बुधवार, 2 अगस्त 2023

रमेश बत्तरा : मनःस्थितियों को तीर-सी घोंपता कथाकार, भाग-1 / बलराम अग्रवाल

 

ISBN 978-93-56770-41-6

प्रथम पेपरबैक संस्करण 2023

पृष्ठ 448 मूल्य 599

हिन्दी में लघुकथा का विधिवत प्रादुर्भाव उस समय में होता है, जबकि कहानी ने गति एवं गतिरोध के कितने ही मुकाम तय कर लिये थे। आप अनुमान लगाइए कि 1940-50 के दशक में आया हिन्दी कहानी का गतिरोध 1955 के आसपास ‘नयी कहानी’ आन्दोलन की शुरुआत से टूटता है और बस, लगभग तभी से कहानी में आन्दोलन का ताँता-सा लग जाता है। नयी कहानी के बाद अकहानी, सचेतन कहानी, सहज कहानी, समांतर कहानी, जनवादी कहानी तथा सक्रिय कहानी। कहानी के इन सभी आंदोलनों का समय 1960 से 1973 के बीच ठहरता है और इन आन्दोलनों के बीच ही कथा की एक और धारा शनैः शनैः फूटती और विकसित होती है—लघुकथा। राजनीतिक-सामाजिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो स्वाधीनता प्राप्ति के बाद का समूचा समय भारतीय जन के सपनों के बिखरने और उस राव से निपटने का समय है। कहानी में अवतरित समस्त आन्दोलनों की पृष्ठभूमि शक्ति-संचयन की इस प्रक्रिया में ही तैयार होती है। ‘नक्सलवाद’ इसी काल में उभरता है और आठवें दशक के शुरू होते-होते हिन्दी फिल्मों का दर्शक ‘एंग्री यंगमैन’ को न सिर्फ स्वीकार कर लेता है बल्कि उसे सिर आँखों पर बैठा लेता है। दरअसल, साहित्य और कला जनाभिव्यक्ति के सार्थक माध्यम हैं। कोई अभिव्यक्ति जो मन और हृदय को छूती-सी महसूस होती है तो पाठक उससे जुड़ जाता है। कहानी के आन्दोलनों के बीच ‘लघुकथा’ का नया स्वरूप ग्रहण करना उस काल की एक आवश्यक और अपरिहार्य घटना है। ‘लघुकथा’ को अपने इस स्वरूप ग्रहण काल में कहानी के आंदोलन जैसे किसी ‘बड़े’ और ‘नामवर’ कथाकार/आलोचक का वरद् हस्त नहीं मिला। यह पूरी तरह युवा कथाकारों के मानस की अभिव्यक्ति रही। इसे मात्र ‘समय’ और परिस्थितियों ने धार प्रदान की। प्रारंभ में रमेश बतरा, भगीरथ, कृष्ण कमलेश, सिमर सदोष, कमलेश भारतीय आदि ने इसे आगे बढ़ाया। बाद में इसने आन्दोलन का स्वरूप ग्रहण किया और अनगिनत युवा कथाकार इस धारा से आ जुड़े। जैसा कि कहानी के भी सभी आन्दोलनों के साथ हुआ है, ‘लघुकथा’ का आलोचना साहित्य भी स्वयं लघुकथा-लेखकों को ही रचना पड़ा। इनमें रमेश बतरा और भगीरथ दो ऐसे नाम हैं जिन्होंने निर्विवाद रूप से लघुकथा के हित में कार्य किया। इनमें से पत्रकारिता को ही अपनी जीविका चुनने वाले रमेश बतरा ने प्रारंभ में ‘बढ़ते कदम’, ‘साहित्य निर्झर’ व ‘तारिका’ के माध्यम से तो बाद में ‘सारिका’, ‘नवभारत टाइम्स’ तथा ‘संडे मेल’ के माध्यम से लघुकथा को लगातार सदिश व सार्थक गति प्रदान की। लघुकथा के बारे में रमेश बत्तरा के विचार कितने स्पष्ट थे यह 1979 में ‘समग्र’ के सम्पादक गौरी नंदन सिंहल के साथ उनकी बातचीत से स्पष्ट है। 'लघुकथा क्या है' के जवाब में रमेश बतरा कहते हैं—‘जिंदगी के वे छोट-छोटे डर या सुख जिनकी बोझिलता से मुक्त होकर या उल्लास में मानव जिंदादिल होना चाहता है (लघुकथा है)। ये अन्तर्जगत के भी हो सकते हैं और बाह्य जगत के भी। यह कोई गढ़ी हुई परिभाषा नहीं है। इसमें जीवन का यथार्थ है। निरर्थक नहीं, सार्थक यथार्थ। लघुकथा नकारात्मक तथ्यों की विधा नहीं होनी चाहिए। वह जीवन से जुड़ी और जिंदादिली को जन्म देने वाली होनी चाहिए, इस परिभाषा में यह संकेत स्पष्ट है। अपने इस मंतव्य को उन्होंने अपनी लगभग हर लघुकथा में सहजता से प्रस्तुत किया है। उनकी ‘कहूँ कहानी’ शीर्षक यह रचना देखें :

‘ऐ रफीक भाई ! सुनो.... उत्पादन के सुख से भरपूर थकान की खुमारी लिए रात जब मैं कारखाने से घर पहुँचा तो मेरी बेटी ने एक कहानी कही—“एक लाज़ा है, वो बीत गलीब है!”

‘समग्र’ के लघुकथा विशेषांक (1979 ) में प्रकाशित रमेश बतरा के परिचय में उनकी पहली लघुकथा ‘सिर्फ एक’ बताई गयी है जो कि ‘दीपशिखा’ (1973) में प्रकाशित हुई थी। परन्तु बलराम द्वारा सम्पादित कथानामा (1984) में ‘जरूरत’ (1973) को उनकी पहली लघुकथा बताया गया है। ‘जरूरत’ एक सशक्त मनोवैज्ञानिक लघुकथा है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि लघुकथा में आठवें दशक के प्रारंभ से ही मनोवैज्ञानिक कथ्य उठाये जाने प्रारम्भ हो गये थे। ‘खोया हुआ आदमी’ (1974) एक ऐसे संवेदनशील आदमी की कहानी है जो अपनी ही धुन में मस्त रहता है। यह आदमी विघटनकारी और हिंसक वातावरण में जीने को विवश है। कब, कहाँ, कौन मार दिया जायेगा—वह नहीं जानता। हर हत्या पर वह महसूस करता है कि किसी ने उसे मार ही डाला है। ‘अंधे हो क्या दिखाई नहीं देता ? उसे गुस्सा आ गया और चिल्लाते-चिल्लाते सहसा रुआँसा हो गया। उसने दोनों हाथों से मुँह ढाँप लिया—‘यह मैं हूँ मैं ही तो हूँ, मुझे पहचानो?’ इसमें दो राय नहीं कि भ्रष्ट और अन्यायपूर्ण व्यवस्था में संवेदनशील आदमी रोज मरता है। व्यवस्था का हर गैर जिम्मेदार कृत्य उसे मारता है।

इतिहास बताता है कि 1850 के दौर में बंदूक में भरने से पहले कारतूस के ऊपर के ‘कैप’ को दाँतों से भींचकर हटाना पड़ता था। ब्रिटिश सेना के भारतीय सैनिकों को भी, जाहिर है कि यही कारतूस दिये जाते थे। खबर फैल गयी कि इन कारतूसों के 'खोल' पर गाय और सूअर की चर्बी का इस्तेमाल होता है। बस अति संवेदनशील हिन्दु और मुसलमान सैनिकों के सामने ‘धर्म’ के नष्ट हो जाने का खतरा पैदा हो गया। उन्होंने इसे अंग्रेजों की सोची-समझी साजिश माना और सेना में ‘विद्रोह’ हो गया। चलिए, यह विद्रोह कुल मिलाकर भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के लिए शुभ शुरुआत साबित हुआ। परंतु अंग्रेज इस घटना से यह अवश्य समझ गये कि हमारी धार्मिक-संवेदनशीलता बेहद अंधी है। सिर्फ गाय या सूअर का नाम लेकर हमें आसानी से हिन्दू और मुसलमान खेमों में बांटा जा सकता है, काटा भी जा सकता है। उसने भारतीय समाज में सबसे पहले धार्मिक-असहिष्णुता को बढ़ावा दिया और उसके बाद कभी बोली के नाम पर तो कभी धर्म के नाम पर समाज का विभाजन कर डाला। हैरत की बात तो यह रही कि अपने आपको संसार भर का बौद्धिक गुरू मानने वाले हम उसकी एक भी चाल को भाँप नहीं पाये। और तो और, आजादी के बाद की कांग्रेस/गैर कांग्रेस सरकारों ने भी समाज विभाजन के ब्रिटिश तरीकों को ज्यों का त्यों बहाल रखा और दंगे होते रहे। रामपुर की एक मस्जिद में सूअर का कटा हुआ सिर पड़ा मिला और बस, मुसलमान भड़क उठे। दंगा हो गया। किसी और शहर के किसी मंदिर में गाय का कटा सिर मिल गया, हिन्दू भड़क उठे। दंगा हो गया। रमेश बतरा ने अपनी लघुकथा ‘सूअर’ का कथ्य इसी विषय को बनाया है। रचना का शीर्षक ही अनेक अर्थ खोलता है। देशभर में हिन्दू और मुसलमान आज भी बहुतादाद में मौजूद हैं। गाय और सूअर की भी कमी नहीं है। परंतु अब ये जिंदा या मुर्दा किसी मंदिर-मस्जिद में नहीं जाते। क्यों? क्या हिन्दु और मुसलमान पहले की तुलना में कुछ समझदार हो गये है; नहीं, अब दंगे के मुद्दे बदल गये हैं। उनका चेहरा ईसाई सम्प्रदाय की ओर घूम गया है। इन चेहरों पर आंखें नहीं हैं। ये धर्माध हैं। ये आदमी का दिल नहीं देखते, सिर्फ राम, रहमान और जॉन्सन को देखते हैं। धर्माचार्य का चोला पहने एक क्रूर और दुष्ट मानसिकता वाला व्यक्ति इनकी अगुवाई करता है। राजनीति इन्हें संरक्षण देती है। रमेश बत्तरा की लघुकथा ‘राम रहमान’ इस धर्माधता के चरित्र को खोलती है। ‘दुआ’ की विषयवस्तु भी दंगा ही है। और वस्तुतः तो यह दुआ नहीं बददुआ की कथा है। ‘अपना खुदा’ में रमेश बत्तरा ने दिखाया है कि एक दंगाई की नजर में लोक और लिहाज दोनो का ही कोई अस्तित्व नहीं है। यहाँ तक कि वह एक ईश्वरीय सत्ता में भी विश्वास नहीं करता। इसका विश्वास सिर्फ एक ही है—हत्या। एकेश्वरीय सत्ता में अगर विश्वास नहीं होगा तो परस्पर विश्वास, कृतज्ञता, और सहिष्णुता किसी भी पल अविश्वास, कृतघ्नता और असहिष्णुता में बदल सकते हैं। रमेश बत्तरा ने अपनी लघुकथा ‘वजह’ में इसी विषय को वस्तु बनाया है। वस्तुतः लघुकथा की जिस अर्न्तदृष्टि की अपेक्षा किसी कथाकार से होती है, रमेश उस पर हर कोण से खरा उतरते हैं। उनकी लघुकथाएँ दैनिक समाचारों या घटनाओं की कला और वस्तु से विहीन विषय की प्रस्तुति मात्र नहीं है। उनमें गहरी सम्प्रेषण क्षमता है। उनका मानना था कि ‘लघुकथा घटना नहीं बल्कि उसकी घटनात्मकता में से प्रस्फुटित विचार हैं जो यथागत पात्रों के माध्यम से उभरें।’

असामाजिक, अवैधानिक और आत्म-गरिमाहीन कार्यों के बारे में कवि भारत भूषण अग्रवाल की पंक्ति है कि “वैसे कोई नहीं चाहता, लेकिन क्षुधा करा लेती है।” भूख और विपरीत परिस्थितियाँ नकारात्मक सोच के व्यक्ति को जीवन के नरक की ओर ले जाती हैं। परंतु सकारात्मक सोच वाले, जीने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति के आगे संघर्ष के अनेक द्वारा खोल देती है। ‘अनुभवी’ का मासूम और अनुभवहीन बच्चा इस मनोवैज्ञानिक सत्य को सिद्ध कर दिखाता है।

‘नागरिक’ ‘खोया हुआ आदमी’ की तरह एक संवेदनशील सामाजिक की कथा है। परंतु इसका कैनवास ‘खोया हुआ आदमी’ से भिन्न और विस्तृत है। 

 शेष आगामी अंक में…

1 टिप्पणी:

पवन शर्मा ने कहा…

रमेश बत्तरा की लघुकथाएं तीर सी ही होती हैं। अच्छा आलेख दिया है आपने।