साहित्यकार-पत्रकार प्रेम विज के सौजन्य से
लघुकथा और सामान्य-जन
दुनियाभर में लघु-आकारीय कहानियों का चलन प्राचीन काल से ही रहा है, यह निर्विवाद है। विष्णु शर्मा कृत 'पंचतन्त्र' की कहानियाँ हों, जैन- कथाएँ हों, जातक कथाएँ हों, मोपासां की कहानियाँ हों, खलील जिब्रान की ये भाववादी कथाएँ हों या हितोपदेश, कथा-सरित्सागर आदि की कहानियाँ- इनमें से किसी भी कहानी को आप 'कौंधकथा' यानी फ्लैश-फिक्शन नहीं कह सकते। ये सब-की-सब अपने-आप में पूर्ण कथाएँ हैं । 'केवल बहस करने के लिए बहस' की निरर्थक प्रवृत्ति से अलग 'कुछ सार्थक पाने हेतु जिज्ञासा' की दृष्टि से बहस हो तो सवाल करने वाले से अधिक आनन्द उत्तर देने वाले को आता है।गोस्वामी तुलसीदास कृत 'रामचरितमानस' में उत्तरकाण्ड के अन्तर्गत काकभुसुंडि-गरुड़-संवाद ऐसी ही सार्थक बहस है। तात्पर्य यह कि अपनी अहं-तुष्टि के लिए कोई वैसा प्रयास कर भले ही ले, परंतु किसी भी तरह उनको सार्थक विस्तार दे नहीं सकता; न ही उनके आकार को संक्षिप्त कर सकता है। ये कहानियाँ सार्वकालिक हैं और हर आयु, हर वर्ग, हर वर्ण, हर देश और हर स्तर के व्यक्ति का न केवल मनोरंजन बल्कि मार्गदर्शन भी करने में सक्षम हैं।
सामान्य-जन के जीवन से जुड़ी होने, जिज्ञासा बनाए रखने, जीवनोपयोगी होने, विभिन्न कुंठाओं से मुक्ति का मार्ग दिखाने का साहस रखने, मनोरंजक होने आदि के गुण से भरपूर होने के कारण कथाएँ लोककंठी हो गयीं यानी जन-जन के कंठ में जा बसीं। यह किसी भी रचना - विधा और उसके लेखक के जन सरोकारों का उत्कर्ष है कि वह इतनी लोककंठी हो जाय कि उसके लेखक का नाम तक जानने की आवश्यकता अध्येताओं-शोधकर्ताओं के अतिरिक्त सामान्य जन को महसूस न हो। पं. रामचन्द्र शुक्ल द्वारा निर्धारित गद्यकाल से पूर्व की लाखों कथाएँ इस कथन का सशक्त उदाहरण हैं। काव्य-क्षेत्र भी इस कथन से अछूता नहीं है। विभिन्न रस्मो-रिवाजों से लेकर पर्वों-त्योहारों व आज़ादी की हलचलों को स्वर प्रदान करते अनगिनत लोकगीतों के साथ-साथ इस काल में कथावाचक श्रद्धाराम फिल्लौरी द्वारा रचित बहु- प्रचलित आरती 'जय जगदीश हरे' भी इस कथन का सशक्त उदाहरण है जिसके रचयिता का नाम अधिकतर लोग नहीं जानते और न ही जानने के प्रति जिज्ञासु हैं।
● बलराम अग्रवाल, नोएडा, यूपी
चण्डीभूमि साप्ताहिक, चण्डीगढ़,
12-18 नवंबर 2023
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