‘कवि-हृदय कथाकार आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र’ शीर्षक से डॉ॰ ॠचा शर्मा द्वारा सम्पादित ‘आचार्य जगदीश चंद्र मिश्र रचनावली, भाग-1 (लघुकथाएँ-बोधकथाएँ / प्रथम संस्करण 2024) में भूमिका स्वरूप संकलित आलेख की तीसरी किस्त…
दिनांक 26-02-2024 को प्रकाशित दूसरी किस्त से आगे……
मैं कवि/कथाकार और कविता/कथा का उल्लेख कर रहा हूँ क्योंकि ये कथाएँ अपनी प्रकृति में अपने समय के काव्य के ही अधिक निकट ठहरती हैं।
लघुकथा संग्रह ‘खाली-भरे हाथ’ (प्र. सं.1958) में 72 लघुकथाएँ संग्रहीत हैं। ‘खाली-भरे हाथ’ शीर्षक से पूर्व संग्रह ‘पंचतत्व’ के ‘बोध-कथाएँ’ खंड की अन्तिम कथा भी है। इससे यह अनुमान अनायास ही सामने आ खड़ा होता है कि इस संग्रह की लघुकथाओं पर बोध-कथाओं की छाया हो सकती है। इस संग्रह की ‘बोध कथाएँ’ शीर्षक से लिखित भूमिका में डॉ. रामकुमार वर्मा ने लिखा है— ‘संस्कृत साहित्य में ‘हितोपदेश’ और ‘पंचतन्त्र’ की कथाओं में लघुकथाओं का रूप स्पष्ट हो सका है। इन कथाओं में प्रधान रूप से कथात्मक तत्व कम और जीवन के लिये बोध तत्व ही प्रधान है। जीवन के शाश्वत तथ्यों से सम्बन्धित प्रश्नों का मनोरंजनपूर्ण हल है, जो साधारण रूप से ग्राह्य है। इन सब कथाओं के बोध-तत्व व्यवहारिक हैं; किन्तु आचार्य जगदीशचन्द्र मिश्र की रचनाओं में उनसे कहीं अधिक बोधगम्य अभिव्यक्तियाँ और सरलतापूर्वक ग्राह्य सत्य की अभिव्यक्ति हैं। उनकी लघुकथाएँ युग के मानव के विभिन्न पार्श्वों को लेकर चली हैं। वर्तमान की अभिव्यक्ति में ही वे संस्कृत साहित्य की लघुकथाओं से विशिष्ट कोटि की हैं। उनमें युग-मानव का सत्य साकार हो उठा है।’ मात्र 41 शब्दों में लिखित इसकी ‘आत्म-लक्ष्य’ शीर्षक रचना से यह कथन सिद्ध भी होता है। देखिए—
एक व्याथ ने अपने तीक्ष्ण शर से विद्ध तड़फड़ाते हुए हरिण के पास जाकर उल्लास से कहा—“अहा! देखा मेरा अचूक निशाना?”
तड़फते हुए हरिण ने अपने प्राण छोड़ते हुए भग्न स्वर में कहा—“बन्धु! एक बार अपने लगाकर तो देख!”
क्योंकि ये बोध-कथाएँ हैं, इसलिए इनमें से बहुत-सी कथाओं के पात्र मूर्त-अमूर्त मानवेतर भी हैं। इन कथाओं के सन्दर्भ में ‘बोध’ से तात्पर्य निरा बोध नहीं है; बल्कि विद्रोह के स्वर भी इनमें छिपे पड़े हैं। देखिए, मात्र 65 शब्दों में कही गयी ‘जीने का मन्त्र’ शीर्षक यह कथा—
खट्-खट् करती खड़ाऊँ से एक दिन उसके स्वामी पंडित ने पूछा—“भद्रे! क्या बात है, कि पैरों के नीचे इतना दबे रहने पर भी आज तक तुम्हारा स्वर मन्द नहीं हुआ?”
खड़ाऊँ ने पैरों के नीचे दबे-दबे ही उत्तर दिया—“मैं तो जीना चाहती हूँ, पण्डित! संसार में, जो किसी से दबकर अपना स्वर मन्द कर देते हैं, वे जीते नहीं, मर जाते हैं!”
इस बोध-कथा को पढ़कर एकाएक अपनी ही एक कविता याद हो आयी। उसका एक अंश यों है—
जूता,
जो चरमराता है,
मर्द का पाँव काट खाता है।
ये उसका
अपना तौर है यारो,
ये बगावत का दौर है यारो!
शंकराचार्य ने कहा था—‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ अर्थात् मात्र ब्रह्म ही सत्य है, सम्पूर्ण जगत् मिथ्या है। सवाल यह पैदा होता है कि सत्य ब्रह्म ने मिथ्या जगत् की रचना क्यों की अथवा सत्य ब्रह्म से मिथ्या जगत् कैसे उपजा? दूसरे, क्या सत्य से असत्य यानी मिथ्या उत्पन्न हो सकता है? आचार्य मिश्र ने इस प्रकरण को आधार बनाकर मात्र 37 शब्दों की दर्शन आधारित एक बोध-कथा ‘परम-सत्य’ की रचना की है—
एक ब्रह्मज्ञानी ने जगत् से कहा—“तू मिथ्या है। केवल एक ब्रह्म ही तो सत्य है।”
जगत् ने उत्तर दिया—“अज्ञानी। यदि मैं मिध्या होता, तो तेरा और तेरे ब्रह्मज्ञान का आज अस्तित्व ही कहाँ होता?”
‘नारी की चाह’ आचार्य मिश्र की मनोविश्लेषण आधारित बोधकथा है—
एक रानी ने एक दिन अपनी मुँहलगी दासी को उदास मन देख पूछा—“दासी! तुम देखती हो, मैं तुम्हें हृदय से प्यार करती हूँ; और तुम्हारी सुख-सुविधा का अपने से भी अधिक ध्यान रखती हूँ। फिर न जाने तुम्हारे मन में कौन-सा दुःख छुपा है?”
दासी ने डरते-डरते उत्तर दिया—“बस, यही तो, रानी नहीं हूँ।”
‘मौन-सत्य’ मातृ-हृदय दर्शन की बोध-कथा है—
एक माँ ने अपने उत्पाती बालक के उत्पातों से दुःखी होकर झुंझलाहट से भर, एक दिन अपने बालक से कहा— “दुष्ट! तू न होता तो अच्छा था, मैं तो तुझसे दुःखी हो गई।”
बालक ने तत्काल अपने दोनों हाथों में माँ का कण्ठ भरकर कहा—“अम्मा! सच कहना, मैं न होता, तो तू सचमुच सुखी होती?'
उत्तर से माँ अवाक् थी।
स्त्री-हृदय दर्शन की बोध-कथा है ‘प्रसन्नता के आधार’—
एक शिष्य ने अपने गुरु से पूछा—“गुरुदेव! बालक क्या पाकर प्रसन्न रहता है?”
गुरु ने कहा—“किसी का दुलार।”
“और, ” शिष्य ने पूछा—“गुरुदेव! युवा?”
गुरु ने कहा—“किसी का प्यार।”
शिष्य ने पूछा—“और गुरुदेव। वृद्ध क्या पाकर प्रसन्न रहता है?”
गुरु ने कहा—“किसी का सत्कार!”
“और गुरुदेव।” शिष्य ने पूछा—“नारी क्या पाकर प्रसन्न रहती है?”
गुरु ने कहा—“तीनों; दुलार, प्यार, सत्कार।”
‘आत्म-दुर्बलता’ मानव-हृदय दर्शन की बोध-कथा है—
एक दिन मनुष्य ने दुःखी होकर अपने पापों से कहा—“दुष्टो! तुम सब समय मुझे घेरे ही रहते हो। एक क्षण को तो मुझसे दूर रहा करो?”
उसके पापों ने उत्तर दिया—“बन्धु। यदि तू हमें छोड़कर कहीं और मन लगा सके, तभी तो!”
बुभुक्षा-दर्शन पर आधारित है बोध-कथा ‘रोटी और युद्ध’—
एक सैनिक को अनमने मन से युद्ध-स्थल में भेजते हुए उसकी स्त्री ने पूछा—“स्वामिन्। मनुष्य दूसरे मनुष्यों से युद्ध क्यों किया करते हैं?”
सैनिक ने उत्तर दिया—“प्रिये! ऐसा जान पड़ता है, मनुष्य ने पहिली बार दूसरे मनुष्यों से तब युद्ध आरम्भ किया होगा, जब उन्होंने उसके हाथ की रोटी पहली बार छोनी होगी?”
उसकी स्त्री ने दूसरा प्रश्न किया—“और स्वामिन्। वह कभी इन युद्धों से विरत भी होगा?”
सैनिक ने अपनी स्त्री के दूसरे प्रश्न का समाधान यह कहकर किया—“शायद, तब, जब मनुष्य अपनी रोटी बिना हाथ पसारे ही दूसरों की आगे रखनी सीख लेगा!”
शेष आगामी अंक में………
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