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लघुकथा के क्षेत्र में विषय केन्द्रित लघुकथा लिखने को प्रेरित करना और उन्हें
प्रश्रय देना मुख्यत: इक्कीसवीं सदी के
दूसरे दशक के प्रथमार्द्ध की देन है। विषय-केन्द्रित लघुकथा लिखने के औचित्य अथवा
अनौचित्य पर ‘क्षितिज लघुकथा सम्मेलन-2018’ में एक सत्र में चर्चा की गयी थी। उस
पर बोलते हुए कथाकार सुभाष नीरव ने जो कुछ कहा, उसका आशय था—‘नवोदितों को विषय की बेड़ियों
में मत बाँधो, उन्हें उड़ने को खुला आकाश दो।’ तात्पर्य यह कि नया कथाकार भी विषय
के बंधन से मुक्त रहना चाहिए। उनका यह वक्तव्य अगले दिन अखबारों की हैड-लाइन बना
था।
मैं इससे सहमत हूँ, लेकिन आंशिक रूप से। भावावेश
की बजाय अगर गम्भीरता से विचार करें, तो पाएँगे कि अनुशासन का पाठ हर व्यक्ति के
लिए जरूरी है; और उसके लिए सबसे उपयुक्त उम्र बचपन और किशोर अवस्था ही है। बाद की
अवस्थाओं में व्यक्ति भयवश अनुशासित रहता है, वृत्तिवश नहीं। लेखन के शैशव-काल को
लेखकीय बचपन कहा जा सकता है। माना, कि बहुत-से लोग पेट से ही अनुशासन सीखकर आते
हैं यानी जन्मजात प्रतिभा के धनी होते हैं; लेकिन बाकी लोगों को लेखकीय बचपन काल
में कुछ अनुशासन सिखा दिया जाए तो बुरा नहीं है।
विषय-केन्द्रित लघुकथा-लेखन को मैं कथा-लेखन का एलकेजी, यूकेजी यानी
प्राइमरी स्टैंडर्ड मानकर चलता हूँ। उसमें बने रहने की एक विशेष लेखकीय-आयु
निश्चित की जानी चाहिए। यह नहीं कि बंदा गत 20 सालों से कथा-लेखन के एलकेजी,
यूकेजी या फर्स्ट स्टैंडर्ड में ही घुटने गाड़े पड़ा है। न तो आगे खिसकने का नाम ले
रहा है, न अपने आप को नवोदित ही मान रहा है। आयोजकों को विषय केन्द्रित लघुकथा
प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाले लघुकथाकारों से इस आशय का एक घोषणा-पत्र लेना
चाहिए कि उन्हें कितने वर्ष लघुकथाएँ लिखते हुए बीत चुके हैं—5 वर्ष, 10 वर्ष, 15
वर्ष… । और भाषा, शिल्प, शैली, कथ्य आदि का आकलन उसी के अनुरूप कर उनकी लघुकथाओं
पर मार्किंग की जानी चाहिए ताकि किसी भी नवोदित के अधिकार का हनन न हो।
डॉ॰
नीरज सुधांशु द्वारा संपादित लघुकथा संग्रह ‘स्वाभिमान’ में कुल 56 लघुकथाएँ हैं। ये
सब की सब ‘मातृभारती डॉट कॉम’ द्वारा सन् 2018 में ‘स्वाभिमान’ विषय पर केन्द्रित
लघुकथा प्रतियोगिता में पुरस्कृत घोषित हैं। प्रतियोगिताओं के आयोजन से जुड़े लोगों
के लगातार अनुभव बताते हैं कि आने वाली लघुकथाओं में अधिकतर बहुत ही निराश करने
वाली, कूड़ा लघुकथाएँ होती हैं। इसलिए, सबसे पहले तो आयोजकों को उनके चयन में
मशक्कत करनी पड़ती है। उसके बाद, निर्णायकों को उनके आकलन में जो मशक्कत करनी होती
है, कुछेक पत्रिकाओं के लघुकथा-विशेषांक संपादित करने के नाते उससे थोड़ा-बहुत मैं
भी परिचित हूँ ही। इसलिए, ‘स्वाभिमान’ के चयनकर्ताओं और आकलनकर्ताओं, दोनों को मैं
बधाई देना चाहूँगा कि उन्होंने बहुत ही सधी हुई, ‘लघुकथा’ कही जा सकने वाली रचनाओं
का चुनाव किया है। उसका एक कारण लघुकथा विधा के प्रति निर्णायकों की दृष्टि का
स्पष्ट होना भी रहा है। उदाहरण के लिए, ‘हिंदी लघुकथा के आयाम’ शीर्षक से लिखित
भूमिका में डॉ॰ जितेन्द्र जीतू के ये शब्द पढ़िए—‘आज की तारीख में चार अच्छी
लघुकथाएँ पढ़कर आप चैन की नींद सो सकते हैं तो एक अच्छी लघुकथा आपकी नींद उड़ा भी सकती
है। लघुकथा ने बहुत-से आयामों को छुआ है और समकालीन स्वीकृति के चलते बहुत-कुछ
छूना अभी बाकी है।’ तथा संपादकीय के तौर
पर लिखे आलेख ‘देखन में छोटी लगे, घाव करे गंभीर…’ में डॉ॰ नीरज सुधांशु के ये
शब्द—‘लघुकथा केवल मन बहलाने का माध्यम नहीं है…’
इस
संकलन में बेशक, कुछ लघुकथाओं के कथ्य पुराने भी हैं, लेकिन उनकी कथन-भंगिमा
आकर्षक और रोचक होने के नाते वे पठनीय बन पड़ी हैं। मसलन, सन् 1950
से 1955 तक विभिन्न अधिनियम बनाकर सरकार ने अंग्रेजों द्वारा कायम जमीदारी प्रथा
को समूल समाप्त कर दिया था। बहते पानी का स्रोत बंद कर दिया जाए तो शेष पानी
गंतव्य की ओर आगे बढ़ता रहता है। उसी रूप में, जमीदारों का जिक्र भी 1955 के 20-22-25
साल बाद तक कहानियों (या लघुकथाओं) में एक बहाव के रूप में स्वीकार किया जा सकता
है, हमेशा-हमेशा नहीं। ‘प्रतीक’ रूप में भी पाठक किसी भाव से तभी जुड़ पाता है, जब
वह उससे परिचित हो।
इस
संकलन में दो लघुकथाएँ अद्भुत कथ्य के साथ आयी हैं। इनमें पहली है, कुमार संभव
जोशी की ‘इलेवन पाइंट टू’ और दूसरी है, चित्रा राणा राघव की ‘परिधि’। ‘परिधि’ अपनी
प्रस्तुति में किंचित क्लिष्ट हो गयी है। इसका पूर्वार्द्ध सामान्य पाठक को शायद
कई-कई बार पढ़ना पड़े; लेकिन जिस विषय को यह
लघुकथा उठाती है और गहरे विश्वास के साथ जो स्थापना देती है, वह अद्भुत है।
स्वतंत्र होने के लिए स्त्री को अपनी देह से बाहर आना ही होगा। यह लघुकथा बताती है
कि स्त्री की ‘मुक्ति’ के द्वार को बंद
करने में पुरातन समाज ने जो चालाकियाँ दिखाई हैं, उन्हें उसे समझना भी होगा और
स्त्री-समुदाय को समझाना भी होगा। ‘इलेवन पाइंट टू’ के केन्द्र में भी
स्त्री-मुक्ति ही है, लेकिन इस लघुकथा की स्त्री ‘परिधि’ की स्त्री से अलग साहस
वाली है; और इसीलिए उसका संघर्ष भी अलग है। ये दोनों लघुकथाएँ समकालीन लघुकथा का
युवा परिदृश्य बड़ी बेबाकी से सामने रखती हैं और इस बात का सुखद अहसास कराती हैं कि
युवा पीढ़ी ने लघुकथा की उच्चता के अनेक छोरों में से उस एक को पकड़ लिया है, जिसकी
तलाश में गत 50 सालों से वह गतिमान है।
इस
संकलन की लगभग सभी रचनाएँ अच्छी हैं; लेकिन विशेष रूप से उल्लेखनीय रचनाओं का नाम
लेने को कहा जाए तो मैं ‘अभिमान’ (भगवान वैद्य), ‘सफर’ (अंजलि गुप्ता ‘सिफर’),
‘तेवर’ (आशीष कुमार त्रिवेदी), ‘चमक’ (आशा शर्मा), ‘औकात’ (दिव्या शर्मा),
‘वर्जिनिटी टैस्ट’ (अर्चना राय), ‘क्या कहेंगे लोग’ (सुषमा गुप्ता), ‘अब और नहीं’
(सीमा भाटिया), ‘सूरज से छिनती किरण’ (संगीता गांधी), ‘ओ लंगड़े’ (विजयानंद विजय)
का नाम लूँगा। इन लघुकथाओं में अलग तरह का तेवर है, कसमसाहट है, नयी सदी की
क्रूरताओं से टकराने का जज्बा है, जूझ है। इनके पात्र न तो समझौतावादी हैं और न
पलायनवादी। वे अपने समय की अनेक विभीषिकाओं से या तो लड़ रहे हैं या सीना तानकर
उनके सामने डटे खड़े हैं।
प्रस्तुति
के स्तर पर भी अन्दाज एकदम अलग है। ‘क्या कहेंगे लोग’ का कथ्य नया नहीं है, लेकिन कथन-शैली
पाठक को बाँधे रखने में सफल है; न केवल सफल बल्कि सार्थकता प्रदान करती हुई है। उल्लेखनीय
और स्वागत के योग्य बात यह भी है कि महिला लघुकथाकार चौके-चूल्हे और कामवाली बाई के
कथानकों से बाहर उन विषयों पर कलम चला रही हैं, जिन पर लिखते हुए अब से दस साल
पहले वे झिझकती-हिचकती थीं। तोष का विषय है कि नयी पीढ़ी अपनी बात कहने के साहस,
सलीके और स्वाभिमान के साथ लघुकथा में पदार्पण कर चुकी है। हिन्दी लघुकथा संकलन की
पहली सुबह 1974 में हुई थी, ‘गुफाओं से मैदान की ओर’ के रूप में। उसके बाद, एक
उल्लेखनीय सुबह लघुकथा ने 1978 में देखी, ‘छोटी बड़ी बातें’ के रूप में। उसके बाद
तो अनेक उल्लेखनीय सुबह यह देख चुकी है। ‘स्वाभिमान’ के रूप में उतरी 2019 की नयी
सुबह का भी हमें प्रफुल्लित हृदय से स्वागत करना चाहिए। यह कुछ ऐसी चीजें लेकर आयी
है, जो गत वर्षों में छायी रही नारेबाजी से अलग वैज्ञानिक दृष्टि से लैस हैं तथा
स्त्री, पुरुष या किन्नर की बजाय मानवीय सृष्टि के अस्तित्व को स्थापित करने पर
जोर देती हैं।
समीक्षित कृति :
स्वाभिमान (मातृभारती डॉट कॉम द्वारा 'स्वाभिमान' विषय पर आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता में
पुरस्कृत लघुकथाओं का संकलन), संपादक : डॉ॰ नीरज सुधांशु, पेपरबैक संस्करण : 2018,
पृष्ठ : 104, मूल्य : रुपए 149/-
3 टिप्पणियां:
मैं पिछले साल से ही लेखन में सक्रिय हुई हुँ।लघुकथा विधा मेरी आत्मा में बसी हुई है।मैं निरंतर प्रयास कर हूँ कि इस विधा को ईमानदारी से समझ पाऊंं।मातृभारती द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में विजेताओं में मेरी लघुकथा का होना मेरे लिए सुखद आश्चर्य कर गया क्योंकि मुझे आशा नहीं थी कि दिग्गजों के बीच मैं अपनी पहचान बना पाऊंगी।यह मेरे द्वारा किसी भी लेखन प्रतियोगिता मे शामिल होने का पहला अवसर था।इसके लिए मातृभारती का हृदय से आभार।सर हम कुछ अलग करना चाहते है कुछ अलग विषय उठाना चाहते हैं इसके लिए आप वरिष्ठों का मार्गदर्शन हमारे लिए आशीर्वाद रहेगा।
बहुत धन्यवाद सर।
एक बहुत अच्छी सारगर्भित समीक्षा! बलराम अग्रवाल की समीक्षा से कुछ अधिक ही अपेक्षाएं होती हैं और वह उस पर खरे उतरते हैं !
आपने बहुत महत्वपूर्ण तथ्यों को इंगित किया है।
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