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(पूर्ण लेख का उत्तर-भाग-2 यानी अन्तिम भाग पहले प्रकाशित किया जा रहा है। उत्तर-भाग-१ यानी बीच वाला हिस्सा व इसका पूर्व-भाग यानी शुरुआती हिस्सा बाद में प्रकाशित किया जाएगा ताकि वह इसके ऊपर आ जाए।–बलराम अग्रवाल)
आज के युग में धन-प्राप्ति ही मनुष्य के लिए स्वर्ग-प्राप्ति जैसी महत्वपूर्ण कामना है। उसके लिए वह परहित तालाब आदि खुदवाने का पाखण्ड करता है,(छाया और फल वाले) पेड़ लगवाने का ढोंग रचता है और यज्ञबलि के नाम पर निरीह पशुओं की हत्या करता है। गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं—जो जस करहि सो तस फल चाखा। ‘बकरे का स्वर्ग’ में यही बात गुलेरी जी कहते हैं—‘वही(बकरा मारने का यज्ञ चलानेवाला) रुद्र शर्मा पाँच बार बकरे की योनि में जन्म लेकर अपने पुत्र से मारा जा चुका है। यह छ्ठा भव(जनम) है।’ अर्थात जन्म, मृत्यु और कर्मफलानुसार पुनर्जन्म—यह एक निरन्तर प्रक्रिया है जो चलती ही रहती है।
अपनी लघुकथाओं में गुलेरी जी ने जीवन के लगभग हर पक्ष को छुआ है—इतिहास, दर्शन, परम्परा, शासकीय कूटनीतिपरक आदेश, चाटुकारिता, धूर्तता, अकर्मण्यता, लालसा, कामना, भोग, विलासिता और मूर्खता आदि सब पर। ‘जन्मान्तर कथा’ में वह व्यवसाय और उसके द्वारा धन संचय की कामनाओं तथा प्रयासों के साथ धर्म का जुड़ाव भी आवश्यक मानते हैं। भारतीय-दर्शन जीवन के चार पद, जिन्हें पुरुषार्थ कहा गया है, स्वीकार करता है—अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष। अर्थात धर्मप्राणहीन व्यक्ति अर्थ-संचय करके भी दरिद्र है। कहिल कबाड़ी की पत्नी सिंहला उससे कहती है—‘देवाधिदेव युगादिदेव की पूजा करो, जिससे जन्मान्तर में दारिद्र्य दुख न पायें।’ पति धर्म-प्राण से हीन अधीर अर्थ-संचयी है। वह पत्नी को धर्म-गहली कहता है। वह वैसे ही व्यवहारवाली है भी। इसीलिए वह मानसिक सन्तोष के साथ जीती है। और जन्मान्तर में सुख-सुविधापूर्ण जीवन व्यतीत करनेवाली राजकुमारी बनती है। पति दरिद्र ही रहता है। वस्तुत: ‘जब आवै सन्तोष-धन, सब धन धूरि समान’। धन के प्रति संतोष और असंतोष की स्थिति ही जन्मान्तर(कथा) है।
कोई भी विद्या बुद्धि के सान्निध्य और उपयोग के बिना अधूरी है। ‘विद्या से दु:ख’ में पशु-पक्षियों की भाषा की जानकार बहू का यही कष्ट है। वह विद्या की जानकार तो है, बुद्धिमती नहीं। श्रगाल के कहने पर आधी रात को नदी में बहते मुर्दे के गहने ले आने का लोभ-संवरण वह नहीं कर पाती और श्वसुर द्वारा देख लिए जाने पर कुलटा(अ-सती) सिद्ध होकर परित्यक्त होने की स्थिति तक जा पहुँचती है—‘वह(श्वसुर) उसे पीहर पहुँचाने ले चला।’ अपनी बुद्धिहीनता और निर्णय को कार्यरूप देने के लिए सही समय का चुनाव न कर पाने की अक्षमता के परिणामस्वरूप ही अगली बार वह विद्या से प्राप्त जानकारी का लाभ प्राप्त करने की बजाय हताश ही अधिक होती है।
सवाल यह पैदा होता है कि ‘पाठशाला’ के स्तर की लघुकथा रचने वाले गुलेरी जी ने साधारण कथा-किस्सा लगने जैसी ‘न्याय रथ’ और ‘न्याय घंटा’ क्यों लिखीं? शायद इसलिए कि हर युग, हर काल में ये कथाएँ ज्यों की त्यों घटित होती हैं। शिकार को ठिठोली की तरह इस्तेमाल करनेवाली नूरजहाँ द्वारा तीर चलाकर धोबी की हत्या कर देना और अपने ‘न्याय’(?) की कहानियाँ लिखानेवाले शाहजहाँ द्वारा न्याय-प्राप्ति की गुहार लगानेवाली धोबिन से यह कहना कि उसने तेरे पति की हत्या की, तू उसके पति की कर दे, धूर्ततापूर्ण न्याय है। ऐसे ही धूर्ततापूर्ण न्याय की कथा है—‘न्याय रथ’। ऐसे धूर्त निर्णयों के आगे आमजन की स्थिति निरीह गाय से कम बेबस नहीं है। ‘न्याय घंटा’ को समझने के लिए उसमें गहरे पैठने की आवश्यकता है। अर्थ-गांभीर्य और उसकी व्याख्या के स्तर पर यह उतनी उथली रचना नहीं है जितनी कि प्रतीत होती है। कौए की प्रकृति है कि वह सोए हुए या जुगाली करते हुए अपेक्षाकृत बड़े शरीरवाले गाय-भैंस आदि पशुओं के शरीर पर बैठकर उन पर रेंगते छोटे-मोटे कीड़ों को खा लिया करता है या फिर उनके कान के आसपास बैठकर उनकी गूग(कान के भीतर की मैल) ही कुरेदता और खाता रहता है। उसके इस कार्य से पशुओं को वैसा ही आनन्द प्राप्त होता है जैसा कि मालिश करानेवाले या गूगिया से कान कुरेदवाने वाले मनुष्य को प्राप्त होता है। अर्थात इस कार्य-व्यवहार में कौए और पशु दोनों के अपने-अपने स्वार्थ ही निहित होते हैं। अपनी इस वृत्ति के अनुरूप अपनी चोंच के द्वारा कौआ सोए हुए सिंहों के दाँतों के बीच फँसे माँस के छोटे-छोटे कतरे भी खा लिया करता है। आम धारणा के अनुसार कौआ चतुर और धूर्त प्रकृति का प्रतीक पक्षी है। वह इतना अधिक चतुर होता है कि अन्य पक्षियों की तरह कभी भी अपने भोजन या उसके स्रोत पर तुरन्त जाकर नहीं बैठता, पहले उसके आसपास बैठकर स्थिति की अनुकूलता-प्रतिकूलता के प्रति सन्तुष्ट हो लेता है। यही हुआ। अपनी इस चेष्टा में कौआ पत्थर के सिंहों के पास बँधी घंटी पर बैठ गया। घंटी बज गई और राय अनंगपाल के कान खड़े हो गये कि चलो, कोई तो न्याय माँगने आया। राय को अपनी न्यायप्रियता का ढिंढोरा पीटने का मौका हाथ लग गया। सलाहकार से पूछा। चाटुकार सलाहकारों ने बताया कि कौआ न्याय माँग रहा है कि पत्थर के इन सिंहों के रहते अपने भोजन के लिए वह किस प्रकार उनके दाँतों के बीच फँसे माँस के कतरे चुन पायेगा? राय ने आज्ञा दी कि कई भेड़-बकरे मारे जाएँ, जिससे कौए को दिन का भोजन मिल जाए। वाह! बिहारी ने लिखा है—बाज, पराए पानि पर तू पंछिहिं न मार। अपने न्यायप्रिय होने की डींग हाँकने की खातिर, चाटुकारों और सत्ता के गलियारों में माँस के कतरे तलाशनेवालों की तुष्टि के लिए राजा क्या कुछ नहीं करता। इतिहास के पन्नों में अपना नाम टाँक देने की उसकी आकांक्षा के सामने सामान्यजन की स्थिति ऐसे भेड़-बकरे से बेहतर नहीं होती, जिसे जब जिसके लिए चाहे मारा-काटा जा सकता है। इस कथा में राय अनंगपाल शासन का और उसके सलाहकार चाटुकारों का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा कौआ ‘कोउ नृप होय हमें का हानी’ वृत्तिवाले सत्ता के गलियारों में चकराते रहकर ही जीवनयापन करनेवाले सत्ता के दलालों का। ‘न्याय घंटा’ बाँधकर शासन सो गया है, सत्ता का दलाल न्याय की पुकार करता है। पुकार भी ऐसी कि हे राजा, तेरे ये अकर्मण्य (पत्थर के) सिंह शिकार नहीं कर रहे हैं, इसलिए मैं भूखा मर रहा हूँ। सत्ता के गलियारों का यह अटल सत्य है। एक अगर शिकार करना छोड़ दे तो दूसरा भूखों मरने लगता है। इसलिए वहाँ रह रहे व्यक्ति को अपनी नहीं तो दूसरों की भूख का ख्याल रखकर शिकार करना ही होता है। और अगर वह पत्थर हो गया हो, वैसा कर पाने की स्थिति में न रह गया हो तो! ऐसी स्थिति में न्याय की माँग करना हर भूखे प्राणी का अधिकार बनता है! भूख के मारे ऐसे लोग जब जैसे न्याय की माँग करना चाहें, कर सकते हैं, क्योंकि उनकी भूख भेड़ों-बकरों की भूख से भिन्न(?) भूख है और आमजन की तुलना में ‘न्याय घंटा’ के निकट वे ही हैं। चाटुकार सलाह देते हैं और शासन आज्ञा देता है कि जाओ, भेड़-बकरे(की तरह आमजन को) काट डालो। हर युग, हर काल में ‘न्याय घंटा’ की कथा ज्यों की त्यों दोहराई जाती है।
कुल मिलाकर यह कि गुलेरी जी जीवन के हर पक्ष को हर सम्भव कोण से देखते-परखते हैं। वह धर्माचरण के द्वारा परलोक-सुख की कल्पना न करके इहलोक के सुख-दुख की बात करते हैं। इसके लिए कथा भले ही वह ‘जन्मान्तर’ की लिखें। वह न हजरत मूसा को मुँह चिढाने वालों से सहानुभुति रखते हैं, न पोपलीला और चूहों के पैरों में घुँघरू बाँधकर देव-देव चिल्लाने वाले धूर्तों से। वह न यज्ञबलि के पक्षधर हैं और न ही बुद्धिहीन विद्या के। मामूली लगने वाले क्षणों में विनोदप्रियता और तत्काल स्पष्टवादिता उनका स्वाभाविक गुण है। यह गुण उनकी इन लगभग सभी रचनाओं में स्पष्टरूप से अंकित है और उनके व्यक्तित्व के इस गुण को उनसे अलग रखकर उनकी रचनाओं का सही मूल्यांकन संभव नहीं है।
(बलराम द्वारा संपादित ‘गुलेरी की लघुकथाएँ’, लखनऊ से प्रकाशित मासिक ‘उत्तर प्रदेश’ तथा ‘वर्तमान जनगाथा’ में प्रकाशित।)
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