शनिवार, 26 नवंबर 2011

कलाजयी बलराम अग्रवाल की कालजयी लघुकथाएं-1 / डॉ. ब्रजकिशोर पाठक

2-9-92 को लिखित डॉ॰ ब्रजकिशोर पाठक के पत्र की फोटोप्रति
दोस्तो, इसी सप्ताह की 23 तारीख को मैंने कुलदीप जैन द्वारा संपादित लघुकथा संकलन ‘अलाव फूँकते हुए’ में संकलित मेरी लघुकथाओं पर डॉ॰ कमल किशोर गोयनका द्वारा लिखित पत्रात्मक आलोचना को प्रस्तुत किया था। आज 60वें वर्ष में प्रविष्ट कराते अपने जन्मदिवस पर प्रस्तुत कर रहा हूँ उन दिनों मेरे लिए पूर्णत: अपरिचित आलोचक डॉ॰ ब्रजकिशोर पाठक द्वारा मेरी उक्त 25 लघुकथाओं पर केन्द्रित आलोचनात्मक लेख की पहली किश्त। डॉ॰ पाठक ने उक्त लेख को शीर्षक दिया था—‘कलाजयी बलराम अग्रवाल की कालजयी लघुकथाएँ’ जिसे पढ़कर मैं संकोच से गड़ गया था। इस बारे में यह कहते हुए कि ‘मैं इस विशेषण के योग्य नहीं तथा मुझे लघुकथा में अभी बहुत-सा काम और करना है’ मैंने तुरंत उन्हें पत्र भी लिखा। उनका जवाब आया—‘आलोचक की दृष्टि पर एतराज का अधिकार लेखक को नहीं होना चाहिए’। मैं नत-मस्तक हो गया। बावजूद इस सबके, अपने संग्रह ‘सरसों के फूल’ में डॉ॰ पाठक के लेख को मैं उनके द्वारा प्रदत्त शीर्षक से प्रकाशित कराने का साहस नहीं दिखा पाया। उसे शीर्षक दिया—‘कलाजयी लघुकथाएँ’। लघुकथा संग्रह ‘ज़ुबैदा’ में भी मूल शीर्षक से इसे प्रकाशित कराने का साहस मैं नहीं कर पाया। वहाँ शीर्षक गया—‘ये लघुकथाएँ’। परंतु यहाँ, ‘लघुकथा-वार्ता’ में, मैं उक्त लेख को उसके मूल शीर्षक से दे रहा हूँ। इसका कारण यह नहीं कि मेरा पूर्व संकोच हट गया है और कुछ दर्प मन में घर कर गया है बल्कि यह है कि तिरुवनंतपुरम (केरल) में अध्यापनरत मलयालमभाषी हिन्दी अध्यापक श्री रतीश कुमार ने ई-मेल करके जानना चाहा है कि उक्त लेख का सही शीर्षक क्या है? श्री रतीश कुमार ‘हिन्दी व मलयालम लघुकथाओं का तुलनात्मक अध्ययन’ विषय पर पी-एच॰ डी॰ की उपाधि हेतु शोधरत हैं। संदर्भत: यह बता देना आवश्यक है कि मुझे लेख भेजने से काफी समय पूर्व डॉ॰ ब्रज किशोर पाठक जी॰ एल॰ ए॰ कॉलेज, डाल्टनगंज, पलामू(झारखंड) में रीडर(हिन्दी विभाग) पद को सुशोभित कर वहाँ से सेवानिवृत्त हो चुके थे। हिन्दी लघुकथा पर उनके अनेक शोधालेख कितने ही पत्रों, पत्रिकाओं व संकलनों में प्रकाशित हैं जो अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।–बलराम अग्रवाल

हिन्दी लघुकथा लेखन आन्दोलन का मैं प्रत्यक्षद्रष्टा रहा हूँ। लघुकथा की रूपाकृति पर बहसें होती रही हैं और आज तक मैं देख रहा हूँ कि बहसों का दौर जारी है और लघुकथा की रूपाकृति अभी भी निश्चित नहीं हो पायी है। आज तक जितनी लघुकथाएँ लिखी गई हैं, उनकी रूपाकृति के मूल्यांकन के लिए एक अलग आलेख की आवश्यकता बन पड़ी है। मैंने अपने कई आलेखों में इस विषय को रेखांकित करने का प्रयास किया है। स्थूल रूप से मैंने हिन्दी लघुकथाओं के पहले वर्ग को ‘लघुत्तम लघुकथा’ की संज्ञा दी है। ऐसी लघुकथाएँ क्षणिकाओं या चुटकलों के रूप में प्रस्तुत हुई हैं। दो-चार पंक्तियों से लेकर सात-आठ पंक्तियों में ये तीखे व्यंग्य की धार लिए सहसा शुरू होकर बिजली की कौंध के साथ समाप्त हो जाती हैं। ऐसी रचनाओं में घटना सूक्ष्म बिन्दु में रचनाकार की अनुभूति बनकर व्यंग्य की उत्तेजना पैदा करती है। ऐसी रचनाओं का एक-एक वाक्य महाकाव्य की भूमिका अदा करता है। ऐसी ही रचनाओं को कुछ लोगों ने चुटकुला का एक रूप समझकर ‘फिलर’ के रूप में प्रकाशित कर उपहास किया था। डॉ. वेदप्रकाश वंशल ने इन रचनाओं को होम्योपैथी की गोलियाँ या कैप्सूल कहा था; पर उन्होंने इनके प्रभाव को रामबाण और पोषकशक्ति से भरपूर बताया था।

लघुकथा के दूसरे रूप को मैंने ‘लघुकथा’ की संज्ञा दी है। ऐसी रचनाएँ आधे पृष्ठों में समाप्त हो जाती हैं। इस काया में लिखी गयी रचनाएँ एक घटना या स्थिति के इर्द-गिर्द दो-एक पात्रों की भूमिका द्वारा समाप्त होती हैं। कलात्मक प्रस्तुति की दृष्टि से ऐसी लघुकथाओं में कई प्रयोग हुए। कुछ लोगों ने कहानी के सभी तत्वों का स्पर्श करते हुए समाहरण की शक्ति दिखलाई और समस्याप्रधान बनाकर धारदार मारक हथियार का काम लघुकथाओं से करने लगे। कुछ लोगों ने मिथक प्रतीक कथाओं को लिखकर अपने युग की विसंगतियों, त्रासद स्थितियों, मानवीय संवदेनहीनता/जड़ता, परम्परागत मूल्यों के विघटन, दहेज, पुलिसिया आतंक, देह-व्यापार, टूटते रिश्तों में अर्थतंत्र की गहरी भूमिका जैसी समस्याओं को कथ्य बनाया और इन्हें घटनास्थितियों, पात्रों और उनके संवादों से बड़ी तीखी रचनाएँ दीं। कुछ लोगों ने तो मात्र संवादात्मक शैली में रचनाएँ लिखकर नाटकीय त्वरा के साथ सूक्ष्मरूप से अपनी समस्याओं को व्यंजित किया। लघुकथा की यह संश्लिष्टता प्रस्तुति में अधिक उत्तेजक सिद्घ हुई। लघुकथा के तीसरे रूप को मैंने ‘लघुतर लघुकथा’ के नाम से अभिहित किया है। ऐसी लघुकथाएँ कहानीपन को साथ लेकर एक कथाभास का अनुभव कराती है। रूपाकृति में ये रचनाएँ एक से डेढ पृष्ठों में समाप्त होती हैं। ऐसी ही लघुकथाओं को देखकर कुछ आलोचकों ने लघुकथा को कहानी की एक शैली, छोटी कहानी या लघुकहानी कहा था। इन लघुकथाओं में व्यंजनाशक्ति से उत्पन्न व्यंग्य के दर्शन होते हैं। कुछ लघुकथाकारों ने बीच-बीच में हास्य के साथ-साथ ‘टॉन्ट’ और ‘आइरनी’ का बड़ा ही भव्य संयोजन किया है। ऐसी लघुकथाओं की शैली संवेदनात्मक होती है। एक प्रमुख घटना या स्थिति को केन्द्र में रखकर ऐसे लघुकथाकार कभी-कभी प्रासंगिक और सूच्य घटना-स्थिति का आयोजन करते हैं। रचना कभी-कभी किस्सागो की भाँति शुरू होती है और कभी-कभी एकाएक शुरू होकर मंथर गति से बढ़ती हुई अन्त में ऐसा वेग धारण करती है कि सिर धड़ से अलग हो जाता हैं। व्यंजना शक्ति पर आधारित ये लघुकथाएँ कहानी तत्वों की ऐसी घनीभूत इकाई बन जाती हैं कि सहृदय समीक्षकों के लिए इनसे आर-पार गुजरना एक जोखिमभरा कार्य हो जाता है। ये ध्वनि काव्य की भाँति सहृदयों को कथ्याकथ्य की मन:स्थिति में ले जाती हैं। साधारण लोगों के लिए ऐसी रचनाएँ आरोप-पत्र की तरह लगती है; पर जिन्हें साहित्यिक कृति की सजग पाठ-प्रक्रिया की तमीज मालूम है, वे इसकी गहराई को पाकर अभिभूत हो जाते हैं। सच पूछा जाय तो 1935 से 52 तक छोटी कहानी लिखने का कठिन कार्य एक आन्दोलन के तहत सर्वश्री जानकी वल्लभ शास्त्री, स्व. भवभूति मिश्र, विष्णु प्रभाकर, नलिन विलोचन शर्मा, विनोद शंकर व्यास ने सम्पन्न किया था। लघुत्तर लघुकथा लेखकों ने जाने-अनजाने उसकी आवृत्ति ऐसी लघुकथाएँ लिख कर की। लेकिन उनसे इन कथाकारों में अंतर यह आया कि आजादी के बाद नई कहानी लेखन के तहत ग्राम कथा, नगर कथा, अकहानी, आंचलिक कथा, समान्तर कथा आदि कथा-लेखन आन्दोलन की सारी कथ्य एवं शिल्पगत विशेषताओं को समेट लिया। इसी कारण, लघुकथा को इन कथा-आन्दोलनों की प्रतिक्रिया कहा गया और स्थापना दी गई कि उक्त कथ-आन्दोलनों में विभिन्न नामभर सामने आए, इनके पास कुछ नया कहने को नहीं था। सच पूछा जाये तो ऐसी लघुकथाओं के पास अर्जुन की वह शक्ति है जो पानी की छाया देखकर सटीक शर-संधान करता है।

हिन्दी लघुकथा लेखन और मूल्यांकन में जिन कुछेक लोगों ने सशक्त रचनाधर्मिता से अपनी अलग पहचान बनाई है, उनमें बलराम अग्रवाल का नाम कनिकाधिष्ठित है। लघुकथा-लेखन में कूड़ा-कर्कट परोसने वाले तथाकथित नामी-गिरामी हंगामेबाज लोगों की भीड छाँटकर जिन कुछेक लोगों ने इस रचना विधा को सही मार्ग दिखलाया उनमें श्री अग्रवाल का इतिहास इसलिए बनता है, चूँकि इन्होंने आलेखों के माध्यम से भी लघुकथा को एक निश्चित रूप प्रदान किया है। उनकी लघुकथाएँ अपनी विशिष्ट पहचान के कारण विभिन्न पत्रिकाओं में ही नहीं छपीं, वरन्‌ ‘कथानामा’ और ‘लघुकथा कोश’ में भी सादर संकलित हुईं। यह मामूली बात नहीं है कि इन्होंने अपनी स्वधर्मिता से लघुकथा को आसान रचनाविधा मानकर रातों-रात साहित्यकार बनने वाले साधन-सम्पन्न सेठिया सामंतों का कद इतना छोटा कर दिया कि वे बौने बन गये। बलराम अग्रवाल के लघुकथाकार की यही ऐतिहासिक भूमिका है।

हमने ऊपर लघुकथा के जिन तीन रूपों की चर्चा की है, उसके संदर्भ में बलराम अग्रवाल की लघुकथाओं की परीक्षा अनिवार्य है। बलराम अग्रवाल की लघुकथाएँ मूलतः लघुत्तर लघुकथा के साँचे में ढली हुई हैं, वैसे इन्होंने ‘शोषित को देखकर’ व ‘औरत और कुर्सी’ (बाद में इस रचना का शीर्षक ‘कुर्सी का बयान’ कर दिया गया—बलराम अग्रवाल) जैसी दूसरे दर्जे की भी कुछ कथाएँ लिखी हैं। अग्रवाल जी अपनी लघुकथाओं को, चुटकुला जैसी क्षणिकायें लिखकर लघुकथा को होम्योपैथी गोलियाँ या कैप्सूल बाँटना नहीं चाहते। उनकी लघुकथाओं की रूपाकृति से स्पष्ट होता है कि वे मानकर चलते हैं कि लघुकथा यदि कथा साहित्य की कोई स्वतंत्र विधा है, तो उसमें कहानीपन अवश्य होना चाहिए। बलराम अग्रवाल की लघुकथाएँ एक ओर व्यंजना शक्ति से उत्पन्न व्यंग्य के कई संदर्भ निर्मित करती हैं तो हास्य-व्यंग्य का तेवर और मिजाज भी दर्शाती हैं। यह काम पाठकों, समीक्षकों और आलाचकों का है कि वे उनकी लघुकथाओं का विश्लेषण कर बतावें कि किस दक्षता से वे आज के आदमी, समाज और परिवेश की त्रासदियों, विद्रूपताओं, विसंगतियों और विडम्बनाओं की मनोवैज्ञानिक सचाई की हममें अंतः प्रेरणा जाग्रत करती हैं। वस्तुतः उनकी लघुकथाएँ वर्तमान जीवन की सड़ाँध की तीव्र अनुभूति की स्वयं प्रेरित प्रतिक्रिया हैं, जो हमारे अंतस्‌ में बिजली की कौंध रह-रहकर प्रकट करती हैं और कुछ कर डालने की प्रेरणा देती हैं।

बलराम अग्रवाल की लघुकथाएँ हममें अहसास पैदा कराती हैं कि वे किसी समस्या पर आधारित नहीं हैं। वे वस्तुतः युग-सत्य के स्थिति-चित्र हैं। अग्रवाल जी की दृष्टि यथार्थवादी है। युग की किसी सच्चाई पर उनकी गहन अनुभूति, तीव्र ज्वाला के रूप में कहीं काव्य-सत्य के रूप में प्रकट है तो कहीं देखा-भोगा हुआ यथार्थ लेखक की गहरी संवेदना में डूब जाता है। यही कारण है कि अग्रवाल की लघुकथाओं में संवेदित अनुभूत स्थितियाँ चित्रों-बिम्बों के माध्यम से फूटती हैं। प्रायः हर स्थल पर वे वर्तमान जीवन की त्रासदियों, विसंगतियों, विद्रूपताओं को उकेरते हैं और एक चित्रकार की भाँति उनका रेशा-रेशा अभिव्यक्ति के विविध रंगों में कलम की कूची बनाकर डुबोते-उतारते हैं।

इस प्रसंग में श्री कुलदीप जैन द्वारा संपादित ‘अलाव फूंकते हुए’ में संकलित उनकी लघुकथा ‘ओस’ का मूल्यांकन आवश्यक है। यह लघुकथा अग्रवाल जी की एक ऐसी लघुकथा है, जो उनकी अन्य लघुकथाओं से प्रस्तुतिकला की दृष्टि से अपनी अलग पहचान बनाती है। इसमें एक ओर प्रसाद की कहानियों में प्रयुक्त अमूर्त का मूर्तिकरण और छायावादी और काव्यात्मक चरित्र है तो दूसरी ओर प्रेमचंद की कहानी ‘पूस की रात’ की भयावहता तथा प्रकारान्तर से मार्क्स के असंबद्घतावादी सिद्घान्त का नियोजन है। ‘ओस’ लघुकथा अपनी सम्पूर्ण प्रस्तुति में छायावादी काव्य तत्वों पर आधारित है जिसके कारण बलराम अग्रवाल एक साथ कवि-कहानीकार की भूमिका बखूबी निभाते हैं। एक किस्सागो की भाँति, अपना कवि-व्यक्तित्व सँभाले अग्रवाल जी इस लघुकथा का आरम्भ करते हैं—‘रात्रि की शीत का आभास पाकर सूर्य समय से शायद कुछ पहले ही संध्या के आँचल में छिप जाना चाहता था। शरीर के ताप को चीर देने वाली शीत ने हल्के अंधकार में ही नगर के मकानों के द्वार बन्द कर दिये थे। धीरे-द्हीरे घोर अंधकार नगर की गलियों में बिखर गया। चिंघाड़ती वायु शीत का सहयोग पाकर वृक्षों का सीना चीर देना चाहती थी।” वे इसी काव्यात्मक भाषा में आगे बढ़ते हैं—“नगर से दूर खेतों-खलिहानों के बीच एक पुरानी झोंपड़ी में दीपक की लौ शीत लहर को न झेल पाने के कारण कुछ समय काँपने के पश्चात लुप्त हो गई। खेतों में कहीं दूर कई सियार एक साथ हूके...।” इस काव्यात्मक चित्रमय अभिव्यक्ति के साथ एक कहानी उभरती है कि एक झोंपड़ी में एक वृद्घा फटे-चिटे लिहाफ में लिपटी पड़ी है। इस झोंपड़ी के दरवाजे के समीप एक कोने में बछिया सिर को पेट में और घुसेड़ लेती है। इसी समय एक ठिंगना युवक भागता हुआ झोंपड़ी में पहुँचता है और बछिया से टकरा जाता है। बछिया ‘अम्बा’ की आवाज लगाती है। बुढ़िया जब युवक का परिचय पूछती है तो युवक उसे ‘दादी माँ’ सम्बोधन देकर रात बिता लेने की बात बताता है। कुछ देर बाद बुढ़िया को खाँसी उभरती है। वह टूटती आवाज में ईश्वर से उठाने की प्रार्थना करती है। यह शेष शब्दों को कफ में मिलाकर धरती पर उलट देती है। युवक उससे सो जाने का आग्रह करता है। युवक ठंड के मारे ‘घुटनों को पेट में घुसेड़कर अपन दोनों हाथों के घेरे में’ जकड. लेता है। सुबह होती है। सूर्य की किरणें कपाटहीन झोंपड़ी के दरवाजे पर पड़ती हैं। बुढ़िया के ढेर सारे कफ पर मक्खियाँ भिनभिनाने लगती हैं। युवक रातों-रात बछिया को चुराकर चुपके से भाग जाता है, क्योंकि उसे मालूम हो गया है कि बुढ़िया की मृत्यु हो गई है। बुढ़िया की मृत्यु का संकेत लेखक ने बछिया के चुरा ले जाने की बात कहकर दिया है, क्योंकि अगर बुढ़िया जिन्दा रहती तो बछिया की ‘अम्बा’ आवाज गूँजने लगती! लेखक आगे बताता है कि बुढ़िया की झोंपड़ी पर लताएँ चढ़कर फूल-फल रही हैं। लेखक यहाँ पर एक सूक्ष्म तथ्य को व्यंजित करता है कि बुढ़िया का अपना कोई परिवार नहीं है। तभी तो एक धन्नासेठ बुढ़िया की झोंपड़ी को गिरवी पर लेकर पड़ोसियों को उसकी अरथी सजाने के लिए कुछ पैसे देता है। इसी स्थल पर, प्रकारान्तर से अग्रवाल जी सम्पन्न व्यक्तियों की मानसिक जड़ता, क्रूरता और संवेदनहीनता का संकेत देकर मार्क्सवादी असम्बद्घता के सिद्घान्त (Theory of non-allienment) का व्यावहारिक रूप प्रतिपादित करते हैं। लेखक इस लघुकथा का अंत करते हुए लिखता है—“मोहक कहलाने वाली गुनगुनी किरणें शीत वायु को पीठ पर टिकाकर श्मशान को एक और आगमन का संदेश सुना आईं।”

मैं समझता हूँ, ऐसी संवेदनात्मक शैली का सफल प्रयोग हिन्दी के बहुत ही कम लघुकथाकार कर पाये हैं। स्वयं बलराम अग्रवाल ने अपनी अन्य कथाओं में इसका प्रयोग पुनः नहीं किया है। इस लघुकथा में प्रयुक्त सारे स्थिति-चित्र करुण संवेदना के साथ व्यंग्य की चिंगारियाँ बिखेरते हैं। यदि सावधानी से इस लघुकथा का पाठ किया जाये तो अनुभव होगा कि इसकी संरचना ही गंभीर व्यंग्य के रूप में हुई है। सारे के सारे शब्द-वाक्य रह-रहकर व्यंग्य के तीर छोड़ते हैं। लघुकथाकार ने पड़ोसियों की दीनता को उकेरते हुए, बुढ़िया के अकेलेपन को चित्रित कर पाठकों में करुणा के साथ उत्तेजना पैदा की है। तारीफ की बात है कि लेखक लेखन में कहीं भी भावावेश में नहीं आता, वह केवल गाँव की स्थिति का चित्रण आत्मानुशासन के साथ करता जाता है और हममें उस समाज को फूँक देने का आवेश पैदा करता है जिसमें धन्ना सेठ जैसा क्रूर, ठिंगना जैसा जड़ और पड़ोसियों जैसे असमर्थ व्यक्ति जी भर रहे हैं।

डॉ. किरन चन्द्र शर्मा ने बलराम अग्रवाल की लघुकथाओं पर टिप्पणी देते हुए लिखा है कि—उनकी कथाएँ तीखी और ठण्डी एक साथ होती हैं।...उनकी लघुकथाओं में तीखापन...आकर बड़े ठण्डे तरीके से काम कर जाता है। डॉ. शर्मा इस ‘अंतर्विरोध’ को बलराम अग्रवाल की शक्ति मानते हैं। वे कहते हैं—“जहाँ बड़े ही ठण्डेपन के साथ कुछ चुभता चला जाय, वहाँ चुभन का अनुमान नहीं लगाया जा सकता।” डॉ. शर्मा की उक्त स्थापना बलराम अग्रवाल की लघुकथाओं की प्रवृत्ति और पाठकीय प्रभाव तथा कथाभास की संरचना पर बहुत सटीक बैठती है। वे वस्तुतः लघुकथाओं की संरचना और प्रस्तुति में स्वयं उत्तेजित नहीं होते, पर साहित्य के मर्मज्ञ, सहृदय भावक-वर्ग को उत्तेजित कर देते हैं। वे बड़ी गम्भीर मुद्रा में स्थिति-सत्य को प्रस्तुत कर भावक-वर्ग को जिन्दगी के कड़वे सत्य से परिचित कराकर उनमें उमड़न-घुमड़न पैदा करते हैं। डॉ. शर्मा ने अग्रवाल की लघुकथाओं में जिस ‘चुभन के अनुमान को सहज नहीं होने’ की बात कही है, वह एक महत्वपूर्ण तथ्य का संकेत देती है। वे संभवतः यह बताना चाहते हैं कि श्री अग्रवाल की लघुकथाओं के पाठकीय प्रभाव सहज नहीं होते, वे अनिवार्य सजग पाठ-प्रक्रिया की माँग करते हैं। एक साँस में यदि उनकी लघुकथाओं को पढ़ा जाये तो पाठक को सहजरूप से कुछ भी नहीं मिलेगा, उनकी लघुकथाओं से आरपार गुजरने में बड़ी सतर्कता की अपेक्षा होती है। यही बलराम अग्रवाल की लघुकथाओं की पठन-मुद्रा है।
[शेष आगामी अंक में………]

1 टिप्पणी:

राजेश उत्‍साही ने कहा…

सबसे पहले तो आपको 60वें वर्ष में प्रवेश की अनंत शुभकामनाएं। आने वाला समय आपके लिए और अधिक मंगलमय हो।
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ब्रजकिशोर जी ने बहुत विस्‍तार से आपकी लघुकथाओं पर लिखा है। बधाई।