफ संघर्षरत रहे और संघर्षरत हैं।
नम्र,
दयालु और शारीरिक रूप से अशक्त संवेदन-ज्ञान से युक्त लोग दमन की स्थिति में एक
अलग ही तरह का संघर्ष रचते आए हैं। इनके अतिरिक्त वे, जो शालीनतावश अथवा
परिस्थितिवश सीधे टकराव से कतराते हैं या जिन्हें विश्वास है कि चोट सिर्फ तीर,
तलवार, हंटर या तोप ही नहीं करते, जुबान (और अब कलम—हम
परवरिशे-लौह ओ क़लम करते रहेंगे। जो दिल पे गुज़रती है रक़म करते रहेंगे॥–फैज)
भी करती है; और वह चोट अन्य सभी चोटों से अधिक असरदार होती है, भी इस संघर्ष में
उतर आते हैं। ऐसे सामाजिक विभिन्न कलाओं की ओर प्रवृत्त होते हैं और वक्ता, वाचक,
लेखक या राजनीतिक के रूप में सुप्त समाज को उद्बोधित करते रहे हैं। ईसा, बुद्ध,
महावीर, आदि-शंकराचार्य, महर्षि दयानंद, विवेकानंद आदि ने तो संन्यास के माध्यम से
सामाजिक उद्बोधन का कार्य किया। कबीर और रैदास ने वाचन के और भारतेंदु हरिश्चन्द्र
ने लेखन के माध्यम से यह कार्य सम्पन्न किया।
मैंने
बचपन से ही देखा है कि गाँव-चौपाल पर चौकड़ी जमाए निठल्ले लोग इस-उस की बातें करते
और आनन्दित होते रहते हैं। वे पुराने राजा-महाराजाओं से लेकर नये शासकों और
गली-मोहल्ले के धूर्तो से लेकर बौड़मों तक को नहीं बख्शते। उनके कटाक्ष की चपेट से
न पुराने जमींदार बचते हैं न साहूकार, सबल बचते हैं न अबल। कटाक्ष और व्यंग्य का
एक साथ तीखा, गुदगुदा और जायकेदार जितना चौपाल पर होता है उतना, मेरा दावा है कि,
कहीं और नहीं होता; और यह भी कि कटाक्ष और व्यंग्य की धार को जितना गाँव-चौपाल के
आसपास का जन पहचानता है, उतना कोई और नहीं। और इस सब का सिर्फ एक ही कारण है, यह
कि कटाक्ष और व्यंग्य उपजे ही चौपाल पर हैं। मेरा विश्वास है कि पुराने समय में, जबकि
समाज में क्रूरता, अत्याचार और अमानवीयता एक ओर थे और मानवीय-सहिष्णुता, सरलता और
सभ्यता दूसरी ओर; जबकि शक्ति धनवानों के हंटर में कैद थी और बुद्धि का कोई मोल
नहीं था—दिनभर के थके-हारे दलित-मजदूर
सोने के लिए रात को जब अपने बाड़े में इकट्ठे होते होंगे तो एक-दूसरे के छालों को
सहलाते होंगे, रोते होंगे और शारीरिक-सामाजिक एकजुटता की अनुपस्थिति में क्रोध के
कितने ही ज्वालामुखियों को अपने सीने में दफन कर लेते होंगे। क्रूर आकाओं के
दमनपूर्ण व्यवहार की बाबत वे मुँह से कुछ नहीं बोल सकते थे… पीठ-पीछे
भी नहीं, और उसका नाम लेकर तो किसी हाल में नहीं। अत: व्यक्त होने के लिए उनकी
चेतना ने सांकेतिकता को अपनाया। उन्होंने आकाओं की चिकौटी काटते किस्से गढ़ना और
सुनाना-सुनना शुरू किया तथा इस तरह अपनी आवेशित भावनाओं को तुष्ट करने व रंजित
होने लगे। यहीं से कथा के सांकेतिक रूप का जन्म होता है और यहीं से उसके चरित्र
में विद्रोह और जुझारुता का समावेश। यहीं से कथा में मानवेतर-मूर्त्त अर्थात्
पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों, शारीरिक अंगों / अवयवों व भौतिक वस्तुओं का अतिमानवीय
अर्थात् देवी-देवताओं, कारामाती बौनों, परियों व शैतानों-फरिश्तों का तथा अमूर्त्त
अर्थात् मानवीय भावों तथा वास्तविक या वायवीय अवयवों का जीवित मानव-पात्र के रूप
में प्रवेश होता है। उपर्युक्त आधार पर ही यह धारणा भी पुष्ट होती है कि हर काल
में हर्ष, शोक, विषाद, व्यथा और प्रफुल्लता आदि भाव व्यक्त होने का अपना माध्यम
स्वयं तय करते हैं, मानव रूप में प्रकट होने की पहल करते हैं। यों भी कह सकते हैं
कि अभिव्यक्ति के लिए व्यक्ति को काल स्वयं ही माध्यम की ओर प्रेरित करता है। अत:
कोई भी कला अथवा विधा जब आकार ग्रहण करती है तो इसे व्यक्ति सापेक्ष प्रयास न
मानकर काल-सापेक्ष आवश्यक घटना माना जाना चाहिए।
विश्व-कथा
साहित्य में मानवेतर-मूर्त्त और मानवेतर-अमूर्त्त तथा अतिमानवीय पात्रों वाली
रचनाएँ प्रामाणिक रूप से उपनिषदों और पुराणों में मिलती हैं। यहूदी, पारसी और
मुस्लिम कथा-ग्रन्थों में भी इस प्रकार की अनेक रचनाएँ बताई जाती हैं। प्राचीन
भारतीय कथाओं, जिनका मूलरूप आज अप्राप्य है, तथा जिनमें से कुछ का अनुवाद बाद में ‘पंचतन्त्र’ के
रूप में संरक्षित किया गया, ने विश्वभर के कथा-साहित्य को प्रभावित किया है; इसके
पर्याप्त प्रमाण आज भी उपलब्ध हैं। बलदेव उपाध्याय अपने लेख ‘पंचतन्त्र
के प्रेरणास्रोत एवं तत्प्रणीत कथा-संग्रह’ (देखें
: जनगाथा-1, सं॰ बलराम अग्रवाल) में लिखते हैं—‘चीनी
भाषा के दो विश्वकोशों में, जिनमें प्राचीनतर 668 ई॰ में रचित है, बहुत-सी भारतीय
कहानियों का अनुवाद चीनी भाषा में किया मिलता है। इसमें आश्चर्य नहीं, क्योंकि इन
विश्वकोशों ने अपने लिए 202 बौद्ध ग्रंथों को अपना आधार बताया है। इस प्रकार दो
शताब्दियों के भीतर ही ये भारतीय कथाएँ अरब से लेकर चीन तक फैल गयीं।
अरबी
भाषा मध्य युग की सभ्य भाषा थी। अरबी के अनुवाद होते देर हुई नहीं, कि ये कहानियाँ
पश्चिम जगत के साहित्य में प्रवेश कर गयीं और भिन्न-भिन्न भाषाओं में इनके अनुवाद
होने लगे। लैटिन, ग्रीक, जर्मन, फ्रैंच, स्पेनिश तथा अंग्रेजी आदि भाषाओं में इनके
अनुवाद धीरे-धीरे मध्य युग की 16वीं शताब्दी तक होते रहे। ग्रीस के सुप्रसिद्ध
कथा-संग्रह ‘ईसप की कहानियाँ’ तथा
अरब की मनोरंजक कहानियाँ ‘अरेबियन
नाइट्स’ की आधारभूत ये ही कथाएँ हैं।’
आधुनिक
काल में मानवेतर-मूर्त्त, मानवेतर-अमूर्त्त या अतिमानवीय पात्रों को लेकर अपनी बात
को प्रभावशाली कथारूप में प्रस्तुत करने वालों में ईसप व खलील जिब्रान नि:संदेह
अग्रणी हैं। उन्हें इस प्रकार की लघुकथाओं
का आदि-प्रवर्त्तक तो नहीं, प्रवर्त्तक अवश्य कहा जा सकता है। उनके साथ-साथ
शेखसादी का रचना-संसार (बोस्तां और गुलिस्तां) भी काफी कुछ वैसा ही है। हिन्दी में
यद्यपि शेखसादी की रचनाओं का अनुवाद पहले हुआ और खलील जिब्रान की रचनाओं का बाद
में, तथापि हिन्दी कथा-साहित्य पर खलील जिब्रान की रचनाओं का ही अधिक प्रभाव पड़ा।
सुदर्शन, आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र, अयोध्या प्रसाद गोयलीय, उपेन्द्रनाथ अश्क,
कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर आदि की रचनाओं पर तो उनका प्रभाव एकदम स्पष्ट है ही,
हिन्दी के अन्य अनेक लघुकथा लेखक भी उनके प्रभाव से अछूते नहीं रह सके हैं। हिन्दी
में 1930 के आसपास से प्रारम्भ उनके प्रभाव का सफर 1975 तक तो लगभग लगातार ही चला,
आज के प्रतिष्ठित माने जाने वाले अनेक लघुकथा लेखक भी उसी शैली की लघुकथाएँ लिखने
में गर्व का अनुभव करते थे। जगदीश कश्यप का लघुकथा संग्रह ‘कोहरे
से गुजरे हुए’
खलील
जिब्रान को समर्पित रहा। लघुकथा संकलन ‘गुफाओं
से मैदान की ओर’ (प्रकाशन वर्ष 1974) में भी
इस शैली की कुछेक रचनाएँ देखने को मिलती हैं। यही नहीं, लघुकथा आन्दोलन के महत्वपूर्ण
विशेषांक ‘समग्र’ (प्रकाशन
वर्ष 1978), जिसे ‘छोटी बड़ी बातें’
शीर्ष से पुस्तकाकार प्रकाशित किया गया था, में भी ऐसी रचनाएँ हैं। तात्पर्य यह कि
खलील जिब्रान की भाववादी शैली से, वैसे कथा-पात्रों और कथानकों से पूरी तरह मुक्त
होने और समसामयिक यथार्थ से युक्त कथा-शैलियों, कथा-पात्रों और कथानकों से जुड़ने
के लिए आज की लघुकथा को कमोवेश 50 वर्ष लम्बी यात्रा तय करनी पड़ी। बावजूद इसके
खलील जिब्रान की भाववादी शैली आकर्षित और प्रभावित करती है, करती रहेगी।
अगर
विश्लेषण करें तो मानवेतर-मूर्त्त, मानवेतर-अमूर्त्त और अतिमानवीय पात्रों वाली
लघुकथाओं के निम्न रूप देखने को मिलते हैं :
1- मानवेतर-मूर्त्त,
मानवेतर-अमूर्त्त और अतिमानवीय पात्र तथा मनुष्य के बीच संवाद अथवा संवेदनात्मक
संस्पर्श प्रस्तुत करती रचनाएँ। उदाहरण के लिए 12 जुलाई, 2017 को दैनिक भास्कर की पत्रिका ‘मधुरिमा’ में
प्रकाशित छवि निगम की लघुकथा ‘ढांचा’, जिसमें लकड़ी के एक कैबनेट का संवेदनात्मक संस्पर्श एक जर्जर बूढ़े से
दिखाया है, जो अपने बचपन में उस पेड़ के साथ खेलता था जिसे
काटकर वह कैबनेट बनाया गया था। छवि ने शीर्षक में श्लेष का शानदार प्रयोग किया है।
2-
दो या अधिक मानवेतर सजातीय पात्रों के
परस्पर संवाद के अतिरिक्त विजातीय पात्रों के साथ उनका संवाद अथवा संवेदनात्मक
संस्पर्श प्रस्तुत करती रचनाएँ। प्रेमचंद की रचना ‘दरवाजा’ आत्मालाप
शैली की रचना है जिसमें दरवाजा अपनी व्यथा स्वयं कहता है। ‘मधुमति’ जुलाई
2017 अंक में प्रकाशित चन्द्रेश कुमार छतलानी की लघुकथा ‘सर्पिला
इंसान’ एक सँपोले के जीवनानुभव की कथा है जिसे वह अपनी माँ के
साथ साझा करता है। मधु जैन की लघुकथा ‘स्थिति’ में
एक सोफे का आत्मकथ्य है तो ‘कृतघ्न’ में
नीम और उस पर रहने वाले परिंदों के बीच वार्तालाप दिखाया गया है (संदर्भ :
फेसबुक के ‘लघुकथा साहित्य’
समूह पर दिनांक 23-9-2017 को लिखी मेरी पोस्ट पर टिप्पणीस्वरूप लिखी उनकी लघुकथाएँ
‘स्थिति’ तथा ‘कृतघ्न’)। संरचना-7
में प्रकाशित संध्या तिवारी की लघुकथा ‘सावित्री’ में
एक बरगद अपनी भावनाएँ व्यक्त करता है।
3-
मानवेतर-मूर्त्त, मानवेतर-अमूर्त्त और
अतिमानवीय पात्रों से मानव पात्र की अन्तरात्मा की आवाज के रूप में प्रस्तुत करती
रचनाएँ। उदाहरणार्थ, बलराम अग्रवाल की लघुकथा ‘हत्या
एक रक्तपायी की’।
4-
मानवेतर-मूर्त्त, मानवेतर-अमूर्त्त और
अतिमानवीय पात्रों की भाषा के जानकार मनुष्य को पात्र के रूप में समंजित करती /
संवेदनात्मक संस्पर्श प्रस्तुत करती रचनाएँ। गुलेरी जी द्वारा प्रस्तुत कुछेक
लघुकथात्मक उद्धरणों में इस तरह की रचनाएँ मिलती हैं।
5-
मानवेतर-मूर्त्त, मानवेतर-अमूर्त्त और
अतिमानवीय पात्रों को बिम्ब रूप में प्रस्तुत करती रचनाएँ। उदाहरण के लिए जगदीश
कश्यप की ‘रम्भाती गाय’, बलराम
अग्रवाल की लघुकथा ‘बिना नाल का
घोड़ा’ तथा ‘कन्धे
पर बेताल’, अशोक भाटिया की 'नई बेताल कथा' ।
इनके अतिरिक्त कुछेक
मनोभावों को भी पात्र के रूप में प्रस्तुत करने का चलन लघुकथा में आदिकाल से ही
रहा है। इस युग में भी उक्त सोपान की लघुकथाएँ यदा-कदा लिखी जाती हैं। उदाहरण के
लिए कान्ता रॉय की लघुकथा ‘संकल्प’ का नाम लिया जा सकता है।हिन्दी
का लघुकथा लेखक मानवेतर-मूर्त्त, मानवेतर-अमूर्त्त और अतिमानवीय प्रकार के पात्रों
का संकुचन त्यागकर आज यथार्थ के कठोर और
खुरदुरे धरातल पर खड़े जीवंत मानवीय पात्रों की चुनौती को स्वीकार कर चुका है।
पूर्व की तुलना में अभिव्यक्ति के स्तर पर वह अब कहीं अधिक साहसी सपाट (स्ट्रेट
फारवर्ड) है और इसीलिए आततायियों, शोषकों, दमनकारियों और धूर्तों के अन्यायपूर्ण
रवैयों व बयानों को वह सीधे इन्हीं को पात्र के रूप में प्रस्तुत करके करता है।
साथ ही, कथा-प्रस्तुति में सांकेतिकता का जो कलात्मक प्रयोग गुलाम अथवा बर्बर युग
के हमारे आदि कथा-सर्जक और वाचक करते आए थे—सजग,
सचेत और सचेष्ट तरीके से उसे भी आज के कथाकार ने भी अपना रखा है। यही नहीं, भाषा
एवं शिल्प आदि के मामले में उसने अनेक काव्यावयवों, यथा-वैचारिक
गहनता, सघनता और लय आदि को भी अपनाया है। अत: इसके बावजूद भी कि विश्व कथा-साहित्य
में, और हिन्दी में भी, मूर्त्त-अमूर्त्त मानवेतर तथा अति-मानवीय पात्रों के
प्रयोग की लम्बी और गौरवशाली परम्परा रही है, आज की लघुकथा में वैसे पात्रों का निरन्तर
समावेश प्रभाव की दृष्टि से उसे कथा के आधुनिक धरातल से जोड़ने में अक्षम ही रहेगा।
इस बात को यों भी कह सकते हैं कि वैसे पात्रों से युक्त लघुकथा, हो सकता है कि
सामान्य स्तर के पाठक को भरपूर गुदगुदाए या रोमांचित करे लेकिन आधुनिक आलोचकीय-दृष्टि
उसे कथा के आधुनिक धरातल से एकदम विलग भाव-सोपान की पुरातन कथा या दृष्टांत ही
आंकेगी क्योंकि आधुनिक कथा-साहित्य का हेतु अपने पाठक को गुदगुदा देना अथवा
रोमांचित कर देना भर न होकर उसके मस्तिष्क में विचार तथा हृदय में उद्वेलन को
उत्पन्न करना है। रोमांच और प्रभाव के मध्य अन्तर की इस स्पष्टता ने ही लघुकथा में
आधुनिकता का मार्ग प्रशस्त किया है।
सम्पर्क
: एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032 / मोबाइल : 8826499115
2 टिप्पणियां:
हम सब प्रायः प्रतीकात्मक लघुकथाएँ लिखते रहें हैं, लेकिन ऐसा गहन मनोविश्लेषणात्मक दृष्टिकोण मानवेतर-मूर्त्त, मानवेतर-अमूर्त्त और अतिमानवीय पात्रों वाली लघुकथाओं पर अब तक पढ़ने में नहीं आया था।
//रोमांच और प्रभाव के मध्य अन्तर//----- यहाँ एक नये इशारे के तहत सोचने के लिए भी बाध्य करती प्रतीत होती है।
एक बार फिर से आपने इस आलेख के जरिए अनकहे में बहुत कुछ कह दिया है हम सबको।
अच्छा है यह भी!
आभारी हैं हम सब आपके इस शोधात्मक कार्यों के प्रति।
शोध पूर्ण इस लेख में उठाया गया विषय नवीनता के साथ साथ गंभीरता से लिया गया है
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