दो
अंकों में समाप्य लेख की पहली किस्त
चित्र : बलराम अग्रवाल |
‘लघुकथा’ शब्द बोलते ही
जो पहली प्रतिक्रिया लोगों से आम तौर पर सुनने को मिल जाती है, वह लगभग यह होती है
कि ‘लघुकथा-लेखक’ माने कथ्य, भाषा, शिल्प और शैली सभी के स्तर
पर लगभग अधकचरी रचना देने वाला लेखक। अगर आप कमल चोपड़ा द्वारा संपादित ‘हालात’ में नरेन्द्र कोहली के लेख ‘विधा के जोखिम’ को अथवा
सुकेश साहनी द्वारा संपादित ‘बीसवीं
सदी की लघुकथाएँ’ में राजेन्द्र
यादव द्वारा लिखित ‘हंस’ के एक संपादकीय से उद्धृत अंश ‘लघुकथा के लिए अलग एप्रोच की जरूरत है’ को ध्यान से पढ़ें तो आपको वरिष्ठ कथाकारों का
‘लघुकथा’ के प्रति दृष्टिकोण साफ पता चल जाएगा। लेकिन इसका यह
अर्थ न लगाया जाय कि वरिष्ठ कथाकारों-आलोचकों के मन में ‘लघुकथा’
को लेकर कोई पूर्वाग्रह स्थाई रूप से जड़ पकड़े हुए हैं। अगर ऐसा होता तो नि:संदेह
राजेन्द्र यादव ‘हंस’ में लघुकथाएँ न छाप रहे होते। भारतीय
ज्ञानपीठ चित्रा मुद्गल का लघुकथा संग्रह ‘बयान’ न प्रकाशित करता। डॉ॰ कमल
किशोर गोयनका जैसे वरिष्ठ साहित्य-विचारक ‘लघुकथा’ को वर्षों गम्भीरतापूर्वक वैचारिक संबल
प्रदान न करते और ‘लघुकथा का
व्याकरण’ लिखने की ओर प्रवृत्त न
होते। डॉ गोपाल राय अपनी नवीनतम पुस्तक ‘हिन्दी कहानी का इतिहास’
में लघुकथा को कथा-साहित्य के उपन्यास, लघु-उपन्यास, लम्बी
कहानी, कहानी आदि नौ पदों में से एक स्वीकार न करते। अनेक विश्वविद्यालयों में ‘लघुकथा’ को शोध और लघु-शोध का विषय गत सदी के आठवें दशक में
ही स्वीकार कर लिया गया था, सभी जानते हैं।
ऐसी सम्मानजनक स्थिति में यह बहुत आवश्यक है कि लघुकथा
से जुड़ने वाले नए लेखक कुछ विशेष अनुशासनों और तत्संबंधी कथा-धैर्य से परिचित हों
और सावधानियाँ बरतें। परंतु, इस लेख के प्रारम्भ में ही मैं यह स्पष्ट कर देना
आवश्यक समझता हूँ कि विश्वभर में समकालीन साहित्य-लेखन शास्त्रीय अनुशासनों का
अनुकरण मात्र न होकर जटिल संवेदनाओं की सहज प्रस्तुति का वाहक है। अत: निम्न में
से किसी भी अनुशासन को ‘पत्थर की
लकीर’ मानकर उस पर आँखें मूँदकर
चलने की बजाय स्व-विवेक से इनको अपनाने न अपनाने की आवश्यकता है।
कथा-धैर्य
‘कथा-धैर्य’ से तात्पर्य
है कि रचना में ‘वस्तु’, कथा-घटना, दृश्य-संयोजन, संवाद योजना, भाषा,
शाब्दिक सटीकता, शिल्प, शैली, बिम्ब एवं प्रतीक योजना आदि को उनकी पूर्णता में
प्रस्तुत होने दिया जाय, भले ही उसे अनेक बार संपादित करना पड़े। अनेक लघुकथाएँ
लेखकीय-उतावली के कारण उत्कर्ष तक पहुँचने से पूर्व ही समाप्त कर दी जाती हैं यह
एक सचाई है। वस्तुत: ‘लघुकथा’ के प्रति लेखक और पाठक दोनों में ‘पूर्ण कथा’ देने-पाने का विश्वास होना चाहिए; न कि यह कि रचना
आकार की दृष्टि से सीमा का अतिक्रमण क्यों कर गई? दस-बीस शब्द या दो-चार पंक्तियाँ
हटाकर रचना में ‘कसाव’(!) लाने-पाने की मानसिकता से दोनों का उबरना
आवश्यक है।
लघुकथा और सामान्य-जन
दुनियाभर में लघु-आकारीय कहानियों का चलन प्राचीन काल से ही रहा है, यह
निर्विवाद है। विष्णु
शर्मा कृत ‘पंचतन्त्र’ की कहानियाँ हों, जैन-कथाएँ हों, जातक-कथाएँ
हों, मोपासां की कहानियाँ हों, खलील जिब्रान की भाववादी कथाएँ हों या हितोपदेश,
कथा-सरित् सागर आदि की कहानियाँ—इनमें
से किसी भी कहानी को आप ‘कौंधकथा’ यानी फ्लैश-फिक्शन नहीं कह सकते। ये सब-की-सब
अपने-आप में पूर्ण कथाएँ हैं। ‘केवल
बहस करने के लिए बहस’ की निरर्थक
प्रवृत्ति से अलग ‘कुछ सार्थक
पाने हेतु जिज्ञासा’ की दृष्टि
से बहस हो तो सवाल करने वाले से अधिक आनन्द उत्तर देने वाले को आता है। गोस्वामी
तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ में उत्तरकाण्ड के अन्तर्गत
काकभुसुंडि-गरुड़-संवाद ऐसी ही सार्थक बहस है। तात्पर्य यह कि अपनी अहं-तुष्टि के
लिए कोई वैसा प्रयास कर भले ही ले, परंतु किसी भी तरह उनको सार्थक विस्तार दे नहीं
सकता; न ही उनके आकार को संक्षिप्त कर सकता है। ये कहानियाँ सार्वकालिक हैं और हर
आयु, हर वर्ग, हर वर्ण, हर देश और हर स्तर के व्यक्ति का न केवल मनोरंजन बल्कि
मार्गदर्शन भी करने में सक्षम हैं। सामान्य-जन के जीवन से जुड़ी होने, जिज्ञासा
बनाए रखने, जीवनोपयोगी होने, विभिन्न कुंठाओं से मुक्ति का मार्ग दिखाने का साहस
रखने, मनोरंजक होने आदि के गुण से भरपूर होने के कारण ये कथाएँ लोककंठी हो गयीं
यानी जन-जन के कंठ में जा बसीं। यह किसी भी रचना-विधा और उसके लेखक के जन-सरोकारों
का उत्कर्ष है कि वह इतनी लोककंठी हो जाय कि उसके लेखक का नाम तक जानने की
आवश्यकता अध्येताओं-शोधकर्ताओं के अतिरिक्त सामान्य जन को महसूस न हो। पं॰
रामचन्द्र शुक्ल द्वारा निर्धारित गद्यकाल से पूर्व की लाखों कथाएँ इस कथन का
सशक्त उदाहरण हैं। काव्य-क्षेत्र भी इस
कथन से अछूता नहीं है। विभिन्न रस्मो-रिवाजों से लेकर पर्वों-त्योहारों व आज़ादी की
हलचलों को स्वर प्रदान करते अनगिनत लोकगीतों के साथ-साथ इस काल में कथावाचक
श्रद्धाराम फिल्लौरी द्वारा रचित बहु-प्रचलित आरती ‘ॐ जय जगदीश हरे…’ भी इस कथन का सशक्त उदाहरण है जिसके रचयिता का नाम
अधिकतर लोग नहीं जानते और न ही जानने के प्रति जिज्ञासु हैं।।
चित्र : बलराम अग्रवाल |
क्लिष्ट बिंब-प्रतीक-संकेत योजना
यह सब कहने का तात्पर्य यह नहीं कि आप लोककथाएँ लिखें। उन्हें लिखने की
आवश्यकता नहीं है। उनका यथेष्ट भण्डार न केवल भारत बल्कि दुनियाभर के पास है तथापि
उनका पुनर्लेखन करने के लिए हर व्यक्ति स्वतंत्र है। ‘लघुकथा व सामान्य जन’ के अन्तर्गत कही बातों का तात्पर्य केवल यह बताना है
कि आमजन की दृष्टि में एक सफल ‘लघुकथा’ वह होती है जिसमें क्लिष्ट संकेत-मात्र न
होकर सहजग्राह्य कथानक समाहित हो। पाठक-मस्तिष्क पर उसे स्वयं समझ लेने की कलात्मक
गहराई न दिखाई जाए, उस पर ज्यादा बोझ न डाला जाय। इसके लिए आवश्यक है कि
संप्रेषणीय ‘वस्तु’ अथवा ‘विचार’
को सहज घटित हो सकने वाली किसी घटना में ढालकर प्रस्तुत किया जाय क्योंकि दुनियाभर
के लोग, वे सामान्य हों या प्रबुद्ध, घटना में रुचि लेते हैं, संकेत-मात्र में
नहीं। लेकिन ‘लघुकथा’ में बिम्ब, संकेत, प्रतीक आदि योजनाएँ इसकी
प्रभावशीलता एवं कलात्मकता को बढ़ाती हैं अत: इनकी क्लिष्ट प्रस्तुति से ही बचने की
सलाह दी जा रही है, इन्हें पूर्णत: अनावश्यक एवं त्याज्य मानने की नहीं। अभी तक
चर्चित हिन्दी की अधिकतर लघुकथाओं में इनका सहज प्रयोग हुआ है। चैतन्य त्रिवेदी की
‘खुलता बन्द घर’, सुकेश साहनी की ‘नंगा आदमी’, जगदीश कश्यप की ‘चादर’, जसवीर चावला की ‘लस्से’,
भगीरथ की ‘तुम्हारे लिए’, पृथ्वीराज अरोड़ा की दया, सतीश दुबे की ‘संस्कार’, बलराम अग्रवाल की ‘अलाव फूँकते हुए’, रूप देवगुण की ‘जगमगाहट’, दर्शन मितवा की ‘औरत
और मोमबत्ती’, मधुदीप की ‘हिस्से का दूध’, विक्रम सोनी की ‘बनैले सुअर’, रामनिवास मानव की ‘साँप’, सुभाष नीरव की ‘बारिश’
आदि कितनी ही लघुकथाओं को इस कथन के समर्थनस्वरूप प्रस्तुत किया जा सकता है।
नेपथ्य
‘समकालीन लघुकथा’
मानवीय-संवेदना की गद्यकथात्मक वह प्रस्तुति है जिसकी तुलना वीणा के तारों से की
जा सकती है। निर्धारित लम्बाई में भी वे जितने अधिक ढीले होंगे, वीणावादन उतना ही
बेसुरा और निरर्थक होगा। मोहक स्वर लहरी पाने के लिए उनकी लम्बाई को अनुशासित
अनुशासित रखना आवश्यक होता है। तारों की आवश्यकता से अधिक लम्बाई को वीणावादक पेंच
द्वारा कसकर नेपथ्य में भेज देता है। तात्पर्य यह कि वीणा के तारों कुछ लम्बाई ऐसी
भी होती है जिसका वादन-विशेष से कोई सम्बन्ध नहीं होता। समकालीन लघुकथा में भी घटना
के कितने भाग को प्रमुखता देते हुए(हाइ-लाइट करते हुए) कथामंच पर रखना है और कितने
भाग को ‘नेपथ्य’ में ले जाना है—इसे प्रतिष्ठित लघुकथाकारों की चर्चित लघुकथाओं के
अध्ययन-मनन के माध्यम से समझ लेना अति आवश्यक है। यह भी याद रखना आवश्यक है कि समकालीन लघुकथा
सूत्र-कथा, बीज-कथा, संकेत-कथा अथवा चुटकुला न होकर ऐसी सम्पूर्ण कथा-रचना है जो
अपने समय के समस्त जन-सरोकारों को अभिव्यक्ति देने के प्रति पूरी तरह सजग है।
पृथ्वीराज अरोड़ा की ‘कथा नहीं’, अशोक वर्मा की ‘क़ैदी’,
भगीरथ की ‘सोते वक्त’, सतीश दुबे की ‘प्रेमलाग’, चित्रा मुद्गल की ‘दूध’, पवन शर्मा की ‘बड़े बाबू और साहब’, रामकुमार आत्रेय की ‘खजुराहो की मूर्ति’, विष्णु नागर की ‘छुरा’,
सुभाष नीरव की ‘बाँझ’ आदि में नेपथ्य का निर्वाह देखा जा सकता है।
लाघव
‘लाघव’ से तात्पर्य
कथाकार का इस ओर सचेत रहने से है कि प्रस्तुत कथानक का कितना हिस्सा ‘वस्तु’ संप्रेषण की दृष्टि से लघुकथा के लिए यथेष्ट होगा, कितना नहीं। लघुकथाकार
कभी भी सम्पूर्ण घटना को लघुकथा का आधार नहीं बनाता बल्कि घटना के जितने अंश को ‘वस्तु’ सम्प्रेषण हेतु उपयुक्त समझता है उसे ही ‘पूर्णता’ प्रदान करता है। रचना में घटना के शेष अंशों की चर्चा करने का लालच वह
नहीं रखता। एक पुरानी कहावत के अनुसार—‘शेर का शिकार करने के लिए घर से निकलने वाले को सारे साजो-सामान के साथ
निकलना चाहिए, भले ही एकाध चीज फालतू हो जाय, कम न पड़े।’ ‘समकालीन
लघुकथा’ शेर के शिकार को निकलने
से पहले लादे जाने साजो-सामान के तौर पर पारम्परिक शैली की वाहक विधा नहीं है। यह
वैज्ञानिक-युग में पनपी कथा-विधा है। ‘एकाध चीज फालतू’ वाला
पुरातन सिद्धांत इसमें नहीं चलता। इसके लेखन के दौरान ‘वस्तु-प्रेषण’ के दायें-बायें जितनी कथा, जितने संवाद और जैसा परिवेश अपेक्षित है, लेखक
के मस्तिष्क में उससे अधिक कुछ नहीं होना चाहिए। अनेक लघुकथाओं में यह कमी देखने
को मिल जाती है कि लेखक अपना कोई विचार-विशेष, सिद्धांत-विशेष, बिम्ब-विशेष अथवा
संदेश-विशेष प्रस्तुत करने के लालच से स्वयं को रोक नहीं पाता है और रचना अनावश्यक
रूप से थोपे गये अतिरिक्त बोझ के कारण प्रभावहीन हो जाती है। सुधा ओम धींगरा की
लघुकथा ‘मर्यादा’ इस असावधानी को देखा जा सकता है। ‘लाघव’ के निर्वाह को युगल की ‘मोमबत्ती’, चित्रा मुद्गल की ‘राक्षस’,
मधुदीप की ‘विवश मुट्ठी’, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की ‘खूबसूरत’, विपिन जैन की ‘कंधा’,
भगीरथ की ‘शर्त’ आदि सरीखी लघुकथाओं के अध्ययन से समझा जा
सकता है।
‘नेपथ्य’
और ‘लाघव’ लघुकथा के आकार को सीमित व अनुशासित रखने वाले प्रमुख
अनुशासन माने जा सकते हैं।
यथार्थ-घटना और कथा-घटना
फोटो:बलराम अग्रवाल |
कल्पना की उड़ान
कथाकार में चिन्तन-मनन के ही नहीं, कल्पनाशीलता के गुण का विकास होना भी
आवश्यक है। उसका
सोच के इस बिंदु से गुजरना और लगातार गुजरते रहना अति आवश्यक है कि जिस स्थूल-घटना
को वह कथा-घटना के रूप में प्रस्तुत करना चाहता है, रचना के तौर पर वह अन्य
कथाकारों द्वारा प्रस्तुत किस बिंदु पर अलग हो सकती है और क्यों? बलराम की लघुकथा ‘बहू का सवाल’ में घटना सिर्फ यह है कि विवाहोपरान्त वर्षों तक बेटे
के घर में सन्तान उत्पन्न न होने के कारण ससुर उसका दूसरा विवाह करने की बात कहता
है और बहू उसके इस विचार का प्रतिवाद करती है। सुकेश साहनी की ‘गोश्त की गंध’ में एक सामान्य-सी घटना, जो प्रत्येक विवाहित पुरुष
के जीवन में घटित होती है, है। अशोक भाटिया की ‘रिश्ता’, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु की ‘ऊँचाई’, भगीरथ की ‘दाल-रोटी’, श्याम सुन्दर अग्रवाल की ‘सन्तू’,
श्याम सुन्दर दीप्ति की ‘हद’, चित्रा मुद्गल की ‘पहचान’,
रामकुमार आत्रेय की ‘पिताजी
सीरियस हैं’ भी सामान्य घटना पर
ही आधारित हैं और सतीशराज पुष्करणा की ‘पुरुष’ भी। ऐसी अन्य भी
सैकड़ों लघुकथाओं के शीर्षक उदाहरणार्थ प्रस्तुत किए जा सकते हैं। कहने का तात्पर्य
यह कि अधिकतर स्तरीय लघुकथाएँ जीवन में सामान्यत: घटित होने वाली घटना को केन्द्र
में रखकर रची गई हैं घटना-विशेष को केन्द्र में रखकर नहीं। लघुकथा को स्तरीयता
घटना-प्रस्तुति नहीं, बल्कि प्रस्तुतिकरण से जुड़ा चिन्तन और फेंटेसी प्रदान करते
है।
बावजूद इसके कि लघुकथा में किसी घटना-अंश का अपनी
सम्पूर्णता में होना आवश्यक है, इसके लिए हमेशा सड़कों या समाचार-पत्रों की धूल
फाँकने की आवश्यकता नहीं है। यह केवल प्रारम्भिक स्थिति हो सकती है कि कथा-लेखन के
लिए लेखक घटनाओं, समाचारों या समाचार-पत्रों के पीछे भागे। जैसे-जैसे आप अभ्यस्त
होते हैं, अपने चिन्तन और विचार-विशेष के चारों ओर घटना बुनने में भी पारंगत हो
जाते हैं। समाचार-लेखक नहीं रहते, कथा-लेखक बन जाते हैं। तथ्यों के बीच बने रहने,
उन्हें देख पाने की सुविधा अथवा क्षमता अलग
बात है और उन्हें कथारूप में प्रस्तुत कर पाने की क्षमता अलग। (शेष आगामी अंक
में…)
('सरस्वती सुमन', देहरादून के लघुकथा विशेषांक में प्रकाशित)
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