गुरुवार, 21 मई 2020

रामनारायण उपाध्याय की लघुकथाएँ / बलराम अग्रवाल

(पद्मश्री पं. रामनारायण उपाध्याय जी की आज 102वीं जयंती है। इस पावन अवसर पर प्रस्तुत है 'लघुकथा शोध केंद्र, भोपाल' की निदेशक श्रीमती कांता रॉय के आदेशात्मक आग्रह पर जनवरी 2020 में लिखा गया दादा की पुस्तक 'नया पंचतंत्र' में संग्रहीत लघुकथाओं पर केंद्रित यह आलेख।--बलराम अग्रवाल) 
पं. रामनारायण उपाध्याय को निमाड़ की  संस्कृति-उर्वरा भूमि के तपस्वी रचनाकार कहा जाता है। उनका जन्म 20 मई 1918 को खंडवा जिले के एक गाँव कालमु्खी में  हुआ था। उन्होंने लोक में फैली विराट जातीय सांस्कृतिक सम्पदा के संरक्षण और उसके विकास में अपने जीवन को होम दिया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने उनको याद करते हुए एक बार कहा था, कि—‘सच तो यह है कि (पं॰ रामनारायण उपाध्याय जैसी लोक सम्बन्धी) सू्झ और ताजगी का धनी वही हो सकता है, जिसने धरती की माटी को चूमा हो, प्रकृति की गोदी में खेला हो, लोकगंगा में नहाया हो और खुले आसमान में मँडराया हो।’
उपाध्याय जी के सात व्यंग्य संग्रह हैं—बक्शीशनामा, धुँधले काँच की दीवार, नाक का सवाल, मुस्कराती फाइलें, गँवईं मन और गाँव की याद, दूसरा सूरज, और नया पंचतंत्र। उन्होंने लोकसाहित्य भी खूब लिखा है तथा कथाओं की अन्तर्कथा, चिट्ठी और मामूली आदमी भी उनकी उल्लेखनीय कृतियाँ हैं। इन सबमें उनकी कुछ ऐसी रचनाएँ शामिल हैं जिन्हें ‘लघुकथा’ के रूप में चिह्नित किया जाता है। लघु्कथाएँ मानी जाने वाली रचनाएँ मुख्यत: उनके संग्रह ‘नया पंचतंत्र’ में संकलित हैं। 
‘नया पंचतंत्र’ की भूमिकास्वरूप लिखित ‘कृति परिचय’ की शुरुआत डॉ॰ रामशंकर मिश्र ने यों की है—‘नया पंचतंत्र’ पढ़ते-पढ़ते हिन्दी व्यंग्य के विषय-विधान तथा रचना-प्रक्रिया के बदलते हुए प्रतिमानों का एक लम्बा-सा क्रम दृष्टिगत होने लगा है।’ लेकिन इसी भूमिका में उन्होंने एक अन्य बात भी कही है, जिसे डॉ॰ शकुन्तला किरण ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दी लघुकथा’ में रेखांकित किया है। वो यह, कि—‘खलील जिब्रान का लघुकथात्मक रूप भी रचना के सीमित रूप की दृष्टि से उल्लेखनीय है। ‘नया पंचतंत्र’ में उपाध्याय जी ने कथा के संक्षिप्त रूप का चयन करते हुए विषय के विस्तार को एक नये रूप में अंकित किया है। इस कृति में विषय, शिल्प और भाषा का एक नया जीवन्त रूप परिलक्षित है।’ ‘कृति परिचय’ शीर्षक भूमिका में डॉ॰ मिश्र ने यह भी रेखांकित किया है कि ‘समाज और राजनीति के प्रहरी सेवा-लीक का त्याग कर आत्मकेंन्द्रित हो चले हैं, इस सत्य के उद्घाटन के लिए उपाध्याय जी ने अनेक लघु-कथाओं की सर्जना की है।’  लेकिन इन शब्दों से भी उनका तात्पर्य व्यंग्य ही रहा है, जिसे आगे वह यों स्पष्ट करते हैं—‘यह वास्तव में उनके कथा-विन्यास की बहुत बड़ी विशेषता है। शिल्प की इस विशिष्टता के कारण श्री उपाध्याय की व्यंग्य-कृति को अन्य व्यंग्य-लेखकों की कृतियों से भिन्न रखा जा सकता है।’ इस भूमिका को पढ़ते हुए मैं पूरे सम्मान और आदर के साथ यह कहने की स्थिति में हूँ कि ‘नया पंचतंत्र’ की भूमिका लिखते हुए डॉ॰ मिश्र लगातार लघु-कथा और व्यंग्य के बीच दोलन करते रहे हैं। इसमें उनकी कोई गलती नहीं। कुछ रचनाओं में नि:संदेह यह विशेषता होती है कि वे अपनी निकटवर्ती विधा की चौखट पर खड़ी मिलती हैं। आलोचक के लिए विधापरक किसी एक मानदंड पर उन्हें परखना मु्श्किल, लगभग असम्भव हो जाता है। ‘नया पंचतंत्र’ की कुछ रचनाओं ने यह चुनौती, यह मु्श्किल, डॉ॰ मिश्र के सामने प्रस्तुत किए रखी है।
‘नया पंचतंत्र’ की जिन रचनाओं को लघु आकारीय कथा के रूप में आज तक छापा गया है, वे हैं—‘अंगूर, लोमड़ी और लड़की’, ‘पुराना सौदागर और नये बन्दर’, ‘पुराने टोटके नया फल’, ‘पुराणपंथी कछुआ और प्रगतिशील खरगोश’, ‘पुरानी लोमड़ी नया कौआ’, ‘ऊँट-सियार न्याय’, ‘दक्षिणा’, ‘मॉडर्न शकुन्तला’, ‘स्वराज्य की बेटी और मँहगाई का धनु्ष’, ‘भ्रष्टाचार के राक्षस और राजा दशरथ के दो बेटे’, ‘जल-प्रदाय योजना के महाशय नल और प्राचार्या दमयन्ती’, ‘आधुनिक श्रवण’, ‘गुरुभक्ति’, ‘वरदान’, ‘भक्तों की प्रार्थना’, ‘ऊँट और पहाड़’, ‘राजा कौन हाथी या सिंह’, ‘ऊँट और कुर्सी’, ‘पुरानी सन्धि नया अर्थ’, ‘नया समाजवाद’, ‘सहानुभूति’, ‘खोज में’, ‘गरीबी’, ‘योजनावादी लोग’, ‘प्रजातन्त्र में न्याय’, ‘छुटकारा’, ‘टिकट का अधिकारी कौन’, ‘कागज का कुआँ’, ‘समझदार आदमी का जन्म’, ‘मन मछली और आँखें’। बहुत सम्भव है कि इन 30 के अतिरिक्त भी कुछ अन्य कथा-रचनाएँ उनकी किसी अन्य पुस्तक में मिल जाएँ। यहाँ बहरहाल, इन 30 पर ही विचार रखेंगे।
इनमें ‘मन, मछली और आँखें’ एक ऐसी कथा है जिसके बारे में मुझे आश्चर्य है कि इसका नोटिस अभी तक क्यों नहीं लिया गया? इस कथा में रूपक भी है, प्रतीक भी और दर्शन भी। इस कथा में लोक-रस रचा-बसा है। यह एक युवती की निर्मल स्वच्छंदता की कथा है जिसे व्यक्त कर पाना हरेक के वश की बात नहीं है। उपाध्याय जी की रचनाओं में हमें विशुद्ध ग्राम्य संस्कृति के दर्शन होते हैं। ‘नया पंचतंत्र’ का प्रकाशन 1974 में हुआ था। अनुमानत: कह सकते हैं कि इसमें संकलित रचनाओं का रचनाकाल निश्चित ही स्वातंत्र्योत्तर रहा होगा। ऐसा इसमें संग्रहीत रचनाओं में चित्रित राजनेताओं के चरित्र के आधार पर कहा जा सकता है। ‘कागज का कुआँ’ स्वातंत्र्योत्तर भारत में राजनीतिक गिरावट का यथार्थ है तो ‘टिकट का अधिकारी कौन’ में देश के वेतनभोगी कर्मचारी के माध्यम से स्वाधीनता-संग्राम सेनानियों और सच्चे समाजसेवियों की दैहिक और आर्थिक स्थिति का भी यथार्थ अंकन उनकी लेखनी से हुआ है।  ‘
छुटकारा’ पर गत दिनों मेरे द्वारा संचालित फेसबुक समूह ‘लघुकथा साहित्य’ पर लम्बी चर्चा चल चुकी है। राजेश उत्साही को वहाँ प्रस्तुत पाठ की मौलिकता पर संदेह था। यह रचना लखनऊ से 1974 में ही प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘लघुकथा चौमासिक’ के पहले अंक में पहले छपी थी या इसी वर्ष प्रकाशित ‘नया पंचतंत्र’ संग्रह में? यह सम्भवत: हमेशा ही रहस्य और शोध का विषय बना रहेगा। लेकिन, इस रचना का आधार एक प्राचीन लोककथा है, यह निर्विवाद है। ‘प्रजातन्त्र में न्याय’ पंचतंत्र की एक कथा का पुनर्लेखन है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि साहित्य में पूर्व-प्रचलित कथाओं को नये संदर्भों के साथ लिखने को मौलिक ही माना जाता रहा है। एक बात और स्पष्ट कर दूँ, उपाध्याय जी की जिन कथाओं पर यहाँ लघुकथापरक आकलन प्रस्तुत है, वे विचारपरक व्यंग्याश्रित कथाएँ हैं। वे अपने समय में व्याप्त  विसंगतियों पर चोट करने का लेखकीय दायित्व निभाती हैं और पाठक को ‘कुछ’ नहीं, ‘बहुत-कुछ’ सोचने को विवश करती हैं। वे अपने समय के राजनेताओं और विचारक बने बैठे लोगों का चारित्रिक यथार्थ हमारे सामने रखती हैं। इसी के मद्देनजर डॉ॰ मिश्र ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है—‘वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था पर रचनाकार का व्यंग्य अधिक प्रखर तथा आंदोलित कर देने वाला है।’ ‘गरीबी’ को लोक-शैली में लिखा गया है और तय पाया गया है कि राजनीतिक कौशल गोलमोल बात करने का नाम है। ‘खोज में’ को पढ़कर मुझे गाजियाबाद निवासी एक मित्र, गजलकार ब्रज अभिलाषी याद आ गये। 1988 की बात है। वे एक दिन मिले तो पूछने लगे—“बलराम, यह बताओ कि सृष्टि में सबसे ज्यादा चालू कौन है?”
मैंने कुछ देर सोचा, फिर कहा—“पता नहीं।”
“मैं बताऊँ?” उन्होंने पूछा।
“बताओ।”
“ईश्वर!” उन्होंने कहा और आगे बोले—“बंदे ने हजार, दस हजार साल तपस्या की कुछ माँगने के लिए। इसने दर्शन दिए और उसकी बुद्धि घुमा दी। घुमाकर कहा—‘माँगो वत्स, क्या चाहिए?’ घूमी हुई बुद्धिवाले वत्स ने कहा—‘आपके दर्शन हो गये भगवन्, अब मुझे कुछ नहीं चाहिए।’ बताइए, अगले के मुँह से ‘कुछ नहीं चाहिए’ सुनने के लिए उसके दस हजार साल बरबाद करा दिये उस ‘भगवान्’ ने। मेरे भाई, कुछ नहीं माँगने से पहले भी तू फक्कड़ था, अब भी फक्कड़ रह गया। है न कमाल की बात।’’
एकदम यही किस्सा उपाध्याय जी लिखित ‘खोज में’ का भी है। 
‘सहानुभूति’ भी एक लोककथा का ही पुनर्लेखन है। इस लघुकथा की विशेष बात यह है, कि कर्जदार किसान रात के अंधेरे में प्रवेश करता है और हाथों से टटोलने पर यह पाकर चौंकता है कि भगवान की मूर्ति निर्वस्त्र है। इस एक ही आभास से सिद्ध होता है कि वह अस्पृश्य जाति का रहा होगा। स्पृश्य जाति से होता तो उसने कभी न कभी दिन के प्रकाश में भी मूर्ति को अवश्य देखा होता, वह चौंकता नहीं; और वह अगर चौंकता नहीं तो कथा में वह ट्विस्ट न पैदा होता हो अब हुआ है। सामान्य श्रेणी का व्यक्ति दिन में मंदिर जाए या रात में, कथा क्रिएट नहीं करता। कथा क्रिएट करने की क्षमता तो इस वंचित व्यक्ति में ही निहित है। ‘नया समाजवाद’ धनाढ्य और शक्तिशाली वर्ग द्वारा समाजवाद का अपने हित में दुरुपयोग करने  की वेहतरीन कथा है। ‘नया समाजवाद’, ‘पुरानी संधि नया अर्थ’, ‘पुराना सौदागर और नये बन्दर’, ‘पुराने टोटके नया फल’ या इन जैसी वे सभी कथाएँ जिनके शीर्षक में ‘नया’ शब्द जुड़ा है, उपाध्याय जी द्वारा अपनी दृष्टि के अनुरूप पुनर्लिखित होने की स्वत: ही घोषणा कर रही हैं। ‘पुरानी संधि नया अर्थ’ के माध्यम से बताया गया है कि मित्र बनाते समय व्यक्ति के और अपने परिवेश का ध्यान रखना उतना ही जरूरी होता है, जितना शक्ति के संतुलन का। भारतीय समाज में पौराणिक पात्रों के नाम का प्रयोग बहुतायत में पाया जाता है। 1970 के आसपास राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक क्षेत्रों में कार्यरत अधिसंख्य व्यक्तियों के चारित्रिक विचलन को अनेक कथाकारों ने पौराणिक नामों के प्रयोग के माध्यम से अंकित किया था। कथा पत्रिका ‘सारिका’ के संपादक कमलेश्वर ने इस शैली में लिखी गयी कथाओं/कथा-पैरोडियों को खूब प्रश्रय दिया। रामनारायण उपाध्याय जी रचित अनेक कथाएँ उस कालखंड का इतिहास बनती हैं। प्रस्तुत रचनाओं में ‘मॉडर्न शकुन्तला’, ‘स्वराज्य की बेटी और मँहगाई का धनु्ष’, ‘भ्रष्टाचार के राक्षस और राजा दशरथ के दो बेटे’, ‘जल-प्रदाय योजना के महाशय नल और प्राचार्या दमयन्ती’, ‘आधुनिक श्रवण’ आदि ऐसी ही कथाएँ हैं जिनका मुख्य उद्देश्य अपने रचनाकाल में यही बताना रहा कि समाज में चारित्रिक गिरावट का ग्राफ कितना नीचे आ चुका था। वह ग्राफ अभी भी अवनति की ओर ही गतिमान है, इस दृष्टि से इनका पंच आज भी अक्षुण्ण है। समाज के अधोगामी चरित्र की ये कालजयी रचनाएँ हैं। समय बदलने के साथ कथा की कथन-शैली में आ चुके बदलाव बहुत-सी रचनाओं को इतिहास बना देते हैं।  
बहुत-से नवागत और अनेक पूर्वागत भी, लघुकथा में कथ्य और कथानक के मध्य अंतर को समझ नहीं पाते हैं। प्रत्येक कथा-रचना में कथ्य ही प्रमुख हुआ करता है, वह कथा की आत्मा है जिसे कथाकार अपने दायित्वों और सरोकारों से प्रकाशमान करता है, दृष्टि के अनुरूप उसे आकार और धार देता है। कथानक उसकी देह है। सरोकारविहीन देहें चलना-फिरना, खाना-सोना, मैथुन और पुनरुत्पत्ति, तात्पर्य यह कि वो सारे काम किया करती हैं जो सरोकारयुक्त देहें किया करती हैं। लेकिन सरोकार-विहीन देहें! ‘ते मर्त्यलोके भुविभार भूता’ यानी साहित्य के पन्नों पर वे बोझ और लघुकथा-जगत में भीड़ ही अधिक साबित होती हैं, सार्थकता सिद्ध करती हुई अलग चिह्नित नहीं हो पातीं। मानवीय सरोकारों से युक्त कथ्यों की प्रस्तु्ति के क्रम में कुछेक स्थूल तथ्यों से विचलित होने का अधिकार पाठक और आलोचक प्रारम्भ से ही कथाकार को देते आये हैं। ‘पंचतंत्र’ की कथाओं से लेकर प्रेमचंद लिखित ‘दो बैलों की कथा’ और वर्तमान युग में लिखित अनेक लघुकथाएँ इसका प्रमाण हैं; तथापि उचित यही है कि  कथानक को तथ्यपरक रहना चाहिए। उदाहरणस्वरूप मैं उपाध्याय जी की अत्यंत सुन्दर लघुकथा ‘अंगूर, लोमड़ी और लड़की’ को यहाँ प्रस्तुत करता हूँ--
एक सरकारी क्वार्टर के छज्जे में अंगूर के गुच्छे लगे थे। एक लोमड़ी ने देखा, तो उसके मुँह में पानी भर आया।
छज्जे में खड़ी लड़की ने कहा, ‘‘लोमड़ी बहन, तुम इन अंगूरों को पाने का प्रयास मत करो। ये अंगूर तो खट्टे हैं।’’ 

  1. लोमड़ी ने कहा, ‘‘चालाक लड़की, तुम कैसे कह रही हो कि अंगूर खट्टे है; जबकि इन्हीं अंगूरों को खाकर तुम्हारा रूप निखरा है1’’

लड़की ने कहा, ‘‘लोमड़ी बहन, मेरे ऊपर वाले क्वार्टर में एक लड़का रहता है। कल उसने भी इन अंगूरों की ओर ललचाई नजरों से देखा था। इस पर उसके पिता ने कहा था--‘ये सरकारी बेल के अंगूर हैं। इनका स्वाद खट्टा है।’ तब से उसने नीचे की ओर देखना छोड़ दिया है।’’
स्थूल तथ्य, जिसका विचलन इस कथा में है, वो यह कि पशु (लोमड़ी) और मानव (लड़की) के बीच वार्तालाप हुआ है, जो असम्भव है; लेकिन सामान्य पाठक के बीच मान्य है क्योंकि साहित्य में प्रमुखता संप्रेषणीयता को दी जाती है। अब, इसके सौंदर्य पर बात करते हैं। लोमड़ी और खट्टे अंगूर की कथा से तो सब परिचित हैं ही, इसमें उसे मात्र एक टूल की तरह इस्तेमाल करके कुछ प्रतीक और बिम्ब की भाषा में नवीन सौंदर्य प्रदान किया गया है। इस नवीन सौंदर्य की एक स्थापना यह भी है कि ‘सरकारी’ सम्पत्ति, ‘सरकारी’ फल, ‘सरकारी’ लावण्य को सब नहीं लूट सकते; वे उच्च-पदस्थ कुछेक नौकरशाहों और सत्ता के गलियारों पर काबिज कुछ बिचौलियों के लिए ही उपलब्ध रहते हैं; शेष सब के लिए वे अलभ्य और ‘खट्टे’ हैं। लड़की के कथन ‘मेरे ऊपर वाले क्वार्टर में एक लड़का रहता है। कल उसने भी इन अंगूरों की ओर ललचाई नजरों से देखा था।’ में प्रयुक्त ‘अंगूरों’ में स्वयं वह लड़की भी प्रत्यारोपित है। यह वाक्य एक रूपक की रचना अलग से करता है।
‘पुराना सौदागर और नये बन्दर’ विधायकों और सांसदों द्वारा दल बदल लेने की प्रवृत्ति पर कटाक्ष है। ‘पुराने टोटके और नया फल’ मिनिस्टर को राजा बताना ही लोकतान्त्रिक प्रणाली के परदे में चल रही राजशाही की ओर कटाक्ष है, जो अपने आप में गहरी मार है; उससे भी गहरी यह, कि बिना बरसे ही वापस लौटने वाले मेघ उस (मिनिस्टर) के सम्बन्ध में जनता से कहते हैं—‘…उसकी वाणी खण्डित है, वह वचन देकर बदल जाता है।’ इस तरह उपाध्याय जी स्वयं को उस कलम का धनी सिद्ध करते हैं, जो लघुकथा की गम्भीर प्रकृति और व्यंग्य की कलात्मक धार के बीच अन्तर को लगभग समाप्त करने का कौशल जानते हैं। ‘पुराणपंथी कछुआ और प्रगतिशील खरगोश’ में ‘पुराणपंथी’ और ‘प्रगतिशील’ शब्दों को एक ही कथा में प्रयुक्त करने की व्यंजना को समझना आवश्यक है। शीर्षक में इन दो शब्दों के माध्यम से ही उपाध्याय जी प्रगतिशीलों के छद्म और पुराणपंथियों की मंदबुद्धिता की छीछालेदार कर डालते हैं। 
और अंत में, यद्यपि डॉ॰ मिश्र ने ‘नया पंचतंत्र’ की भूमिका का समापन यों किया है, कि—‘नया पंचतंत्र व्यंग्य साहित्य की रचना-पक्रिया, व्यंग्य-शिल्प के नये प्रयोग तथा व्यंग्य-विधान के विचार-क्षेत्र को विशालता के क्षेत्र में उपाध्याय जी का एक नया प्रयोग है।’ इस प्रकार इसे उन्होंने विशुद्ध व्यंग्य की कृति घोषित कर दिया है; तथापि उहोंने यह भी लिखा है, कि—‘नया पंचतंत्र को पढ़कर कोई भी सजग पाठक नये युग के निर्माण की नींव डालने का संकल्प कर सकता है।’ 
सन्दर्भित सभी रचनाओं के परिप्रेक्ष्य में उनका यह कथन सही भी है। तत्कालीन युग की विडम्बनाओं को पहचानने, सचेत नागरिक के तौर पर अपने दायित्वों और सरोकारों को निर्धारित करने, रचनाकार के रूप में कथन भंगिमा को प्रभावी बनाने की दिशा में ये कथाएँ प्रकाश-स्तम्भ सी खड़ी तो हैं ही।
सम्पर्क : एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
मोबाइल:8826499115 

5 टिप्‍पणियां:

LAGHUKATHA VRITT - RNI- MPHIN/2018/77276 ने कहा…

लघुकथा में इस आलेख का आना बेहद जरूरी था| आभारी हैं हम सब|

Unknown ने कहा…

बहुत अच्छा , ज्ञानवर्धक आलेख !

Minni mishra ने कहा…

इस आलेख को मनन करने की जरूरत है तभी जाकर इस क्षीरसागर से हम मोती माणिक्य निकाल पायेंगे । 🙏

सतीश राठी ने कहा…

लघुकथा में दादा का स्थान बिल्कुल अलग रहा है उन्होंने इस विधा को बहुत भीतर तक समझ कर लिखा है इसलिए उनके लेखन से रूबरू होना जरूरी है मेरे द्वारा उनका एक साक्षात्कार लिया गया था जो मनस्वी पत्रिका में प्रकाशित हुआ था क्षितिज के कार्यक्रम में इंदौर में उन्होंने बड़ी सहजता से अपनी उपस्थिति प्रदान की थी वैसे क्षितिज को ऐसी ही सहजता से विष्णु प्रभाकर जी की मालती जोशी की और कई सारे बड़े नामचीन लेखकों की उपस्थिति मिली है पिछले 40 वर्षों से संस्था लघुकथा विधा के लिए संलग्न है निश्चित रूप से बलराम भाई ने यह आलेख दादा के ऊपर लिखकर इस विधा पर एक उपकार किया है

बेनामी ने कहा…

हम दादा के परिवार से ही लिखना सीखें
दादा की कुछ रचनाओं का मैे इंगलिश ट्रांसलेशन किया है .