मंगलवार, 9 जनवरी 2024

पगडंडियाँ यानी अपने समय का सत्य और क्षेत्र का अविकल इतिहास / बलराम अग्रवाल

गिरिजा कुलश्रेष्ठ वरिष्ठ लेखिका हैं। अब तक एक खंडकाव्य, दो काव्य संग्रह, एक कहानी संग्रह, दो बाल कहानी संग्रह तथा दस से ऊपर अन्य पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘पगडंडिया’ उनकी 58 लघुकथाओं का पहला संग्रह है। संग्रह की पहली लघुकथा ‘अनुत्तरित’ इला त्रिपाठी नामक ऐसी महिला की कथा है जिसने पति की एकाएक मृत्यु के बाद अनुकम्पा आधार पर नौकरी पाई। किराए के मकान में रहते हुए असुविधाओं के बीच बेटी और बेटे जो पढ़ाया। पढ़-लिखकर उसकी बेटी दिल्ली में एक बैंक में अधिकारी नियुक्त हो गयी और बेटा अमेरिका में सोफ्ट वेयर इंजीनियर। सेवानिवृत्ति के बाद, उसका एक पैर दिल्ली में तो दूसरा अमेरिका में रहता। लेकिन वही महिला अन्तत: किराए के अपने मकान में आ बसने को विवश है। कारण? वह स्वयं बताती है— “बच्चे अब अपने कैरियर के बारे में सोचें कि मेरे बारे में!” वस्तुत: एकल परिवार के सदस्यों की यह त्रासदी है कि उन्हें अकेला रहने की ही आदत होती है, संयुक्त वे किसी के साथ नहीं रह सकते, स्वयं अपने बच्चों के साथ भी नहीं। भारतीय परिवारों की त्रासदी यह रही है कि पहले संयुक्त परिवार टूटकर एकल हुए। फिर एकल परिवार भी सिकुड़-सिमट रहे हैं। यह सिकुड़न अनजानी-सी पीड़ा मन में भर दे रही है जिसे अभिव्यक्ति मिली है लघुकथा ‘अनजाना दर्द’ में।

लघुकथा ‘आउट ऑफ डेट’ में स्कूल प्रबन्धन की दृष्टि में हिन्दी विषय और उसके अध्यापक के मूल्य को बताती है। गिरिजा जी स्वयं हिन्दी व्याख्याता रही हैं। इस कार्य को करने के क्रम में विद्यालय जाते हुए उन्होंने निश्चित रूप से ऑटो, शेयरिंग रिक्शा और बसों से यात्राएँ की हैं। उन सबके चित्र प्रस्तुत लघुकथा संग्रह में मिलते हैं। संग्रह में ‘जड़’,  इस तरह इन लघुकथाओं को हम लेखिका का भोगा हुआ यथार्थ भी कह सकते हैं। तथापि कुछ लघुकथाओं की भाषा कथात्मक न होकर संस्मरणात्मक रह गयी है या फिर वृत्तात्मक। जो भी हो, इन लघुकथाओं में अपने समय और क्षेत्र विशेष का इतिहास तो बुना हुआ है ही। कुछ लघुकथाओं में गिरिजा जी ने आंचलिक भाषा का भी संतुलित, सुन्दर प्रयोग किया है।

मिल-बैठने से मन जुड़ता है—इस मनोवैज्ञानिक सत्य की प्रस्तुति लघुकथा ‘भेदनाशक अंधेरा’ में हुई है। ‘जैसा भी है’ एक गरीब औरत के स्वाभिमान की कथा है तो ‘जाहिल’ एक अनपढ़ औरत के व्यवहारिक ज्ञान की कथा है। ‘एक आसमान’ बताती है कि झूठ ही सही, अगर प्रिय बोला जाए तो मन के पूर्वग्रहित अंधकार पिघलकर विश्वास की धूप में बदल जाते हैं। लघुकथा ‘पगडंडी’ और ‘दक्षता सम्वर्धन’ में बताया गया है कि विद्यार्थियों के उत्तीर्ण होने का अच्छा परिमाण ही शिक्षा विभाग की दृष्टि में अध्यापक के स्तरीय होने का पैमाना बन गया है।

‘करवा चौथ स्पेशल’ की कुन्ती को एक प्रकार से प्रगतिशील विचारों वाली महिला कहा जा सकता है। ‘सीट’ लघुकथा में खचाखच भरी ट्रेन में सीट हासिल करने का गुर सिखाया गया है तो ‘सीट-2’ लघुकथा में सीट को झपटमारों से बचाए रखने की ओर से सावधान किया गया है। ‘बचत’ में दिखाया गया है कि मॉल संस्कृति में जीने वाली महिलाएँ बाहर सड़क पर माल-विक्रेता से निम्न-स्तर पर उतरकर मोल-भाव करके अपनी निम्नता का परिचय दे ही देती हैं। पत्नी की सुरक्षा को लेकर मन हमेशा सन्देहग्रस्त रहता है, यह दिखाया गया है लघुकथा ‘सदिग्ध’ में। लघुकथा ‘बन्धन’ में अकर्मण्य पति के प्रति घृणा पर मानवीय संवेदना को विजित होते दिखाया गया है। इसमें जीत वस्तुत; पति-पत्नी के बीच ‘बन्धन’ की नहीं, मानवीयता की होती है। राक्षसों और अकर्मण्यों को यदि उनके हाल पर ही मरने के लिए छोड़ दिया जाये तो कोई बुराई नहीं है।

छोटे नगरों और कस्बों में प्राइवेट बसों के कण्डक्टरों और सवारियों के बीच कैसे-कैसे खेल रोजाना होते हैं, इसकी एक झलक गिरिजा जी ने ‘बात पाँच रुपैया की’ में दिखाई है तो दूसरी झलक ‘बात की बात’ में। लघुकथा ‘कंगाल’ के कथानक में यद्यपि नयापन नहीं है तथापि आंचलिक भाषा के प्रयोग ने इसे पठनीय बना दिया है। आंचलिक भाषा का सफल प्रयोग ‘नोट पर वोट’ में भी हुआ है। ‘गन्दगी’ एक रोचक लघुकथा है। ‘स्वराज’ में बताया गया है कि चारित्रिक दृष्टि से हम कितने गैर-जिम्मेदार हैं। एक ईमानदार अध्यापक जीवन में किस पल को देखने के लिए जीता है, इसका उद्घाटन ‘प्रतिफल’ में हुआ है। जनता में टीवी चैनल्स के प्रति कितना आकर्षण है और उनका सच क्या है, इस तथ्य का यथार्थ उद्घाटन ‘तमाशा’ में हुआ है। ‘धरती का दर्द’ बड़ा सवाल खड़ा करती प्रतीकात्मक भाषा में लिखी लघुकथा है। ‘चोरी’ की नायिका एक गरीब बालक के प्रति करुणा से सराबोर है। ‘कितनी पास कितनी दूर’ महानगरीय जीवन में सोसाइटी कल्चर की उस गाथा को कहती है जहाँ कोई यह नहीं जानता कि उसके पड़ोस में कौन रह रहा है। ‘अभिधा और लक्षणा’ में सरकार के सर्व शिक्षा अभियान के सच को बताया गया है। मजदूर जीवन की त्रासदी ‘मजबूरी’ में उभरकर आयी है। वर्तमान में सही राजनीतिज्ञ वह है जो बिना किसी विशेष प्रयास के दिलों में दरार डाल दे, परस्पर सन्देह का बीज बो दे और चला जाए। लघुकथा ‘होनहार बिरवान के’ में यह करिश्मा उभरता हुआ नेता और विधायक जी का खास आदमी परसोत्तम कर डालता है। उसके बारे में कहा गया है कि—‘यह पड़ोस के गाँव का भावी नेता है। जो नेता को दिखता है, वह किसी और को नहीं दिखता।’ लघुकथा ‘अन्दर की बात’ और ‘मुर्दाघर’ के कथानक कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार और नपुंसकत्व के चरम का दर्शन कराते हैं।

गिरिजा जी की कुछेक लघुकथाओं में मनोविज्ञान का भी दर्शन होता है। उनके कथालेखन की एक विशेषता यह भी है कि अधिकतर लघुकताएँ किसी न किसी संवाद से प्रारम्भ होती हैं। इनमें नैरेशन की प्रयुक्ति बहुत कम है। ये दोनों विशेषताएँ उनकी लघुकथाओं को सहज पठनीय बनाती हैं। ये लघुकथाएँ अपने समय का सत्य और क्षेत्र का अविकल इतिहास कही जा सकती हैं। शीर्षक को लघुकथा का प्रमुख अवयव माना जाता है। यह भी कहा जाता है कि एक अच्छी लघुकथा अपने शीर्षक से ही शुरू हो जाती है। शीर्षक की विशेषता उसके आकर्षक और रोचक होने में तो है ही, इसमें भी है कि वह पाठक में लघुकथा के प्रति जिज्ञासा कितनी जगा पाता है। गिरिजा जी की अनेक लघुकथाओं के शीर्षक आकर्षक हैं लेकिन अधिकतर शीर्षकों के चुनाव में उन्होंने श्रम न करके लघुकथा की काया से ही दो-चार शब्द चुनकर उसका शीर्षक बना दिया है। ऐसी जल्दबाजियाँ और लापरवाहियाँ एक अच्छी लघुकथा के प्रभाव को कम कर डालती हैं।

कुल मिलाकर संग्रह की अधिकतर लघुकथाएँ पठनीय और मननीय हैं। छपाई साफ-सुथरी है और कागज भी अच्छी किस्म का प्रयुक्त हुआ है। तथापि पुस्तक में प्रूफ की गलतियों की भरमार है जो पठन की गति में अवरोध उत्पन्न करती हैं। ‘आ रही’ को ‘आरही’, ‘आ गई’ को ‘आगई’, ‘आप पर’ को ‘आपपर’, ‘बना दो’ को ‘बनादो’, ‘आ जाता’ को ‘आजाता’ जैसे निरुद्देश्य संयुक्त शब्द पूरी पुस्तक में भरे पड़े हैं। ‘नहीं’ को पूरी पुस्तक में बिना बिन्दु के ‘नही’ लिखा गया है। इसी तरह ‘ड़’ को अनेक स्थानों पर ‘ड’ लिखा गया है; यथा ‘पड़ा’ को ‘पडा’, ‘पढ़ा’ को ‘पढा’ और ‘खड़ा’ को ‘खडा’ लिखा गया है। प्रकाशक को इस ओर गम्भीरतापूर्वक सोचना चाहिए। अस्तु।

 

समीक्षक : डॉ॰ बलराम अग्रवाल, एफ-1703, आर जी रेजीडेंसी,    सेक्टर 120, नोएडा-201301(उप्र) मोबाइल  : 8826499115

 

 

 

 

 

समीक्षित पुस्तक—पगडंडियाँ (लघुकथा संग्रह); कथाकार—गिरिजा कुलश्रेष्ठ; प्रकाशक—बुक्सक्लिनिक पब्लिशिंग, बी डी कॉम्प्लेक्स, निकट तिफरा ओवर ब्रिज, बिलासपुर, छत्तीसगढ़-495001; कुल पृष्ठ—128; मूल्य—रु 150/-(पेपरबैक)

1 टिप्पणी:

गिरिजा कुलश्रेष्ठ ने कहा…

आदरणीय अग्रवाल जी ने बहुत कम समय में बहुत अच्छी सार्थक समीक्षा की है . अच्छी समीक्षा वही है जिसमें खूबियों के साथ कमियाँ भी संकेतित हों . मुझे बहुत प्रसन्नता है कि इस समीक्षा से मुझे वे बातें दिखी हैं जिनपर मेरा ध्यान नहीं गया .ऐसी पारखी दृष्टि में रचना का पहुँचना उसकी सार्थकता है . मेरे लिये यह बड़ी और प्रसन्नता की बात है कि आदरणीय अग्रवाल जी ने जितने उत्साह से संग्रह लिया उतने ही उत्साह से उसके विषय में लिखा भी . अन्यथा लोग किताबें रख लेते हैं . पढ़ने व लिखने की ज़रूरत नहीं समझते .
'बन्धन' और 'भेदनाशक अँधेरा' लघुकथाओं का मूल सन्देश अगर बलराम जी जैसे पारखी लेखक तक नहीं पहुँच पाया है तो यह रचना की प्रस्तुति में कमी हो सकती है .वह देखनी होगी .