[ दोस्तो, लघुकथा-वार्ता के इस अंक में प्रस्तुत है मेरे प्रथम लघुकथा-संग्रह ‘सरसों के फूल’ पर डॉ॰ किरनचन्द्र शर्मा द्वारा लिखित समीक्षात्मक आलेख।]
मुझे अपनी बात इस नकार से ही आरम्भ करनी है। यदि जीवन को हम एक चुनौती मानकर चलते हैं तो सृजनशीलता भी एक चुनौती है। चुनौती हमेशा ही सार्थक के साथ-साथ सहज भी होती है। जो सहज है परन्तु सार्थक नहीं, सामान्य है—वह चुनौती नहीं हो सकता। एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट करूँ तो, मनुष्य के रूप में पैदा होना एक सहजता है और केवल सहजता है। इसमें कहीं भी कोई ध्वनि नहीं है कि मनुष्य के रूप में पैदा होना कोई सार्थक प्रक्रिया है, और चूंकि सार्थक प्रक्रिया नहीं है इसलिए यह चुनौती भी नहीं है, किन्तु मनुष्य बनना अथवा होना एक चुनौती है, और यह चूंकि चुनौती है इसलिए सार्थक और सहज दोनों एक साथ है। अतः वह जीवन-प्रक्रिया जो तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी सहज रूप से इस चुनौती को स्वीकारती है कि व्यक्ति मानवजाति के हित में मनुष्य बनने की निरन्तर प्रक्रिया में बना रहे—वही सार्थक है, और चूंकि वह सार्थक और सहज दोनों है इसलिए वही सही सृजनशीलता भी है। सम्भवतः अब मुझे और स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं है कि जो सार्थक है, वह सहज और स्वाभाविक होते हुए भी आवश्यक रूप से सृजनशीलता नहीं है। इसलिए रचना का रचा जाना महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है रचनाकार का सृजनशीलता से सही-सही परिचय होना। यानी कि उसका रचना के माध्यम से सार्थक और सहज की अभिव्यक्ति दे पाने में सक्षम होना। यह अभिव्यक्ति एक क्षण की भी हो सकती है और एक लम्बे कालखण्ड में जिये गये जीवनपक्ष की भी। इसी तरह, यह एक व्यक्ति की भी हो सकती है और एक परिवार, समाज, समुदाय या राष्ट्र की भी। बलराम अग्रवाल की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि उसे इस सृजनशीलता की पहचान है। उसकी अनेक लघुकथाएँ जो मेरे सामने बिखरी पड़ी हैं— सृजनशीलता की इस सहज पहचान से ही सर्जित हैं। इसलिए वे सार्थक और सहज एक साथ हैं। इस तरह का रचनाकार आदर्श के लिए भी सहज और स्वाभाविक वातावरण की तलाश में रहता है।
जीवन में जैसे सभी कुछ सहज और स्वाभाविक नहीं होता ठीक वैसे ही हर सहज स्वाभाविक सदैव सार्थक नहीं होता। रचना के स्तर पर यही पहचान लेखकीय सृजनशीलता को जन्म देती है, देती रही है। जितनी और जैसी पहचान रचनाकार को इस सत्य की होगी, उसकी सृजनशीलता उनती ही सार्थक और सहज एक साथ होगी। प्रश्न उठता है कि वह स्वाभाविकता क्या है जो सार्थक भी हो और सहज भी? इसी प्रश्न का साहित्यधर्मी रूप यह हो सकता है कि सृजनशीलता, सहजता क्या है? या फिर, हमारे जीवन में ऐसा क्या है जिसे सृजनशील समझा जा सके; या, ऐसा क्या है जो सृजनशील नहीं है?
मुझे अपनी बात इस नकार से ही आरम्भ करनी है। यदि जीवन को हम एक चुनौती मानकर चलते हैं तो सृजनशीलता भी एक चुनौती है। चुनौती हमेशा ही सार्थक के साथ-साथ सहज भी होती है। जो सहज है परन्तु सार्थक नहीं, सामान्य है—वह चुनौती नहीं हो सकता। एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट करूँ तो, मनुष्य के रूप में पैदा होना एक सहजता है और केवल सहजता है। इसमें कहीं भी कोई ध्वनि नहीं है कि मनुष्य के रूप में पैदा होना कोई सार्थक प्रक्रिया है, और चूंकि सार्थक प्रक्रिया नहीं है इसलिए यह चुनौती भी नहीं है, किन्तु मनुष्य बनना अथवा होना एक चुनौती है, और यह चूंकि चुनौती है इसलिए सार्थक और सहज दोनों एक साथ है। अतः वह जीवन-प्रक्रिया जो तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी सहज रूप से इस चुनौती को स्वीकारती है कि व्यक्ति मानवजाति के हित में मनुष्य बनने की निरन्तर प्रक्रिया में बना रहे—वही सार्थक है, और चूंकि वह सार्थक और सहज दोनों है इसलिए वही सही सृजनशीलता भी है। सम्भवतः अब मुझे और स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं है कि जो सार्थक है, वह सहज और स्वाभाविक होते हुए भी आवश्यक रूप से सृजनशीलता नहीं है। इसलिए रचना का रचा जाना महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है रचनाकार का सृजनशीलता से सही-सही परिचय होना। यानी कि उसका रचना के माध्यम से सार्थक और सहज की अभिव्यक्ति दे पाने में सक्षम होना। यह अभिव्यक्ति एक क्षण की भी हो सकती है और एक लम्बे कालखण्ड में जिये गये जीवनपक्ष की भी। इसी तरह, यह एक व्यक्ति की भी हो सकती है और एक परिवार, समाज, समुदाय या राष्ट्र की भी। बलराम अग्रवाल की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि उसे इस सृजनशीलता की पहचान है। उसकी अनेक लघुकथाएँ जो मेरे सामने बिखरी पड़ी हैं— सृजनशीलता की इस सहज पहचान से ही सर्जित हैं। इसलिए वे सार्थक और सहज एक साथ हैं। इस तरह का रचनाकार आदर्श के लिए भी सहज और स्वाभाविक वातावरण की तलाश में रहता है।
अपनी बात को मैं उसकी दो लघुकथाओं को समानान्तर/समीप रखकर स्पष्ट करूँगा कि सृजनशीलता की उसकी पहचान कहाँ और कैसे सहज रचना-प्रक्रिया में ढल जाती है। इनमें से पहली लघुकथा है—‘अकेला कब तक लड़ेगा जटायु’ और दूसरी—‘गोभोजन कथा’। इन दोनों लघुकथाओं का सूक्ष्म विश्लेषण करने पर स्पष्ट हो जाता है कि दोनों की जीवन-पद्घति और धरातल एक नहीं हैं, पर दोनों में एक चुनौती है और वही चुनौती सृजनशीलता को जन्म देती है। ‘...जटायु’ में तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी दूसरे के दुःख से दुःखी हो उठना मानव बनने की रचना-प्रक्रिया को जन्म देता है। यह सच है कि अकेला जटायु रावणवत् इतने राक्षसों से दीर्घ समय तक नहीं लड़ सकता; लेकिन अमानवीय कृत्यों के खिलाफ उठ खड़ा होना, लड़ना—यह उसका चरित्र है। लड़ने से पहले या लड़ते हुए, वह कभी भी हताश नहीं होता, पर लड़ाई हार जाने पर जो दर्द उसे होता है वह सालता है; साथ ही पूरे के पूरे समाज के सामने एक सार्थक चुनौती प्रस्तुत करता है कि मनुष्यता को अगर बचाना है या तमाम वहशीपन के खिलाफ यदि सकारात्मक लड़ाई लड़नी है, तो जटायु के साथ जुटना ही होगा। उसे इस अकेले लड़ते जाने से मुक्ति दिलानी ही होगी। यह सारी की सारी बात इस लघुकथा में एक सहज और स्वाभाविक रचना-प्रक्रिया के तहत यथार्थ की भूमि पर घटती है और उसी सहजता के साथ अभिव्यक्ति भी पाती है। इस तरह वस्तु, शिल्प और रचना-प्रक्रिया तीनों एकात्मरूप से इस रचना का निर्माण करते हैं। देखें—‘मर मिटने का तिलभर भी माद्दा तुम अपने अन्दर संजोते तो लड़की बच जाती... और गुण्डे...’ कहती, मेरे मुँह पर थूकती... थू थू करती आँखें। उफ्।”
इससे बड़ी और सार्थक सृजनशीलता क्या होगी कि वह एक सार्थक और सहज हलचल पैदा कर दे।
यथार्थ की इस भूमि से बिल्कुल विपरीत भूमि है ‘गोभोजन कथा’ की। आदर्शोन्मुख भूमि। रचनाकार यहाँ सहज यथार्थ का इस्तेमाल न कर सहज मनोभावों का इस्तेमाल करता है। बच्चा पाने की अभिलाषा में गाय को (लघुकथा में गर्भिणी गाय) आटा खिलाने का उपक्रम एक पारम्परिक मानसिक भाव है जो एक मनोभाव प्रेरित कर्म को जन्म देता है। वर्षों का यह संस्कार उस समय एकदम डगमगा जाता है जब कथानायिका माधुरी गाय को खिलाने के लिए लाया गया आटा गाय के स्थान पर बशीर की गर्भिणी किन्तु भूखी और असहाय विधवा को दे देती है। कहा जा सकता है कि यह एक विचाराधारात्मक आदर्श की स्थापना है जो यथार्थ पर चोट करता है, और चूंकि यथार्थ पर चोट करता है तो सहजता पर भी चोट होती है, भले ही वह कितनी भी सार्थक क्यों न हो। लेकिन, इस लघुकथा की सहजता दूसरी है। वह एक संस्कार पर दूसरे संस्कार का आघात है। गाय के स्थान पर विधवा, वह भी विजातीय/विधर्मी, की मदद करना विचारधारा से प्रेरित कर्म न होकर तत्कालीन यथार्थ से प्रेरित होकर एक संस्कार पर दूसरे संस्कार का आघात है। ज्योतिषी ने कहा है कि गर्भिणी गाय को खिलाने से उसकी कोख हरी हो सकती है। यह एक तरह का पारम्परिक संस्कार है जो उसे इस कार्य के लिए विवश करता है लेकिन यहीं एक दूसरे तरह का संस्कार बशीर की गर्भिणी विधवा को देखकर सक्रिय हो उठता है जो पहले संस्कार पर अधिक शक्ति से प्रहार करता है। एक तरह से मानवता के प्रति दयावान होना एक खास तरह के करुणाजनक संस्कार को जन्म देता है जो निजी और स्वार्थपूर्ण संस्कारों पर आज तक हर तरीके से भारी पड़ता है। इस दूसरे आघात का परिणाम निश्चय ही व्यापक और अधिक मानवीय है। सामाजिक स्तर पर व्यक्ति हमेशा ही मानवीयता का पक्षधर रहा है, इसलिए अनिश्चित परिणामवाला स्वार्थ तिरोहित होकर निश्चित परिणामवाला संस्कार बन जाता है। इस तरह इस लघुकथा की रचना-प्रक्रिया एक सहज और सार्थक सृजन को जन्म देती है।
इन दोनों ही लघुकथाओं के विश्लेषण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि बलराम अग्रवाल में सृजनशीलता की पहचान है जो उससे रचना करवाती है। यहाँ एक बात स्पष्ट कर दूँ कि जब मैं यह कह रहा हूँ कि जीवन में सार्थक सहजता ही रचनाधर्मिता को जन्म देती है अथवा देती रही है तो इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि सहजता और स्वाभाविकता मात्रा निरर्थक होती हैं। सहजता और स्वाभाविकता जीवन का गुण-धर्म हैं और वह रचना में भी उसी तरह सहायक होता है जिस तरह जीवन में; किन्तु सृजनशीलता का कारण महज सहजता और स्वाभाविक नहीं हो सकतीं। अपनी बात को और स्पष्ट करने के लिए उनके संग्रह ‘सरसों के फूल’ की दो अन्य लघुकथाओं 'गाँठ’ और ‘गुलमोहर’ को लेता हूँ।
किसी भी समय ‘गाँठ’ का लग जाना एक अनायास क्रिया है, किन्तु ध्वजारोहण जैसे संवेदनशील अवसर विशेष पर गाँठ का लग जाना, वह भी इस तरह कि खुलने में ही न आए—रचनाकार की सार्थक उपस्थिति को प्रकट करता है। इतना ही नहीं, मिनिस्टर की चापलूसी के लिए उसी व्यक्ति को पीछे धकेल देना जिसे उस गाँठ को पाने की दक्षता प्राप्त थी—इस सार्थक उपस्थिति को और व्यापक और गहरा बना है। तत्पश्चात् दोषी मानकर उसी व्यक्ति का निलम्बन तथा उसी का गाँठ खोलने के लिए आमन्त्रण! यह उपस्थिति अर्थ की अनेक परतों को खोलती-सी प्रकट होती है। इस तरह सृजनशीलता परत-दर-परत सार्थक होती चली जाती है। दूसरी लघुकथा ‘गुलमोहर’ भी लगभग उसी भावभूमि की लघुकथा है। आजादी की लड़ाई में बागी करार दिये गये देशभक्त द्वारा गुलमोहर का एक पौधा जतनबाबू के बंगले के बाहर लॉन में रोप दिया जाता है। आज़ादी पा लेने के उपरान्त जतन बाबू दिन-रात उस पौधे की देखभाल करते हैं और प्रतीक्षा करते हैं कि हरे-भरे इस वृक्ष पर फूल क्यों नहीं लग रहे? यहाँ सहज और सार्थक की प्रक्रिया में अनेक अर्थ एक-साथ फूटते-से दिखाई देते हैं। चाहकर पालने-पोसने पर भी आजादी का यह पेड़ कोई फूल क्यों नहीं देता? यही प्रश्न इस लघुकथा को सहज और सार्थक एक-साथ बना देता है। इस तरह की अनेक लघुकथाएँ इस संग्रह में हैं जो लघुकथा की सृजनशीलता की सार्थक अभिव्यक्ति कही जा सकती है।
मेरी बात अधूरी ही रहेगी यदि मैं यहाँ वर्तमान स्थिति को उजागर करने वाली सर्वाधिक सशक्त लघुकथा ‘अलाव के इर्द-गिर्द’ की चर्चा नहीं करता। यह लघुकथा, लघुकथा के विधान और सही सहज सृजनशीलता दोनों को एक-साथ दर्शाती है। ‘अलाव’ गाँव और गरीबी से जुड़ा शब्द है। एक तरह से, जहाँ यह लघुकथा समाप्त होती है, वहाँ से ही यह सारा संकलन अपनी व्यापकता और विकीर्णता ग्रहण करता दिखाई देता है। यानी हम गाँव के अलाव के इर्द-गिर्द से शुरू होकर उस व्यापक अलाव की ओर अनजाने ही बढ़ने लगते हैं जिसमें हमारा घर, हमारा पड़ोस, हमारा गाँव, हमारा शहरऔर हमारा देश सभी कुछ जल रहा है और हम उसके केवल इर्द-गिर्द बतियाते चले जा रहे हैं, बस। कितनी बड़ी विवशता के बीच जी रहे हैं हम कि सब-कुछ जलता देखकर भी उसके इर्द-गिर्द इकट्ठा-भर होने में अपनी सार्थकता मान लेते हैं और निरन्तर चलता रहता है यह सिलसिला—मुझे (और शायद सभी को) कई सारे कुछ मुद्दे इसी सिलसिले में से ढूँढने हैं। यहीं आकर यह भी लगने लगता है कि बलराम अग्रवाल की लघुकथाएँ तीखीऔर ठंडी एक-साथ होती हैं। ‘अलाव के इर्द-गिर्द’ से ही यह भी पता चलता है कि उनकी लघुकथाओं में तीखापन कहाँ जाकर अपना काम कर जाता है ! हालांकि यह परस्पर विरोधी बात लगती है, पर यह विरोध रचनाधर्मिता को और पुष्ट करता है। दरअसल, जो अलाव जलाया है बदरू ने, मिस री उसे धीरे-धीरे कुरेदता हुआ अपनी आँच से फूँक देता है। बात ‘सुराज’ से शुरू होकर ‘पिर्जातन्त’ तथा ‘कोट-कचहरी’ से होती हुई ‘न्याय-व्यवस्था’ पर पहुँचती है और वहाँ से सीधे खेत सींचते हुए श्यामा से जुड़कर चौधरी पर ठहर जाती है। एक क्षण को ऐसा लगता है कि रचना चौधरी पर आकर ठहर गयी है और यहीं ‘अलाव’ की आँच धीमी पड़ने लगती है, पर मिसरी फिर फूँक मारकर उसे दहका देता है। व्यक्तिगत अनुभव के दायरे में सभी-कुछ समेटता हुआ यह कथाकार भिन्न-भिन्न और व्यापक आयाम दर्शाता हुआ चलता है। मजेदार बात यह है कि जहाँ लगता है कि अलाव बुझ रहा है, वहाँ वह धीरे से उसे कुरेदता हुआ पुनः उसमें फूँक मारने लगता है। इसीलिए जिस अन्तर्विरोध की बात मैंने ऊपर कही थी कि इनकी लघुकथाएँ तीखी और ठंडी एक साथ हैं—वही अन्तर्विरोध इसलघुकथा-लेखक की शक्ति बन जाता है। जहाँ बड़े ही ठंडेपन के साथ कुछ चुभता चला जाए वहाँ उस चुभन की गहराई का अनुमान सहज ही नहीं लगाया जा सकता। बलराम अग्रवाल के कथाकार की यह विशेषता उसकी अन्य कई लघुकथाओं में भी व्यक्त हुई है—‘बदलेराम कौन है’, ‘युद्धखोर मुर्दे’, 'जुबैदा’, ‘कलम के खरीदार’ जैसी तेज चुभन वाली लघुकथाओं में भी उसका वह ठंडापन सहज ही हमें आकर्षित करता है। फिर, ‘तीसरा पासा’, ‘अन्तिम संस्कार’, ‘नया नारा’, ‘अज्ञात गमन’, ‘गुलाम युग’, ‘पुश्तैनी गाम’ जैसी लघुकथाएँ तो हैं ही इस पद्धति पर रची हुई।
इस तरह से बलराम अग्रवाल की लघुकथाएँ मात्र लेखन तक सीमित नहीं रह जातीं वरन् लघुकथा की सृजनशीलता का एक उदाहरण हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं।
[नोट : समीक्षक डॉ॰ किरन चन्द्र शर्मा दिल्ली विश्वविद्यालय के अंतर्गत खालसा कॉलेज (सांध्य) में हिन्दी विभागाध्यक्ष थे। अब स्वर्गीय।]
('सहकार संचय' जनवरी 1998; सम्पादक:राधाचरण विद्यार्थी, पृष्ठ 52-54)
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