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उत्तर भाग-1
(पूर्ण लेख का उत्तर-भाग-2 यानी आखिरी हिस्सा, 1सितम्बर 2010 को प्रकाशित किया जा चुका है। इस बार प्रस्तुत है—उत्तर-भाग-१ यानी बीच का हिस्सा। इसका पूर्व-भाग यानी शुरुआती हिस्सा बाद में प्रकाशित किया जाएगा ताकि वह इसके ऊपर आ जाए।–बलराम अग्रवाल)
गुलेरी जी की लघु कथा-रचनाओं में अधिकांशत: तो प्रचलित लोककथाओं और किंवदन्तियों पर ही आधारित हैं। यह कहते हुए हमें यह भी ध्यान रखना है कि इन रचनाओं पर हम इनके रचनाकाल के 100 साल से भी अधिक समय बाद अपनी टिप्पणी दे रहे हैं, अर्थात इतने वर्ष बाद जबकि कोई रचना जनमानस में रच-बस कर स्वयं किंवदन्ती बन जाती है। कई को हम बालकथा के रूप में रेखांकित कर सकते हैं तो एकाध को चुटीले हास्य के रूप में। उनकी इन रचनाओं के आधार पर हमारे सामने उनका विनोदी, संस्कारप्रिय, शालीन, कटाक्षप्रिय और मुँहफट-रसिक व्यक्तित्व उभरकर आता है। एक ऐसा व्यक्तित्व जो न स्त्रियों से चुहल(शक्कर का चूर्ण) के मौके हाथ से जाने देता है और न शिक्षक-समुदाय पर कटाक्ष(भूगोल) करने के। उनकी लघु कथा-रचनाओं में एकरूपता या स्तरीय विविधता जैसी कुछ चीज नजर आने की बजाय हमें अगर बिखराव और बचकाना प्रयास जैसा कुछ नजर आता है तो उसका एक कारण तो हम ऊपर लिख ही आए हैं—आलोचक का दृष्टि-संकोच। दूसरा यह कि इन कथाओं की प्रस्तुति के काल में(अर्थात 1904 से 1922 के दौरान) आज की तरह का बारीक विभाजन साहित्य की विधाओं के बीच नहीं था; तथा तीसरा यह कि इन रचनाओं को उन्होंने अपने लेखों, टिप्पणियों और निबंधों में संदर्भ के रूप में उद्धृत किया गया है, स्वतंत्रत: नहीं लिखा। उस काल का रचनाकार स्वयं को यथाक्षमता हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि में संलग्न रखना ही पर्याप्त समझता था और वैसा ही वह करता भी था। साहित्य के वर्गीकरण का या सोद्देश्य वर्गीकृत-साहित्य की रचना का विचार-मात्र भी उस काल के लेखक के मस्तिष्क में संभवत: न आता हो। वर्गीकृत साहित्य-सृजन का विचार रहा होता तो भारतेंदु हरिश्चन्द्र (परिहासिनी:1875-76) से लेकर प्रेमचन्द के निधन(1936) तक अनगिनत लघुकथाएँ और लघुकथा-संग्रह आज हमें उपलब्ध होते।
आज हम अनावश्यक शब्दप्रयोग और शाब्दिक-लफ़्फ़ाजी से लघुकथा को बचाए रखने की बात करते हैं। न सिर्फ़ बात करते हैं, बल्कि उसे कार्यरूप में परिणत भी करते हैं। इस प्रयास में कुछ लेखक स्वयं को आधे-अधूरे वाक्य प्रस्तुत करने की हद तक स्वतंत्र मान लेते हैं, तो कुछ शब्द-प्रयोग में संकुचित होते-होते कथा के अंत:प्रभाव तक को नष्ट कर डालते हैं। अतिरिक्त शब्दों और वृत्तांत-वर्णन पर अंकुश रखते हुए अनावश्यक रूप से लम्बी हो जाने की आशंकापूर्ण कहानी को लघ्वाकारीय समापन देने की अवधारणा को परोक्षत: प्रस्तुत करने वाले गुलेरी जी संभवत: पहले कथाकार हैं। इस दिशा में ‘कुमारी प्रियंकरी’ उनकी महत्वपूर्ण कथा-रचना है तथा इस विचार की पहली लघुकथा भी। इस रचना का समापन-वाक्य—‘ऐसा ही एक मिल गया और कहानी कहानियों की तरह चली’ उस काल की लेखकीय चेतना के हिसाब से अद्भुत ही कहा जाएगा। इस वाक्य को पढ़ते ही पाठक-मन आगे की समस्त कहानी से एकात्म होना प्रारम्भ हो जाता है। कोई भी लघुकथा, जो पुस्तक के पृष्ठ पर समाप्त होकर पाठक के मनोमस्तिष्क में प्रारम्भ हो जाए, सही अर्थों में लघुकथा है। गुलेरी जी अगर आगे की रचना भी लिख डालते तो वह एक सामान्य रचना होती, जैसी कि उस काल में और आज भी, अनेक प्रचलित हैं। परन्तु इस समापन को पाकर यह पाठक की संवेदनाओं को दूर तक झंकृत करती है। अपनी वृत्ति और कल्पनाशीलता के अनुरूप वह जिस स्तर और सीमा तक चाहे, इस कथा का विस्तार महसूस करे और आनन्दित या उदास होता रहे।
विलासी और अकर्मण्य लोग। हजरत मूसा तक के गम्भीर सिद्धांतों और धर्मोपदेशों को मुँह चिढ़ाते लोग। तेषां न विद्या न तपो न दानं—ऐसे लोगों के बारे में कहा गया है कि—ते मर्त्यलोके भुविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगा:चरन्ति। ‘बन्दर’ के माध्यम से गुलेरी जी का भी यही प्रतिपाद्य है—‘वे सब मनुष्य बन्दर हो गये। अब वे जगत की ओर मजे से मुँह चिढ़ाते हैं और चिढ़ाते रहेंगे।’
‘कर्ण का क्रोध’ महाभारत की कथा है और ‘साँप का वरदान’ एक किंवदन्ती। किंवदन्तियों का लोक-साहित्य में विशेष स्थान है। वे अनेक सूत्रों, उक्तियों और मुहावरों की वाहक होती हैं। ‘राजा धीरजसिंह’ नामोच्चारण मात्र से मार्ग में अचानक मिल गया साँप मनुष्य पर आक्रमण नहीं करता—इस लोकधारणा को ‘साँप का वरदान’ में कथारूप दिया गया है।
एक कथाकार के रूप में गुलेरी जी एक सजग और आडंबरहीन सामाजिक का दायित्व निर्वाह करते हैं। अंध-मतावलम्बियों की तरह गैर-मतावलम्बियों पर आक्षेप न करते रहकर धर्माडम्बरों के खिलाफ़ वह कबीरपंथी रवैया अपनाते हैं। एक सौ से भी कम शब्दों की कथा-रचना ‘पोपदेव’ को उन्होंने एक दृष्टांत के माध्यम से प्रस्तुत किया है। यद्यपि यह भी एक संदर्भ-कथा ही है; फिर भी, इस तरह का कथा-प्रयोग आज का लघुकथा-लेखक भी अभी तक शायद न कर पाया हो। मात्र दस पंक्तियों को तीन पैराग्राफ में विभाजित करके लिखी गई इस कथा-रचना (रचनाकाल:1904) में पहले दो पैराग्राफ में तीसरे पैराग्राफ को पुष्ट करने हेतु एक दृष्टांत प्रस्तुत किया गया है। कथा का ऐसा प्रस्तुतिकरण सिर्फ तभी संभव है जब उसका लेखक आम जीवन में भी इतना ही मुँहफट हो। ‘पोपदेव’ का उल्लेखनीय पक्ष यह है कि दृष्टांत जितना स्पष्ट है, नैरेटिंग उतनी ही सांकेतिक, सारगर्भित और तीखी। गुलेरी जी के इस कौशल और…इस सादगी पे कौन न मर जाए ए खुदा, करते हैं क़त्ल हाथ में तलवार भी नहीं। पोप यानी ईसाई धर्माचार्य का दृष्टांत देकर हिंदू-धर्मावलंबी धूर्त की कलुषता को जाहिर करना उन्हें लघुकथा को गौरवशाली परम्परा प्रदान करने वाला लेखक बनाता है। लघुकथा लेखन में ऐसा कौशल आज भी वांछित है।
‘पाठशाला’ बाल-मनोविज्ञान की जैसी यथार्थ कथा है, वैसी सरल और सहज कथाएँ हिन्दी-साहित्य में बहुत नहीं हैं। बालक को उसके बचपन से काटकर एक अलग इकाई के रूप में नहीं देखा जा सकता। प्रधान अध्यापक का एकमात्र पुत्र वस्तुत: ऐसा ही बालक है, जिसे धार्मिक, वैज्ञानिक, ऐतिहासिक, सामाजिक आदि सभी विषयों के प्रमुख सूत्र, प्रश्न और उनके उत्तर रटा दिये गये हैं। पिता की दृष्टि में वह घर का चिराग अपूर्व गौरवानुभूति देनेवाला है और अध्यापकों तथा दर्शकों की दृष्टि में विलक्षण बुद्धिवाला। ऐसे में, वृद्ध महाशय उसे उसकी यथार्थ-अवस्था का ज्ञान कराते हैं—“कहा कि तू जो ईनाम माँगे, वही दें।” बालक के मुख पर रंग परिवर्तन होता है। हृदय में कृत्रिम और स्वाभाविक भावों की लड़ाई की झलक आँखों में दिखाई देती है। पिता और अध्यापक सोचते हैं कि पढ़ाई का वह पुतला(न कि सहज और स्वाभाविक बचपन की सरलता से परिपूर्ण बालक) कोई पुस्तक माँगेगा। और बालक है कि विस्मित है। कुछ माँगने जैसा प्रस्ताव तो उसके सामने आज तक कभी रखा ही नहीं गया था! सिवा इसके कि यह करो, वह करो; यह रटो, वह रटो—कुछ और तो पिता, अभिभावक या किसी अध्यापक के मुख से उसने सुना हि नहीं। कुछ माँगने का प्रस्ताव सुनकर उसका बचपन लौट आता है और ‘कुछ खाँसकर’ गला साफ कर नकली परदे के हट जाने से स्वयं विस्मित होकर बालक धीरे-से कहता है, “लड्डू”। लेखक का मन प्रसन्नता से खिल उठता है कि बालक से छीन लिया गया उसका बचपन लौट आया। उसकी भावनाओं को नैरेटर इस तरह व्यक्त करता है—“इतने समय तक श्वास घुट रहा था। अब मैंने सुख की साँस ली…। बालक बच गया…क्योंकि वह ‘लड्डू’ की पुकार जीवित वृक्ष के हरे पत्तों का मधुर मर्मर था…।” मुल्कराज आनन्द की बहुचर्चित कहानी ‘द लोस्ट चाइल्ड’ भी इस लघुकथा के समक्ष संभवत: हल्की पड़े।
‘भूगोल’ और ‘शक्कर का चूर्ण’ गुलेरी जी की विनोदप्रिय और शालीन प्रकृति को उजागर करती रचनाएँ हैं। जन्मतिथि के हिसाब से ‘भूगोल’ लेखन के समय(1914 में) वह इकतीस वर्ष के रहे होंगे और ‘शक्कर का चूर्ण’ लिखने के समय(1921 में) अड़तीस वर्ष के। इस उम्र में पहुँचकर भी ऐसे विनोदपूर्ण क्षणों को अपने हाथ से खिसकने नहीं देते। आज हम शब्दों की शालीनता और उनके सांकेतिक प्रभाव को भूलकर साहित्य में यह नहीं, वह नहीं लिखने की बहस चलाते हैं; और गुलेरी जी 1921 में भी सहज लेखन करते हैं। सच यह है कि उनके पास ओढे हुए क्षण नहीं हैं। मामूली और सामाजिक-पारिवारिक दृष्टि से असंस्कारी नजर आते विनोदपूर्ण क्षण, जो किसी कच्चे लेखक की लेखनी पाकर अश्लील या सतही प्रस्तुति के रूप में सामने आते, गुलेरी जी की लेखनी से उद्भूत होकर ‘शक्कर का चूर्ण’ जैसी गुदगुदी रचना बन जाते हैं। गुलेरी जी वस्तुत: लेखक होने का छ्द्म पालकर रचना-कर्म में संलग्न नहीं होते।
‘शक्कर का चूर्ण’ के साथ ‘स्त्री का विश्वास’ को पढ़ने से लगता है जैसे किसी लम्बी कहानी को लिखने की योजना बनाते-बनाते गुलेरी जी ने उसके दो बिन्दुओं को नोट्स के रूप में अलग-अलग लिख लिया हो। बहरहाल, उनके न रहने पर इन्हें अब दो अलग-अलग रचनाएँ ही कहा जाएगा। ‘स्त्री का विश्वास’ वस्तुत: स्त्री(मृणालवती) द्वारा विश्वासघात की कथा न होकर भयातुर और प्रेम-प्रदर्शन में कायर स्त्री के चरित्र की कथा है। मुंज बंदी बनाया गया और उसे गली-गली भीख माँगने का कष्ट उठाना पड़ा तो मृणालवती के कायर चरित्र के कारण नहीं, उसको पाने की अपनी कामना के कारण। मृणालवती का चरित्र यहाँ पर ‘आकाशदीप’(जयशंकर प्रसाद) की मधूलिका के चरित्र से यद्यपि एकदम भिन्न प्रकृति का है। मधूलिका राष्ट्र के प्रति कर्तव्य-बोध से पूरित एक ऐसी युवती है जो राजा के सामने ही अपने प्रेमी का हाथ थाम लेने का साहस रखती है, जबकि मृणालवती न तो राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य-बोध से पूरित है—‘भागते समय मुंज ने मृणालवती से कहा कि मेरे साथ चलो…उसने कहा कि गहनों का डिब्बा ले आती हूँ।’(स्त्री का विश्वास) और न ही प्रेम-प्रदर्शन में परिपक्व—‘…और अपनी अधेड़ उमर के विचार से उसके चेहरे पर म्लानता आ गयी।’(शक्कर का चूर्ण)। कुल मिलाकर ‘स्त्री का विश्वास’ का शीर्षक इस कथा की अन्त:भावना के अनुरूप नहीं है।
(बलराम द्वारा संपादित ‘गुलेरी की लघुकथाएँ’, लखनऊ से प्रकाशित मासिक ‘उत्तर प्रदेश’ तथा ‘वर्तमान जनगाथा’ में प्रकाशित।)
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