लेकिन हिन्दी साहित्य के इतिहास में वीरगाथा जैसा भी एक काल रहा है। उस काल में कवि का व्यक्तित्व भिन्न है। एक काल रीति का भी रहा है। उसमें कवि का व्यक्तित्व भिन्न है; और एक समूचा स्वर्ण सरीखा भक्ति काल भी रहा है जिसमें कवि का व्यक्तित्व नितान्त भिन्न हम पाते हैं। इन भिन्नताओं का कारण यह होता है कि कालखंड-विशेष में रचनाकार की अपनी अनुभूतियाँ, उसकी वैयक्तिक भावनाएँ गौण हो जाती हैं और वह इतर गान को ही रचनाकर्म मानकर अभिभूत होने को विवश रहता है। रीतिकाल के कवि क्या कभी किसी अन्तर्द्वंद्व से नहीं गुजरे होंगे। अन्तर्द्वंद्वों के आघात-प्रतिघात का चित्रण उनके काव्य में क्यों नहीं मिलता। हम कह सकते हैं कि उक्त कवि की निजी अनुभूतियाँ उसके भीतर ही प्रस्फुटित होती और मुरझाती रहीं, कभी सामने नहीं आयीं। इन सब विवशताओं की परत के नीचे भी एक व्यक्तित्व दबा होता है और वही उस रचनाकार का मौलिक व्यक्तित्व होता है। भारतेंदु हरिश्चन्द्र और गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अंग्रेजों की प्रशंसा में कम कसीदे नहीं पढ़े हैं: लेकिन वे कसीदे उनका मौलिक व्यक्तित्व नहीं है। संतोष की बात यह है कि उनके मौलिक व्यक्तित्व की परख के लिए उनका इतर साहित्य हमें बहुतायत में उपलब्ध है। व्यक्तित्व की परख के लिए हमें बहुतायत पर विश्वास करना होगा, उसी को आधार बनाना होगा।
भक्तिकाल में वैयक्तिकता का दूसरा ही रूप देखने को मिलता है। इस काल के किसी भी कवि ने अपने काल के किसी राजा-महाराजा, नबाव-रईस के गुणों का गान नहीं किया है। तुलसी ने राजा माना तो अपने युग के किसी राजा को नहीं, बल्कि युगों पूर्व हो चुके अवध के राजा राम को; और उनके बारे में भी उन्होंने स्पष्ट लिखा कि ‘नाम’ का प्रभाव निर्गुण ब्रह्म से और सगुण राजा राम से भी बड़ा है—
निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार।
कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार ॥ रामचरितमानस-बालकांड-23॥
कबीर, सूर, तुलसी का युग दरबारी नवरत्नों का युग था लेकिन इनमें से किसी ने भी दरबार की ओर नजर घुमाकर नहीं देखा। शहंशाहों के नवरत्नों में शुमार होने की बजाय कबीर तो स्वयं को राम का कुत्ता ही कहलाना पसंद करते हैं—‘मैं तो कूता राम का!’ इन या इन जैसे अन्य कवियों के द्वारा यह कैसे सम्भव हुआ? नि:सन्देह वैयक्तिक साधना के पथ पर चलते रहने के कारण। तुलसीदास ने लिखा—‘स्वान्त:सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा…’। अब, यह अलग बात है कि तुलसी का अन्त:करण सिर्फ उतना वैयक्तिक नहीं है जितना कि सामान्य जन का हुआ करता है। तुलसी के लिए तो—सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है। सूरदास भी अपने प्रभु को ही समर्पित हैं; और मीरा तो एक प्रकार से विद्रोहिणी हैं। वह घोषित करती हैं कि किसी राजे-रजवाड़े से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है—‘मेरे तो गिरिधर गोपाल, दूसरो न कोई।’ उनके यहाँ दुराव-छिपाव, लाग-लपेट की स्थिति भी शेष नहीं है। कहती हैं—‘अब तो बात फैल गयी, जाने सब कोई।’ वैयक्तिक अभिव्यक्ति के लिए जो कलेजा चाहिए, वह इन भक्त कवियों में भरपूर है। यही कलेजा और अभिव्यक्ति का यही विवेक आज के साहित्यकार में भी वांछित है।
लघुकथा में वैयक्तिकता की प्रस्तुति से तात्पर्य उसमें लेखक की उपस्थिति की पैरवी नहीं मान ली जानी चाहिए। वैयक्तिकता एक अलग भाव, कला और साहस है जब की लेखकीय प्रविष्टि अहं-प्रस्तुति है। अधिकतर लघुकथाएँ मुख्य रूप से बहिर्मुखी हैं और चरित्र के बाह्यरुप को ही प्रतिबिम्बित करती हैं जो कभी भी प्रभावशाली नहीं हो सकता। इसीलिए अधिकतर लघुकथाएँ एक-सा प्रभाव छोड़ने वाली होती हैं यानी निष्प्रभ रह जाती हैं। तात्पर्य यह कि अधिकतर के तो कथ्य भी समान ही होते हैं। जिनमें कथ्य भिन्न है, उनमें रूप समान है। यह ठीक है कि कोई व्यक्ति न तो पूरी तरह न तो बहिर्मुखी होता है और न ही अन्तर्मुखी। अन्तर केवल यह है कि किसी में बहिर्मुखी होने का अनुपात अधिक होता है तो किसी में अन्तर्मुखी होने का। व्यक्ति की अनुभूतियाँ दोनों ही स्तरों पर समान रहती हैं। परन्तु एक सत्य यह भी है कि साहित्य की दुनिया में ऐसे युग जाते हैं, जब बहिर्मुखी और अन्तर्मुखी में से कोई एक प्रवृत्ति सबल और दूसरी गौण प्रतीत होती है। दूसरी बात, अभ्यास के द्वारा इस अनुपात को घटाया-बढ़ाया भी जा सकता है।
लेखकीय प्रविष्टि में लेखक अपने कॉलर खड़े करके आता है जबकि वैयक्तिक प्रस्तुति में वह विनीत बना रहता है—‘मो सम दीन न दीन हित तुम समान रघुवीर’, ‘मो सम कौन कुटिल खल कामी’ आदि। लघुकथा में वैयक्तिता के उदाहरण अगर देखने हों तो अशोक भाटिया की ‘कपों की कहानी’, भुवनेश दशोत्तर की ‘रोटियाँ’, सुभाष नीरव की ‘बारिश’, स्नेह गोस्वामी की ‘वह, जो नहीं कहा’, सन्तोष सुपेकर की ‘आर्द्रता’ सरीखी लघुकथाओं को पढ़ें-गुनें। लघुकथा में वैयक्तिकता से आशय उत्तम पुरुष के प्रयोग से ही नहीं है; बल्कि वैयक्तिकता लघुकथा में आच्छादित रहती है। तो देखते हैं कथाकार के रूप में भुवनेश दशोत्तर की वैयक्तिकता का प्रच्छन्न रूप—
उसने नीचे झाँका।
लड़की कंधे पर बोरी लटकाए गली से गुजर रही थी।
"ए लड़की, रुक जरा।" उसने उसे आवाज़ दी।
लड़की ने ऊपर देखा और रुक गई।
"ले, ये रोटियाँ कुत्ते को दे देना। रोज कुत्ता दिख जाता है, आज एक भी नज़र ही नहीं आया।"
लड़की ने कंधे पर लटकती बोरी को ठीक किया और रोटियाँ थाम ली।
गली खत्म हो चुकी थी। उसे कोई कुत्ता नज़र नहीं आया।
आगे टीला था।
उसके नन्हें कदम टीला चढ़ रहे थे।
टीले पर चढ़ने के बाद वह रुक गई। उसकी साँस फूल रही थी।
वह, पत्थर पर बैठ गई।
उसने कागज़ में लिपटी रोटियों को सूँघा। रोटियों की सुगंध उसके भीतर समाने लगी।
उसने ठंडी साँस ली।
उसकी नज़रें कुत्ते को तलाश कर रही थीं।
दूर, पेड़ के नीचे एक कुत्ता नज़र आया।
उसके चेहरे पर सुकून छा गया। वह दौड़ती हुईं उसके पास पहुँची।
कुत्ता सो रहा था।
कुत्ते के आसपास कई रोटियाँ फैली हुईं थीं।
वह बुदबुदा उठी—"इसका तो पेट भरा हुआ है।"
उसकी आँखों में चमक जाग उठी।
"अब तो यह रोटियाँ अम्मा की और मेरी।" वह खुशी से चिल्ला उठी और घर की ओर दौड़ पड़ी।
ईमानदारी से सोचिए कि इसे पढ़ते हुए सबसे पहली प्रतिक्रिया आपके मन में क्या हुई? निश्चित रूप से यह कि मिली हुई रोटियों को लड़की कुत्ते को नहीं देगी बल्कि खुद खा जाएगी। ऐसा इसलिए कि गरीब लोगों का चरित्र हमारी कहानियों और लघुकथाओं ने कुछ ऐसा ही रूढ़ कर दिया है। उनमें चारित्रिक ईमानदारी की नन्हीं-सी रेख भी कथाकारों ने नहीं छोड़ी है। यह लघुकथा उस रूढ़ि को तोड़कर मानवीय संस्पर्श से इसे भरती है। यही लघुकथाकार की वैयक्तिकता है। लीक छोड़कर चलना ही कथाकार के चरित्र और उसकी कला की पहचान है; अन्यथा लीक पर तो हजारों लेखक रात-दिन चल ही रहे हैं। भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने कहा है कि—‘लीक-लीक गाड़ी चले, लीकहि चले कपूत। लीक छोड़ तीनहि चलें—शायर, सिंह, सपूत।’ ‘शायर’ में यहाँ समूची लेखक और कलाकार बिरादरी शामिल है। ‘गाड़ी’ और ‘कपूत’ में कौन-कौन शामिल हैं, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। कहीं-कहीं ‘गाड़ी’ के स्थान पर ‘कायर’ शब्द का प्रयोग भी मिलता है।
जैसाकि ‘रोटियाँ’ से स्पष्ट है, वैयक्तिकता में भी द्वंद्वात्मकता कायम रहती है। ‘कपों की कहानी’ तो रची ही इस द्वंद्वात्मकता से गयी है। द्वंद्वात्मकता पाठक में उद्वेलन का बीजारोपण करती है। इस उद्वेलन को समझने के लिए तलहटी की काई में नीचे-नीचे बहने वाली जीवनधारा को जानना-पहचानना और समझना आवश्यक है। एक कथाकार की सभी कथाएँ उस अर्थ में वैयक्तिक अनुभूतियों से तर-ब-तर नहीं हैं जिस अर्थ में किसी अन्य कथाकार की। ‘कपों की कहानी’ में अन्तर्द्वंद्वों का जो कचोट-भरा वर्णन हुआ है, वह कथाकार की वैयक्तिक अनुभूतियों की खरी अभिव्यक्ति है। वही अभिव्यक्ति ‘आर्द्रता’ में भी है; लेकिन ‘बारिश’ में उस कचोट का रूप बदला हुआ है।
अध्ययन और चिन्तन अनुभूतियों की रचनात्मक क्षमता को निखारते हैं। कथाकार का अपने अभावों और अतृप्तियों से बेचैन होना, उनके खिलाफ संघर्ष करते हुए लहूलुहान होना एक बात है; लेकिन उन्हें समष्टिगत बना प्रस्तुत करना दूसरी।
आलोचना पुस्तक 'लघुकथा का साहित्य दर्शन' (मार्च 2024) में प्रकाशित
3 टिप्पणियां:
बहुत बढ़िया एवं संदेशप्रद आलेख। उदाहरण स्वरूप लघुकथा प्रस्तुत करने से स्पष्टता बढ़ गई। आभार आदरणीय।
पवन जैन,
बहुत बढ़िया आलेख
बहुत ही सार्थक विवेचना, भुवनेश जी की लघुकथा के उदाहरण के साथ💐
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