सोमवार, 21 जून 2021

समकालीन लघुकथा और प्रयोगधर्मिता / बलराम अग्रवाल

 कहानी का पुराना पैटर्न यह था कि विभिन्न घटनाक्रमों को कहानीकार 1, 2, 3 आदि संख्याओं के द्वारा अलग करते हुए रचना को आगे बढ़ाते और पूरा करते थे। यह पैटर्न कहानी ने अपनी पूर्ववर्ती उपन्यास विधा से लिया था।

लघुकथा क्योंकि 'कहानी' नहीं है और घटनांतर या दृश्यांतर को उसमें बरकरार रखना भी है, तो क्या करें? 1, 2, 3 के स्थान पर हमने दृश्य एक, दृश्य दो, दृश्य तीन लिखना शुरू कर दिया। बेशक, नया प्रयोग तो है लेकिन सिर्फ इतना कि बोतल का आकार बदल दिया गया है।

इन प्रयोगों से एक और भी संकेत यह मिलता है कि भीतर एक कहानीकार बैठा है जिसे ठोंक-ठोंककर हमने लघुकथाकार बनाया हुआ है। मुझे स्वयं अपने बारे में कई बार यह महसूस होता है और क्षोभ भी होता है कि मैंने अपनी कलम से कई कहानियों की हत्या की है, कभी अनजाने में तो कभी जिद में। लघुकथा को हम प्रयोगों की बारीक और धधकती हुई नलिका से निकाल रहे हैं, निकालें; लेकिन गर्भ से असमय निकाले जा रहे या अनगढ़ हाथों द्वारा दुनिया में लाए जा रहे बच्चे की तरह उसकी हत्या न हो जाए, यह ध्यान रखना भी जरूरी है। लघुकथा में प्रतीकों, बिम्बों, रूपकों के प्रयोग का हिमायती होने के बावजूद मैं यह मानता हूँ कि सामान्य से लेकर प्रबुद्ध तक, हर स्तर के पाठक को रचना में एक सरल कथा अवश्य चाहिए, सरल और सपाट कथा। हिन्दी लघुकथा में यह करिश्मा दिखाने वाले कथाकारों में पृथ्वीराज अरोड़ा और एन. उन्नी प्रमुख हैं।

(इन पंक्तियों पर अपनी राय प्रकट करने का अधिकार सबको है और मुझसे सवाल करने का भी; लेकिन किसी के किसी भी सवाल का जवाब मैं नहीं दे पाऊंगा। अग्रिम क्षमायाचना 🙏) 

20-7-2020 /09:50

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