बुधवार, 9 जून 2010

समकालीन लघुकथा और बुजुर्गों की दुनिया/बलराम अग्रवाल

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भागः1
पनी आज तक की आयु के अनुरूप अपने सांसारिक अनुभवों पर दृष्टि डालता हूँ तो पाता हूँ कि अपने-आप को मैं सत्तावन साल का बूढ़ा(‘प्रौढ़ शब्द अंग्रेजी के मेच्योर शब्द के पर्याय रूप में प्रयुक्त होता है जिससे वैचारिक प्रौढ़ता का भी भान होता है, इसलिए उसका प्रयोग अपने लिए नहीं कर पा रहा हूँ) तो कह सकता हूँ, बुजुर्ग नहीं। और इसी आधार पर मैं यह कह पाने की स्थिति में भी स्वयं को पाता हूँ कि हममें से अधिकतर लोगों का बौद्धिक-विकास किसी एक ओर, किसी एक विषय पर केन्द्रित होता है और इह-जीवन के ही अन्य अनेक क्षेत्र हमसे अनछुए व अनजाने ही रह जाते हैं। कह सकते हैं कि हमारा आंशिक विकास ही हो पाता है, पूर्ण विकास नहीं। अगर हुए तो किसी एक क्षेत्र में ही हम प्रौढ़ हो पाते हैं, दूसरे बहुतों में बचकाने सिद्ध होते रहते हैं। रोजमर्रा की जिन्दगी में भूत, भविष्य और वर्तमान हमें कभी पीछे धकेलते हैं, कभी आगे ठेल देते हैं और कभी जहाँ का तहाँ जड़ कर देते हैं।
बढ़ चुकी उम्र में, मुझे लगता है कि, प्रत्येक व्यक्ति को यह जरूर महसूस होता है कि किशोरावस्था में उसके पिता उसे ठीक ही डाँटा-डपटा करते थे। दिनचर्या को अनुशासित रखने की उनकी बातों पर वह अमल करता तो आज शरीर का यह हाल न हो गया होता। और इस बात पर भी किसी को आश्चर्य व्यक्त नहीं करना चाहिए कि ठीक उसी समय उसकी संतान सोच रही होती है कि पापा सठिया गए है, उसके अहसासों और जज्बातों की कद्र करना उनके वश की बात नहीं है। भूत और वर्तमान की एक अन्य दुविधाग्रस्त स्थिति में हर व्यक्ति अक्सर यह भी महसूस करता है कि उसकी शुरुआती आधी उम्र माँ-बाप ने बरबाद कर दी और बाद की आधी बच्चों ने।
बुढ़ापा किसे कहते हैं? इस सवाल का कभी भी एक और सिर्फ एक जवाब नहीं हो सकता; जबकि लगता यही है कि इस सवाल का सिर्फ और सिर्फ एक ही जवाब हैबढ़ी उम्र के कारण शरीर का शिथिल हो जाना या होते जाना। दुनियाभर के चिंतक मानते हैं कि बुढ़ापे का सम्बन्ध सिर्फ उम्र के बढ़ने से नहीं है। बुढ़ापे का गहरा सम्बन्ध मनुष्य की मानसिक-स्थिति से है। जीवन के प्रति जितना आपका विश्वास गहरा है, आत्म-विश्वास गहरा है, आशाजनक दृष्टि गहरी है आप उतने ही युवा हैं और जितना आपका संदेह गहरा है, डर गहरा है, हताशा-निराशा गहरी है उतने ही आप बूढ़े हैं। साबिर हुसैन की लघुकथा मृत्यु का अर्थ का बूढ़ा किसान इस जीवन-दर्शन से न केवल भली-भाँति परिचित है, बल्कि अपने जीवन में उसने इसे उतार भी रखा है। इस उम्र में तो आराम करने की सुधीर बाबू की सलाह पर वह कहता है—“समय से पहले मैं मरना नहीं चाहता। मृत्यु का मतलब शरीर का निष्क्रिय हो जाना ही तो है। मैं जीते-जी निष्क्रिय कैसे हो जाऊँ? इसी दर्शन का सजीव उदाहरण रामशंकर चंचल की लघुकथा शंभु काका का मुख्य पात्र शंभुकाका है जो बेटे-बहू द्वारा घर से निकाल दिये जाने के बाद सत्तर साल की उम्र में भी खेतों में मेहनत कर प्रसन्नता का जीवन जीता है। सुकेश साहनी की विजेता के बूढ़े बाबा भी इसी दर्शन का अनुसरण करते हैं। जगदीश राय कुलरियाँ की अपना घर के विधुर वृद्ध को उसका मित्र भावी जीवन को सुगमतापूर्वक बिताने का एक अन्य तरीका सुझाता हैपुनर्विवाह का तरीका। भारतीय समाज की वर्तमान मान्यताओं के मद्देनजर उसकी सलाह कुछ अटपटी लग सकती है, क्योंकि वर्तमान में पुनर्विवाह आम तौर पर युवा एवं प्रौढ़ आयु के पुरुषों तक ही सीमित नजर आता है; लेकिन भविष्य में वृद्ध इस पर अमल करने से अछूते शायद न रह पाएँ।
व्यक्ति के जीवन में बुढ़ापा एक अलग स्थिति है और बुजुर्गियत एक अलग स्थिति। कोई बुजुर्ग बूढ़ा हो यह तो हो सकता है, लेकिन हर बूढ़ा बुजुर्ग भी हो्गा यह मानने योग्य बात नहीं है। उम्र द्वारा दी गई झुर्रियाँ जिस व्यक्ति के शरीर के साथ-साथ मन और बुद्धि पर भी पड़ गई हों उसे कोई कैसे बुजुर्ग मान सकता है! विक्रम सोनी की लघुकथा बनैले सुअर के पंडित रामदयाल मिश्र और रघुनाथ चौबे ऐसे ही बूढ़े हैं, बुजुर्गियत जिन्हें छू भी नहीं गई है। ये लोग सांस्कारिक रूप से बूढ़े हैं। जातिवाद में जकड़े भारतीय समाज में ऐसे बूढ़ों की संख्या कम नहीं है। बातचीत के दौरान ऐसे बूढ़ों को बुजुर्ग सम्बोधित करना शिष्टाचार, सही कहा जाय तो भयजनित शिष्टाचार से अधिक कुछ नहीं है।
बढ़ी हुई उम्र के बावजूद भी जो लोग समकालीन समाज और नई पीढ़ी, भले ही अपनी संतान मात्र, के हित में कुछ सोचते-करते हैं, सही अर्थ में उन्हीं को बुजुर्ग कहा जा सकता है, सभी को नहीं। ऐसे बुजुर्ग नई और पुरानी पीढ़ियों के बीच निरंतरता पकड़ते जा रहे खिंचाव और तनाव को कम करने, पारस्परिक सम्बन्धों को समरसता प्रदान करने, उन्हें टूटने से बचाने का महत्वपूर्ण दायित्व निभा रहे होते हैं। पृथ्वीराज अरोड़ा की लघुकथाएँ बुनियादजरूरत इस सत्य को गहराई से रेखांकित करती हैं।
-->अच्छा या बुरा कोई भी संदेश कभी भी सिर्फ परिवार तक या गली-मोहल्ले तक सीमित नहीं रहता, दूर तक जाता है; प्रभाव की दृष्टि से भी वह कालातीत सिद्ध हो सकता है। सतीश राठी की लघुकथा आग्रह में पत्नी नई पीढ़ी के उस वर्ग की प्रतिनिधि है जोगाँव और पुरानी पीढ़ीदोनों से घृणा करती है—“मैं नहीं जाऊँगी उस नर्क में सड़ने के लिए। बहुत गंदा है तुम्हारा गाँव और उसके लोग! निकट सम्बन्धों से दूर होती जा रही इस पीढ़ी को जड़ों से जोड़े रखने का दायित्व मन के मैल को किनारे करते हुए पुरानी पीढ़ी को यों निभाना पड़ता है—“…फसल अच्छी आई है। बहू आ जाए तो गले की चैन बनवा दूँगी। बहुत दिनों से इच्छा है।… इस संवाद में इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए कि बहू गाँव में आएगी, माँ गले की चैन तब बनवाएगी, उससे अलग स्थिति में नहीं।
-->नई धारा(वृद्ध विमर्श विशेषांक, अप्रैल-मई 2010/पृष्ठ 62-63

5 टिप्‍पणियां:

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

Sundar Aalekh.

Badhai.

Chandel

सहज साहित्य ने कहा…

बलराम जी आपका लेख अच्छा है। इसे और आगे बढ़ाने की ज़रूरत है ।

UMESH MAHADOSHI ने कहा…

एक अच्छा लेख है। लघुकथा में विभिन्न बिषयों के महत्व को रेखांकित करना जरुरी है। आपने जिस बिषय को चुनकर यह लेख लिखा है, वह एक चुनोतिपूर्ण सामाजिक समस्या है। जीवन की इस अवस्था में व्यक्ति की अपनी समस्याएं होती हैं, पर समाज में उसकी अपनी भूमिका भी होती है। उसकी समस्याओं एवम भूमिका दोनों को रेखांकित करने में लघुकथा समर्थ है । लघुकथाकार यधपि इस बात को समझ रहे हैं, तदापि आपका यह लेख रचनाकारों को और भी प्रेरित करेगा। समीक्षकों एवं आलोचकों को इस दिशा में निश्चय ही योगदान करना चाहिए.

प्रदीप कांत ने कहा…

एक विषय पर बेहतरीन आलेख

सुरेश यादव ने कहा…

भाई बलराम अग्रवाल ,जैसी धार दार दृष्टि आप की रचनाओं में विशेषकर लघुकथाओं में होती है वैसी ही शोध पूर्ण दृष्टि आप के आलेखों में देखता हूँ .बेचैनी रचना का आधार बने अथवा चिंतन परक शोध का बने.उसकी तीव्रता ही उसे धार देती है.जिस नजरिये से आप ने वृद्धों की संवेदनाओं और समस्याओं को लघु कथाओं में खोजने का प्रयास किया है उसकी आज बहुत आवश्यकता है लघुकथाओं में अभी भी ऐसे गंभीर विषयों का आभाव है .बेशक कुछ ही रचनाकार इसमें सक्षम हैं.यह आलेख लघुकथा लेखन को धार देगा, गंभीरता का विचार देगा .हार्दिक बधाई.